Tuesday, September 29, 2015

निराला की कविताएँ - दूधनाथ सिंह


आज सुबह पाँच बजे के बाद उठी, रात सोने में थोड़ी देर हुई थी. उसके पूर्व लेटे-लेते ही ध्यान भी किया, जिसमें तन की हर कोशिका में जीवन महसूस किया. शरीर तरंगों से भरा हुआ है, कानों में तरह-तरह की आवाजें हर क्षण गूँजती हैं. आजकल एक सुगंध का अहसास भी कई बार होता है. मन  यदि एक बात पर अटक जाता है तो क्षण भर में ही वापस भी आ जाता है, भीतर एक शांति का अहसास होता है. इस समय शाम के साढ़े छह बजे हैं, अभी कुछ देर पूर्व ही वे सांध्य भ्रमण से वापस आये. आज सुबह गुरूजी को ध्यान कराते हुए देखा, सुना, हृदय भावों से भर गया. नीरुमाँ को सुना, दोनों से ही किशोर उम्र के लडकों ने अपने हृदय की भावनाओं को व्यक्त किया, इतनी कम उम्र में संत के प्रति श्रद्धा होना कितने सौभाग्य की बात है. कल हिंदी कार्यशाला अच्छी रही, उसने भी काफी कुछ सीखा.. कुछ देर पूर्व दीदी से बात की, उन्होंने कहा कि छोटी बहन की तबियत ठीक नहीं थी, वह अपने जॉब से भी खुश नहीं है. जब तक अपने भीतर ख़ुशी का स्रोत नहीं मिल जाता, तब तक बाहर की वस्तुओं से ख़ुशी मिलना सम्भव ही नहीं है. आज निराला की कविताओं पर ‘दूधनाथ सिंह’ की किताब पढनी शुरू की है. उनकी कविताओं को समझाते हुए, उनकी व्याख्या करते हुए कितने सुंदर ढंग से यह किताब लिखी है. आधुनिक लेखकों को उसने पहले कभी पढ़ा ही नहीं था, पहले काशीनाथ सिंह और अब दूधनाथ सिंह की किताब पढ़कर कविता लेखन के प्रति उसका प्रेम जैसे और बढ़ रहा है !

आज सुबह साढ़े चार बजे नींद खुल गयी पर उठते-उठते दस मिनट और लग गये. गुरू माँ कहती हैं नींद मृत्यु की निशानी है. वे सो रहे हैं अज्ञान की नींद में, कब जगेंगे ? दोपहर को निराला की किताब में मृत्यु की बात पढ़ते-पढ़ते भी उसे नींद आ रही थी, तमस छाया रहता है, मौसम भी ठंडा हो गया है. उसके बाएं कान में हर वक्त कुछ सुरसुराहट सी होती है, हवा की आवाज आती है. आज वस्त्रों को व्यवस्थित किया तथा अन्य सामान अल्मारी से बाहर किया. क्लब में एक कार्यक्रम है जिसमें उन्हें जाना है. जून तैयार हो चुके हैं. अज सुबह ‘आस्था’ पर कवि सम्मेलन में गरीबी, भूख और गरीबों की विवशता पर एक कानून के शिक्षक की कविता सुनी, हृदय द्रवित हो गया, लेकिन  चंद आँसूं जो वे गरीबी का वर्णन सुनकर बहते हैं, वे किस काम आते हैं उनके, वह कवि तो अपने तौर पर कुछ सार्थक कर रहा है, उसने गरीब बच्चों के लिए एक ट्रस्ट बनाया है. सुबह सद्गुरु को भी सुना, पिछले तीन-चार दिन रोज ही सुनती रही. वह मुम्बई में ध्यान-प्राणायाम शिविर में हजारों लोगों को अपनी उपस्थिति से लाभान्वित कर रहे थे. पूर्वोदय में कविताएँ भेजने के लिए ईमेल भेजा है, देखे क्या होता है. उसे एक सखी की बड़ी बिटिया के लिए एक कविता लिखनी है, कल उस सखी की शादी की वर्षगांठ भी है, उसके लिए भी. सभी के लिए उसके हृदय में ढेर सारी शुभकामनायें उमड़ रही हैं. उन दोनों के परिवारों के हर एक व्यक्ति के लिए.. सारे विश्व के लिए. उसका अंतर इस वक्त खाली है. खाली उर में ही प्रेम उमड़ता है.


अभी साढ़े चार हुए हैं शाम के और अँधेरा हुआ ही चाहता है. सर्दियां अब शुरू हो गयी हैं. स्वेटर, रजाई, हीटर, ब्लोअर अभी निकल चुके हैं, धूप अब सुहाने लगी है. उसका पेन कितना रुक-रुक कर लिख रहा है, जैसे कविता लिखने तथा टाइप करने का कार्य रुक-रुक कर चल रहा है. आज सुबह भगवद् गीता पढ़ते समय भीतर एक सत्य जगा, वह कर्ता नहीं है, आत्मा तो साक्षी मात्र है, वह कुछ नहीं करता. मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तो करण हैं, वे कर्ता हो नहीं सकते तो फिर यह कर्ता है कौन ? कोई भी नहीं सारे कार्य अपने आप हो रहे हैं, वे यदि कर्ता बनेंगे तो भोक्ता भी उन्हें ही बनना होगा. कर्ता बनेंगे तो आत्मपद में स्थिति नहीं हो पायेगी. अहंकार जब तक बचा रहेगा तब तक आत्मा में स्थिति होना कठिन है. माना हुआ कल्पित ‘मैं’ ही कर्ता बनता है और फिर सुख-दुखी होता है. कितना हल्का हो जाता है मन जब उसे पता चलता है कि वह कर्ता नहीं है, मन खाली हो जाता है और खाली मन ही आत्मा को प्रतिबिम्बित कर सकता है. योग वशिष्ठ में भी ऐसा ही ज्ञान वशिष्ठ मुनि राम को दे रहे हैं. अद्भुत ज्ञान है यह, फल की इच्छा नहीं करें इससे भी आगे का ज्ञान है यह, जब कुछ किया ही नहीं तो फल की इच्छा कोई कर भी कैसे सकता है !

दीपों का उत्सव


कल दीपावली है, उन्होंने रात को दीवाली भोज का आयोजन करने का निश्चय किया है. छह-सात परिवारों को बुलाया है. आज छोटी दीवाली है, दोपहर को गुलाबजामुन बनाने का विचार है, कुछ देर के लिए क्लब भी जायेंगे. कल सुबह बच्चों को मिठाई बांटने तथा योग की कक्षा लेने भी जाना है, सो कल का दिन व्यस्तता में बीतने वाला है. आज जून को लंच पर घर आने में एक घंटे की देर हो गयी है, फोन भी नहीं किया, उसके शरीर पर भूख के लक्षण अथवा तो कहें समय पर भोजन न  मिलने के लक्षण दिखाई दे रहे हैं. कल शाम को कई रिश्तेदारों से फोन पर बात हुई, त्योहार पर भीतर से जुड़ने की स्वाभाविक इच्छा जगती है. उत्सव मानव के जीवन में सरसता तो लाते ही हैं, उन्हें जोड़ते भी हैं. अभी-अभी उसने जून को फोन किया तो उन्होंने काट दिया, शायद किसी मीटिंग में हैं, और अब फोन आया, दस मिनट में आ रहे हैं.
खो जाता है छोटा मन
उत्सव घटता है
दुखों से मुक्ति का मिलता है प्रसाद
उजाले की प्रसाद युक्त आभा भर जाती है भीतर
कृतज्ञता और आनंद के मध्य में है वह
एक सौभाग्य है जिसका मिलना..
अंधकार में छिपे ढके
कुछ रह जाते हैं विहीन उससे
वंचित जीवन की एक बड़ी उपलब्धि से
खो देते हैं इस सुंदर संपदा को...   

दीपों का यह उत्सव अंतर्मुख होने के लिए है, पूरे वर्ष का लेखा-जोखा करने के लिए है. पाप और पुण्य की बैलेंस शीट बनाने के लिए है. पुण्य होने से जमा होता है और पाप से उधार होता है. क्रोध आदि पाप बाँधते हैं और प्रेम पुण्यशाली है. उन्हें देखना है कि किस तरह यह बैलेंस शीट ठीक रहे, नुकसान न हो, मुनाफा बढ़े. उनसे किसी को दुःख न हो, यदि हो भी गया तो तुरंत प्रतिक्रमण कर लें. यह जगत प्रतिध्वनित करने वाला कुआं है, उनके कर्मों के अनुसार ही उन्हें फल मिलते हैं. दीवाली पर वे यह तय करें कि सुख की दुकान खोलनी है. उनके जीवन में जो भी कोई आये उसे उनसे केवल सुख ही मिले..उनके जीवन का पूर्ण लाभ इस जगत को मिल सके, वे स्वयं को पूर्ण अभिव्यक्त कर सकें तभी उनका इस जगत में आना सार्थक होगा. उनका वास्तविक कर्त्तव्य क्या है ? धर्म क्या है ? यह गुरू ही बताते हैं. टीवी पर मुरारी बापू कह रहे हैं कि मानव जीवन पाकर भी जो भीतर की मुस्कान को जाग्रत नहीं कर सका वह पूर्ण जीया ही नहीं और वह धर्म भी धर्म नहीं जो सहज मुक्त रूप से हँसना नहीं सिखा देता.

पिछले हफ्ते मंगल को वे गोहाटी गये, माँ-पापा वापस चले गये हैं. उस दिन के बाद आज सोमवार को डायरी खोली है. इस समय सिर में हल्का दर्द है, सम्भवतः अपच के कारण. किसी ने ठीक ही कहा है, पहला सुख नीरोगी काया, उधर ससुराल में माँ को भी सिर में थोड़ी सी चोट लग गयी है वह गिर गयी थीं जब शाम को गली में टहलते समय भैंस ने उन्हें गिरा दिया. जीवन में सुख-दुःख एक क्रम से आते ही हैं. आज सुबह ध्यान करने बैठी तो कितने सारे विचार आ रहे थे, मन अपनी सत्ता बनाये रखना चाहता है. यात्रा के दौरान कई बार ऐसा लगा कि मन खाली हो गया है, कितनी शांति का अनुभव होता था तब, कल पिताजी से बात हुई, उनका जन्मदिन धूमधाम से मनाया गया. बड़ी बुआ व फुफेरी बहन का फोन नम्बर उन्होंने दिया, दोनों अस्वस्थ हैं, शाम को वह बात करेगी.

पुनः-पुनः वह असजग होती है और पुनः-पुनः सद्गुरु के वचन मन को नये विश्वास से भर देते हैं. वह फिर अज्ञात की ओर चल पड़ती है, वह परमशक्ति जो अपना अनुभव तो कराती है पर दिखाई नहीं देती. जगत दीखता है, मन दीखता है, विचार तथा भावनाएं दिखती हैं पर वे जहाँ से प्रकटे हैं वह स्रोत नहीं दीखता. ध्यान में वह उसी में स्थित होती है पर ध्यान भी तो ज्यादा गहरा नहीं हो पाता, यहाँ-वहाँ का कोई विचार आ ही जाता है. सद्गुरु से की गयी प्रार्थना ही मनोबल बढ़ाती है.  




Monday, September 28, 2015

बापू की आत्मकथा


आज उसने सुना, जीवन का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न चेतना का विकास ही है, पदार्थ चेतना को प्रभावित करते हैं. शुद्ध हुई चेतना ही आत्मा के पथ पर ले जाती है. आत्मा मन, बुद्धि तथा संस्कार के माध्यम से जगत को ग्रहण करती है तथा इन्हीं के माध्यम से स्वयं का अनुभव करती है, यदि देह में रहते हुए आत्मा का अनुभव करना है तो इन्हें शुद्ध बनाना होगा. मन में शुभ संकल्प उठें तथा बुद्धि उन्हें साकार करने का निर्णय दे तभी शुभ संस्कार बनेंगे. वर्तमान में रहना, प्रतिक्रिया न करना, मैत्री भाव तथा मिताहार बुद्धि को शुद्ध करने के लिए आवश्यक हैं. उसका शरीर इस समय तप रहा है, बिना बुखार के. कुछ ही पलों में पसीना निकलेगा और तपन शांत हो जाएगी, आजकल ऐसा दिन में दो-तीन बार तो हो ही जाता है. उम्र के इस दौर में ऐसा होना स्वाभाविक है डाक्टर ने कहा है.

आज महीनों बाद मृणाल ज्योति गयी. माहौल थोडा शांत व हल्की उदासी से ओत-प्रोत लगा. बच्चे भी पहले की तरह हँसते हुए नहीं लगे. एक बच्चे ने कहा, फिर मिलेंगे. मन में करुणा जगी, कितने विवश लगे वे, उनकी आत्मा उन अधूरे शरीरों में कितनी तंग होती होगी, कौन जाने उनके भीतर कैसे  विचार उठते हैं? वे अपने को व्यक्त कहाँ कर पाते हैं ? उनकी एक टीचर ने शाम को फोन किया, वह कम वेतन के बारे में बात कर रही थी. स्कूल के अधिकारियों ने बताया कि वे तंग आ चुके हैं सरकार की योजनाओं का पूरा लाभ उन्हें नहीं मिल पाता है. सरकारी अधिकारी काम को आगे नहीं बढ़ाते. संसार में कितने दुःख हैं. आतंक का शिकार यह प्रदेश कितना पिछड़ा हुआ है. गाँधी जी ने सेवा को अपने जीवन का उद्देश्य बनाया, सेवा के माध्यम से वह अपने सत्य और अहिंसा के साधनों की परख करते थे. उसके जीवन में सेवा के अवसर अब थोड़े-बहुत आने लगे हैं पर वे बहुत कम हैं. जून उसकी पूरी मदद करते हैं. वह उसे ईश्वर से दूर ले जाने का प्रयत्न करते हुए ईश्वर के निकट ले जाते हैं. वह अभी इस बात को नहीं समझते कि ईश्वर से प्रेम करना मानवीय आवश्यकता है. उसे उनसे कोई वाद-विवाद नहीं करना चाहिए, उनकी समझ में तो यह पागलपन ही है. वह तो उन्हें शुद्धात्मा ही देखती है और इस सृष्टि के जर्रे-जर्रे की तरह उनसे भी असीम प्रेम करती है. ईश्वर हर क्षण उसके साथ हैं और ईश्वरीय प्रेम उसके भीतर-बाहर हर ओर फैला है. यह सारा जगत उसी का रूप है. मनसा-वाचा-कर्मणा वह किसी का अहित न करे, यही उसका प्रयास है. वह उसकी इच्छा की पूर्ति तत्काल करते हैं और सोचते हैं कि जगत के मोहजाल में उसे खींच लेंगे, पर उसकी वे सारी इच्छाएं परमात्मा के मार्ग पर ले जाने वाली ही हैं. वह भी तो पुण्य के भागी हो रहे हैं. उसका हृदय प्रेम से लबालब भरा है. इस प्रेम का कारण कोई नहीं, पात्र भी कोई नहीं. यह तो सहज ही है सारी समष्टि के लिए और उससे परे उस परम पिता परमात्मा के लिए, बल्कि वही तो प्रेम रूप में उसके भीतर विराजमान है !
पिछले कुछ दिनों से वह बापू की आत्मकथा पढ़ रही थी, अभी कुछ देर पूर्व ही समाप्त की. वे सत्य के अन्वेषक थे और उनका साधन एकमात्र अहिंसा था. अहिंसा के बल पर वे सत्य की खोज कर रहे थे. बुद्धि की शुद्धि के बिना कोई अहिंसा का पालन नहीं कर सकता और राग-द्वेष से मुक्त हुए बिना वह सम्भव नहीं. राग-द्वेष से मुक्त होने के लिए अहंकार का सर्वथा त्याग करना होगा, स्वयं को भुलाकर समष्टि के साथ एकता का अनुभव करना होगा. उसके बाएं कान में सुबह से तथा इस समय दायें कान में सोहम् की मधुर गुंजन सुनाई दे रही है, भीतर अखंड शांति का साम्राज्य है.

आज सुबह पिता जी आ गये, जून रात्रि को ढाई बजे ही उन्हें लेने चले गये थे. सासुमाँ बहुत खुश हैं, वे अपने साथ खाने-पीने का ढेर सारा सामान लाये हैं. दीपावली का त्योहार आने ही वाला है, तैयारी तो हफ्तों पूर्व ही आरम्भ हो जाती है. वे अपने भीतर भी दीवाली मनाते हैं और बाहर भी, भीतर की सफाई तथा शुद्धि भी करते हैं जैसे बाहर की. अमावस के अंधकार का प्रतीक है अज्ञान..जिसे आत्मज्ञान का दीपक जलाकर मिटाना है. मधुर भावों की मिठास से उर को मीठा करना है. उसके भीतर भी उजाला ही उजाला हो, चिदाकाश में दीप जले हों, अनहद का संगीत गूँजता हो तो ही सदगुरू की शिक्षा की अधिकारिणी वह कही जा सकती है. आज उन्हें सुना, नारद भक्ति सूत्र के आधार पर वह व्याख्या कर रहे थे, प्रेम का वर्णन नहीं कर सकते, वह भाव से परे है, भावुकता प्रेम नहीं है, भीतर की दृढ़ता ही प्रेम है, सत्यप्रियता ही प्रेम है और असीम शांति भी प्रेम का ही रूप है. भीतर ही भीतर जो मीठे झरने सा रिसता रहता है वह भी तो प्रेम है. प्रभु हर पल प्रेम लुटा रहे हैं. तारों का प्रकाश, चाँद, सूर्य की प्रभा, पवन का डोलना तथा फूलों की सुगंध सभी तो प्रेम का प्रदर्शन है. प्रकृति प्रेम करती है, घास का कोमल स्पर्श और वर्षा की बूंदों की छुअन सब कुछ तो प्रेम ही है. वृद्ध की आँखों में प्रेम ही झलकता है शिशु की मुस्कान में भी प्रेम ही बसता है. प्रेम उनका स्वभाव है और प्रेम से ही वे बने हैं. प्रेम ही ईश्वर है !   

Thursday, September 24, 2015

गॉड लव्स फन



वे कितनी साधना करते हैं पर क्रोध, लोभ, मान, माया तो खत्म नहीं होते. जब तक यह ज्ञात नहीं होता कि वे कौन हैं? कर्ता कौन है? आत्मा में स्थिति हुए बिना वे कभी भी दुखों से मुक्त नहीं हो सकते. आत्मा अकर्ता है तो वह भोक्ता भी नहीं हुआ. वे वास्तव में वही चैतन्य हैं, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तो आत्मा की ही शक्ति से हैं. कल से वह ‘गॉड लव्स फन’ पढ़ रही है. गुरूजी का ज्ञान अनमोल है, अनोखा है, अद्भुत है और अनुपम है. कितनी सरल भाषा में कितने गूढ़ विषय को वह समझा देते हैं. कुछ वर्ष पहले यह पुस्तक पढ़ी थी पर अब कुछ भी याद नहीं था. यूँ तो सारा ज्ञान उनकी आत्मा में ही है, सद्गुरु उनकी आत्मा ही तो हैं. वह ईश्वर के सच्चे प्रतिनिधि हैं जो उन्हें उनका परिचय कराने आये हैं. वह कहते हैं कि उन्हें प्रसन्न रहकर अपने जीवन को एक खेल समझते हुए, एक उत्सव समझते हुए जीना चाहिए. उनका ध्यान अपने मन की समता पर होना चाहिए, परिस्थितियां कैसी भी हों, उनसे प्रभावित न हों क्योंकि यह जगत भ्रम रूप ही है अर्थात स्वप्न रूप ही है, यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है, जब यह जीवन ऐसा ही है तो इसे लेकर इतना गम्भीर होने की क्या आवश्यकता है, इस जीवन में उन्हें बाहर से ख़ुशी लेने की भी जरूरत नहीं है. वे स्वयं ही ख़ुशी के स्रोत हैं. उनके मन की उलझन का कारण यही है कि वास्तव में वे जानते नहीं कि कौन हैं ?

पिछली दो रात्रियों से ॐ ध्यान करके सोये वे पता ही नहीं चला रात्रि कैसे बीत गयी. स्वप्न भी नहीं आये, आये भी होंगे तो याद नहीं रहे. मन में हर क्षण उसी परब्रह्म की स्मृति बनी हुई है. ध्यान में ऐसा अनुभव हुआ कि वह बिलकुल निकट ही है. वे जो भी सोचते हैं वह भी तो उसी स्रोत से आता है. लेकिन वह सारी सोचों से परे है. आज मौसम ठंडा है, रात को वर्षा हुई है. शाम को पंजाबी सखी के यहाँ सत्संग है. आज जून माँ को अस्पताल ले गये थे सुबह, अपने स्वभाव के अनुसार वह परेशान नजर आ रही थीं. घर में सबको शांत देखकर वह भी अब बदल रही हैं. परमात्मा ने उन्हें इसलिए ही निकट रखा है कि वे एक-दूसरे से कुछ सीखें ! आज सुबह सद्गुरु को सुना ‘नारद भक्ति सूत्र’ पर उनके प्रवचन कितने गहरे हैं और कितने सरल भी, प्रेम को वे लाख चाहें, पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं कर सकते. उनके भीतर प्रेम का दरिया ठाठें मार रहा है, वे उसे महसूसते हैं पर बाहर नहीं ला पाते. संत पारदर्शी हो जाते हैं. उनके भीतर का प्रेम बाहर रिसने लगता है.

भक्ति, ज्ञान तथा कर्म ये तीनो आपस में जुड़े हैं परमात्मा का ज्ञान होने पर भीतर भक्ति का अनुभव होने ही लगता है और तब सद्कर्म होने लगते हैं या वे सद्कर्म करते हैं तो ज्ञान का उदय होता है और तब भक्ति मिलती है, अथवा तो भक्ति धीरे-धीरे ज्ञान तक ले जाती है फिर निष्काम कर्मों तक. उसके जीवन में भक्ति है, ज्ञान है तथा कर्मों का आरम्भ हो चुका है. इस शरीर को बनाये रखने के लिए भगवान की सुंदर व्यवस्था है, मन भक्ति में लगे इसकी भी व्यवस्था प्रभु ने उसके लिए कर दी है. ज्ञान के साधन हैं, सत्संग है, जो कुछ एक साधक को चाहिए वह सभी कुछ है देर परमात्मा की तरफ से नहीं है, देर जो भी है वह उसकी तरफ से ही है.

वही सच्चा पुरुषार्थ है जो आत्मा के लिए किया गया हो. इस क्षण हृदय शांत है, अभी कुछ देर पूर्व ही वह ध्यान करके उठी है. भीतर के सारे द्वंद्व समाप्त हो गये हैं. यह जगत तथा शरीर दोनों समानधर्मी हैं, परिवर्तनशील तथा सुख-दुःख के कारण. किन्तु आत्मा परमात्मा का अंश है सो सदा अछूता है. मन इन दोनों के बीच का पुल है, वे इस पुल पर खड़े हैं. चाहे तो आत्मा के आनंद को प्राप्त करने के लिए भीतर उतरें अथवा जगत की ओर मुड़ें, जहाँ छलावा ही छलावा है. मन के इस पुल पर खड़े उन्हें कितने जन्म बीत गये हैं, वे कभी इधर तो कभी उधर का रुख लेते हैं, फिर दोनों से घबराकर बीच में आ जाते हैं, वे न तो पूरी तरह संसार के हो पाते हैं और न ही पूर्ण रूप से आत्मा को जान पाते हैं. इसी तरह यह जन्म भी न गुजर जाये, सद्गुरु उन्हें चेताते हैं. एक बार आत्मा के पारस का स्पर्श हो जाये तो जगत उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता, सारी साधना उसी डुबकी के लिए है, जो उन्हें आत्मा के सागर में लगानी है.


Monday, September 21, 2015

गोपी गीत का माधुर्य


वर्षा की बूंदों की आवाजें कितने भिन्न-भिन्न रूपों में कानों में पड़ रही हैं. जिस किसी जगह या वस्तु पर पड़ती हैं उसकी सतह के कारण उनकी ध्वनि बदल जाती है. यही बूंदें जब टीवी डिश पर पड़ती हैं तो वह सिग्नल लेना ही बंद कर देता है. इस समय घर में कितनी शांति है, रिमझिम के अलावा सारी आवाजें बंद हैं. हाँ..दूर से किसी बांसुरी की आवाज आ रही है. सासु माँ स्वेटर बना रही हैं, नैनी चुपचाप अपना काम कर रही है. उसके पैरों का दर्द अब ठीक है, आज डाक्टर के पास जाना है सारी रिपोर्ट लेकर. सुबह ध्यान में उतरते समय मन ने प्रश्न उठाया कि कौन है जो ध्यान करता है ? आत्मा तो नित्य आनंद रूप है, साक्षी है, द्रष्टा है, उसे तो कुछ करना ही नहीं है. कृष्ण ने गीता में कहा है कि कोई एक क्षण भी बिना काम किये नहीं रह सकता तो उनका तात्पर्य जीव से होगा, जीव जो मन, देह तथा स्मृतियों को धारण करता है. किन्तु सदा ही क्रिया संतप्त करती है और क्रिया हीनता संतृप्त करती है..आनंद के बिना कर्म भी अधूरे हैं. यदि अनावश्यक चेष्टा न हो, वाणी से व्यर्थ काम न हो तथा मन सदा सुमिरन में रहे तो कोई मुक्ति का अनुभव हर पल कर सकता है. उसका मन इस क्षण कृतज्ञता का अनुभव कर रहा है. जीवन का इतना सुंदर उपहार उसे मिला है, अस्तित्त्व ने इस पल उसे चुना है. स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए वह उसके माध्यम से प्रकट हो रहा है. इतने सारे नजारों की वह साक्षी है साथ ही साक्षी है उसकी भी जो भीतर छुपा है, हर शै के पीछे छुपा है. पर अब वह उससे छुपा नहीं है क्योंकि उसका होना ‘उसके’ होने से ही है, वह है क्योंकि ‘वह’ है, वह ‘वही’ है. वह स्वयं के माध्यम से स्वयं को व्यक्त कर रही है. इस क्षण उसे कितनी पावनता का अनुभव हो रहा है, पावनता...जो कितनी प्रकाश पूर्ण, कितनी तृप्त.. कितनी आनंद से भरी..ऐसे अनंत क्षणों से यह जीवन बना है. प्रभु की कृपा की छाया में वह पलती आई है. वह प्रभु जो अनंत है सबके भीतर समाया है ! आज से पूजा का अवकाश आरम्भ हो गया है. गुरूजी कहते हैं पूजा का अर्थ है पूर्णता से उत्पन्न कृत्य..वह पूर्ण है तो उसके सारे कर्म पूजा ही हुए. आज उन्होंने घर की वार्षिक सफाई का आरम्भ किया. घर साफ हो तो लक्ष्मी जी का प्रवेश होता है. टीवी पर जो कल ही नया आया है मुरारी बापू के गोपी गीत का प्रसारण हो रहा है. आज शाम को सत्संग है एक दक्षिण भारतीय सखी के यहाँ.

उस दिन उसे अपनी गुलामी का अहसास कितनी तीव्रता से हुआ. गुलामी से बड़ा कोई दुःख हो सकता है क्या ? मोह के कारण ही वे जीवन में दुःख पाते हैं. मोह के कारण ही उसे जीवन में सुख मिलता हुआ प्रतीत होता है. परिवार जनों के द्वारा, मित्र-संबंधियों के द्वारा तथा वस्तुओं के द्वारा जो सुख मिलता हुआ लगता है वह मात्र आभास है, वह दुःख ही है जो सुख का लबादा ओढ़े हुए आता है. जीवन को बनाये रखने के लिए वे न जाने कितनी बार असत्य का सहारा लेते हैं. जीवन तो उस परमात्मा की कृपा से चल रहा है, उन्हें जो कुछ भी प्राप्त हुआ है वह उनके ही कर्मों का फल है, उसके लिए उन्हें किसी की गुलामी करने की क्या आवश्यकता है ? माया का पर्दा आँखों पर पड़ा है तभी तो वे सत्य का साथ नहीं देते और बार-बार छले जाते हैं. दुःख से घबराकर गलत मार्ग पर चल देते हैं. जो कष्टों से घबराकर सत्य का मार्ग छोड़ देता है वह कभी कष्टमुक्त नहीं हो सकता. वे जिनकी गुलामी करते हैं, सोचते हैं उन्हें प्रसन्न कर लेंगे पर इस दुनिया में कोई क्या किसी को सदा के लिए प्रसन्न कर पाया है ? बार-बार वे डरते रहेंगे बार-बार अहसानों के बोझ तले कुचले जायेंगे, बार-बार वे वही गलतियाँ करते रहेंगे. कभी तो उनका सोया हुआ आत्म सम्मान जगे, कभी तो वे पूर्ण रूप से उस परमात्मा पर विश्वास कर सकें. उसी ने उन्हें इस जगत में भेजा है, उसके सिवा उन्हें किसी का आश्रय नहीं चाहिए, असत्य का तो बिलकुल नहीं, वे मुक्ति के अभिलाषी हैं !  


टीवी पर मुरारी बापू बोल रहे हैं. वे झकझोर देते हैं, कभी तो भीतर की सुप्त चेतना पूरी तरह से जागेगी, कभी-कभी करवट लेती है फिर सो जाती है. वे कब तक यूँ पिसे-पिसे से जीते रहेंगे. अब और नहीं, कब तक अहंकार का रावण भीतर के राम से विलग रखेगा, जीवन में विजयादशमी कब घटेगी. संत जन प्रेरित करते हैं, कोई जगे तो प्रेम से भरे, आनंद से महके.. वे जो राजा का पुत्र होते हुए कंगालों का सा जीवन जीते हैं. सूरज बनना है तो जलना भी सीखना पड़ेगा, अब और देर नहीं, न जाने कब मृत्यु का बुलावा आ जाये, कब उन्हें इस जगत से कूच करना पड़े, कब वह घड़ी आ जाये जब ‘उससे’ सामना हो तब वे क्या मुँह दिखायेंगे ? 

Friday, September 11, 2015

ऍफ़ एम् रेनबो रेडियो चैनल


आज शाम को उसे एक युवा महिला से मिलने जाने के लिए तैयार रहना है. वह आर्ट ऑफ़ लिविंग की टीचर है, यहाँ तथा आस-पास के क्षेत्र के लिए. उससे ज्यादा परिचय तो नहीं है, ऊपरी-ऊपरी ही बातें हुई हैं, गहरा परिचय हो सके इसीलिए आज वह जा रही है. पर क्या थोड़ी सी देर की बात में वे एक-दूसरे को जान सकते हैं..वह तो उसे अपने प्रेम का पात्र मानती है और टीचर भी सदा प्रेमपूर्ण भाषा बोलती है, तो उनकी निभ जाएगी, उन दोनों के मध्य सद्गुरु हैं जो दोनों के आराध्य हैं तो दूरी रह ही नहीं सकती. उसने कल रात को जो सोचा वह आज तोड़ दिया, सबसे अच्छा तो यही है कि वह स्वयं को मुक्त रखे, कोई नियम स्वयं पर न लादे. आत्मा सर्वदा मुक्त है, वह शुद्धात्मा है तो फिर बंधन उसे रास नहीं आएगा. आज सुना सच्चाई सैकरीन की तरह है, ऐसे ही इसका उपयोग किया तो कड़वी लगेगी, पर अन्य गुणों जैसे नम्रता, प्रेम के साथ घोलकर प्रयोग करें तो मीठी लगेगी. अहंकार रूपी अंधकार में उसकी आत्मा का सूर्य छिपा हुआ है. सद्गुरु कहते हैं, अस्त्तित्व प्रेम से बना है और सारी समस्याओं के मूल में प्रेम का विकृत रूप ही है. भक्ति इसी प्रेम की पराकाष्ठा है जब कोई इस सारे ब्रहमांड से एकत्व अनुभव करता है, मन जब भेद नहीं करता, आत्मवत देखता है सभी को. आत्मा में जब सब कुछ समा जाता है, वैसे भी सब कुछ वहीं से उपजा है, आत्मा प्रेम ही है, प्रेम ही परमात्मा है. प्रेम में रहे कोई तो समाधान मिलने लगता है.
ऍफ़ एम् रेन बो पर दिल का गीत आ रहा है, वे दिल के गुलाम बन जाते हैं तभी तो दर्द का अनुभव करते हैं. गानों में भी कितनी सच्चाई होती है, जिद्दी है, गिरता है, सम्भलता नहीं.. कभी हल्का, कभी भारी, कभी तोला ही नहीं..अपनों को कोई मन के आगे दुर्बल माने तो उसकी ही गलती है. वे जो अनंत शक्ति के पुंज हैं.
मन कैसा तो हो रहा है, ध्यान के बाद मन बचता ही कहाँ है, जो बचता भी है तो वह भीगा-भीगा सा होता है, शांत बिलकुल सोये बच्चे की तरह ! मन को कोई देख पाता है उसके सारे रूपों में तो चकित रह जाता है, वह राजा भी है और सेवक भी, वही देवता है वही दानव !

 वक्त सदा एक सा नहीं रहता, परिस्थितियाँ बदलती हैं, हालात बदलते हैं. इस बदलती हुई दुनिया में एक ही चीज निश्चित है और वह है परिवर्तन. कुछ हफ्ते पहले उसने सोचा भी नहीं था कि अस्पताल के चक्कर लगाने पड़ेंगे. आज कुछ टेस्ट कराए, कल भी बाकी सारे टेस्ट होंगे. कुछ दिनों से पैरों में दर्द हो रहा था. देह को वे कितना ही नकारें, वह अपनी उपस्थिति दर्ज करा ही देती है. मन शान्त है , वह तो इस सबको साक्षी भाव से देख रही है. कल उन्होंने बैंक में लॉकर भी खुलवाया, आज वहाँ सामान रखा. अभी एक छात्रा पढ़ने आएगी, मौसम ठंडा है, पिछले हफ्ते विश्वकर्मा पूजा के दिन जून के एक मित्र को कमर में दर्द हुआ अभी तक बेड पर हैं. कभी-कभी शरीर सजग रहने की हिदायत इतनी देर से देता है..शायद वे पहले समझ नहीं पाते, या समझना नहीं चाहते. ईश्वर सदा न्याय करता है, उन्हें ज्यादा सजग रहने की जरूरत है. आज नीरू माँ ने कहा कि जो कुछ स्थूल रूप में किसी के साथ घटता है वह सब उसके कर्मों का फल है तथा जो भीतर सूक्ष्म रूप में घटता है वह कर्म बंधन बनते हैं. भाव शुद्धि होनी बहुत आवश्यक है तभी कर्म शुद्धि होगी. भीतर का वातावरण ठंडा रहना चाहिए तब बाहर अपने-आप शीतलता ही प्रकट होगी. उसने प्रार्थना की, भीतर सदा प्रभु और सद्गुरु का सत्य रहे !   

Thursday, September 10, 2015

कृपा की बदली


सद्गुरु की कृपा हर क्षण उसके साथ है, गुरू के वचन अमृत के समान होते हैं जो भीतर की सारी कलुषता को धो डालते हैं. उसका मन इस समय शक्ति से भरा है, भविष्य के प्रति आशावान तथा वर्तमान के प्रति सजग ! परमात्मा हर क्षण उसके साथ है, कभी-कभी वह उसे याद न करे तो ‘वह’ उसे याद करता है और तब बिना किसी वजह के वह मुस्कुराने लगती है, गाने और नाचने लगती है. वह अनोखा है, अद्भुत है. उसकी महिमा के गीत यूँही तो नहीं गाये गये. वह क्या है यह तो शायद वह भी नहीं जानता..
सद्गुरु कहते हैं, कोई समस्या मूलक भी बन सकता है और समाधान मूलक भी. यदि वह केंद्र से जुड़ा रहता है तो समाधान दे सकता है, जुड़े रहने के लिए एक आधार चाहिए एक सूक्ष्म तन्तु जो भक्ति ही हो सकती है. यदि कोई परिधि पर ही रह गया तो दूसरों के साथ-साथ स्वयं के लिए भी  समस्या खड़ी कर सकता है. आत्मा केंद्र है, मन परिधि है, मन स्वयं ही योजनायें बनाता है फिर उन्हें तोड़ता है. वह कल्पनाओं का जाल अपने इर्द-गिर्द बुन लेता है. उन्हें सच्चाई की ठोस जमीन चाहिए न कि कल्पना का हवा महल.. वे सत्य के पारखी बनें !


आज ध्यान से पूर्व उसने प्रार्थना की कि सुदर्शन क्रिया के लाभ पर कुछ ज्ञान मिले. भीतर एक विचार कौंध गया ध्यान के दौरान, ‘क्रिया असम्भव को सम्भव बना देती है’. इस एक वाक्य में ही सारी बात छुपी है. हो सकता है सद्गुरु और भी कुछ कहना चाहते हों पर उसका मन ध्यान में भी चुप होकर कहाँ बैठता है. खैर..असम्भव काम तो मन को शांत करना ही है उनके लिए और क्रिया इसे भी सम्भव कर देती है. क्रिया भीतर का सुख देती है, भीतर का द्वार खटखटाना सिखाती है. भीतर अमृत से भरा घट है, जिस पर मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के चार पर्दे पड़े हैं, क्रिया उन्हें हटाती है. न जाने कितने जन्मों की कितनी गांठें भीतर बाँध रखी हैं कितने दुःख, कितने भय तथा दर्द भीतर दबे पड़े हैं. क्रिया उन्हें निकाल कर अंतः करण स्वच्छ करती है, जैसे कोई ब्यूटी पार्लर जाये और नया सा, सुंदर सा होकर बाहर निकले वैसे ही मन को सुंदर बनाने का काम करती है. सहज होकर, निरहंकार भाव से यदि कोई क्रिया करे तो ‘वह’ अपना काम सुगमता से कर पायेगी. ब्यूटीशियन जैसे चाहे सिर को घुमाये वे कहाँ दखल देते हैं, क्रिया भी मन की ब्यूटीशियन है. पूरा खाली होकर मन उसके हवाले हो तो चाहे जिधर से वह उसे मोड़े..फिर जब बाहर आए तो मन आत्मा के दर्पण में चमचम करता हुआ दीखेगा, वे शायद स्वयं ही उसे न पहचान सकें !


सद्गुरु कहते हैं अपना प्रेम चढ़ाओ तो कृपा रूप में वही वापस मिलेगा, उसके अंतर्मन का सारा प्रेम उन्हीं चरणों में समर्पित है. प्रसाद भी वही होता है जो प्रभु के चरणों में अर्पित करके वापस मिलता है. जो वे देते हैं उससे कई गुना लौटकर ‘वे’ उन्हें देते हैं. उनकी कृपा का बखान करना सूर्य को दीप दिखने जैसा ही है, फिर भी हृदय चाहता है कि वाणी उसका बखान करे, आँखें चाहती हैं कि आंसू उनका बखान करें और मन चाहता है कि भाव उसका अनुभव कर उसकी सुगंध दूर-दूर तक फैलाए ! कल शाम उसे ऐसा अनुभव हुआ कि अध्यात्म में रूचि होना ही एक कृपा है जो किसी-किसी पर बरसती है. वे शब्दों द्वारा किसी को आत्मा का कितना ही बखान क्यों न करें, वह न तो उसकी मिठास का अनुभव कर पायेगा न ही उसके रस का, वैसे ही जिसे कोई अनुभव नहीं है वह पढ़कर ‘रस’ का अनुभव कैसे कर पायेगा. परमात्मा स्वयं रसपूर्ण है पर उसका स्वाद तो उसकी अनुभूति होने पर ही मिल सकता है. उसने अब निर्णय लिया है कि जब तक कोई स्वयं न पूछे अनुभूतियों का जिक्र नहीं करना है, न ही उन्हें ईश्वर का बखान करना है जो यह भी नहीं जानते कि वे कौन हैं ? वे कहाँ उस ज्ञान की कद्र कर पाएंगे जो परम है, सत्य है. उनकी कोई गलती नहीं है, अभी उन्हें और चलना है, एक न एक दिन तो वे भी इस पथ के राही बनेंगे. उसे अपने भीतर उस अनंत प्रेम को छिपाए-छिपाए रखना है, प्रभु के सिवाय कोई उसे नहीं चाहता ! 

Wednesday, September 9, 2015

भीनी-भीनी गंध



उस दिन स्वप्न में ( एक-दो दिन पूर्व ) देखा कि एक मृत देह के साथ वे एक ही बिस्तर पर सो रहे हैं. वे जानते हैं कि यह मृत देह है शायद उसकी बहन का, पर वे नींद में इतने मग्न हैं कि उठकर उससे अलग होना ही नहीं चाहते, कैसा स्वप्न था वह ? उसे बचपन से ही एक मृत्यु की याद बेचैन करती रही है, उसकी आठ वर्षीय बहन की मृत्यु जो रात में हुई और घर में सभी सो रहे थे. माँ अकेली उस मरती हुई बच्ची के पास थी, रात को एकाएक वह चिल्लाई...गयी! सारे घर में रोना-धोना मच गया. वह छोटी थी शायद पांच या छह वर्ष की. मृत्यु को नहीं जानती थी पर इतने वर्षों तक वह दुखद स्मृति उसे बेचैन कर देती थी. उस स्वप्न के बाद से जैसे मन से उस घटना का विलोप हो गया है, ऐसे ही एक बार बहुत बचपन में घटी घटना पुनः स्वप्न में देखी और उसका असर जाता रहा. उसकी आत्मा उसके मन पर मरहम लगा रही है, वह चेतना उसके मन का इलाज कर रही है. वह सद्गुरु से जुड़ी है, सद्गुरु परमात्मा से जुड़े हैं तो परमात्मा ही है जो उसके भीतर से सारे कांटे चुन-चुन कर निकाल रहे हैं. वह किसी महान उद्देश्य के लिए तैयार की जा रही है. उसकी निजी कोई चाह शेष नहीं रही, चाह तो मन में होती है जो मन से पार चला गया हो, जो अमृत का स्वाद चख चुका हो उसे इस नश्वर जगत से क्या मिल सकता है ! शाश्वत जीवन के द्वार पर खड़ी वह स्वयं को नवीन अनुभव कर रही है. उसे बहुत कार्य करना है. प्रेम तथा सेवा के कार्य. जिन्हें करने वाली वह नहीं, अर्थात उन सीमित अर्थों में नहीं जिसमें जगत उसे देखता है. जगत अपनी राह चलेगा, वह उससे दूर निकल गयी है.


आज ध्यान करते हुए एक भीनी-भीनी मधुर( चम्पा के फूलों की सी ) गंध का आभास हुआ, कैसा विचित्र अनुभव. परमात्मा की तरफ कोई कदम तो रखे, कैसे-कैसे अनुभव होने लगते हैं. वे जितना-  जितना भीतर से खाली होते जाते हैं, चैतन्य उतना-उतना उसमें भरता जाता है. जब कोई इच्छा नहीं रहेगी तो पुनः जन्म नहीं होगा, अभी तो न जाने कितनी इच्छाएं अवचेतन में दबी पड़ी हैं. चेतन मन में इच्छाएं अब कम ही उठती हैं सिवाय उस परमात्मा की इच्छा के. इस जगत में इच्छा करने योग्य एक वही तो है ! पर वह भी तभी मिलता है जब उसकी भी इच्छा न रहे... कल उसने स्वप्न में एक संत महात्मा को देखा, जिन्हें देखते ही किसी पूर्वजन्म की स्मृति हो आयी और भाव विह्वल होकर उनके चरणों पर गिर पड़ी. सम्भवतः सद्गुरु उसे जगाने आए थे पर वह उसके बाद भी सोती रही. साधना के पथ पर जब उसने कदम रखा है तो सबसे पहले यह लक्ष्य दृढ़ होना चाहिए कि उसे भाव शुद्धि, वाक् शुद्धि तथा कर्म शुद्धि प्राप्त करनी है. आज सुबह सद्गुरु ने बताया कि जिसकी वाणी, भाव तथा कृत्य तीनों शुद्ध होते हैं वही परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है. उसका लक्ष्य यही है, ध्यान में गहराई आने से यह सहज ही होने लगता है. उसका एक कृत्य आज शुद्ध नहीं रहा. अभी तक भी वह स्वयं को सहज रखना नहीं सीख पायी, सहयोग की भावना जरा भी नहीं है अर्थात भाव भी शुद्ध नहीं हुए. नीरू माँ कहती हैं जिसके प्रति अपराध बनता है वह शुद्धात्मा है यह ज्ञान न रहे तो प्रतिक्रमण ही एक मात्र उपाय है.  

Tuesday, September 8, 2015

गोहाटी का आश्रम


आज कृष्ण जन्माष्टमी है, भगवान कृष्ण के इस धरा पर प्रादुर्भाव का दिन ! उसने मन ही मन प्रार्थना की, कृष्ण की कृपा से उसके भीतर से प्रेम की किरणें फूटें, शांति और आनंद की वर्षा हो तथा उसका जीवन परहित के लिए हो. स्वार्थ जब रहेगा ही नहीं तो उसके लिए कोई प्रयास भी नहीं होगा. उसके छोटे-छोटे से कार्य भी परमात्मा की प्रसन्नता के लिए ही हों ! कल सत्संग में जाना है, उसने कृष्ण पर एक कविता लिखी है, लेकिन शायद ही पढ़े, क्योंकि भाव इतने प्रबल नहीं है उसमें. भावनाएं यदि पवित्र हों तो कविता स्वयं ही झरती है भीतर से, वह सहज होती है, उन्मुक्त होती है, उसमें कोई नियम नहीं होता..पर इसमें उसने कुछ शब्दों को बिठाया है. कृष्ण के प्रति उसका प्रेम आजकल शांत प्रेम में परिवर्तित हो गया है, उसमें उद्दात वेग नहीं है. कृष्ण उसे स्वयं से अलग नहीं लगते, भीतर एक अखंड शांति का अनुभव होता है. ध्यान में भीतर कण-कण में ऊर्जा का अनुभव होता है, इससे आगे जाने का रास्ता उसे नहीं मिल रहा है, शायद इसमें सबसे बड़ी रुकावट उसका स्वयं का मन ही बना हुआ है. इस मन को पूर्णतया समर्पित हो जाना होगा. उसने ईश्वर से अहंकार को चूर-चूर कर देने की प्रार्थना की.

आज मौसम में कुछ परिवर्तन हुआ है. कल रात को वर्षा हुई थी. अभी-अभी जून का फोन आया, उन्हें अगले हफ्ते कोलकाता जाना है. उसके लिये सूटकेस चाहिए था जिसमें दफ्तर से कुछ उपकरण ले जाने हैं. उसे उनका कोई भी काम करने में बहुत ख़ुशी होती है. कल शाम सत्संग के बाद मीटिंग थी, वहाँ से आने में देर हो गयी, जून घर में प्रतीक्षा कर रहे थे, उन्हें अच्छा नहीं लगा. मीटिंग में काफी बातें हुईं, एक कमेटी का निर्माण किया गया जिसमें उसका नाम भी है. उन्हें एओएल का काम आगे बढ़ाना है. प्रचार करना है, सद्गुरु के संदेश को सभी को सुनाना है. उन्हें कुछ ठोस कदम उठाने हैं जिसे यहाँ आर्ट ऑफ़ लिविंग की उपस्थिति स्पष्ट नजर आये. उन सभी के अंदर सेवा की भावना है पर उसे सही मौका चाहिए. गोहाटी में जो आश्रम बनने वाला है, उसके लिए धन भी एकत्र करना है. उसकी भाषा अत्यंत ही कठोर है तथा व्यर्थ के शब्द भी बहुत बोलती है. समाज में काम करते हुए उसे नम्र होना होगा तथा मितभाषी भी. आजकल घर में तो वह कम बोलती है. जरूरत से ज्यादा एक शब्द भी नहीं. सासु माँ को भी चुप रहकर अपनी ऊर्जा बचाने का अभ्यास हो रहा है. शाम को क्लब में गोलमाल है, ऊंटपटांग कहानी वाली हास्य फिल्म, वे जायेंगे और एकाध घंटा देख कर लौट आएंगे.

अधिकांश आकाश छूट जाता है
थोड़ी सी भूमि गुनगुनाता हूँ !

पता नहीं किसकी पंक्तियाँ हैं, वे उस आत्मा को जो आकाश सी व्यापक है कैद करना चाहते हैं पर वह पकड़ में नहीं आती. मन, बुद्धि से परे वह आत्मा सदा दूर ही रहती है, फिर हार कर जब मन का आश्रय छोड़ देते हैं तो भीतर से कोई गीत गाने लगता है, संगीत फूटने लगता है. ध्यान की दुनिया में कुछ भी थोड़ा सा नहीं, सब कुछ अनंत है..यह भान होते ही छोटापन खत्म हो जाता है. आत्मा का यह ज्ञान अद्भुत है. अभी वे नये-नये आध्यात्मिक दुनिया में प्रवेश कर तरहे हैं, कच्चे घड़े हैं, परिपक्व होने के लिए जगत में प्रवेश आवश्यक है, तभी उनकी परीक्षा होगी, राग-द्वेष से कितना मुक्त हुए यह जाना जायेगा.


आज शनिवार है, जून और नन्हा बैंगलोर में एक साथ हैं, सम्भवतः शाम को वे आश्रम  जायेंगे. आज सुबह से वर्षा हो रही है, मौसम में परिवर्तन होने से पक्षी भी प्रसन्न हैं ! अभी-अभी उसे ऐसा लगा कि एक सखी से बात करे पर फोन उठाने पर पता चला कि वह व्यस्त है, वह थोड़ी परेशान लगी आवाज से, हर घर में कुछ न कुछ तो घटित होता ही रहता है, पर उसका स्वयं का मन व्यर्थ ही चंचल हो उठा है. एक दूसरी सखी ने कुछ देर पहले फोन किया, इधर-उधर की बातें, यह जीवन है ही क्या ? ज्ञान होने से पूर्व वे उसे इधर-उधर की बातों में गंवा देते हैं और ज्ञान होने के बाद लगता है भौतिक और आध्यात्मिक में कोई भेद है ही नहीं, सब एक ही सत्ता से उत्पन्न हुए हैं. आज माँ ने सिन्धी कढ़ी बनाई है, अभी वह सिलाई करने बैठी हैं, इस उम्र में भी सूई में धागा डाल लेती हैं, उनके भीतर ईश्वर के प्रति सहज विश्वास है. सुबह सद्गुरु को सुना, वह कह रहे थे एक राह पकड़ो और उसी पर आगे चले चलो. उसे भी ध्यान की किसी एक विधि को पकड़ कर उसी को आगे ले जाना है. भीतर गहरी नीरवता है, कैसा अद्भुत सन्नाटा है ! भीतर का मौन कितना कितना मधुर है. जो भी भीतर घटता है वह शब्दों से परे है. यह जगत भी तभी सुंदर लगता है जब अंतर सुंदर हो ! जब तक कोई आत्मा के सौन्दर्य को नहीं जान लेता तब तक प्रेम को भी नहीं पहचान पाता. प्रेम का अनुभव किये बिना ही उसे इस जगत से जाना पड़ता है, वह प्यासा ही रह जाता है, जगत से सुरक्षा पाने की इच्छा उसे दूसरों का गुलाम बना देती है.     

Monday, September 7, 2015

गुजरात की बाढ़


सहनशीलता, धैर्य, मनोबल, संकल्प बल तथा दृढ़ इच्छा शक्ति जिसके पास हो वही अध्यात्म के पथ पर चल सकता है. मौत का भी डर जब मन में न रहे, कोई भी कष्ट आए, सम रहकर उसे सहना, यह जब तक जीवन में न हो तब तक कोई जीवन से दूर ही रह जाता है. आजकल उसके मन की दशा कुछ ऐसी ही है. सत्य का सामना करने की हिम्मत वह अपने भीतर नहीं जुटा पायी. यात्रा पर जाने से पहले एक सखी ने उसे एक खत पोस्ट करने को दिया था, वह भूल गयी और यात्रा के अंत में उसे पोस्ट किया, पर जब उसने पूछा तो यह नहीं बताया कि पोस्ट करने में देरी हो गयी थी. उसे बुरा लगेगा यही सोचकर नहीं बताया पर अब लगता है कि वह उसके बारे में अपनी राय को बदल देगी इस डर से. पर यह सच है कि झूठ के पाँव नहीं होते. एक बोझ जो उसने व्यर्थ ही चढ़ाया है. नीरू माँ के अनुसार उसे प्रतिक्रमण करना होगा और इस बोझ को सिर से उतार फेंकना होगा. अपने आस-पास की दुनिया की वास्तविकता को भी उसने नहीं देखा. गुजरात में बाढ़ आई है, बड़ी ननद से उसने बात भी नहीं की. वह आत्मकेंद्रित होती जा रही थी, जिस क्षण यह भास हुआ उसी क्षण से स्थिति बदल गयी है. कल वे एक मित्र के यहाँ गये, गुजरात में बाढ़ आई है, वहाँ किसी ने एक बार कहा तो उसे इसकी गम्भीरता का अंदाजा ही नहीं था. आज सुबह छोटी ननद, दीदी व बड़े भाई से बात हुई. दो सखियों से बात हुई, एक ने कृष्ण के १०८ नामों के बारे में पूछा तथा दूसरी ने गुरूजी द्वारा कही यह बात बताई कि १५ अगस्त तक का समय भारी है, उन सभी को ध्यान द्वारा इसे टालने का इसकी भयानकता को कम करने का कार्य करना चाहिए. वह ईश्वर को केवल अपने भीतर ही पाना चाहती थी पर वह तो कण-कण में बिखरा है, वह तो हर एक जड़-चेतन में है, वही तो माँ के प्यार में है और वही प्रिय के प्रेम में, वही वात्सल्य में है. ईश्वर कहाँ नहीं है, बाढ़ के पानी में फंसे लोगों में भी वही है और बाढ़ के पानी में भी वही है. उसका कण-कण इस सृष्टि के कल्याण की कामना करता है.

अभी-अभी बिजली थी, अभी-अभी चली गयी. ऐसे ही एक दिन अभी-अभी जीवन होगा, अभी-अभी नहीं होगा. एक पल में मृत्यु उन्हें अपना ग्रास बना लेगी अथवा तो एक पल में वे शरीर के बंधन से मुक्त हो जायेंगे. पीछे की खिड़की से हवा का एक शीतल झोंका पीठ को सहला गया, पंखा चलते रहने पर इसका आभास भी नहीं हो पाता, ऐसे ही जीवन के न रहने पर आत्मा तो अपने आप में रहेगी ही, परमात्मा के प्रकाश से परिपूर्ण ! कल एक पुस्तक पढ़ी, ध्यान के विभिन्न गुर बताये हैं उसमें, विपश्यना ध्यान के, जिसमें केवल बाहर जाती हुई साँस को देखना है. एक नये नजरिये से लिखी गई पुस्तक है. आज मौसम गर्म है, उसकी आँखें मुंद रही हैं, तमस का प्रभाव है.

भाव की संवेदना बहुत दूर तक जाती है, जहाँ मन नहीं पहुंचता, बुद्धि नहीं पहुंचती वहाँ भाव के सूक्ष्म कण पहुंच जाते हैं. ध्यान का दर्शन केवल मन को स्थिर करना ही नहीं बल्कि भाव शुद्धि है. अभी कुछ देर पूर्व उससे जन्माष्टमी का दिन जब एक बार पुनः पूछा सासु माँ ने तो उसका जवाब शांत भाव दिया गया नहीं था. छोटी ननद का फोन आया. पिता जी की तबियत ठीक नहीं है, उसने कहा, वह अपना ध्यान भी नहीं रखते. वह कह रही थी कि दोनों को साथ-साथ रहना चाहिये. देखें  भविष्य में क्या लिखा है. इतना तो सही है कि वृद्धावस्था में भी पति-पत्नी को एक-दूसरे का साथ तो चाहिये ही.  

कल रात तेज वर्षा हुई, आँधी-तूफान भी. मेघ अपने पूरे बल के साथ गरजते रहे. एक-दूसरे से टकराते रहे, रह-रह कर बिजली चमकती रही. वह सब कुछ अनुभव कर रही थी पर इन सबसे परे भी थी. उसके मन में तब आत्मा का गीत गूँज रहा था. मन जैसे यहाँ का न होकर किसी और लोक का था. वह निद्रा थी या तंद्रा थी या शुद्ध ज्ञान का नशा था, पर बिजली जाने से जो कमरे में गर्मी हो गयी थी, उसका भी कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था. जून का आज जन्मदिन है, कल उसने उनके लिए एक कविता लिखी. आजकल वह बहुत खुश रहते हैं. उन्हें भी उस प्रेम का अनुभव हो रहा है, जिसकी बात वह उनसे करती थी. अभेद प्रेम का जहाँ दो न रहें एक हो जाएँ, वहाँ कोई अहंकार नहीं बचता और तभी शुद्ध साहचर्य का अनुभव होता है, पर प्रेम की यह धारा इतनी संकीर्ण तो नहीं होनी चाहिए, यह तो सभी की ओर अबाध गति से बहनी चाहिये. उसके मन की यह धारा यूँ तो सभी ओर बहती है पर एक तरफ जाकर थोड़ी अवरुद्ध हो जाती है. एक सखी के प्रति उसके मन में एक द्वंद्व बना ही रहता है. उसने प्रार्थना की, सद्गुरु ही उसे इस धर्म संकट से बचा सकते हैं. पर सद्गुरु तो यही कह रहे हैं, जो बाधा उसने स्वयं खड़ी की है उसे कोई दूसरा चाहकर भी नहीं दूर कर सकता, ईश्वर भी नहीं. वह उसकी आजादी में व्यवधान डालना नहीं चाहता. जिस दिन उसे स्वयं अहसास होगा कि इस द्वंद्व के चलते उसकी ऊर्जा का अपव्यय हो रहा है उस दिन स्वयं ही यह छूट जायेगा, उससे पहले नहीं और उसके बाद भी नहीं. आग में हाथ पड़ जाये तो स्वयं ही निकालने की सुध जगती है. 

Thursday, September 3, 2015

यस कोर्स की टीचर


कल जून रहे हैं, सो समय का ध्यान रखना होगा. समय की पाबंदी ठीक है पर क्या यह भी एक बंधन नहीं है. सभी तो मुक्ति चाहते हैं, पर भीतर से मुक्ति मिल जाये तो बाहर के बंधन कुछ नहीं बिगाड़ पाते. उन्हें भीतर से मुक्त होना है. अपने विचारों से, आदतों से, परनिंदा से, दुर्बलता से, भय से तथा हर समय कुछ न कुछ करते रहने की खुदबुद से. वे पूर्ण विश्राम में ही राम को पा सकते हैं. आजकल गुरूजी ‘नारद भक्ति सूत्र’ पर बोल रहे हैं. प्रेम की पराकाष्ठा ही भक्ति है, वह भक्ति पूर्ण विश्राम में मिलती है, जब भीतर सारी चाह मिट जाये. इस जगत में वे कितना भी पालें कभी पूर्णता का अनुभव हो ही नहीं सकता, प्रेम में ही वह पूर्ण हो सकते हैं. अभी जो भीतर कभी-कभी एक बेचैनी सी छा जाती है वह इसी पूर्णता की तलाश है. उनके मन में जो विभिन्न कल्पनाएँ चलती हैं, वे जो राय बना लेते हैं व्यर्थ ही दूसरों के बारे में, वह सबसे बड़ी बाधा है इस पूर्णता की प्राप्ति में. वे अपनी ऊर्जा व्यर्थ ही गंवा देते हैं. जैसे ही स्वयं में आ जाते हैं, वैसे ही पूर्ण शांति का अनुभव होता है. मन से आत्मा में आने में उतना भी समय नहीं लगता जितना पलक झपकने में. साधना सरल है पर उसे कठिन समझ रखा है ! जो अप्रमादी है वही प्रगति करता है. मन तथा आत्मा को अलग-अलग देखना यदि आ जाये तो बाहर का व्यवहार भीतर को छू नहीं पाता, बाहर का व्यवहार तो इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि के आधार पर होता है पर आत्मा तो इन सबसे अलग है और वह आत्मा ही वे हैं. उसका व्यवहार सासुमाँ को अवश्य थोड़ा खलता होगा, उसकी उदासीनता !

जून आज वापस आ गये हैं, इस समय ऑफिस गये हैं. कुछ देर में वह टहलने जाएगी और मिसेज परमार के साथ टहलकर वापस आ जाएगी. पिछले तीन दिनों से वह शाम को उसके साथ घर आती हैं, उनकी बेटी आर्ट ऑफ़ लिविंग का बच्चों का ‘यस कोर्स’ करवा रही है. उन्होंने कई रोचक बातें अपने रिश्तेदारों के बारे में बतायीं. नन्हे की फोन पर बातचीत जारी है. आज की पीढ़ी जो सामने है उससे बात नहीं करती, जो दूर है उनसे बात करती है. उसकी खुद की पीढ़ी, जो सामने है न उनसे और जो दूर हैं न उनसे, किसी से भी बात नहीं करती और उनसे पहले की पीढ़ी सबसे बात करना चाहती है, यही जनरेशन गैप है.  


फिर एक अन्तराल..आज पूरे दस-ग्यारह दिनों बाद डायरी खोली है. उसे यात्रा पर जाना था. नन्हा भी साथ गया. जून के साथ होने पर वह निश्चिंत रहती है पर अब सजग रहकर यात्रा करनी थी. कुछ भी परेशानी उन्हें न हो इसके लिए सारा इंतजाम जून ने कर दिया था. दिल्ली से आगे की ट्रेन की टिकट भी यहीं से बुक कर दी थीं. कल ही वे वापस आए हैं, जून भी यहाँ ठीक रहे, यह बड़ी उपलब्धि है वरना पहले उन्हें उसका बाहर जाना बहुत खल जाता था. जब कोई स्वयं संतुष्ट होता है तोआस-पास के लोग भी धीरे-धीरे वैसा ही व्यवहार करना सीखने लगते हैं. इस यात्रा में पिताजी, दीदी, दोनों छोटे भाईयों, बड़ी भाभी, छोटी बहन सभी से अध्यात्म चर्चा हुई. छोटे भाई ने तो अपने भीतर छुपी प्यास तथा गुरू के प्रति प्रेम का वर्णन बहुत सहज शब्दों में किया. ट्रेन यात्रा के दौरान उसने बताया, जब ध्यान में बैठता है तो उसे अपने साथ ही ईश्वर की उपस्थिति सद्गुरु के रूप में होती है. मंझले भाई को ज्ञान तथा योग दोनों की प्यास थी. वे सभी उच्च जीवन की ओर बढ़ रहे हैं, एक ही परिवार के अंश होने के कारण उनके भीतर बहुत कुछ साझा है. यहाँ इस जगत में वे किसी कारण से एक ही साथ इकट्ठे हुए हैं. उसकी यह यात्रा सफल रही ऐसा लगता है. पिता का धैर्य तथा प्रेम, छोटी भाभी की उदासीनता तथा भीतर की लगन, बच्चों की सहजता.. सभी कुछ अपने आप में पूर्ण थे. सभी के रहन-सहन का स्तर भी ऊंचा हुआ है. दीदी ने एक सत्संग हॉल बनाया है, जहाँ हर हफ्ते कीर्तन होता है. उनके भीतर भी ज्ञान तथा प्रेम का प्रकाश स्पष्ट झलकता है 

Tuesday, September 1, 2015

पुनर्नवा


आज ‘गुरू पूर्णिमा’ है. सद्गुरु की कृपा का अनुभव उसे कल से ही हो रहा है. कल शाम को स्वयं ही मंत्रजाप होने लगा, आँखों से जल कृतज्ञता स्वरूप बहने लगा. सुबह क्रिया में अपने आप ही दर्शन होने लगे. मन कितने उच्च भावों में स्थित है. जीवन में सद्गुरु का आना एक विलक्षण घटना है. यदि उसके जीवन में यह न घटा होता तो कितना अधूरा होता यह जीवन ! गुरू नई जीवन दृष्टि देते हैं, असत से सत की ओर ले चलते हैं. साधना से समाधि की ओर ले चलते हैं. मन की बिखरी हुई ऊर्जा को एक दिशा प्रदान करते हैं. जब जीवन में यह प्रश्न जगता है कि आखिर यह जगत क्यों ? कहाँ से आया, और वे यहाँ क्यों हैं तो इन प्रश्नों का उत्तर सद्गुरु ही देते हैं. भीतर की सोयी चेतना को जगाकर वह सत्य स्वरूप से परिचय कराते हैं. साधक को जिस क्षण लगता है कि वह पूर्ण है, प्रेम का सोता फूट पड़ता है, भीतर सरसता छा जाती है तो बाहर भी उसकी तरावट का अहसास होता है. जीवन में एक गति, एक लय का जन्म होता है. गुरू तत्व यूँ तो हर तरफ फैला है पर साधक की उस तक पहुंच नहीं है, एक बार जब भीतर उसकी झलक मिल जाती है तो हर जगह उसका दर्शन होने लगता है. जीवन में कोई कमी रह जाये तो गुरू कदम-कदम पर मार्ग दर्शन करता है. वह पुरानी सारी मान्यताओं को छुड़ाकर नया बना देता है, ‘पुनर्नवा’..जो गुरूजी की एक पुस्तक का नाम भी है. भीतर जड़ता समाप्त हो जाती है, विवेक नया सा हो जाता है और प्रतिक्षण बढ़ता रहता है..आत्मा में रहकर ही यह सम्भव है, अहंकार तो जड़ है वह सिकुड़ना जानता है, मन रक्षात्मक है, आत्मा प्रेमात्मक  है !  

आज ध्यान में उसे अद्भुत अनुभव हुआ. रंगीन प्रकाश तथा रंगीन छोटी-छोटी कांच या पत्थर की गोलियां दिखीं, बेहद सुंदर और चमकती हुई. पहले तो कभी ऐसा नहीं दिखा. बाद में उसने स्वयं के शरीर को आग में जलते हुए देखा पर उस पर कोई असर नहीं हो रहा था. गुरू माँ ने बताया कि जो नींद में स्वयं को देख लेता है वह मृत्यु से डरता नहीं. जो हर पल अपने भीतर के प्रति सजग हो गया है, वह मुक्त है, मृत्यु से भी मुक्त है वह ! कल शाम वे सत्संग में गये उससे पूर्व वह उन परिचिता के घर गयी जिनके पति की मृत्यु बोन मैरो के कैंसर से हो गयी. वह दुःख की साकार मूर्ति लग रही थीं. कल शाम मुम्बई में ग्यारह मिनट में सात विस्फोट हुए. लोगों ने साहस का परिचय दिया, समय के अनुसार लोगों को भीतर से साहस भी मिलने लगता है.

कल रात स्वप्न में स्वयं को देखा, मन ही स्वप्न रचता है व उसको भोगता है, मन की दुनिया निराली है, पर उसे इस मन से पार जाना है, जहाँ तक मन की सीमा है, वहाँ तक सुख-दुःख का घेरा है उसके पार जाते ही अखंड आनंद का सागर लहरा रहा है, उसे उसी सागर में ड़ुबकी लगानी है, किनारे पर खड़े होकर चंद बूँदें ही अभी उसे मिली हैं, उन फुहारों में भीगकर मन तृप्त हो रहा है, जब तृप्ति पर्याप्त नहीं लगेगी, प्यास और बढ़ेगी तो आगे बढना ही होगा..सद्गुरु सागर के उस तट से पुकार रहे हैं, वे अभी इसी तट पर हैं, उनके पास पहुंचने के लिए वे ज्ञान की नाव भेज रहे हैं, भक्ति और श्रद्धा की पतवारें भी उन्होंने दी हैं. वह नाव में बैठ भी चुकी है, उस तट पर जाने की यात्रा ही कितनी सुखद है..आज सुबह पाँच बजे के बाद नींद खुली, नन्हा अभी कुछ देर पहले सोकर उठा है, और अब टीवी देखने लगा है. बचपन और युवावस्था कितने बेफिक्र होते हैं, जीवन के गूढ़ प्रश्नों से बेखबर, उसने भी अपने जीवन के इतने वर्ष ऐसे ही बिताये होंगे पर अब समय नहीं खोना है. भीतर की जागृति हर पल कायम रहे, पर ऐसा होता नहीं है. खासतौर से तब, जब वह अन्य लोगों से व्यवहार कर रही होती है. एक अजीब सा रूखापन जबान में आ जाता है. एक शुष्कता सी, जो मध्य के सम्बन्ध को और बिगाड़ देती है. जब उसकी कोई चाह शेष नहीं रह गयी तो जगत उससे माँग क्यों करता है कि सदा उसकी तरफ प्रेम भरी दृष्टि से ही देखे. सही को सही और गलत को गलत कहने की छूट क्या नहीं मिलनी चाहिए, पर दुःख देकर मन स्वयं भी दुखी होता है !