Friday, January 30, 2015

गजेन्द्र स्तुति


कल रात वह ग्यारह बजे सोयी. नन्हा बारह बजे तक जगता है, सो उसे लगा कि कुछ देर तो उसके साथ जगा जा सकता है. भागवद् पढ़ती रही, नारद मुनि ने युधिष्ठिर को उपदेश दिए हैं कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रम में किस प्रकार आचरण करना चाहिए. अद्भुत उपदेश हैं जो हर युग के लिए अनुकूल हैं. शाब्दिक अर्थ न लेकर यदि यदि भाव को समझकर आज के समय के अनुसार उसे स्वीकारें. कल शाम को क्लब भी गयी. कोरस का अभ्यास किया, आज भी जाना है और कल मीटिंग है जिसके लिए उसे कविताओं का चुनाव करना है. आज ‘जागरण’ में सुना, प्राणायाम, योग साधना, ध्यान आदि करने से आत्मा का विकास होता है, सुप्त शक्तियाँ जागृत होती हैं. आध्यात्मिक केंद्र खुलते हैं, शरीर स्वस्थ होता है, मन बलवान तथा बुद्धि प्रज्ञा में बदलती है. कृष्ण ने भी तो कहा है जो उनकी शरण में जाता है उसे वह बुद्धियोग प्रदान करते हैं. कृष्ण को भजना कितना सहज है जैसे साँस लेना और कितना प्रभावशाली ! अभी-अभी तेजपुर की aol परिवार की सदस्या तथा दीदी से बात की. दोनों यात्रा पर जा रही हैं, पहली ऋषिकेश जा रही हैं वह भी aol की टीचर बनना चाहती हैं, कोर्स के लिए जा रही हैं. दीदी घर जा रही हैं किसी शादी में सम्मिलित होने. दोनों ने सद्गुरु की बात की. अगले महीने में वह देहरादून आ रहे हैं और अप्रैल में इटानगर जायेंगे, उससे पहले गोहाटी भी. सद्गुरु के जीवन में आने से कितना परिवर्तन आ गया है, मन निवृत्ति की ओर जा रहा है और भगवद धाम की ओर प्रवृत्ति हो रही है. जीवन में पुरुषार्थ हो तो भगवान भी दूर नहीं रह सकते.

जो जिसका अंश है वह उससे दूर नहीं रह सकता, जैसे धरती से उत्पन्न वस्तुएं धरती की ओर आकर्षित होती हैं वैसे ही मानव उस चैतन्य का अंश होने के कारण उसी की ओर आकर्षित होते हैं और उस तक पहुंचने में उन्हें कोई प्रयास भी नहीं करना होता, यह उतना ही सरल है जितना ऊपर से गिरायी वस्तु का नीचे गिरना, बल्कि ईश्वर से दूर जाने के लिए हमें अथक प्रयास करना पड़ता है. लेकिन संसार ऐसे ही चलता है यानि विपरीत दिशा में. आज पूर्णिमा है, सुबह ‘क्रिया’ की. जून को उठाने की कोशिश की, पर उनको शिकायत थी कि रात ठीक से सो नहीं पाए. शरीर को इतना आरामपसंद बनाना भी ठीक नहीं है, खैर उसे अपनी कमियों की ओर देखना चाहिए न कि उन्हें अनदेखा करना करना चाहिए, उसे ही पहले उठ जाना होगा, और फिर जून को जगाना. जैसा पिछले कुछ महीनों से वह करते आ रहे थे. नन्हा पढ़ाई में व्यस्त है, शनिवार से उसकी परीक्षाएं आरम्भ हैं सिर्फ दो दिन रह गये हैं. कल शाम वे रिहर्सल के लिए नहीं गये वर्षा होने लगी थी, बाहर बरामदे में बैठकर सफेद फूलों वाले वृक्ष को देखते रहे. रात को भागवद में गजेन्द्र की कथा पढ़ी, कितनी अच्छी स्तुति करता है, उसे तो ऐसी सुंदर स्तुतियाँ नहीं आतीं. ईश्वर के नाम का सुमिरन ही चलता रहे तो संतोष होता है. उसकी कृपा होने पर आँखों में उसकी छवि दिखायी देती है, मन शांत रहता है, बुद्धि प्रज्ञा में बदल जाती है और आत्मा मुखर हो जाती है. आत्मा जो ज्ञान, आनंद, प्रेम और शक्ति का अक्षय भंडार है, ये सब ईश्वर से जुड़े रहने पर है !


कृष्ण आदि देव हैं, जगत के आधार हैं, चैतन्य के ऊपर ही जड़ टिका है, सब कुछ प्रकृति के गुणों के अनुसार हो रहा है, जो उनकी अध्यक्षता में काम करती है. वे निमित्त मात्र हैं, कृष्ण की इच्छा से ही सब कुछ होता है., वह उन्हें एक क्षण में मुक्त कर देता है. सब कुछ उस पर छोड़ दें तो योग-क्षेम का निर्वाह करता है. उसके लिए सब कुछ सम्भव है, वही तो है बस एक मात्र स्वयं जैसा, कृष्ण उसके साथ थे कल, और हर क्षण हैं, उन्हीं ने उसे अभय दिया है, इस दुनिया में भय करने का कोई कारण है ही नहीं, चिंता का अथवा दुःख का भी कोई भी वाजिब कारण नहीं है. यह तो उसका ही खेल है, उसकी माया है, उन्हें उसकी माया से मोहित होने की क्या आवश्यकता है, वह स्वयं ही उन्हें भीतर से इस माया से मुक्ति पाने निर्देश देता रहता है. इस खेल के नियम भी तो उसी के बनाये हुए हैं, कृष्ण को अपने जीवन का केंद्र बना लें तो जीवन के सारे शून्यों को अर्थ मिल जाता है. भौतिक सुख भी आध्यात्मिक हो जाते हैं. धन, बुद्धि और मान हजार गुना बढ़ जाते हैं जब उस एक कान्हा को कोई अपना सखा मान लेता है, वह जो अचिन्त्य है, रहस्यमय है, विशाल है, अनंत है, सूक्ष्मतम है, वह अपने को हजारों हजारों रूपों में विस्तारित कर सकता है, वह जिसके वे अंशी हैं, जो उनका अपना आप है, फिर दूरी का, भिन्नता का, डर का कोई प्रश्न ही नहीं उठता. उसके निकट जाना तो सहज है जैसे पंछी का गगन में उड़ना, सूर्य का प्रकश देना और बूंद का सागर में मिलना...उन्हें सहज होकर इस जग में रहना है, सहज होकर कृष्ण से प्रेम करना है.श्वास-श्वास में उसी का नाम लेते हुए, मन उसी के सुंदर रूप में लगाये हुए, बुद्धि को प्रज्ञा में बदलते हुए, तो जीवन एक उपहार बन जाता है और मृत्यु एक वरदान !  

Thursday, January 29, 2015

इदुलजुहा की रौनक


कल वह छह बजे से थोड़ा पहले उठी, दिन भर संसार का संग किया सो रात को देखे स्वप्न भी ईश्वर के नाम से संयुक्त नहीं थे. कल रात सिर में दर्द था, उस क्षण उसे सचमुच ही संसार दुखों का घर लग रहा था, जैसे शास्त्रों में वर्णन किया गया है. मन बहलाने के लिए वे चाहे लाख प्रसन्नता के उपाय कर लें लेकिन ख़ुशी टिकती नहीं, उसके लिए तो गोविन्द का ही आश्रय ही लेना पड़ेगा. उसने कृष्ण से प्रार्थना की इससे मुक्ति की ! इस जीवन का मोह नहीं रह गया है उसे, किसी भी क्षण इस कठोर दुनिया से उठ जाने के लिए तैयार है लेकिन अगला जन्म भी न हो ...इसकी गारंटी नहीं है सो...कृष्ण को आर्त भक्त नहीं भाते तो सोचा ज्ञान का आश्रय लेना चाहिए. यूँ अगर छोटी-मोटी बातों से मन व्यथित रहा तो मार्ग और भी लम्बा हो जायेगा. इस संसार में तो कहीं ठौर नजर नहीं आता, होश में आ चुके को तो कतई नहीं, पल-पल रंग बदलता है यह जग..स्वार्थ की भाषा बोलता है, पर कृष्ण की नजर से देखो तो कृष्णमय नजर आता है. फिर सब में उसी का रूप और सभी उस पथ के राही दीखते हैं. सब उसी के बनाये खेल के पात्र हों जैसे, तब कोई भेद नहीं रह जाता, कोई आक्रोश नहीं, यह सब एक महानाटक लगता है जिसके सूत्रधार कृष्ण  हैं, और तब मन शांत हो जाता है. अपनेप्रति, सम्बन्धों के प्रति और कर्त्तव्यों के प्रति सजग ! इन्द्रियां तब मन में, मन बुद्धि में, बुद्धि आत्मभाव में स्थित हो जाती है. तन फूल की तरह हल्का, मन रुई के फाहों सा ! कहीं कोई स्थूलता नहीं, कोई भारीपन नहीं, कोई अलगाव नहीं, वाष्प वत आत्मा और उसके निकट परमात्मा..   परसों वह उस सखी के साथ मृणाल ज्योति गयी थी. आज उसने बताया कि अभी वह स्वयं को इसके लिए तैयार नहीं पा रही, वह उस दिन परेशान रही, असहाय बेबस, बच्चों को देखना उससे सहन नहीं हुआ. नूना को भी उस रात स्वप्न आया कि आग लगने पर बच्चों को छोड़कर वह स्वयं अपनी जान बचाने के लिए भाग आती है.

कोई जो चाहता है, वह होता नहीं, जो होता है वह भाता नहीं और जो भाता है वह टिकता नहीं...इस बात को वे जितनी गहराई से समझ लें उतना ही जीवन सरल व सरस होगा. कृष्ण कहते हैं, मन में प्रसाद हो तो यह मानसिक तप है. करने की शक्ति, जानने की शक्ति और मानने की शक्ति सबके भीतर है, जिनका सदुपयोग करना है. कृष्ण की गीता अद्भुत है, विश्व में अनोखा ग्रन्थ है यह, पढ़ो तो लगता है कृष्ण सम्मुख बैठे हैं और प्यार से समझा रहे हैं. कितने भिन्न-भिन्न कोण से वह उन्हें समझाते हैं. कभी थोडा कठोर होते हैं कभी आश्वस्त करते हुए स्नेह देते हैं, कृष्ण की तरह उनकी बोली भी निराली है ! अभी बहुत कुछ सीखना शेष है, ज्ञान का अथाह भंडार सम्मुख पड़ा है, उसमें से मोती चुगने हैं.

कल एक आध्यात्मिक पत्रिका का अंक मिला, परसों भी एक अंक मिला था, छोटी ननद से बात हुई तो पता चला उन्होंने ही subscribe करायी है. आज मौसम ठंडा है, कल रात आंधी-तूफान और वर्षा हुई. कल शाम ही उन्होंने भिंडी के बीज लगवाये थे, पानी डालने का काम प्रकृति ने अपने ऊपर ले लिया. शाम को एक सखी के यहाँ जाना है कल उनकी शादी की सालगिरह है, परसों उन्हें यात्रा पर जाना है सो आज ही मना रहे हैं. उसे भी हेयर कट के लिए जाना है, मन के साथ-साथ देह की साज-संवार तो करनी ही पड़ती है. मानव का दुर्लभ तन ईश्वर ने ही दिया है !

कल इदुलजुहा है, उनकी नैनी के यहाँ ढेरों मेहमान आये हैं, जिनकी वह खातिरदारी कर  रही है. जून का ऑफिस बंद है. उन्हें तिनसुकिया जाना है, उसकी किताबें आ गयी हैं, जिन्हें वहाँ से लाना है. सुबह एक परिचिता के यहाँ कोरस में गाया जाने वाला गीत लेने गयी. उसे गले में खराश लग रही थी सो कुछ दिनों के लिए दही खाना बंद किया है आज से, जून ने भी कुछ दिनों से दूध-दही बंद किया है. उम्र के साथ-साथ खान-पान में कुछ परिवर्तन तो करने ही होंगे.


Wednesday, January 28, 2015

गुलाब वाटिका




Happy valentine day  जून ने आज सुबह कहा और कहते हुए वह हँस भी रहे थे और वह सोच रही थी कि वह उससे नाराज हैं. मन स्वयं ही अपने मत का शिकार हो जाता है. खुद के बनाये जाल में फंस जाता है. अपनी ही कामना का फंदा उसके गले में पड़ता है, तीनों गुणों के वशीभूत होकर वह संकल्प-विकल्प के चक्रव्यूह में फंस जाता है. सुबह पिता से बात की, छोटे भाई से भी बहुत दिनों के बाद बात हुई. उनकी पीड़ा अभी घटी नहीं है, समय के साथ-साथ सब ठीक हो जायेगा. नन्हे की परीक्षाओं में मात्र दो हफ्तों का समय रह गया है, उसकी पढ़ाई ठीक चल रही है. शाम को जून और वह रोज टहलने जाते हैं, गुलाब वाटिका में नित नये गुलाब खिलने लगे हैं. आज लेडीज क्लब की एक सदस्या से बात की, शनिवार को वह और एक एक सखी उनके साथ ‘मृणाल ज्योति’ जायेंगे, जो विशेष बच्चों का एक स्कूल है. पिछले कई दिनों से सुबह डायरी खोलने का समय नहीं मिल पाता है. भागवद पढ़ रही है, सारा ध्यान कृष्ण की ओर लगा रहता है. नारद जी ने भक्ति पर कितने सुंदर श्लोक कहे हैं जो सभी की समझ में आ सकें ऐसी सरल भाषा में श्री प्रभुपाद जी द्वारा अनुदित हैं. भगवद की इतनी सुंदर टीका और नहीं मिलेगी. यथारूप भगवद गीता भी उसे डाक द्वारा मंगवानी है. जीवन के अनबूझ रहस्य जैसे सुलझते जा रहे हैं, इसमें अद्भुत ज्ञान छिपा है. कृष्ण उनके अंतर में परमात्मा रूप से विद्यमान हैं, यह ज्ञान आश्वस्त करता है. उन्हें मृत्यु से भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं क्योंकि गुणात्मक रूप से जीवात्मा और परमात्मा एक ही हैं, परमात्मा की शक्ति अपार है !

आवश्यकताएं कम हों तो जीवन सरल हो जाता है. आज बाबाजी खुदीराम बोस की बात बता रहे हैं. फांसी की सजा मिलने पर भी उन्होंने अपना पूर्व सहज हास्य स्वभाव नहीं छोड़ा. मान-अपमान, सुख-दुःख, हानि-लाभ के समय मन में समता बनी रहे तभी वे अपने सहज स्वभाव में रह सकते हैं. संसारी रसों का भोग करते-करते तन-मन क्षीण हो जाता है फिर भी वासना बनी रहती है, किन्तु ईश्वरीय रस का पान करने से शक्ति का अनुभव होता है और वासनाओं का नाश होता है. सुबह ‘जागरण’ में एक वेद मन्त्र का भाव सुना, देवताओं का आशीर्वाद उन्हें मिलता है जो सजग हैं, जागृत हैं, सचेत हैं, पल-पल सचेत रहते हैं. संसार की आसक्ति न रहे और ईश्वर के प्रति प्रीति बढ़ती जाये यही उनके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए. जीवन भर मानव शरीर की देखभाल करता है पर अस्वस्थता से बचना मुश्किल है, जो वह वास्तव में है चेतन, मुक्त आत्मा..उसे कोई रोग नहीं व्याप्ता.
नुक्ते की हेर फेर से खुदा से जुदा हुआ
नुक्ते को ऊपर रख दें तो जुदा से खुदा हुआ

गुरू कितना अनमोल ज्ञान प्रदान करते हैं, जीवन में सद्गुरू नाव की पतवार की तरह है अन्यथा नाव को डूबने से कोई नहीं बचा सकता. ईश्वर उन्हें सही मार्ग पर लाने के लिए, उनके अहंकार को दूर करने के लिए सुख-दुःख के झूले में झुलाता है. वह जानता है उनके लिए क्या उचित है और क्या अनुचित ! वे अपनी सामान्य बुद्धि से ईश्वर को समझ नहीं पाते पर वह परमात्मा रूप में उनके भीतर है और पल-पल उनकी खबर रखता है ! दुनियादारी में आकंठ डूबा हुआ व्यक्ति यह विचार भी नहींकरता कि एक दिन यह दुनिया उसकी आँखों के सम्मुख नहीं रहेगी, मृत्यु का घना अंधकार जब चारों ओर छा जायेगा, शरीर शक्तिहीन हो जायेगा तब कृष्ण के सिवा और कोई साथ नहीं देगा !

   

  

Tuesday, January 27, 2015

नटनागर का नृत्य


अभिमान में न आना इतना ख्याल रखना
यह राह बहुत कठिन है, पाँव संभाल रखना !

उसे अपने ज्ञान पर, अपनी भक्ति पर अभिमान होने लगा था और गुरू चेताने के लिए आ गये हैं. किसी के शब्दों पर मुरझाना या खिलना अहंकार के पोषण के कारण ही तो है. प्रज्ञा का अपराध ही इस स्थिति में डालता है. बुद्धि का विकास करना है इसका लक्षण है अनाग्रह, सत्य की खोज में लगे व्यक्ति को दुराग्रही या पूर्वाग्रही नहीं होना चाहिए. अपनी बात को ऊपर रखने की व्यर्थ चेष्टा यदि है तो बुद्धि अभी विकसित नहीं हुई है. सत्य को स्वीकार करना ही बुद्धिमत्ता है. प्रज्ञा का दोष न हो तो मन समत्व योग में स्थित रहता है. ऐसा अडिग हो सके अपना मन जो अनुकूल व प्रतिकूल दोनों ही परिस्थितियों में समान व्यवहार करे तो ऐसा मन ध्यानस्थ है. ऐसा ही मन भक्ति कर सकता है, भक्ति का मार्ग इतना सहज नहीं है, सिर कटाकर ही इस मार्ग पर चला जा सकता है. आज जून शिवसागर गये हैं, नन्हा घर पर ही है, टीवी पर ‘जागरण’ आ रहा है.

गलतफहमियों में जिन्दगी गुजरी
कभी तुम न समझे, कभी हम न समझे

मन अहंकार से मुक्त हो तो छोटी-छोटी बातें पानी पर लकीर की तरह बेअसर हो जाती हैं, साथ ही दूसरों की व्यर्थ बातों पर ध्यान न देने की कला भी आती है व्यर्थ के विवादों से बचने का सबसे अच्छा उपाय है कि भीतर के आँख और कान खुले रहें, बाहर के कान और नेत्र यदि बंद भी रहें तो कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है.
आज तीस जनवरी है, बापू की पुण्य तिथि ! सुबह-सुबह भजन सुना, वैष्णव जन तो तेने कहिये....नरसिंह मेहता का यह भजन मन को ऊंचे केन्द्रों पर ले जाता है. प्रेम सिखाता है, देना सिखाता है. सद्गुरु का यही काम है कि वह अपने हृदय की उदारता और प्रेम साधकों के अंतर में प्रवाहित करता है. उनके दिल-दिमाग को विस्तार देता है. वैदिक ऋचाओं का संदेश पहुंचाता है. सद्गुरु कहते हैं, भागवद समाधि भाषा है, उसे पढ़कर हृदय में रस उभरने लगता है, ‘बिगड़ी जन्म अनेक की, सुधरे अभी और आज’ !

आज फरवरी का पहला दिन है, सुबह जल्दी उठे वे. नन्हे की परीक्षा है, साइंस ओलम्पियाड. कल दीदी का पत्र आया, बड़े भांजे को अखिल भारतीय परीक्षा में प्रथम स्थान मिला है कम्प्यूटर की ‘c’ परीक्षा में. अब यह c में क्या सिखाते हैं, o लेवल क्या है उसे पता नहीं पर बहुत ख़ुशी हुई उसका नाम अख़बार में छपा देखकर. अभी-अभी ‘आत्मा’ में मुम्बई स्थित मन्दिर में आने का निमन्त्रण मिला, कीर्तन में शामिल होने व नृत्य देखने का भी. आज गुरुमाँ ने भी आधा घंटा नृत्य करने की सलाह दी जो सब कुछ भुला कर किया जाये. आँखें बंद हों और हृदय की उमंग इतनी तीव्र हो कि पैर स्वयंमेव ही थिरक उठें. परसों दोपहर भागवद् पढ़कर कुछ देर के लिए उसे भी ऐसा अनुभव हुआ था ! अभी कुछ देर पहले एक परिचिता का फोन आया, इस महीने क्लब में उनके एरिया को कार्यक्रम प्रस्तुत करना है, उसे कविता पाठ करना है तथा कोरस में भी भाग लेना होगा.
 


भुनी हुई शकरकंदी


वे कल्याण के पथ पर चलने वाले बनें, शुभ संकल्प उनके मनों में उठें” “परमात्मा उनकी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर ले जाने की प्रेरणा बनें”, “सारथि बन कर बुद्धि को हांकने वाले बनें” हजारों वर्ष पूर्व वैदिक ऋषियों ने यह प्रार्थना की थी जो आज भी प्रेरणा देती है. सद्विचार और सद्वाक्य उन हीरे-मोतियों की तरह हैं जिनसे मन का श्रंगार करना है. अशुद्ध विचारों को न तो प्रश्रय देना है न पोषण करना है क्योंकि एक बार अतिथि की तरह आया अशुभ संकल्प धीरे-धीरे किरायेदार और फिर मालिक बन बैठता है. मन यदि मधुसूदन का मनन करे तो वहाँ शुभ संकल्प ही उठेंगे तो सर्वप्रथम मन को उस मनमोहन का दीवाना बनाना है. वह जल्दी किसी को मिलता नहीं और जब एक बार मिल जाये तो बिछड़ता भी नहीं. कल शाम भागवद् में कृष्ण द्वारा उद्धव को दिए गए उपदेश पढ़े, उसकी बातें अनोखी हैं. किस-किस तरह से कथाओं के माध्यम से वह समझाता है कि सांसारिक संबंध क्षणिक हैं, वे अपने प्रतिदिन के जीवन में अनेकों बार इसे देखते, जानते तथा समझते हैं, पर फिर भूल जाते हैं और फिर पूरी तरह से संसार में डूबते चले जाते हैं. उनके हृदयों में नित्य सद्गुरु का प्रवचन चलता रहे तभी मार्ग प्रशस्त होगा. कबीर हों या नानक सभी ने इस बात को समझाया है और आज भी सद्गुरु उन्हें समझा रहे हैं. ईश्वर उनके अंतः करण में प्रकट होना चाहते हैं, वे स्वयं ही अपने हृदय का मार्ग अवरुद्ध कर लेते हैं. भक्ति का रस हृदय में प्रकट हो जाये तो संसार के सारे रस फीके लगने लगते हैं, क्योंकि शाश्वत के साथ सनातन संबंध है, अनेक जन्मों के बाद भी वह संबंध टूटता नहीं है, वह उनकी प्रतीक्षा कर रहा है और उसने उस कान्हा को अपना मीत बनाया है. प्रकृति उसी चैतन्य की अध्यक्षता में काम करती है, वही इस जग का आधार है !

कृष्ण ने कहा है, “उद्धव ! जो लोग समस्त भौतिक इच्छाएं त्याग कर अपनी चेतना मुझमें स्थिर करते हैं वे मेरे साथ उस सुख में हिस्सा बंटाते हैं जो इन्द्रिय तृप्ति में सलंग्न मनुष्यों के द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता”. भागवद् में इस तरह के अनेकों श्लोक हैं जिन्हें पढ़कर मन भावविभोर हो जाता है. कृष्ण कितने उपाय बताते हैं और उन्हें सांत्वना देते हैं वह अपने भक्त के पूर्ण कुशल-क्षेम की जिम्मेदारी ले लेते हैं ! और वह स्वयं अपना अनुभव देते हैं, उन्हें पाना कितना सहज है और एक बार मिलने के बाद कभी बिछड़ते नहीं, इस जन्म में ही नहीं मृत्यु के बाद भी और जन्म जन्मान्तर तक ! गुरूमाँ कहती हैं देर साधक की ओर से है उसकी ओर से नहीं, कृष्ण को कोई प्रेम करे तो वह स्वयं ही उसके चक्कर काटने लगता है ! द्रौपदी कृष्ण को अपना सखा मानती थी सो उसकी पुकार पर वह सदा आते हैं, पर उसके लिए पहले कृष्ण का भक्त बनना होगा. संसारी बनकर कोई उसे पा नहीं सकता. संसारी के हृदय में हजारों कामनाएं और इच्छाएं होती हैं, यदि उसमें कहीं एक इच्छा यह भी हो कि ईश्वर उसे मिलें तो वह इन इच्छाओं की भीड़ में दबकर रह जाएगी पर भक्त के मन में कोई इच्छा नहीं होती, वह सिर्फ भक्ति के लिए भक्ति करता है, प्रेम के लिए प्रेम करता है. उसके जीवन में विशुद्ध आनंद  है, निर्भयता है, आत्मविश्वास है, मुक्ति है ! दिन-प्रतिदिन के जीवन में ऐसे अनेक क्षण आते हैं जब आत्मा पर मैल का धब्बा लगता है, भक्ति तत्क्षण उस धब्बे को धो देने की प्रेरणा देती है. मोह रूपी इस जंगल में वे रास्ता खो देते हैं तो ईश्वर ही उन्हें मार्ग बनाते हैं, कल रात भी स्वप्न में कृष्ण की स्मृति बनी रही !


पिछले दो दिन कुछ नहीं लिखा. शनिवार को गणतन्त्र दिवस था, सुबह संगीत सीखा, फिर वे परेड देखने में व्यस्त हो गये. जो सदा की तरह भव्य थी. कल इतवार था सो नहीं लिख सकी. आज पूर्णिमा है, जून ने सुबह शकरकंदी भून कर दी. कल एक साधू को भिक्षा नहीं दे पायी, इसका बहुत अफ़सोस हुआ. शाम को छोटी बहन व भाभी, भैया के फोन आये, सभी ने माँ को प्रथम पुण्यतिथि पर याद किया वह ही सुबह से भूली रही. गुरूजी की बात याद आगयी कि जो सबसे ज्यादा जुड़ा होता है वही सबसे ज्यादा विरक्त होता है या आजकल उसका मन कृष्ण के रंग में इतना रंग गया है कि उसे सांसारिक मोह-माया नहीं व्यापते. पर कृष्ण ने यह भी कहा था कि  स्व को इतना विस्तृत करना है कि उसमें सभी समा जाएँ ! स्व का विस्तार भी बेतुका नहीं होना चाहिये, संतुलित होना चाहिए. एक तालमेल होना चाहिए तो जीवन मधुर हो जाता है, प्रेम की धारा प्रवाहित होने लगती है. 

Friday, January 23, 2015

पीली ऊन का स्वेटर


आज बहुत दिनों के बाद बल्कि हफ्तों के बाद उसने वस्त्रों की आलमारी सहेजी और कुछ और कार्य किये जो कई दिनों से किये जाने थे. वह अपने अंतर्जगत में इतना डूब गयी थी कि बाहरी दुनिया एक स्वप्नवत् प्रतीत होती थी. लेकिन आज उसने अपनी प्रतिबद्धताओं पर पुनः सोचा. हफ्तों के सूखे मौसम के बाद पिछले तीन दिनों से वर्षा हो रही है. एक सखी का फोन आया, उसने एक को फोन किया जो aol का एडवांस कोर्स करने तेजपुर जा रही है. दोनों बुआ के यहाँ से पत्र आये हैं. उन्हें जवाब देने हैं. जून को आज सेंट्रल स्कूल में दसवीं के बाद होने वाली कोचिंग के सिलसिले में होने वाली एक मीटिंग में जाना है. अगले वर्ष से नन्हे को उसमें जाना होगा, स्कूल के बाद कोचिंग से उसकी व्यस्तता काफी बढ़ जाएगी पर यही जीवन है. कल उसका गणित का (प्री बोर्ड) पेपर है. आज सुबह टीवी पर एक कार्यक्रम देखा, “yoga for life”. आज लेडीज क्लब के सेक्रेटरी का फोन आया, पूछ रही थी कि क्लब के वार्षिक कार्यक्रम में सम्मिलित न होने का क्या कारण है. उसने नन्हे की परीक्षाओं की वजह बताई. जून ने ‘महासमर’ वापस कर दी और भागवद् लाये हैं. पढ़ने में उसे अवश्य ही आनंद आयेगा और लक्ष्य की प्राप्ति भी होगी.

कल रात नींद खुली तो आभास हुआ मन में भागवद् चल रहा था. कल शाम को ही पढ़ना शुरू किया है. कृष्ण की कथाएं पढ़ने से अद्भुत शांति मिलती है, अनोखी है उनकी कथाएं ! कल शाम जब जून मीटिंग से आये तो नन्हे को वहाँ की कार्यवाही के बारे में बताया. कालेज में प्रवेश के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी और तब सफलता निश्चित है. टीवी पर ‘जागरण’ आ रहा है, जब कोई उससे जुड़ता है तो जीवन रसपूर्ण हो जाता है, कभी न खत्म होने वाली आनंद की अजस्र धारा बहने लगती है. संसार से जुड़ो तो झटके खाने पड़ते हैं जबकि प्रभु से जुड़ने पर जीवन जैसे एक हिंडोला बन जाता है या नदी की शांत जल धारा..बाबाजी भी आ गये हैं, कल से उन्होंने ‘योग वसिष्ठ’ पर बोलना शुरू किया है. कह रहे हैं-
 अन्न बिगड़े तो मन बिगड़े
पानी बिगड़े तो वाणी बिगड़े
अनवरत होती वर्ष से मौसम ठंडा हो गया है. आज ऐसे भीगे, ठंडे मौसम में जून मोरान  जा रहे हैं. नन्हा भी स्कूल गया है. कल रात भी देर तक मन में भागवद् की कथाएं विचरती रहीं. कल इतवार था, वर्षा कुछ देर को थमी तो वे दूर तक टहलने गये. नन्हे का आज विज्ञान का इम्तहान है. कल जून ने उसके कहने पर ऊन लाकर दी, चमकदार पीले रंग में, जिससे नैनी अपने नाती का स्वेटर बनाएगी. पिछले दिनों उसे ऐसा महसूस हुआ वह हर वक्त खिंची-खिंची सी रहती है, उसके भीतर का रस सूखता जा रहा है, रसहीन व्यक्ति विस्फोटक रूप धारण कर सकता है. तभी तो कहते हैं ईश्वर को याद करो जो रस का स्रोत है, वह प्रेम, ज्ञान और आनंद का भी स्रोत है., वह ऊर्जा का भी स्रोत है बल्कि वह तो सब कुछ का स्रोत है. जितना जितना वे उससे जुड़े रहेंगे सजग रहेंगे, रसपूर्ण रहेंगे. आत्मा में स्थित रहेंगे. वही तो चेतना का आधार है, वह है तो जगत है. स्वयं को नित्य मानकर तीन गुणों के पार होना है, वृत्तियाँ आती-जाती हैं, उनसे सुख मिले ऐसी आकांक्षा व्यर्थ है. जीवन माधुर्य, आनंद और रस के सागर में डूबने के लिए है !
उसे ढेर सारे काम करने हैं, सो लिखना बंद करके उनमें जुट जाना होगा.  
  

Thursday, January 22, 2015

श्री अरविन्द का वेद रहस्य


उसने प्रार्थना की, उनका चित्त विषमता मुक्त और कामनाओं से मुक्त रहे. भौतिक सौन्दर्य के पीछे छिपे उस दिव्य सौन्दर्य का अनुभव करे. तीनों गुणों से परे उस गिरधर कान्हा का ध्यान उन्हें हो जो चिन्मय है. अज्ञान का आवरण जो उनकी आत्मा ने ओढ़ा हुआ है, छिन्न-भिन्न हो जाये, सहज प्रेम का स्रोत जो अंतर में प्रवाहित हो रहा है वह सारी बाधाएँ पारकर जीवन में बहने लगे, और यह तभी सम्भव है जब अनंत का सुख उनके हृदयों में समा जाये, मन भी तो अनंत है, उसकी गति अगम्य है, अपार है तो उसे तृप्त वही तो कर पायेगा जो स्वयं अगम्य है, वही कान्हा उसका सखा है !

ईश्वर के प्रति प्रेम ही वास्तविक प्रेम है, यह प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, प्रेम के लिए ही प्रेम होता है, क्योंकि वह इतना मोहक है, इतना पवित्र है, इतना उच्च है कि प्रेम किये बिना कोई रह ही नहीं सकता. भगवद् भक्ति का सुख कभी समाप्त नहीं होता, यह धरा से प्रवाहित होते जलस्रोत की तरह है जो निरंतर बहता रहता है !

उसने सोचा, मानव तीन स्तरों पर जीते हैं, देह के स्तर पर, मन के स्तर पर और तीसरा आत्मा के स्तर पर. इन तीन स्तरों की तुलना पदार्थ की तीन अवस्थाओं से की जा सकती है. ठोस, तरल तथा गैसीय अवस्था. देह स्थूल है, जहाँ भिन्नता का भाव रहता है, जैसे दो ठोस वस्तुएं अपनी भिन्न प्रकृति बनाये रखती हैं. दूसरा तरल जैसे मन जो सूक्ष्म है, तरल की तरह मन भी एक-दूसरे के निकट आयें तो भिन्नता कम होती है. आत्मा यानि गैसीय अवस्था जो इतनी सूक्ष्म है कि हर जगह व्याप्त हो जाती है. आत्मा के स्तर पर कोई भेद नहीं रह जाता.


आजकल वह ‘श्री अरविन्द’ द्वारा रचित ‘वेद रहस्य’ पढ़ रही है. वेद को वे कर्मकांड का वर्णन करने वाली पुस्तक के रूप में जानते हैं, जिसमें विभिन्न देवी-देवताओं का आवाहन किया जाता है कि वे यज्ञ के माध्यम से हवि स्वीकार करें और इच्छित वर दें, जिनमें धन-धान्य, सम्पत्ति, गोधन, अश्व तथा कई अन्य भौतिक लाभ हैं, लेकिन इस पुस्तक में यज्ञ के रूपक को आध्यात्मिक अर्थ दिया है जिसमें अग्नि मन के संकल्प का प्रतीक है, इंद्र मन का प्रतीक है. मानव जन्म की सार्थकता इसी में है कि मानव मन के उच्चतम केन्द्रों तक पहुँचे, उन रहस्यों को खोजें जो अतिचेतन मन में छुपे हैं. चेतन, अवचेतन और अचेतन मन से परे प्रकाश के उस लोक को चुन लें जो उन्हें अतिमानव बनाता है. जहाँ से समय-समय पर ईश्वर के संदेश तो आते हैं पर रहस्य रहस्य ही रह जाता है. ईश्वर को वही तो जान सकता है जो उसके निकट जाये, उच्च का संग करने से मन स्वयंमेव उच्च स्तरों पर जाने लगता है. 

Wednesday, January 21, 2015

जीवन के पुरुषार्थ


आत्म समर्पण किये बिना मुक्ति नहीं ! अहंकार का त्याग कर ध्यान में बैठे तो कोई अपने कोमल स्पर्श से मन को शांत करता है. सारा ताप हर लेता है फिर उसे स्वच्छ करते हुए निर्दोष और सात्विक भावों से भर देता है, जो सबकी पीड़ा हर लेना चाहता है, सबको क्षमा कर देना चाहता है ! सांसारिक कार्य-व्यापार, उपलब्धियां, सांसारिक सुख तब अर्थहीन हो जाते हैं. मन किसी और दुनिया में पहुंच जाता है. जहाँ कोई कामना नहीं, कोई इच्छा नहीं, मात्र शांति और संतोष का साम्राज्य होता है ! यदि कोई इस शांति का भी उपभोग नहीं करता, उससे संतुष्ट होकर नहीं बैठ जाता तो अंत में मंजिल को पा लेता है !
आज ‘जागरण’ में सुना, संसार रूपी सागर में पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए उस बंदरगाह की तरह है जो तूफान में घिरे जहाज का आश्रय होता है. आज जून और उसके विवाह की वर्षगाँठ है. सुबह-सुबह जून ने उसे शुभकामना दी, फिर ससुराल से फोन आया. पिता ने शुभाशीष दी तो मन उनके प्रति कृतज्ञता से भर गया. सखियों, भाई-बहनों, सभी का फोन आया. परिवारजनों की शुभकामनाएँ पाकर मन खिल उठता है. ईश्वर के प्रति भी मन झुक जाता है कि उसे जून जैसे जीवनसाथी से मिलाया. वे दोनों इस समय एक-दूसरे के मन, भावों और विचारों में पूरी तरह समा गये हैं. हृदय में ईश्वर भक्ति हो तो सारे संबंध मधुर हो जाते हैं और जून उसके सहायक हैं हर क्षेत्र में. वह ही अपने आप में मग्न रहकर कभी न कभी उनकी उपेक्षा( अनजाने में) कर जाती है पर उनका एकनिष्ठ प्रेम उसे अनवरत प्राप्त होता रहता है.

सारी सृष्टि उसी एक का विस्तार है, एक को चाहो तो सब कुछ अपने आप ही मिल जाता है, लेकिन उस एक को पाना जितना सरल है उतना ही कठिन भी. उसका माधुर्य जीवन के पुरुषार्थ से ही मिल सकता है. जब मन झुक जाता है तभी वह अंतर में प्रवेश करता है और तब उसे याद नहीं करना पड़ता जीवन का मार्ग मधुमय हो जाता है. हर दुःख उसका प्रसाद प्रतीत होता है और हर सुख उसकी कृपा ! वह जो स्वयं रस का सागर है, प्रेम का प्रतिरूप है, ऐसा वह कृष्ण जिसके जीवन में हो उसे धरती पर ही स्वर्ग का सुख मिल जाता है. उसकी मोहक छवि, उसकी बांसुरी का मधुर स्वर, आँखों का अथाह स्नेह और मधुर वचन सभी तो ऐसे उपहार हैं जिनको पाने के लिए मन एक क्षण में संसार को त्याग देगा !   

कल उसने ‘महासमर’ के सारे उपलब्ध भाग पढ़ लिए. अभी भी कथा पूरी नहीं हुई है, युद्ध जारी है, जैसे युद्ध मानवों के मनों में निरंतर चलता रहता है जब तक वे ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित नहीं हो जाते. लेकिन उस समर्पण के बाद गुरूमाँ के शब्दों में हृदय में एक पीड़ा का जन्म होता है जो उसके वियोग की पीड़ा है और अधरों पर एक रहस्यमयी मुस्कान का जन्म होता है जो उसके सान्निध्य में हर पल रहने के कारण उत्पन्न होती है, ऊपर से देखें तो विरोधाभास होता है पर जो इस स्थिति तक पहुंच चुका है उसके लिए सारे पर्दे खुल चुके होते हैं, सत्य प्रकट हो चुका होता है और उसका सत्य है कि कृष्ण उसके जीवन के आधार हैं. मात्र वही तो हैं जो चारों ओर विस्तारित हो रहे हैं फिर उनकी बनायी इस सृष्टि में किसी से कैसा विरोध. सभी की प्रकृति उनके अपने-अपने गुणों के अनुसार काम करवाती है. यह सारा चक्र उसी के इशारे पर तो चल रहा है. उनकी सीमा कर्म करने तक की भी नहीं है क्यों कि अपने स्वभाव के वशीभूत होकर वे कार्य करते हैं यदि अपने स्वभाव को परिवर्तित करने की क्षमता कोई पाले तो आत्मा का विकास सम्भव है अर्थात जीवन का विकास ! उसके लिए स्वाध्याय, सजगता, सात्विकता का पालन करना होगा, क्यों कि ईश्वर का निवास पवित्र हृदयों में ही तो है !




Tuesday, January 20, 2015

“निर्भव जपे सकल दुःख मिटे”


जीवन में सरलता, सरसता और मृदुता हो, मन में आनंद और भगवद प्रेम हो ! कृष्ण जीवन का केंद्र हो तो यह सब अपने आप ही होने लगता है. नव वर्ष का शुभारम्भ हो चुका है. कल प्रथम दिन मित्रों के साथ बिताया. परिवारजनों से फोन पर शुभकामनाओं का आदान-प्रदान हुआ. परिवार ने संग-संग खरीदारी की. एक शांत और सुखद दिन के बाद अच्छी गहरी निद्रा और प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर ‘क्रिया’. जीवन में गुरू की उपस्थिति होने से सुख और शांति को कहीं खोजने नहीं जाना पड़ता, वह उसी तरह सहज प्राप्य है जैसे हवा और धूप !  टीवी पर ‘जागरण’ सुना, ज्ञान मन को भावना के स्तर पर ले जाता है और मन अपने आप गुनगुनाने लगता है. अंतर में छिपा वह जादूगर मुखर हो उठता है, जैसे तरंगों का आधार शांत जल है वैसे ही मन में उठने वाले विचारों का आधार वही अचल है. वही जो हमें अभय प्रदान करता है. उसका नाम हर श्वास से जुड़ा है. न मरने का भय हो न जीवन के प्रति आसक्ति हो तो ही कोई सच्चा जीवन जी सकता है. जीने की कला उसी कलाकार से सीखनी है जो चिंतन से परे है लेकिन मन को चिन्तन करना सिखाता है. “निर्भव जपे सकल दुःख मिटे” उस अकाल पुरुष को जपने से जीवन उत्सव बन जाता है, प्रेम रक्त बन कर तन में प्रवाहित होने लगता है. उल्लास के पुष्प हृदय में पल्लवित होते हैं. जीवन में निर्भयता और सत्य हो, अंतर में विश्वास हो तो नित्य नवीन रस का उदय होता है, शुभ व्यक्ति को निर्भीक बनाता है और अशुभ को भयभीत करता है.

आज सुबह ध्यान में कृष्ण ने उसे आश्वासन दिया और वह उसके परम हितैषी हैं. उसके अनंत रूप हैं, अनंत नाम हैं और वह अनंत सुख का स्रोत है. वह कहते हैं धर्म की रक्षा करने वाले की रक्षा धर्म करता है. कामना जब हृदय में उठती है तो रिक्त स्थान बन जाता है मानव उसकी पूर्ति करना चाहता है पर यह आवश्यक तो नहीं कि वह रिक्तता भर ही जाये. बाहर से सुख भरने की लालसा ही बताती है कि भीतर रिक्तता है, यदि भीतर का सुख बाहर देने की कला आ जाये तो...ऐसा अद्भुत ज्ञान देने वाला कान्हा, जिसका जन्म और कर्म दिव्य है उसका प्रिय है. कृष्ण ने स्वयं कहा है कि जो उससे प्रेम करता है वह उसे उतना ही प्रेम करता है. उसका प्रेम वह पल-पल महसूस करती है. सारे सुख-दुःख नष्ट हो गये हैं, उहापोह नष्ट हो गया है. उसका नाम कभी भूलता नहीं, मन उसमें रमने लगा है. ‘महासमर’ में कृष्ण का चरित्र अद्भुत है. भीष्म पितामह, युधिष्ठिर, अर्जुन और कुंती सभीके हृदय प्रेम से भर उठते हैं जब कृष्ण उनसे मिलते हैं, बातें करते हैं या उनका जिक्र होता है. गुरुमाँ उसी जादूगर के गीत गाती हैं, ‘जोगिया’ कहकर उसे ही बुलाती हैं. उसने पिछले दिनों नन्हे और जून में भी उसके दर्शन किये यहाँ तक कि कभी-कभी उसकी आँखों में भी उसी की छवि दिखती है. वह अनुपम हैं, सर्वज्ञ हैं, आदि हैं, स्वामी हैं, सूक्ष्मतर हैं, धारक हैं, अचिन्त्य हैं, प्रकाशमान हैं, ज्ञानी हैं. ऐसे भगवान का उन्हें ध्यान करना है, जिससे क्रमशः वे उनके रूप का दर्शन करने में उनके निकट आने में सक्षम हों सकेंगे, वह उनके अंतर में ही हैं पर वे उन्हें देख नहीं पाते, उनकी निकटता भीतर उन्हीं के गुणों को भरने लगेगी लेकिन उन्हें गुणों का नहीं उनका लोभ है !

नित्य सुख, नित्य ज्ञान, नित्य आनंद उनकी मूलभूत आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति सत्संग से होती है. अन्य आवश्यकताओं की भांति उन्हें सत्संग की ओर भी वही ले जाता है, वह उन्हें उनसे ज्यादा जानता है. उनकी उन्नति की उसे उनसे अधिक परवाह है. वह जिससे प्रसन्न होता है उसे सांसारिक आकर्षणों से वियुक्त करता है और जिससे रुष्ट होता है उनके तमोगुण व रजोगुण की वृद्धि देता है. वह उसकी कृतज्ञ है, आभारी है वैसे शब्दों से इस भाव को व्यक्त नहीं किया जा सकता जो वह उसके लिए अनुभव करती है कि उसने उसे सात्विक भावों का आदर करने की क्षमता दी. उसे सहज ही सत्य और अहिंसा प्रिय है, यह उसी की कृपा है. महाभारत में कृष्ण अर्जुन के कई प्रश्नों का उत्तर देते हैं. धर्म-अधर्म, नया-अन्याय, कर्म-अकर्म आदि पर आधारित उसकी कई उलझनों को सुलझाते हैं. पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है कृष्ण उससे ही बातें कर रहे हैं. वह उसे बेहद अपने लगते हैं ऐसा तो इस भौतिक जगत में कोई भी नहीं लगता. बाल्यावस्था से कई बार उसके मन में यह विचार आया है कि इस दुनिया में वह पूर्णत अकेली है कि वह किसी पर भी निर्भर नहीं हो सकती, सिवाय स्वयं के. उसकी अपनी दुनिया थी जो उसने स्वयं ही बनाई थी पर अब उस उस दुनिया में कृष्ण ने अपना अधिकार कर लिया है और इससे उसके सांसारिक संबंध और भी दृढ़ हुए हैं, उनका महत्व समझ में आने लगा है.




Monday, January 19, 2015

नरेंद्र कोहली का "महासमर"


पिछले चार दिनों से डायरी नहीं खोली, तभी तामसिकता ने अपनी जड़ें गहरी कर लीं. आध्यात्मिक मार्ग पर जितना ऊंचा चलो गिरने का भय उतना ही अधिक होता है. आज सुबह भी अलार्म सुनने के बावजूद रजाई उठाने का छोटा सा कार्य हाथों ने नहीं किया क्योंकि मन अलसाया था. तन गर्मी चाहता था. देह को इतना सुविधाभोगी बनाना और मन को प्रमाद्युक्त रखना तो नीचे गिरने का साक्षात् प्रमाण है, फिर पिछले चार दिनों से सत्संग भी ठीक से नहीं सुना. डायरी में कुछ लिखा नहीं अर्थात मनन-चिन्तन भी नहीं हुआ, बल्कि पठन हुआ. पिछले दो-तीन दिन नरेंद्र कोहली जी की ग्रन्थमाला ‘महासमर’ का प्रथम भाग पढ़ती रही. महाभारत के पात्रों में कितना काम-क्रोध-लोभ-मोह भरा हुआ है, सम्भवतः उसी का प्रभाव अचेतन मन पर पड़ता रहा हो, कुछ भी हो, ये लक्षण उत्तम नहीं हैं. कल योग शिक्षक से भी भेंट हुई, क्रिया में सु-दर्शन भी हुए. आज सुबह उठाने के लिए उसने प्रार्थना भी की थी. स्वप्न में नीली आकृति भी देखी पर जब मद का राक्षस बैठ हो तो दैवी शक्तियाँ भी क्या करें. उसके पापों का ढेर जितना बड़ा है, पुण्यों का संचय उतना ही कम है, सो पाप प्रबल हैं किन्तु गुरू के चरणों में प्रार्थना करने से उनकी कृपा मात्र से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं फिर उसके आराध्य तो गुरुओं के परम गुरू कृष्ण हैं. इस क्षण से हर पल सजग रहना होगा ताकि भक्ति मार्ग की ओर बढ़ते कदम ठिठके नहीं, पीछे तो हरगिज न आयें ! आज नन्हा भी घर पर है, पिछले कुछ दिनों से वह ज्यादा गम्भीर हो गया है परीक्षा की तैयारी ठीक चल रही है, स्कूल व घर दोनों जगह ही. गणित का अभ्यास उतना ही करता जितना करना चाहिए, लेकिन ज्यादा कहने का कोई लाभ नहीं. वह स्वयं समझदार है. वह उन्हें हर हाल में प्रिय है.

आज संगीत की परीक्षा का फार्म भर दिया. अगले हफ्ते शुल्क जमा करना है. मई में परीक्षा होगी. कल वे हिंदी पुस्तकालय गये. श्रील प्रभुपाद की ‘भगवद गीता’ लायी है, वहाँ भागवद के भी सभी भाग हैं. ‘महासमर’ का प्रथम भाग भी वहीं से लायी थी. महाभारत पढ़ने के लिए योग शिक्षक ने कहा था सो पढ़ने का अवसर मिल गया है. भगवद गीता अमूल्य ग्रन्थ है. इसमें अभय को जीवन में प्रमुखता सड़ने का संदेश है. भयभीत व्यक्ति मृत्यु से पहले ही मर जाता है. भय ही व्यक्ति को जीवन में कई समझौते करने पर विवश करता है. निर्भीक व्यक्ति को कोई झुका नहीं सकता.

आज क्रिसमस है. एक सखी को शाम को चाय पर बुलाया है. फूलों से उसे प्यार है और उनके लॉन में ढेरों फूल खिले हैं. वह अपनी पुस्तक भी उसे देना चाहती है लेकिन यह सब करते हुए अहंकार की हल्की सी भावना भी नहीं आनी चाहिए. नहीं आएगी क्योंकि यह सब उसने कहाँ किया है. प्रकृति ने उससे करवाया है, इसमें उसका कोई योगदान नहीं है.

आज दोपहर उन्होंने aol के बच्चों के कोर्स ‘आर्ट एक्सेल’ की एक शिक्षिका को खाने पर बुलाया है. aol से उनका नाता धीरे-धीरे मजबूत हो रहा है. मौसम आज सुहावना है. महासमर में कल पहली बार कृष्ण का उल्लेख हुआ, मन जैसे भावों से भर गया. उसका नाम अंतर में कैसी शांति भर देता है.



Thursday, January 15, 2015

बदली में सूरज


हृदय में आध्यात्मिक क्रांति का उदय हो इसके लिए जीवन में साधना, सेवा, सत्संग व स्वाध्याय, चारों का होना अति आवश्यक है. उसके जीवन में तीन बातें तो हैं पर चौथे अंग ‘सेवा’ का कोई स्थान नहीं है. उसे घर में रहकर ही सेवा का पालन करना चाहिए. ज्यादा सचेत रहकर अपने कर्त्तव्य का पालन करना होगा. गोविन्द तभी उसका अभिन्न मित्र होगा. कृष्ण उसे एक पल के लिए भी स्वयं को भूलने नहीं देंगे. कृष्ण अपना वरद  हस्त उसके ऊपर सदा ही रखे हुए हैं, उसे ही उनकी कृपा को ग्रहण करने का सामर्थ्य अपने भीतर जगाना है. वर्तमान में रहने की कला सीखनी हो तो ‘मन्त्र जाप’ से बढ़कर कोई उपाय नहीं. इस तरह श्वास भी नियमित रहती है. ऋषि-मुनियों ने कितने सुंदर उपाय बताये हैं, यदि वे उन पर चलें तो ईश्वर उसी क्षण उन्हें प्राप्त हो सकते हैं, बल्कि वे तो कहते हैं  ईश्वर पहले से ही प्राप्त हैं, उन्हें सचेत होना है उसकी उपस्थिति के प्रति, उसके सान्निध्य में कोई विषाद नहीं रहता. सारी आवश्यकताएं अपने-आप पूर्ण होने लगती हैं. मन के भीतर सुमिरन चलता रहे तो अद्भुत शांति का प्रादुर्भाव होता है, अधर मुस्काते हैं, ऑंखें उसके रूप को देखती हैं. उसकी कविताओं में जो कामनाएं उसने व्यक्त की थीं, वे सारी की सारी सद्गुरु को भेजकर कृष्ण ने पूरी कर दी हैं. अब उसका कर्तव्य यही है कि इस मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढ़े, क्योंकि यही ऐसा मार्ग है जहाँ आकर सारे मार्ग मिलते हैं. जो परम सत्य तक उन्हें ले जायेगा, जहाँ जाना और जाने के लिए परिश्रम करना मानव मात्र का कर्त्तव्य है, जहाँ जाने के लिए पाथेय है हृदय में असीम प्रेम, इतना प्रेम जो पोर-पोर से छलकता हो, जो उच्चता के प्रतीक उस ईश्वर के लिए हो !

जब वे धर्म के नियमों का पालन करते हैं तब प्रकृति उनका साथ देती है जब उसके प्रतिकूल चलते हैं तब प्रकृति विपरीत हो जाती है. धर्म क्या है इसका ज्ञान शास्त्र, सत्संग तथा अंतर में स्थित परमात्मा के चिन्तन से मिलता है. यह बिलकुल स्पष्ट है उतना ही जितना हथेली पर रखा आंवले का फल ! कृष्ण गीता में उसी धर्म की चर्चा करते हैं. परमेश्वर असीम हैं, उनका अनुग्रह अनंत है, दया अनंत है, उनकी स्मृति में जितना समय गुजरे वही सार्थक है. जब जीवन का हर क्षण उसके प्रति कृतज्ञता में बीते तो उसकी कृपा का अनुभव भी हर समय होगा, और धीरे-धीरे मन ख़ाली होता जायेगा, खाली मन में ही भक्ति का प्रकाश उदित हो सकता है. ईश्वर ही अपना ज्ञान दे सकते हैं तो पहले उसकी निकटता का अनुभव करना होगा, उसके शरणागत होना होगा. भजन, साधना से मन इतर से खाली होता है और उसकी ओर खिंचता है. एक वही है जो अनंत हृदय को भर सकता है, मन भी निस्सीम है. संसार की नश्वर वस्तुएं उसे तृप्त नहीं कर सकतीं, वह असीम से ही भरा जा सकता है ! आज सुबह उन्हें उठने में देर हुई, नन्हा आज स्कूल नहीं गया, सूर्य देवता बादलों के पीछे छिपे हैं, पूरे भारत में सर्दियां अपनी चरम सीमा पर हैं. यहाँ उत्तर भारत की अपेक्षा मौसम सुहावना है. अज जून उसका लेख व कविताएँ छपने के लिए दे देंगे. नया वर्ष आने में दो हफ्ते भी शेष नहीं, उन्हें एक बार पुनः घर की विशेष सफाई करनी है, नये वर्ष के स्वागत में इतना तो उनका कर्त्तव्य बनता ही है.






फूलों का साथ


उसने कितनी ही बार इसका अनुभव किया है, ‘ध्यान’ में जब हृदय पूरी तरह लीन हो जाता है तो कोई फिर आगे का रास्ता दिखाने आ जाता है. ‘नारद भक्ति सूत्र’ में भी यही कहा गया है कि भावपूर्ण हृदय से जब भक्त ईश्वर को पुकारता है तो ईश्वर तत्क्षण उसे अपना अनुभव दे देते हैं. वह अत्यंत निकट है, पुकारने या न पुकारने की जिम्मेदारी उनकी है. कल aol  का दूसरा दिन था, वे कल भी गये थे. योग शिक्षक ने आध्यात्मिकता का एक सूत्र बताया कि दूसरों को क्षमा करते रहने का स्वभाव नहीं बनाया तो ईश्वर दूर ही रहेंगे, हृदय पूरी तरह खुला हो, पवित्र हो, राग-द्वेष रहित हो तो ईश्वर आनंद, शांति और प्रेम के रूप में हृदय में प्रकट होता है. आत्मभाव में स्थित रहना मानव का प्रथम और अंतिम कर्त्तव्य है. सत, रज और तम गुणों के कारण मानव इस संसार में बद्ध हैं. ये तीनों गुण भी दैवीय हैं, अर्थात प्रकृति भी ईश्वर के आधीन है. इनसे मुक्त होने का एकमात्र उपाय उसकी शरण में जाना है उसकी प्राप्ति वही करा सकता है !
आज उन्हें ‘सुदर्शन क्रिया’ के लिए जाना है. शरीर, मन और इन्द्रियों का स्वामी बनना है. हर क्षण सजग रहना है, एक पल का भी दुरूपयोग हुआ तो सारे विश्व का धन भी उसे वापस नहीं ला सकता. ईश्वर की स्मृति ही संतुष्ट करने में समर्थ है, संसार की अन्य कोई भी वस्तु मानव को संतुष्टि नहीं दे सकती. परम ईश्वर ही इस जगत के कारण हैं, एक मात्र उन्हीं का शासन मन पर स्वीकार करना होगा ! प्रभु अंतर के पट खोल ! उसने प्रार्थना की, कान्हा को देख सके ऐसी ज्ञान की आँखें कब मिलेंगी !

कल aol का अंतिम दिन था. शिक्षक ने गुरू की महिमा का बखान किया. गुरू के सान्निध्य में भक्ति का वरदान मिलता मिलता है, भक्ति से बड़ा कोई गुण नहीं, जब हृदय में ईश्वर के प्रति अनन्य भक्ति का उदय होता है तो अन्य सभी गुण गौण हो जाते हैं. ईश्वर की कृपा से ही उसके मन में उसके प्रति प्रेम जगा है, यह प्रेम ही उसके सारे प्रश्नों का उत्तर है. कल स्वप्न में किसी से कह रही थी, ‘ये फूल जो तुम्हें अच्छे लगते हैं वास्तव में तुम्हार्रे भीतर स्थित परमात्मा को अर्पित हैं’, अब तो बस वही है और कोई नहीं. भीतर स्थित वह परमात्मा निकट आने को उतना ही उत्सुक है जितना कोई उसके निकट आने को. इस बार की क्रिया में उसे तीव्रतर अनुभव हुआ. दैवीय संगीत भी सुना और अनुपम दृश्य देखे. वह तो अपनी उपस्थिति का अहसास हर पल कराता है. शिक्षक के अनुसार अनुभवों को ज्यादा महत्व नहीं देना है, बिलकुल सही बात है. आचरण कैसा है, बाहरी जीवन कैसा है, उसमें कुछ बदलाव आ रहा है या नहीं, यही प्रमुख बात है. वाणी में मधुरता आयी या नहीं, कर्मों  में सरसता आयी या नहीं, जीवन से संतुष्ट हैं या नहीं, मधुमय आत्मा के आनंद को पाया है या नहीं, परमात्मा निकटतर हुआ है या नहीं, निर्दोष भाव से अपना अहम उसके अम्मुख अर्पण कर दिया है या नहीं, उसके प्रति अटूट विश्वास अंतर में उदय हुआ है या नहीं, कान्हा तो सबका मित्र है, वही आत्मशांति देता है, जिससे सामर्थ्य उत्पन्न होता है.

ईश्वर से मानव का संबंध प्रेम का है, उसमें भक्ति का रस मिलता है. भौतिक जगत में इन्द्रिय तृप्ति के लिए ही विभिन्न संबंधों की उत्पत्ति होती है. मन संसार और ईश्वर दोनों के मध्य बंटा रहता है, अच्छा तो यह होगा कि मन सदा उच्च भाव में रहे और इन्द्रियाँ अपने काम करती रहें. आत्मा में स्थित रहें तो यह द्वंद्व उसी क्षण दूर हो जाता है, क्योंकि आत्मा नित्य शुद्ध और शाश्वत है. कल शाम को वे उसकी किताब देने एक मित्र के यहाँ गये और आज वे लोग उनके यहाँ आ रहे हैं. जून उसकी कुछ तस्वीरें उतारने वाले हैं, बाहर लॉन में फूलों के मध्य और शाम को वे मित्र भी अपना कैमरा लायेंगे.




Tuesday, January 13, 2015

भागवद पुराण की कथाएं



आजकल धूप आँख-मिचौली खेलती रहती है, मौसम ठंडा-ठंडा सा ही रहता है. उन्होंने मोज़े, स्वेटर पहनना शुरू कर दिया है. आज दोपहर को जब जून ऑफिस चले गये वह प्रमाद वश नहीं उठी तो अजीब सा स्वप्न आया. सड़क पर चलते हुए कुछ खिलौने उससे मिलने आ रहे हैं. स्वप्न चेताने आते हैं और स्वप्न भी तो वही भेजता है. आज सुबह कृष्ण कथा सुनी, उसकी कथाएं अनुपम हैं, अगली बार घर जाने पर वह अवश्य ही ‘भागवद् पुराण’ खरीदेगी. कल रात दीदी का फोन आया. सुबह उसने छोटे भाई को किया था. उसने गर्मी की छुट्टियों में वहाँ आने के लिए कहा है. जून भी घर जाने को कह रहे हैं. हिमाचल जाने का भी उनका मन है. परीक्षाओं के बाद यात्रा का योग काफी प्रबल है. ईश्वर उनके साथ है, वही सही मार्ग सुझाएगा. आज पिता का पत्र भी आया है. कल ‘श्री शंकर देव’ के लिए लिखा लेख हिंदी पत्रिका के लिए भिजवाया. नन्हे की पूर्व परीक्षाएं  चल रही हैं. मात्र दो महीने उसके फाइनल्स में रह गये हैं. आजकल वह स्वयं ही पढ़ता है.

ध्यान में यदि उतरना हो तो एक भी व्यर्थ का ख्याल नहीं आना चाहिए नहीं तो वही एक ख्याल रस्सी बन जाता है जो ऊपर ले आती है. मन पूरा का पूरा खाली हो जाये तो ध्यान गहरा होता जाता है. आज जून ने छुट्टी ली है, साल का आखिरी महिना है छुट्टियाँ व्यर्थ हो जाएँगी, इसलिए आज वह घर पर हैं. उन्हें दोपहर को कोपरेटिव स्टोर जाना है और शाम को नन्हे के साथ कनज्यूमर फोरम भी जाना है. यानि आज का दिन खरीदारी को समर्पित होगा. नये वर्ष के लिए कुछ कार्ड्स भी उन्हें खरीदने हैं. मौसम आज खिला हुआ है. कल रात स्वप्न में एक घायल महिला को जो खून से लथपथ थी वह अस्पताल ले जाती है. शायद रात को देखी ‘Matilda’ फिल्म के कारण यह स्वप्न आया था. यह किताब उसने काफी पहले पढ़ी थी.

क्रोध कब आकर उन्हें परास्त कर देता है पता ही नहीं चलता. लेकिन यह आध्यात्मिक प्रगति के लिए बहुत बड़ी बाधा है. कल शाम जून ने उसकी बात नहीं सुनी तो चाहे कुछ क्षणों के लिए ही सही उसे क्रोध आया तो था. मन, वाणी और क्रोध के वेगों को रोकना ही होगा, अन्यथा वे जहाँ है वहीं रह जायेंगे बल्कि पीछे जाने का डर अधिक है. इन सारे वेगों को नियंत्रित करने का एकमात्र उपाय है कृष्ण का नाम. उसकी स्मृति बनी रहे तो कोई ताप नहीं सताता भौतिक जगत में कोई न कोई दुःख तो रहेगा ही, जब तक ईश्वर की स्मृति बनी रहेगी तभी तक वे इन दुखों से अलिप्त रह सकते हैं ! उसे दिल से चाहो तो वह विश्रांति के रूप में तत्क्षण अपना अनुभव करा देता है. आत्मा जो उसी का अंश है उसी की भाषा बोलती है परदेश में कोई अपनी भाषा बोलने वाला मिल जाये तो कैसी ख़ुशी होती है. मन जब शांत होकर आत्मा का आश्रय लेता है तो वह भी उसी की भाषा बोलता है.


Monday, January 12, 2015

ब्रोकोली की पौध


भक्ति मुक्ति की सीढ़ी है, भक्ति हृदय में उत्पन्न हो तो ईश्वर की सत्ता, प्रेम और माधुर्य स्वतः प्रकटते हैं. ईश्वर के लिए यदि भाव दृढ़ हो तो वह उससे अनभिज्ञ नहीं रह सकता. उसके सारे कार्य वही तो संवारता है, बचपन से आजतक ईश्वरीय कृपा का सदैव अनुभव किया है. सुमिरन का भाव अंतर को पवित्र करता है अन्यथा मन इतना वेगवान है कि कोई आश्रय न मिले तो तो व्यर्थ इधर-उधर भटकता फिरेगा. बाबाजी कहते हैं, श्वास रूपी खंभे पर ऊपर-नीचे उतरने का कार्य इस मन रूपी सेवक को सौंप दे तभी कोई मुक्त रह सकता है अन्यथा यह भरमाता है. चित्त की झील यदि शांत होगी तो ही परमात्मा का प्रतिबिम्ब उसमें झलकेगा. सतत् जागरूक रहकर ही इसे अनुभव किया जा सकता है. शास्त्र कहते हैं वह निकट से भी निकट है और दूर से भी दूर है. देखा जाये तो हर दिन मानव का एक नया जन्म होता है हर रात एक छोटी मृत्यु होती है, एक दिन एक रात ऐसी भी आएगी जिसकी सुबह परिचित माहौल में नहीं होगी, उस वक्त ज्ञान और ईश्वर ही साथ होंगे.

आज गुरुनानक जयंती है, पूर्णिमा का दिन , पिता का जन्मदिन भी, सुबह उनसे बात की. मौसम बेहद ठंडा है, धूप में जरा भी तेजी नहीं है. नींद कुछ देर से खुली, रात को ठंड की वजह से नीद में खलल पड़ा था, शायद यही कारण रहा हो, पर आजकल उसके स्वप्न बहुत सुखद हो गये हैं. आज ध्यान में मन्त्र अपने आप छूट गया और मन सिर्फ एक भाव में स्थित हो गया. अद्भुत अनुभव था. साढ़े दस बजे वह गुरुद्वारे भी गयी, वहाँ अखंड पाठ का भोग लग रहा था. गुरुनानक वाणी सुनी, ज्ञान की वह गंगा जो हिंदू धर्म ग्रन्थों में भी है. जून तब ब्रोकोली की पौध लेने गये थे, बाद में उसने स्वयं ही लगाई. कल मूली के बीज डाले थे, अगले तीन महीनों में इसकी फसल तैयार होगी. खतों के जवाब लिखने का आज अच्छा अवसर है. जून ने जो दो लेख लिखने को कहा था वह सम्भव नहीं हो पाया है, गद्य लिखना ज्यादा कठिन है, कठिन कार्य से वह घबराती नहीं है पर लिखने के लिए मौलिक विचार भी होने चाहियें, इधर-उधर से पढ़ी-सुनी बातों को नीरस भाषा में लिख देने से तो बेहतर न लिखना ही होगा ! कविता लिखना उसके लिए सहज है हालाँकि पिछले दो-तीन महीनों से वह भी नहीं लिखी है, जून ने कहा है किताब छप कर  आने वाली है.

उसने मन में उठने वाले विचारों को क्रम बद्ध किया..मानव का मूल तो वही है, वही उन्हें पोषता है. सारी कलाओं का स्रोत भी वही है. वह बेहद निकट है पर उन्होंने खुद पर न जाने कितने लेप चढ़ा रखे हैं. मन में हजार तरह के संकल्प-विकल्प उठते हैं. कल्पना की दुनिया में विचरने वाला मन खुद से तो दूर है ही, परमात्मा से भी दूर चला जाता है. पर एक क्षण में ही यदि वह यह मुल्लमा उतार फेंके तो वही क्षण मिलन का होगा. एक पुकार यदि दिल से उठे तो वह सारे पर्दे खोलकर अपनी झलक दिखाता है. वह हितैषी हर पल बाट जोहता है कि कब भूला भटका कोई घर लौट आये. घर लौटना मानो जीवन में उत्सव का प्रवेश होना है !




Friday, January 9, 2015

ईश्वर का विधान


विवेक रूपी बाण और वैराग्य रूपी धनुष सदा अपने साथ रखना है, जैसे ही कामना रूपी राक्षसी प्रकट हो तो उसका विनाश किया जा सके. ईश्वर की भक्ति का अर्थ है माया से युद्ध, मन की शक्ति का विकास ईश्वर भक्ति में ही होता है. कल उसने चौथी बार सुदर्शन क्रिया की. हर बार की तरह कल भी अतीन्द्रिय अनुभव हुआ. सुख की अनुभूति तो हुई ही फिर स्लेटी फूलों के मध्य नील रंग का कमल दिखा जो बेहद चमक लिए था, फिर कई रंगों के प्रकाश दीखते रहे. कल की क्रिया के दौरान एक बार भी भय का अनुभव नहीं हुआ और समय भी बहुत कम लगा. कुछ देर और क्रिया चलती तो ठीक था पर बुद्धि में अनाग्रह रहे तो ही उचित है. कल योग शिक्षक से उसने कहा कि उसे लग रहा है आज परमात्मा से उसका appointment है. और वह कल उस क्षण से उसके साथ है, बल्कि उसके पहले से ही, हर पल हर क्षण उसके साथ है, वह ख़ुशी बनकर उसके पोर-पोर में समा गया है. सुदर्शन क्रिया में सचमुच सु-दर्शन होते हैं, अद्भुत अनुभव होते हैं. श्री श्री के प्रति मन कृतज्ञता से भर जाता है और उनके योग शिक्षक के प्रति भी. जीवन में एक उजाला बनकर, आनंद का स्रोत बनकर वह उनके जीवन में आए हैं. जून का कहना है कि वे उन्हें एक बार फिर खाने पर बुलाएँ. इस समय साढ़े दस बजे हैं, सब कुछ कितना शांत लग रहा है. आज एक सखी के जन्मदिन की पार्टी में जाना है.

मन प्रशांत होगा तभी उत्तम सुख की प्राप्ति होगी. संशय, आलस्य, प्रमाद से विमुक्त मन ही शांत होगा. शांत मन ही प्रसन्न रहेगा और यही प्रसन्न मन ही ईश्वर को पा  सकता है. वह देह से स्वयं को पृथक जानता है. स्वयं को आत्मा के स्तर पर ले जाकर परमात्मा के सान्निध्य का सुख प्राप्त करता है. वह पूर्ण अमृत का स्वाद लेता है, उसके आनंद की निरंतर वृद्धि होती है. प्रसन्न रहना ही ईश्वर की सबसे बड़ी पूजा है. वह ईश्वर जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चलने की समझ देता है, पग-पग पर उनका हाथ थाम लेता है, वह नितांत अपने से भी अपना ईश्वर ही सच्चा मित्र है. उसका नाम ही अंतर्मन को वर्तमान की शांत जलधारा पर स्थिर रखता है. ऐसे प्रभु का सत्संग गुरू कृपा से आज शाम उन्हें प्राप्त होने वाला है.

अभी कुछ देर पूर्व योग शिक्षक से बात हुई, उनका जन्मदिन पहली जुलाई को है. अभी वह ऋषिकेश जायेंगे फिर डिब्रूगढ़ और फिर तेजपुर ‘साधना’ के लिए, और कुछ करने की आवश्यकता भी नहीं है. मन को पवित्र रखने तो सब कुछ अपने आप होता जाता है. ईश्वर हर जगह है उसको देखने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं, सभी में ईश दर्शन करके सभी को अपने समान जानकर कोई ईश्वर की अनुभूति कर सकता है. कल शाम क्लब में योग शिक्षक को सुना, फिर एक सखी के यहाँ उनके भजन सुने. एक व्यक्ति इतना शांत, इतना पवित्र, इतना मधुर, समदर्शी और भक्तिभाव से पूर्ण हो सकता है, गुरू के सभी लक्षण उनमें हैं. मन श्रद्धा से भर जाता है. आज सुबह से ही वर्षा हो रही है, जीवन में भी प्रभु प्रेम की वर्षा हो रही है. लेकिन ईश्वर के प्रति वह तड़प, वह खिंचाव जो प्रथम क्रिया के बाद उसने अनुभव किया था वह शांत हो गया है. अब वह उससे एक पल को भी दूर नहीं है, उसके नाम का मानसिक जप वर्तमान में रहने की प्रेरणा देता है. वर्तमान में जीना व्याधियों से मुक्त रखता है. मन फूल की तरह नित नवीन बनकर खिला रहत है.

कल कोर्स का अंतिम दिन था, ध्यान किया फिर सामूहिक भोज व सत्संग, लौटते-लौटते उन्हें साढ़े दस हो गये. सुबह पांच बजे उठाने का वादा जून ने शिक्षक से किया था. उन्होंने उनकी देखभाल का उत्तरदायित्व पूरी तरह निभाया है. चार बजे ही उसकी नींद भी खुली पर उठने की चेष्टा नहीं की. पांच बजे उसे एक स्वप्न आया, कोई कह रहा है, 'पांच बज गये', 'पांच गये'. वह ईश्वर थे या उसकी चेतना.
उसके अंतर में न जाने कहाँ से एक कसक या कचोट ने प्रवेश पा लिया है. यह महीनों बाद हुआ हुआ है, सो यह अपरिचित, अनजाना मेहमान अप्रिय लग रहा है. कल दोपहर से इसका आरम्भ हुआ होगा, एक क्षण को भी सजग न रहो तो कामनाएं मन पर अधिकार जमा लेती हैं. अपने आत्मभाव से वे च्युत हो जाते हैं. ईश्वर का विधान बहुत कठोर है, जिस क्षण उसका पथ छोड़ा अथवा छोड़ने का भाव भी मन में आया तो उसका फल मिले बिना नहीं रहता. मन यदि सद् मार्ग पर चले तो आत्मसुख में रहता है. पूरा प्रभु आराधिया, पूरा जाका नाम. वह ईश्वर जब तक पूरा नहीं मिलता, ज्ञान पूर्ण नहीं होता तभी तक यह विचलन, विक्षेप मन पर छाने का साहस कर सकते हैं. उसका लक्ष्य तो उस पूरे को पाना ही है. वही इसका रास्ता बता सकते हैं. मन और देह में जब तक आसक्ति रहेगी तब तक वह नहीं मिलेगा. अपने अहं को तुष्टि देने का भाव, सुख-सुविधाओं का आकर्षण जब तक रहेगा वह अनवरत सुख इसी तरह बीच-बीच में लुप्त होगा. यही दुःख लेकिन उसी मार्ग पर स्थित करेगा, जब प्रार्थना और हृदय एक हो जाते हैं तभी उसका अभ्युदय होता है. ध्यान ही उसे पावन करेगा. उसकी कृपा अपार है, वे अकृतज्ञ होकर उससे और-और मांगते हैं. उलटी चल चलते दीवाने, दीदारे यार करते आँख बंद करके !







Wednesday, January 7, 2015

दीवाली का उजास


बाबाजी कहते हैं, साधक का परम लक्ष्य स्वयं के केंद्र तक पहुँचना है, बाहर के खेलों में उलझना नहीं, जितना-जितना वे ध्यानस्थ होते जाते हैं उतना-उतना ईश्वर के प्रेम के अधिकारी बनते जाते हैं. पंचभूतों से निर्मित देह धीरे-धीरे उन्हीं में विलीन होता जाता है पर जीवात्मा परमात्मा का अंश है, जो शाश्वत है, ज्ञान और प्रेम स्वरूप है. दीवाली हो या कोई अन्य त्योहार, सारे पर्व उसी शाश्वत स्वरूप की याद दिलाने आते हैं. एक रस जीवन जीते-जीते कभी-कभी उदासीनता का भाव आने लगता है, सत्, चित्, आनंद से उत्पन्न हुए वे त्याग के द्वारा पर्वों पर अपने आप से जुड़ते हैं. स्वच्छता, दीप जलाना, नई वस्तु लाना और सभी के साथ भोजन करने का अर्थ है अपने हृदय को स्वच्छ करना, ज्ञान का दीपक जलाना और प्रेम का प्रसाद बांटना ! मूल को पाने का संकल्प दिन-प्रतिदिन दृढ़ होता जाये यही प्रार्थना उत्सव पर करनी है ! छोटी ननद ने बताया उनके शहर में बाबाजी आये हैं. वे लोग गये थे, ननदोई जी ने चार दिन सेवा की. संत के दर्शन सदा हितकारी होते हैं. उस दिन गोहाटी में गुरूजी की वह प्रेमिल दृष्टि उसे कभी नहीं भूलेगी. उस दृष्टि में उनका आशीष था जो ईश्वर उसके अंतर में अपनी झलक दिखाते हैं ! कल ध्यान में एक नया अनुभव हुआ उसके सिर के ऊपरी भाग में अद्भुत शीतलता का अहसास हुआ, सिर में आवाजों का आना भी जारी है.

कल दीवाली का उत्सव सम्पन्न हो गया, उनके यहाँ बहुत लोग आये, भोजन साथ-साथ किया. तीनों सखियाँ कुछ बनाकर भी लायी थीं. आज मौसम खुशनुमा है. टीवी पर आत्मा आ रहा है, वाचक ईश्वर के अभय रहने के संदेश का वर्णन कर रहा है. आज म्यूजिक सर भी आयेंगे. उन्हें दिगबोई भी जाना है, नन्हे के अध्यापकों से मिलना है. उसकी पढ़ाई जिस जोश से चलनी चाहिए थी वह दीख नहीं रहा है. अभी कुछ देर पूर्व योग शिक्षक का फोन आया गेस्ट हॉउस से, वह तेजपुर की उन वृद्धा साधिका से बात करना चाहते थे. वे उन्हें माँ की तरह मानते हैं बल्कि माँ ही मानते हैं. आज वे उनके यहाँ आ रहे हैं दोपहर को. उसे चने की दाल, पालक पनीर, शिमला मिर्च, गोभी का परांठा और कुछ मीठा बनाना है.

बुद्धि का फल अनाग्रह है, कभी भी तर्क आदि के द्वारा अपनी बात को ऊपर करना स्वयं को साधना के पथ से विचलित करना है, यदि वह गलत है तो दूसरे का आभारी होना चाहिए और यदि वह सही भी है तो निंदा से दुखी नहीं होना होना चाहिए. कल दोपहर को योग शिक्षक उनके यहाँ आये, उन्हें भोजन पसंद भी आया, तारीफ़ करने में वह संकोच नहीं करते. कल शाम वे क्लब गये, योग का छोटा का कार्यक्रम था, उनकी बातें मन को छू लेती हैं. कल शाम से ही उसका मन भावातीत अवस्था में है. ईश्वर जैसे कहीं निकट ही हैं. अधर मुस्काते–मुस्काते थक गये हैं पर रुक नहीं रहे हैं, वैसे भी एक बार ईश्वर को मन में स्थान मिल जाये तो वह उसे छोड़ता नहीं है. वे ही इतर कार्यों में व्यस्त होकर उसे भूल जाते हैं. ईश्वर प्रेम, शांति और आनंद स्वरूप है, और इस वक्त प्रेम, शांति और आनंद की फुहार उसके अंतर में बरस रही है. ज्ञान से अभी दूर है लेकिन जब हृदय प्रेम से लबालब भरा हो तो और किसी के लिए स्थान कहाँ रह जाता है. बुद्धि यदि आत्मा से जुड़ी हो यानि धैर्ययुक्त हो तो मन अज्ञानी नहीं रह जाता. ‘नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात’ ! अभी-अभी एक सखी से बात की, उसके पति इस बात के खिलाफ हैं कि कोई उनके यहाँ कुछ बनाकर ले जाये, एक दूसरी सखी से उसकी इस बारे में बहस भी हो गयी. वे जीवन को कितना जटिल बना लेते हैं जबकि वह कितना सरल है. जीवन में ईश्वर का ज्ञान हो तो जीना आसान हो जाता है. अपने मन के विकारों को लम्बी छुट्टी पर भेजना होगा तब चित्त में कृष्ण होंगे, कृष्ण जो उनके नितांत अपने हैं !  




Monday, January 5, 2015

स्वामी योगानन्द की पुस्तक


कण-कण में ईश्वर व्याप्त है, उसके प्रति भक्ति सदा भीतर है. उस पर कामनाओं और वासनाओं का आवरण चढ़ा होता है. हर पल चेतन रहकर मन को शुद्ध करना है, जैसे-जैसे मन शुद्द होता जायेगा भक्ति अपने आप प्रकट होती जाएगी. कुछ करना नहीं होता अपने आप ही ईश्वर प्रेम प्रकट होता है जब अंतर उसके लायक होता है. अंतर में प्यार छलकता हो असीम शांति हो और परमानन्द का स्रोत मिल जाये तो ईश्वर की शक्ति दिनों-दिन प्रकट होती जाएगी. तब मन संशय मुक्त हो जाता है. सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी, मान-अपमान, अच्छा-बुरा के द्वैतों से प्रभावित होना छोड़ देता है. संशय विहीन मन ही श्रद्धावान होता है. श्रद्धा ही परम लक्ष्य तक ले जाती है. ऊंच-नीच, शत्रुता-मित्रता की भावना से रहित होकर यदि मन का एकमात्र लक्ष्य दूसरों की सुख-सुविधा का ध्यान रखते हुए सेवा करना है तो ईश्वर वहाँ प्रकट होता है. परनिंदा और असूया पतन की ओर ले जाने वाली है. यदि हृदय में प्रेम होगा तो वह सूर्य की भांति हर एक पर अपनी ऊष्मा बिखेरेगा. वह हरेक के लिए समान रूप से होगा. विशेष श्रद्धा का पात्र तो मात्र एक वही है और वह तो जड़-चेतन बन हर ओर व्यक्त हो रहा है. उसकी छवि हरेक में देखनी है और उसमें हरेक को देखना है तभी द्वैत भाव मिट जायेगा और उस एक के सिवाय कुछ नजर नहीं आएगा. अज सुबह ध्यान में उसे कुछ पलों के लिए दिव्य अनुभव हुआ, लेकिन वह टिकता नहीं, अभी बहुत दूर जाना है. गुरू उसके पथप्रदर्शक हैं, मंजिल एक न एक दिन मिलेगी !

उन्हें मुक्त होना है और शरण में जाते ही वे एक क्षण में मुक्त हो जाते हैं. जो भी विकार भीतर हैं वे बाह्य हैं, जिन्हें निकाल सकते हैं अथवा आने से रोक सकते हैं. कल शाम को अंततः लाइब्रेरी से वह पुस्तक Man's Eternal Quest जो स्वामी योगानन्द जी की लिखी हुई है मिल ही गयी. पहले दो अध्याय पढ़े और रात भर मन कृष्ण भाव में रहा. ईश्वर उसके अंतर्मन में प्रकट हुए हैं यह भाव ही कितना प्रिय है. आज सुबह खिड़की खोलने का अनुरोध जब जून ने नहीं माना तो थोड़ा सा क्रोध का भाव एकाध क्षण के लिए हफ्तों बाद आया पर सचेत थी. अष्टांग योग के बारे में आत्मा में बताया जा रहा है. कृष्ण ने भगवद गीता में एक श्लोक में ही बहिरंग योग का वर्णन किया है, जिसपर न जाने कितनी कितनी पुस्तकें लिखी गयी हैं. आज भी कल की तरह बदली है, गोभी और टमाटर के पौधे धूप से बच रहे हैं, ईश्वर हर वक्त उनके साथ है. इच्छा, मोह, भय, काम, लोभ को त्याग कर ही वे मुक्त हो सकते हैं. ईश वर्णन वह अमृत है जो मुक्ति के मार्ग पर ले जाता है. मन को शांत रखना योग में आरूढ़ होने के लिए आवश्यक है. आसक्ति के कारण किया गया कर्म बाँधता है, शुद्ध सात्विक कर्म ही मुक्त करते हैं. शांत मन ही शुद्ध कृष्ण प्रेम रूपी प्रकाश फैलाता है. पल-पल सजग रहकर ही अध्यात्म के पथ पर आगे जाया जा सकता है. तब मानसिक सुख व संतोष इतना प्रबल व स्वाभाविक हो जाता है कि साधक क्षण प्रतिक्षण परमात्म भाव में समाहित हो जाता है.