Monday, December 28, 2015

जाता हुआ वर्ष


वे कल घर लौट आये, अभी यात्रा की थकान पूरी तरह नहीं गयी है. घर भी पूरी तरह पुनः व्यवस्थित नहीं हुआ है. पेट में कैसी खलबली मची है. तरह-तरह के भोजन, जगह-जगह का पानी पीकर कुछ तो असर पड़ना ही था. मौसम भी एकदम से बदल गया है, वहाँ गर्मी थी यहाँ ठंड जोरों पर है. आज सुबह बहन व परिवार के अन्य सभी सदस्यों पर कविताएँ लिखीं, छोटी-छोटी तुकबन्दियाँ ! दोपहर को एक आलेख शुरू किया है, अभी दोएक दिन लगेंगे, मन में कितनी ही बातें हैं. कल रात स्वप्न में यूएइ ही देखती रही, खबूस खायी. जो मन पर अंकित है, वही तो पन्नों पर अंकित हो रहा है. यहाँ बगीचे में गुलदाउदी खिली है. शेष फूलों की पौध अभी लगनी है. वर्ष का यह अंतिम महीना है.

आज सुबह पांच बजे उठे, ठंड काफी थी पर ऐसी ठंड में भी उनकी नैनी बिना स्वेटर पहने ही रहती है, पता नहीं वह किस मिट्टी की बनी है. उसने ठंड पर विजय पा ली है, यहाँ वह है दो स्वेटर पहने है, तिस पर भी धूप में बैठी है. बरामदे में धूप आ रही है. भोजन बन गया है, सुबह के सभी आवश्यक कार्य भी हो चुके हैं. नैनी की बेटी पढ़ने आती है पर आज अभी तक नहीं आई, उसकी माँ को पढ़ाई का महत्व पता नहीं है, स्वयं अनपढ़ है सो क्या जाने कि पढ़ना-लिखना इन्सान के लिए कितना आवश्यक है. नन्हा परसों आ रहा है, वे उसे लेने जायेंगे. कल शाम वे एक मित्र परिवार के यहाँ गये, जन्मदिन की बधाई देने, वापसी में वह अपना पर्स वहीं भूल आई, दुबारा जाकर लाना पड़ा, मन कितना बेहोशी में जीता है. मन तो जड़ है ही, वे सजग नहीं रह पाते, मशीनवत काम करते हैं. मन कहीं और होता है, हाथ कुछ और कर रहे होते हैं. असजगता ही बंधन है वही दुःख में डालती है.


साल का अंतिम दिन ! कल मैराथन में भाग लिया, जैसी उम्मीद थी, प्रथम आई. रास्ते में एक बार लड़खड़ा गयी पर जैसे किसी ने सम्भाल लिया, कुछ विशेष चोट भी नहीं लगी, न ही उसके कारण कोई आगे निकल पाया. दिन भर खूब आराम किया. थोड़ी थकन अभी भी है तन में, पर मन तो जैसे है ही नहीं, प्रेम का अनुभव उसे गलाये जा रहा है. प्रेम इन्सान को कितना महान बना देता है. एक क्षुद्र, अनपढ़ गाँव का भोला व्यक्ति भी यदि अपने भीतर प्रेम का अनुभव करता है तो वह संसार का सबसे धनी व्यक्ति होगा. वह सद्गुरू के प्रति, परमात्मा के प्रति और उसकी इस अनमोल सृष्टि के प्रति असीम प्रेम का अनुभव करती है, भीतर जो संगीत गूंजता है, वह उसे भुलाने नहीं देता जो सार्थक है, जो शाश्वत है और जो सत्य है, इस अस्तित्त्व से प्रेम करना जिसे आ जाता है, अस्तित्त्व भी उससे प्रेम करता है. इस वर्ष उसकी चेतना और मुखर हुई है, विकसित हुई है. अब इस बात का डर नहीं है कि कहीं पथ से विचलित न हो जाए, क्योंकि अब भीतर कुछ जग गया है कुछ पनप गया है जो अब खुद जगायेगा. अब मन पहले से जल्दी ठहर जाता है. इस वर्ष कवितायें भी कुछ अधिक लिखी गयीं, ऐसे कवितायें जो कुछ लोगों को ख़ुशी दे गयीं. सभी के भीतर उसी परमात्मा को देखने का अभ्यास भी बढ़ा है और भीतर शांति का झरना भी निरंतर बहता है. जाता हुआ साल ढेर सारी यादें देकर जा रहा है, पर अब वर्तमान में रहने की इतनी आदत हो गयी है कि इस वक्त कुछ भी याद नहीं आ रहा !

Saturday, December 26, 2015

हरे रंग का विला


आज सुबह वह जल्दी उठ गयी, छोटी भांजी भी शायद आवाज सुनकर उठ गयी, पर अँधेरा देखकर पुनः सो गयी. स्नान किया, क्रिया की, मुसली का नाश्ता खाया. बच्चे स्कूल गये और बहन उसे यहाँ ले आई है. उसके पतिदेव का होटल भी सड़क के पार नजदीक ही है. वे यहाँ शाम तक रहेंगे. उसके पास लिखने-पढ़ने का सामान है. कम्प्यूटर पर गुरू माँ का सीडी सुनने की सुविधा भी है. बहन नीचे मरीजों को देख रही है. उसका भावी क्लीनिक अभी खाली पड़ा है, वह यहीं बैठी है. लम्बी काली मेज है, ऊँची घूमने वाली काली ही कुर्सी है. उसका अस्पताल एक फैक्ट्री में है, जहाँ टाईल्स बनती हैं. मजदूरों की संख्या आठ हजार है. रोज ही कोई न कोई छोटी-मोटी दुर्घटना हो जाती है. फैक्ट्री का मालिक वही है जो उस होटल का है जिसमें उसके पतिदेव काम करते हैं. वह शेख है, यहाँ का शासक !     
 
गुरू माँ कह रही हैं कि परमात्मा को प्रेम करने के असंख्य तरीके हैं. यूएइ में वर्षों पहले बड़ी बहन रह चुकी हैं, उनसे कितना कुछ सुना था, पर जो जानकारी यहाँ आकर दो-चार दिनों में ही मिल गयी है, वह इतने वर्षों में भी नहीं मिली. यहाँ पहाड़, मैदान, रेगिस्तान तथा समुद्र सभी कुछ है. अभी आबादी बहुत कम है. समुद्र में पत्थर डालकर जमीन को पुनः प्राप्त किया जा रहा है. सडकें बहुत चौड़ी-चौड़ी हैं, चारों और उजाला ही उजाला है. ट्रैफिक का शोर लगातार आता रहता है. रेतीले पहाड़ों पर हरियाली के लिए पेड़ लगाये जा रहे हैं. वह एक फैक्ट्री के मेडिकल सेंटर में है. मशीनों का शोर भी अनवरत आ रहा है. अभी उसे यहाँ  पौने दो घंटे ही हुए हैं. पांच घंटे और हैं ! जिसमें सुनना, पढ़ना, लिखना, भोजन शामिल हैं.

यहाँ विदेश में जिस तरह भारतीय सुखद भविष्य की तलाश में आए हैं, वैसे ही पाकिस्तानी, बंगलादेशी, तुर्की तथा अंग्रेज भी आये हैं. बहन के क्लीनिक में ही एक डाक्टर भारतीय है तथा दूसरा फिलस्तीनी. दो साल पहले वह अपनी चली-चलाई प्रैक्टिस छोड़कर आई थी. यहाँ प्रैक्टिस करने के लिये यूएइ का सर्टिफिकेट लेना जरूरी था, पहली बार परीक्षा दी तो असफल रही, सोचा कि पूरी तैयारी नहीं थी, पर जब अगली बार फिर असफलता मिली तो माथा ठनका. इतने बड़े घर में दिन भर अकेले रहते मन नहीं लगता था. बच्चे सुबह जल्दी स्कूल निकल जाते, एक घंटे बाद पतिदेव भी और फिर वह और बड़ा सा अहाता जिसमें चार घर थे पर सिर्फ दो में लोग रहते थे और वह अपने घर में अकेली. कभी बैठ-बैठे आँख लग जाती तो लगता पीछे कुछ बच्चे खेल रहे हैं, चाह कर भी पीछे देख नहीं पाती. घर के बाहर तेज धूप होती थी, गेंदे की फूलों की कतारें, गुलाब की कलमें, मौसमी फूल अभी कल्पना में ही थे. वास्तव में तो क्यारियों में पत्थर भरे हुए थे. बच्चों को फुसलाकर कई बार थैले भर-भर के पत्थर बाहर फेंके थे. कोई माली या मजदूर कैसे मिलेगा, पता नहीं था. यहाँ काम करने वाले अधिकतर मजदूर भारतीय हैं. हफ्ते में दो दिन घर में सफाई होती है और दो बार ही कपड़े प्रेस करने वाला आता है. वह तो बहुत बाद में मिला, पहले ढेरों वस्त्र प्रेस करते करते कमर टेढ़ी हो जाती थी. बर्तन अभी भी खुद साफ करने पड़ते हैं. विला का सुंदर हरा रंग अभी भी वैसा का वैसा है. यहाँ वर्षा ज्यादा नहीं होती और होती भी है तो रंग इतने पक्के हैं. पूरे खुजाम में एक ही हरे रंग का विला है. यहाँ जीवन ठीक-ठाक चल तो रहा है पर अपने देश जैसी पूरी आजादी कहाँ है, जी-हुजूरी करनी पड़ती है और मन के किसी कोने में एक डर तो लगा ही रहता है कि कौन जाने किस दिन बोरिया-बिस्तर बांधना पड़े. बच्चे अपने स्कूल से संतुष्ट हैं, उनके साथ कितने ही देशों के बच्चे पढ़ते हैं, टीचर भी विदेशी हैं, नई भाषा सीख रहे हैं, ये आने वाली दुनिया के बच्चे हैं, जिसमें सारा विश्व एक ही परिवार होगा. अपनी मातृभाषा में सीखने का उन्हें अवसर नहीं मिला, खैर, कुछ पाने के लिए कुछ त्याग तो करना ही पड़ता है.

आज सुबह उठी तो साढ़े पांच हो चुके थे. ‘क्रिया’ कर रही थी कि छोटी बिटिया को जगाने बहन आयी. वह समझदार और प्यारी है. कल शाम को वे उसके स्कूल गये पेरेंट-टीचर मीटिंग थी. उसकी अध्यापिका मिस ग्रीड आस्ट्रेलियन हैं. बड़ी तारीफ कर रही थीं. उसकी फाइल भी दिखाई. लौटे तो बाजार होते हुए. घर का कुछ सामान लिया वापसी में उनके पड़ोसी के साथ एक दूसरी टैक्सी में आये. कल सुबह जब वह क्लीनिक गयी थी तो पूरा विश्वास था कि शाम तक जून का वीजा आ जायेगा, पर नहीं मिला था, कुछ घंटे वे सभी परेशान रहे. फिर रात साढ़े आठ बजे पता चला कि वीजा बन गया है और वह आज पौने बारह बजे तक दुबई पहुंच जायेंगे, दो बजे तक घर आ जायेंगे और तब वह सीडी निकालेंगे जो लैप टॉप में अटक गया है. सबके जाने के बाद उसने खाना बनाया, बर्तन साफ किये, स्नान किया अभी उसके पास दो घंटे हैं जिनमें वह लिख सकती है, पढ़ सकती है. कल क्लीनिक में उसने एक भारतीय क्लर्क को देखा, एक डाक्टर से कुछ देर बात हुई, वह फिलस्तीनी है. हिंदी फ़िल्में पसंद हैं. सलामे इश्क की बात कर रहे थे, बहन की तारीफ भी कर रहे थे. उन्हें यहाँ आये आज छठा दिन है. दो दिन बाद वे एक दिन के लिए दुबई रुकते हुए भारत वापस जायेंगे.  


जिंजर ब्रेड


सुबह के साढ़े नौ हुए हैं, छोटी बहन, उसके पतिदेव अपनी-अपनी ड्यूटी पर चले गये हैं. जून मस्कट के लिए रवाना हो गये हैं, उनकी फ्लाईट साढ़े आठ बजे की थी, अब वे हवाई जहाज में बैठे होंगे. दोनों भांजियां घर पर हैं तथा बड़ी बहन की बेटी व दामाद भी. कल सुबह तीन बजे ही वे उठ गये थे, साढ़े पांच से पहले से ही एअरपोर्ट पहुंच गये, पर फ्लाईट सवा नौ बजे चली, साढ़े तीन घंटे में पहुंचे. सभी लेने आये थे. वापस घर आते-आते दो बजे, खाना खाते सवा तीन, कुछ देर आराम किया, शाम को घूमने निकले. पहले समुन्दर के किनारे, फिर मार्किट में, जहाँ सड़क के किनारे टहलने के लिए सुंदर पेवमेंट बने हैं. समुद्र का पानी पीछे लाकर झील का आकार दिया गया है, जिसमें पंक्तिबद्ध रोशनियाँ भी झिलमिला रही थीं. एक होटल के बाहर सड़क किनारे अरबियन नृत्य चल रहा था, जिसमें परंपरागत पोषाक पहने युवा लोकधुन पर नाच रहे थे. कुर्सियां पड़ी थीं तथा एक मेज पर फलों के ढेर ! वहाँ से वे मॉल गये, जहाँ थोड़ी-बहुत खरीदारी की. बहन ने घर का सामान लिया, बच्चों ने डीवीडी लिए. छोटी बहन का एक लिफाफा जो वह अस्पताल से लायी थी, जिसमें कुछ रूपये थे, कहीं गुम गया है, कल शाम को खोजती रही पर नहीं मिला, अस्पताल में भी नहीं है, अभी फोन पर उसने बताया. नुकसान तो हुआ है पर किसने ऐसा किया होगा ? वह परेशान है, लेकिन असावधानी तो उसी ने की, वे  सभी अपनी ही गलतियों की सजा पाते हैं. यहाँ रोटी को खबूस कहते हैं तथा इस जगह का नाम खुजाम है.

आज यहाँ उनका तीसरा दिन है. जून मस्कट में हैं, बहन आज घर पर है उसके जो पैसे उस दिन खो गये थे, मिल गये. सुबह उन्होंने ‘क्रिया’ की, फिर नाश्ते में दाल का परांठा खाया. दोनों बच्चे पिता के साथ क्रिसमस के लिए जिंजर ब्रेड से सजावट करने होटल गये हैं. बहन ने बताया पूरे यूएई में रसल खैमा को भुतहा राज्य मानते हैं. उनके घर में भी जिन-भूत हो सकते हैं. कितने जानवर उनके घर में आये और मर गये शायद भूतों की वजह से. कुत्ता, बकरी, मुर्गा, बिल्ली तथा चिड़िया आये कुछ समय रहे फिर..रसल खैमा छोटा सा राज्य है, यहाँ से दुबई जाने के रास्ते में सबसे पहले उम-अल-क्वेन आएगा, फिर अजमान व शारजाह भी आयेंगे. शाम को वे समुद्र तट पर गये. सागर की लहरें, रंग-बिरंगी सीपियाँ तथा डूबता हुआ सूर्य सभी अद्भुत थे. वे देर तक पानी में नहाते रहे. वापसी में कार के पहिये रेत में धंस गये, कुछ लोगों ने उसे निकालने में मदद की. सागर किनारे पर एक झोंपड़ी थी जो बंद पड़ी थी, उसके पीछे पत्थरों की चारदीवारी थी, एक परिवार जिसकी सफाई करके, कुछ बेंच रखके तथा आग जलाने का प्रबंध करके गया. कल यूएइ का राष्ट्रीय दिवस था, शायद शाम को वे वहाँ पार्टी के लिए पुनः आने वाले थे. बहन का धोबी आया तो ढेर सारी सब्जियां लाया, लौकी, खीरे, तोरी आदि, वह खुद उगाता है तथा मुफ्त में बाँट देता है. उसने उनतीस कपड़े प्रेस किये, इसी तरह एक दिन सफाई कर्मचारी आया था. माली शायद रोज आता है. वह पाकिस्तानी है, शेष दोनों मलयाली हैं.

आज दोनों बच्चे और वह घर पर हैं. उसने लंच में रोटी व चावल बनाये, शेष बहन जाने से पहले बना कर रख गयी थी. बर्तन धोते समय उससे एक गिलास टूट गया. छोटी भांजी ने आज दो पेंटिग्स बनायीं, वह गाना भी सीखती है. हर शनिवार को आधे घंटे की क्लास होती है. बड़ी आज सुबह से अपनी पढ़ाई में लगी है. हाँ, एक बार उसने कम्प्यूटर पर फोटोग्राफ्स दिखाए. यहाँ नूना को समय का तथा दिन का भी बोध नहीं रहता. आज कौन सा दिन है यह याद करना पड़ता है, कल जून से बात हुई. उनके एक मित्र उन्हें वीजा प्रिंट करने में मदद करेंगे. ईश्वर कोई न कोई सहायक भेज ही देता है. बहन ने उसे सत्य साईं बाबा के विचारों पर आधारित उनके दो भक्तों द्वारा लिखी गई एक पुस्तक पढ़ने को दी है, yoga of action, जिसमें कर्मयोग के द्वारा इश्वर प्राप्ति की साधना बताई गयी है. वह भी वही बोलते हैं जो सद्गुरू कहते हैं, ‘सत्य एक है’. बहन सेवा के द्वारा परमात्मा को जानने का प्रयत्न कर रही है, परमात्मा की कृपा उस पर सदा से ही है. वे अपने जीवन को साधना, सेवा, सत्संग तथा स्वाध्याय की फूलों से महका सकते हैं. यहाँ आने से पहले वे घर गये थे, पिताजी, बड़ी बहन, छोटा भाई, मंझला भाई सभी के अध्यात्मिक विचार सुने तथा अब बहन को साधिका के रूप में देखकर अच्छा लग रहा है. बड़े भाई से अभी इस बारे में बात नहीं हुई है. ईश्वर सबके साथ है. यहाँ से भी पिताजी, नन्हा, बड़ी बहन, भैया व भतीजी सभी से उन्होंने बात की. शाम होने को है, बहन घर आने वाली है, वह एक फैक्ट्री के अस्पताल में काम करती है, एक हफ्ते के लिए किसी प्राइवेट क्लिनिक में गयी थी, जहाँ उसके सीनियर ने अपना प्राइवेट क्लिनिक खोला था. बड़ा घर है, घर सामान से भरा है. बच्चे समझदार और बड़े प्यारे हैं. कुल मिलाकर एक खुशहाल परिवार है. बहन अहंकार को अपने काम में बाधा नहीं बनने देती. मन की समता बनाये रखने का प्रयत्न भी करती है. गुरु का पदार्पण जीवन में हो चुका है. आज वे लोग माधुरी दीक्षित की नई  फिल्म देखने जाने वाले हैं.

  

Thursday, December 24, 2015

नंदीग्राम का आंदोलन


आज सुबह निद्रा तंद्रा में बदले इससे पूर्व ही जागृत हो गया था मन. संध्याकाल में जो अनुभूति होती थी, नहीं हुई. सद्गुरु से पूछे तो कहेंगे, ऐसा भी होता है. इस जगत में जी भी हो रहा है, वह न्यायपूर्ण है. वे स्वयं ही बीज बोते हैं फिर स्वयं ही फसल काटते हैं. शाम हो चली है. बाहर बगीचे में नैनी पत्ते उठा रही है और पानी डाल रही है. आज पहली बार दोपहर पूरा एक घंटा चेहरे, गर्दन व बाँहों की मालिश करवाई, हल्कापन लग रहा है. आज एक सखी का जन्मदिन है, पर वह अस्वस्थता के कारण नहीं मना रही है. एक अन्य सखी का फोन आया, उसकी बड़ी बिटिया घर से दूर रहने की कारण उदास हो जाती है, ऐसा वह कह रही थी. नन्हे ने कभी उदासी को फोन पर नहीं बताया पर जिस दिन वह घर से जाता है उदासी झलक ही जाती है. एक तीसरी सखी से भी बात की उसे अस्वस्थ सखी से सहानुभूति है, वह उसकी परेशानी तो समझती है पर हल नहीं जानती. नूना भी हल जानती है ऐसा नहीं कह सकती पर परिवर्तन के लिए सुझाव तो दे ही सकती है. विश्वास, प्रेम और आपसी सौहार्द के लिए कुछ बता सकती है पर मुश्किल तो यही है कि कोई स्वयं को बदलना नहीं चाहता. सब चाहते हैं दूसरे बदलें. पर साधक केवल खुद पर ही नजर रखता है, वह एक पर ही दृष्टि रखता है !  

उसने आज एक छोटा सा विवरण लिखा, इस बार यात्रा में जो अनुभव हुआ वह भुलाया नहीं जा सकता. शीर्षक दिया - ट्रेन में बारह घंटे कोई कहेगा यह भी कोई शीर्षक हुआ, ट्रेन की लम्बी यात्रा में तो कितने ही लोग कितने ही घंटे हर दिन बिताते हैं, बिता रहे होंगे, बिताते रहेंगे, पर वह जिन बारह घंटों की बात कर रही है वे ऐसे थे जहाँ उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे हंसें या रोयें. खुश हों या नाराज ? वे देश की सर्वोत्तम मानी जाने वाली ट्रेन राजधानी के प्रथम श्रेणी के वातानुकूलित कोच में यात्रा कर रहे थे. बनारस के शांत प्लेटफार्म से रात को समय से पूर्व आई ट्रेन में वे रात को दस बजे चढ़े तो मन में उम्मीद थी की अगली रात वे गोहाटी से आगे अपने घर डिब्रूगढ़ पहुंचने वाले होंगे. पर हुआ यह कि अगले दिन सुबह वे उठे तो अपनी चौड़ी बर्थ पर साफ झक्क श्वेत चादर पर ताजा-ताजा दिए अख़बार को बिछाकर भारतीय रेलवे की मेहमान-नवाजी का आनन्द उठा रहे थे कि नंदीग्राम की वजह से हुए पश्चिम बंगाल ‘बंद’ की खबर पर उनकी नजर पड़ी. उन्हें खबर पढ़ते समय यह ख्याल भी नहीं आया कि इस ‘बंद’ का असर उनकी यात्रा पर भी पड़ने वाला है. वे तो खरामा-खरामा नाश्ते का आनन्द ले रहे थे कि ट्रेन बिहार राज्य के कटिहार स्टेशन पर रुकी. जब आधा घंटा और फिर एक घंटा बीतने को हुआ और ट्रेन ने चलने का नाम भी नहीं लिया तो उन्हें लगा कि दाल में कुछ काला है. स्टेशन पर जाकर खबर सुनी कि ट्रेन अनिश्चितकाल के लिए यहीं रुकने वाली है, क्योंकि अगला स्टेशन बंगाल का जलपाईगुड़ी है जहाँ पिकेटिंग करने वाले आन्दोलन कर्ता धरना दिए बैठे हैं. ट्रेन के सूचना तन्त्र पर भी यही सचना प्रसारित हुई तब तो इसमें कोई संदेह नहीं रहा. सुबह के आठ बजे से रात्रि के आठ बजे जब ट्रेन दुबारा चली वे ट्रेन के उसी डिब्बे में बैठे रहे. समय बिताना यूँ तो मुश्किल नहीं था, उन्होंने प्लेटफार्म पर उतरकर ढेर सारी पत्रिकाएँ खरीदीं, खेलने के लिए कार्ड्स खरीदे, एमपी थ्री के लिए बैटरी खरीदी और खाने-पीने की तो कोई कमी थी नहीं. उन्होंने जूस पिया, कहानियाँ पढ़ीं, खाना खाया, सोये और सपने देखे, कॉफ़ी पी और सुडोकू हल किये. ट्रेन में ऐसे बिताये पूरे बारह घंटे. सहयात्रियों के साथ कार्ड्स खेलना शुरू किया तो उनके नन्हे बेटे को लगा कि उससे बढ़कर उसके माता-पिता की दुनिया में और कुछ कैसे हो सकता है, उसने पत्तों को उठाना शुरू किया, बड़ी मुश्किल से उन्होंने एकाध गेम खेला. और उसकी नन्ही हरकतों पर खूब हँसे. इस तरह एक ही स्थान पर रुके बिताया यह पूरा दिन उन्हें याद रह गया है.

आज सद्गुरु ने बताया कि उन्हें अपने आपसे चंद सवाल पूछने चाहिए- १. उन्हें खुश रहने के लिये क्या चाहिए ? २. उन्हें कितने वर्ष और जीना है ? ३. उन्हें मरना कैसे है ? उसके अनुसार पहले सवाल का जवाब है ‘कुछ नहीं’. दूसरे का- जब तक प्रारब्ध कर्म शेष हैं और तीसरे का है- हँसते-हँसते ! कल शाम उसने उस सखी को जो उससे नाराज हुई थी, आत्मा के बारे में बताया, पता नहीं उसने इस बात को कैसे लिया है ? अभी-अभी एक नन्ही छात्रा पढ़ने आई पर वह लिखना नहीं चाहती, उसके भीतर आक्रोश है, लेकिन उसे सिखाने का सामर्थ्य और धैर्य नूना के भीतर नहीं है, न लिखने पर उसे डांट दिया पर इसका भी कोई असर नहीं हुआ. उसके जाने के बाद मुरारी बापू की कथा सुनी, और कुछ नहीं किया, क्या यह समय को व्यर्थ करना है ? बस चुपचाप बैठे हुआ सत्संग सुनना उसका प्रिय कार्य है, यह आलस्य तो नहीं कहा जायेगा ? कौन निर्णय करेगा. यदि आवश्यक कार्य छोडकर वह ऐसा करे तब शायद यह अकर्मण्यता की श्रेणी में आ भी सकता है, लेकिन तब उससे श्रेष्ठ कार्य क्या होगा ? शरीर निर्वाह के लिए जितना जरूरी है, अपने आस-पास की स्वच्छता के लिए जो आवश्यक है, वह सब कार्य करके जो समय बचे उसे सत्संग में लगाने से बढ़कर क्या कुछ है ? रामायण दृष्टि के दोषों को निकालती है. अस्तित्त्व में न्याय है, यहाँ सुख है तो दुःख भी है. पर दृष्टि में परिवर्तन आ जाये तो दुःख भी सुख बन जाता है अथवा तो दोनों समान ही लगते हैं. जीवन में कोई जितना ऊपर चढ़ता है उतना ही नीचे भी जाना होता है, उन्हें इससे घबराना नहीं है, बल्कि साक्षी भाव से इस परिवर्तन को देखना है.
 


Wednesday, December 23, 2015

सर्दी में वर्षा


इस समय दोपहर के ढाई बजे हैं, वर्षा अभी भी हो रही है. जब से वे यात्रा से वापस आये हैं, उसके अगले दिन से धूप के दर्शन नहीं हुए हैं, नवम्बर के दूसरे सप्ताह में ठंड बढ़ गयी है. अगले हफ्ते दिल्ली जाना है और वहाँ से विदेश यात्रा पर. अभी वीसा नहीं आया है पर उम्मीद है चार-पांच दिनों में मिल जायेगा. उसे आज बाजार जाना है, बच्चों के लिए कुछ मीठा लाना है, दीपावली के बाद यह पहली योगकक्षा होगी. बनारस पहुंचने के दूसरे दिन ही उसका गला खराब हुआ, अभी भी पूर्णरूप से ठीक नहीं हुआ है ऊपर से यह ठंडा-गीला मौसम. यात्रा के दौरान व्यायाम आदि भी ठीक से नहीं हो पाता, खान-पान भी अनियमित हो जाता है. खैर, शरीर है तो कुछ न कुछ व्याधि तो कर्मफल के अनुसार होगी ही, इसे इतना महत्व देना ठीक नहीं. उन्हें इस बात का अभिमान होने लगा था कि योग के कारण वे अपने शरीर को स्वस्थ रखने में सक्षम हैं. कोई भी गर्व हो उसका टूटना ही ठीक है. जब तक वे असहाय नहीं हो जाते, अहम् पूरी तरह से नष्ट नहीं हो जाता, ईश्वर के द्वार खुलते नहीं ! मन की अवस्था तो शांत है, स्थिर है, समाहित है. मन किसी वस्तु की आकांक्षा नहीं करता. आवश्यकता की वस्तुएं पहले से ही उपलब्ध हैं, मन जानता है, यह जगत चार दिन का मेला है, बस इससे अधिक कुछ भी नहीं, यहाँ की हर शै बस धोखा ही है, वासतविकता नहीं है, पोलमपोल है, सो मन अपने में ही मगन है !  

नजर बेजुबां है, जुबा बेनजीर है ! संतों की वाणी ऐसी ही होती है, जिसे सुनकर भीतर सारे सवाल शान्त हो जाते हैं. आज भी सद्गुरू को सुना, शांत सागर की तरह, अनंत आकाश की तरह, पावन चन्दन की तरह उनकी वाणी अमृत के समान थी. वे कितने-कितने उपाय बताते हैं, जिस शांति तथा आनन्द का अनुभव वे कर रहे हैं, वह चाहते हैं कि सभी सदा के लिए सारे दुखों से मुक्त होकर, व्याधियों से मुक्त होकर ईश्वरीय आनन्द का अनुभव करें. वे सभी अपने भीतर स्थित उस अनंत खजाने को पा लें, उन्हें उसकी झलक तो कई बार मिली है पर अपनी नासमझी में वे उसे खो देते हैं, खो देते कहना भी ठीक नहीं है. क्योंकि जो है, जहाँ है, जैसा है, सदा है, सदा से है, वैसा ही है, उसे वे भुला देते हैं, यही कहना ठीक हगा. किन्तु वह कभी नहीं भुलाता, भीतर से सदा याद दिलाता रहता है. आजकल उसका ज्यादा समय आत्मचिंतन में लगता है, पिछले दिनों जब वे यात्रा पर थे, तो कितना समय परचिन्तन में लगा, उसकी भरपाई तो करनी ही होगी. अस्तित्त्व संतुलन बनाना जानता है. जब बहुत दिनों तक ध्यान नहीं कर पाया तो अब मन ध्यान में ही टिका रहना चाहता है. शांत  एकांत में अपने आप में ऐसे गुम कि खुद को भी खुद का अहसास न हो, इस तरह कि जैसे वह है ही नहीं, अहंकार शून्य स्थिति..सद्गुरू कहते हैं जिसने जीवित रहते मरने का गुर सीख लिया वह सदा के लिए अमर हो जाता है. वह चाहे किसी भी क्षण इस जगत से विदा ले, अब क्या अंतर पड़ता है. वह जैसे अब है, वैसे ही तब भी तो रहेगी. भीतर जो चेतना है, परम शांति है, उसे छूने के बाद बाहर का सब कुछ उसी के प्रकाश में दिखता है !


आज बादल छंट गये हैं, तेज धूप खिली है, भली लग रही है. आज सुबह नींद खुली पर मन तंद्रा में खो गया, दस मिनट के लिए ही सही पर पुनः सोना यही दिखाता है कि प्रमाद हुआ. उसे लगा जीवन कितना विचित्र है, मन अपनी ही बनाई वीथियों में घूमता रहता है. चाहे कितना भी उत्थान हो जाये पतन की गुंजाइश रहती है. सद्गुरु कहते हैं, शरण में आ जाओ इसके सिवा कोई चारा नहीं. मन का नियन्त्रण बहुत कठिन है, उसे तो शरण में ही जाना होगा. जो हो सब स्वीकार..क्योंकि उसे जब एक बार पता चल गया है कि मन तो चेतना को जगत व्यवहार के लिए मिला एक उपकरण है, इसका उपयोग करना है और अपने आप में रहना है. 

Monday, December 21, 2015

कहत कबीर



कबीर के जीवन में भक्ति की पराकाष्ठा है, वह अपने गुरू से, साहेब से बहुत प्रेम करते हैं. उनके जीवन में ज्ञान की पराकाष्ठा है, वह कर्म योगी भी हैं, जीवन भर चदरिया बुनने का काम करते हैं. कबीर का सारा जीवन इस त्रिवेणी को जन-जन तक पहुँचने में लगा और उसके सद्गुरू जी तो ध्यान, ज्ञान, प्रेम, सेवा, भक्ति, कर्म, कीर्तन और न जाने कितने-कितने पथों का संगम कर रहे हैं. अद्भुत है उनका जीवन. स्टेज पर फूलों की बरसात करते हुए जब वह नृत्य करते से चलते हैं, मस्ती में झूमते भजन गाते हैं, आत्मविभोर होकर स्वयं पर फूलों की वर्षा करते हैं. समाधिस्थ होकर शंकर की मुद्रा बना लेते हैं तो हजारों-हजार व्यक्ति उनके भीतर के इस प्रेम को छूकर मुग्ध हो जाते हैं.

गुलाब में नई कलियाँ आई हैं, पर उसके पूर्व उसे कटना पड़ा, सिर दिए बिना फूल कहाँ खिलते हैं, भीतर भक्ति के फूल खिलाने हों या बाहर कर्म के, भीतर ज्ञान के फूल खिलाने हों या बाहर सेवा के. उन्हें अपने अहंकार को मिटाना ही होगा, तभी जीवन में संगम उतरेगा, तीर्थ का पदार्पण होगा, अंतर्मन शांत होगा, आत्मा की खबर लायेगा, दौड़-दौड़ कर फिर बाहर सुनाएगा. कैसी अनोखी शांति से उसका मन आजकल ओतप्रोत रहता है, कुछ रिसता रहता है चुपचाप, उसे कहने का लिखने का भी मन नहीं होता, वह निस्तब्धता इतनी भली लगती है कि उसे तोड़ने की इच्छा नहीं होती. कई-कई दिन हो जाते हैं डायरी खोले. कविता भी कई दिनों से नहीं लिखी. भीतर सन्नाटा है, पर कहीं आनन्द को पीने का चाव उसे अकर्मण्य तो नहीं बना देगा. लिखना-पढ़ना भी यदि छूट जाये तो जीवन में क्या बचेगा. परसों उन्हें यात्रा पर निकलना है, तब तो समय पंख लगाकर उड़ेगा. ज्ञान की पिपासा भीतर बनी रहे, पर ज्ञान की परिणति तो मौन में ही है. वह मौन भीतर उतरा है. सद्गुरु की कृपा से. अब कुछ पाना शेष नहीं पर देने की तो अभी बारी आई है. यह सेवा का मौसम उतरा है भीतर. आज एक सखी ने अपनी सासुमाँ को उससे फोन पर शिकायत करते सुन लिया और बहुत क्रोध में आ गयी, पर नूना की शांति उसे छू गयी और उस वक्त वह शांत भी हो गयी ! ईश्वर उसे ज्ञान के पथ पर लाये !

वे ईश्वर का ध्यान तभी तो कर सकते हैं जब उसे जान लें, पहचान तो सद्गुरु ही कराते हैं और एक बार उसकी पहचान हो जाये तो वह ध्यान से उतरता नहीं है. और तब लगता है कि जिन्हें दो मान रहे थे वे दो थे ही नहीं एक ही सत्ता थी. कहीं कोई भेद नहीं. तब लगता है, जो भी सहज प्राप्य हो, हितकर हो वही धारण करने योग्य है. तब सारे संशय भीतर से दूर हो जाते हैं, अंतर्मन खाली हो जाता है. कोई आग्रह नहीं, जैसे छोटा बच्चा होता है सहज प्रेरणाओं पर जीता हुआ, अस्तित्त्व तब माँ हो जाता है, ब्रह्मांड पिता होता है, सारे वृक्ष, पर्वत, आकाश तब सखा हो जाते हैं और सारे लोग भी एक अनाम बंधन में बंधे अपने लगते हैं.   



Friday, December 18, 2015

शरद का उत्सव


कैसी अजीब सी गंध कमरे में भर गयी है. जिसका स्रोत पता नहीं चल रहा है. भीतर भी कभी-कभी धुंध छा जाती है, कोहरा छा जाता है जिसका स्रोत अज्ञान के सिवा और क्या हो सकता है. ऐसे लगता है जैसे कुछ खो गया है, पर क्या है उनके पास जो खो सके और यदि खो भी जाये तो उस पर दुखी हुआ जाये इसकी क्या आवश्यकता है. क्योंकि अब खुद के सिवाय सभी कुछ एक दिन खो ही जाने वाला है. खुद तो वे ही हैं, वह खो नहीं सकता, बल्कि वह खो जाये तो बात बन जाये जो जन्मों से बिगड़ी हुई है ! कैसी जड़ता छा गयी है, कुछ ऐसा हो भीतर चेतना खिल जाये !

पिछले कई दिनों से डायरी नहीं खोली. सुबह बीतती है ध्यान व पढ़ने में, दोपहर को पढ़ना-पढ़ाना. शाम को टीवी, टहलना और बस सारा दिन बीत जाता है. जून पिछले हफ्ते बृहस्पति वार को लौटे तब से व्यस्तता थोड़ी सी बढ़ी है, पर इससे पहले बुधवार को भी नहीं लिख पाई थी. आज वर्षा हो रही है, कल तेज धूप निकली थी, जैसे प्रकृति में परिवर्तन होता रहता है, वैसे ही मन का मौसम है, पर वह आकाश जिसमें परिवर्तन होता दीखता है, एक सा है ऐसे ही वह आत्मा जिसमें मन टिका है, सदा एक सा है, वे वही चिदानन्द आत्मा हैं, सो उन्हें मन के बदलते मौसम से परेशान होने की क्या जरूरत है. मनसा-वाचा-कर्मणा वे जो भी क्रिया करते हैं, उनके लिए व सभी के लिए हितकर हो !

आज सुबह साढ़े चार पर उठी, सभी आवश्यक कार्य किये. जून सुबह छह यूरोपियन देशों के बारे में आवश्यक सूचनाएं लाये हैं, जिन्हें पढकर उन देशों के बारे में जानकारी तो प्राप्त करनी ही है एक लेख भी लिखना होगा, जो जालोनी क्लब की पत्रिका में छपेगा जिसके हिंदी भाग की जिम्मेदारी उसे दी गयी है. टीवी पर मुरारी बापू की कथा आ रही है. वह कह रहे हैं, मानव जहाँ है परमात्मा वही  हैं, साधक अपने से दूर होता है परमात्मा से दूर नहीं हो सकता. आज सुबह सद्गुरू को भी शरद उत्सव में भाग लेते देखा, समाधि में लीन हो गये थे, उनके अंग विशिष्ट मुद्रा में स्थिर हो गये थे. अद्भुत रस का प्राकट्य हो रहा था. कोई कितना मौलिक है, प्रमाणिक है, इसका पता चले तो यह भी ज्ञान होता है कि परमात्मा कितना अन्तर में प्रकट है !

पूजा और विजयादशमी का उत्सव समाप्त हो गया. आज सुबह समय पर उठी, कोई ऐसा स्वप्न जो याद रहे कल रात नहीं देखा. पिछले दिनों एक स्वप्न देखा था जिसमें एक रास्ते पर चलते-चलते एक मधुमक्खियों का छत्ता तथा हजारों मधुमक्खियाँ दिखीं, जिनसे घिरने की बाद भी शरीर पर कुछ भी नहीं हुआ क्योंकि शरीर आत्मा का था. हवा की तरह हल्का और पारदर्शी. उड़ता था वह तन हवा में छत तक पहुंच कर नीचे उतर आता था. कितना अद्भुत स्वप्न था. वह आत्मा है यह भाव दृढ़तर होता जा रहा है. भीतर कितनी शांति छाई रहती है जैसे सारी दौड़ समाप्त हो गयी है. क्योंकि वह परमात्मा हर क्षण हर स्थान पर सदा ही साथ रहता है. वे उसे महसूस नहीं कर पाए क्योंकि वे सदा उसे बाहर खोजते थे, जबकि वह भीतर था और सदा रहेगा.


जून दिल्ली गये हैं, परसों लौटेंगे. कल क्लब में मीटिंग है. आज शाम को रिहर्सल के लिए जाना है, इस बार उनके एरिया का कार्यक्रम है. उससे पहले एक सखी आएगी सासु माँ से मिलने. दिन ऐसे बीत रहे हैं जैसे किसी की प्रतीक्षा हो, हर वक्त उस एक की प्रतीक्षा तो रहती ही है. उस ब्रह्म की, उस तत्व की, उस परम सत्य की, उस ज्ञान की, उस परम शांति की.. जिसकी झलकें तो जाने कितनी बार मिली हैं पर अब भी मन तो बना ही हुआ है, वह विकारों से मुक्त भी कहाँ हुआ है ! गुरु का ज्ञान ही उस सत्य की पहचान कराएगा. गुरु पहले परम अज्ञानी बनाता है तभी परमात्मा का ज्ञान फूटता है.   

Wednesday, December 16, 2015

हाथ की अंगुलियाँ


आज गुरूजी ने बताया, हाथ की पाँचों अँगुलियों में सारे ग्रह हैं. अंगूठा मंगल ग्रह है, जो सेनापति है. तर्जनी गुरू है, मध्यमा शनि है, जो सेवक है, अनामिका सोम है, जो राजा है तथा कनिष्ठा बुध है, जो व्यापारी है. चारों वर्ण हाथ की अँगुलियों में दिखाए जा सकते हैं. इसी तरह कल वह आँखों तथा होठों के द्वारा भी भावों को व्यक्त करके दिखा रहे थे, उनके नित नये-नये रूप देखने को मिलते हैं. वह कभी गम्भीर तथा कभी इतने हँसमुख लगते हैं. पिछले दो दिन कुछ नहीं लिख सकी. जून कल शाम लौटे, कल उन्हें फिर जाना है, इस बार एक हफ्ते के लिए. उन सबको नवम्बर में बनारस जाना है और दोनों को दिसम्बर में दुबई, तथा मस्कट. अगले वर्ष मार्च-अप्रैल में वे नार्वे तथा यूरोप की यात्रा पर भी जा सकते हैं. जून के दिमाग में सारा कार्यक्रम स्पष्ट है. उनमें पिछले कुछ समय से सकारात्मक परिवर्तन हो रहे हैं. प्राणायाम व ऊर्जा ध्यान का प्रभाव हो सकता है, वह ज्यादा  उत्साहित हैं तथ अपने लक्ष्यों के प्रति पूरे सजग तथा स्पष्ट भी, इतनी यात्रायें करने के बावजूद भी थकान का कोई निशान नहीं. परमात्मा उनके साथ है और सद्गुरू का वरद् हस्त भी. वह पहले से ज्यादा उदार भी हो गये हैं. जीवन इतना सुंदर है कि उसका मन कृतज्ञता से भर जाता है. कभी-कभी भीतर इतनी ख़ुशी एकाएक महसूस होती है कि....

बहुत दिनों से मन में इच्छा जग रही थी कि सभी से बात करे. फुफेरे, चचेरे भाई-बहनों, बुआ, चाचीजी, पिताजी सभी से आज बात की. जून ने उस दिन बड़ी भांजी से उसके काम के बारे में बात की थी, उसने सोचा बड़ी ननद से पूछे, पर उससे बात नहीं हो पायी. टीवी पर ओशो का प्रवचन आने वाला है. उनकी बातों में एक अनोखा आकर्षण है, आत्मा को छूकर आते हैं उनके बोल !

एक और दिन बीत गया, परमात्मा अब भी दूर ही है, ऐसे न जाने कितने दिन, हफ्ते और बरस बीत चुके हैं. परमात्मा पास होकर भी दूर ही लगता है. सम्भवतः इस यात्रा की कोई मंजिल नहीं. सुबह उठी, अलार्म सुनने के बाद कुछ देर आँखें बंद किये आत्मा को अनुभव करने का प्रयास किया, बल्कि आत्मा में टिकी. क्रिया की, इतने वर्ष हो गये क्रिया करते हुए अब भी विचार आ जाते हैं. ध्यान किया और बच्चों को पढ़ाते वक्त थोड़ा क्रोध भी किया, पर भीतर जागृति रही. ध्यान तभी टिकता है जब मन नहीं रहता और मन तब नहीं रहता जब कोई सचेत रहता है. शाम को टहलते समय भी मन में व्यर्थ का चिन्तन चला, पर झट याद आया मन तो एक प्रवाह है, निरंतर चल ही रहा है, वे साक्षी हैं, अबदल हैं जो जानते हैं और देखते हैं ! लाइब्रेरी से पुस्तकें लायी है, पर किसी में भी मन नहीं लगा, अब संसार की कोई बात रुचती ही नहीं, भीतर एक ही लगन लगी है, भीतर ही रहने का मन होता है, यह कितना अच्छा है कि कोई उसके इस एकांत में बाधा डालने वाला नहीं है. आज नैनी ने खिड़कियाँ साफ कीं, वह उसके सामने कितनी शांत रहती है पर अपनी बेटी के साथ बड़ी रोब भरी आवाज में बात करती है. वे कितने मुखौटे लगाये रहते हैं, उसके सारे मुखौटे उतर जाएँ सद्गुरू से यही प्रार्थना है.

पिछले कई दिनों से कुछ नहीं लिखा. मन जो एकाग्र हुआ था पुनः बिखर गया है ऐसा लगता है, किंतु जो मन ही मिथ्या है उसका बिखरना या एकाग्र होना भी तो मिथ्या ही है, जो स्वप्नवत् है उसकी क्या फ़िक्र, जो शाश्वत है, सदा है और जो ध्यान देने योग्य है वह तो सदा ही है, उसमें कोई विकार आ ही नहीं सकता, वह आज समय से कुछ पहले ही ध्यान करने बैठ गयी, उसी समय माली आकर चला गया, इतना गहरा ध्यान घटा कि कोई आवाज ही नहीं आयी.



बापू का सत्याग्रह


एक में होना ही स्वर्ग में होना है, दो बनाना ही नर्क में होना है. जब वे नहीं बचते तभी परमात्मा होता है, जब तक वे हैं, तब तक परमात्मा नहीं ! नहीं होंगे दोनों एक साथ कभी भी ! वे तो न जाने कितने जन्मों में होते आये हैं, परमात्मा कभी-कभी सद्गुरू की कृपा से ही प्रकट होता है. उनका मिटना भी उसी की कृपा से सम्भव है. देखने की कला आए तो संसार के भीतर ही परमात्मा मिलेगा. जो निकट है वह उन्हें नहीं दीखता, वे भगवान को एल पल में ही भुला देते हैं, उसे भुलाने में एक पल भी नहीं लगता और उसे पाने में भी एक पल ही लगता है. लेकिन भुलाने के पल तो सदा ही सामने रहते हैं, मिलन का वह पल दुर्लभ है, वह कृपा से ही मिलता है. कृपा भी उसी को मिलती है जो सजग है. परमात्मा को सजग हुए बिना कैसे पा सकते हैं, जो चैतन्य है उसे चेतन ही जान सकता है ! वे जिस क्षण पूर्ण सजग हैं मानो परमात्मा के साथ ही हैं. इसलिए कहते हैं इस राह पर चलना तलवार की धार पर चलने के समान है, जहाँ ध्यान हटा वहाँ घाव हुआ, उनके मन को जो सता जाता है वह हर विकार तलवार की धार ही तो है ! उसने पिछले दिनों ये सुंदर बातें प्रवचन में सुनी.

आज बहुत दिनों बाद बिजली इतने घंटों से गायब है, आज बहुत दिनों के बाद स्वप्न में अपने भीतर ऊर्जा को ऊपर चढ़ते महसूस किया, स्वयं को हवा में उड़ते महसूस किया. कितना अद्भुत स्वप्न था. आज बहुत दिनों बाद सुबह निर्धारित नाश्ता भी नहीं बनाया, जब समय हुआ तब जो मन में आया बना दिया. जीवन एक बंधे-बंधाये ढर्रे से हटे तो कभी-कभी हटने देना चाहिए. वे चाहते हैं कि जीवन एक तयशुदा मार्ग पर चलता रहे, कि वे कभी भी मुश्किल में न पड़ें पर मन का स्वभाव ही ऐसा है वह परिवर्तन चाहता है. चैतन्य भी तो विविधता को पसंद करता है. कितने-कितने रूपों में वह प्रकट हो रहा है, पौधों के कितने प्रकार, जीवों के कितने प्रकार, नये-नये बन रहे हैं, पुराने नष्ट हो रहे हैं. वह चैतन्य जब माया से आविष्ट होता है तो अनेक नामरूप धर लेता है, वैसे ही आत्मा जब मन के रूप में प्रकट होती है तो नये-नये विचार गढ़ती रहती है. नई-नई कल्पनाएँ और नये-नये भाव हर पल सब कुछ नया है, न हो तो जीवन कितना उबाऊ हो जाये. हर इन्सान हर पल नया हो रहा है, हर क्षण प्रकृति बदल रही है, तभी तो वह सूरज वही चाँद युगों-युगों से हर दिन अपनी और खींचता है !

आज ‘गाँधी जयंती’ है, आज का दिन ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है. आज के दिन वे एक छोटा सा कदम अपने वातावरण को शुद्ध करने में ले सकते हैं कि जो भी कूड़ा उनके घरों से निकलता है वह अलग-अलग करके फेंका जाये, जो खाद बन सकता है, उसे अलग रखें. प्लास्टिक का इस्तेमाल कम से कम करें. उन्हें गांधीजी के बताये रास्ते पर चलना है तो मनसा, वाचा, कर्मणा एक होना होगा. भीतर जो भाव हैं वही वाणी से व्यक्त हों तथा वही कर्मों में बदलें. वे अपने आदर्शों तथा व्यवहार का अंतर कम करते-करते बिलकुल खत्म ही कर दें. उनका चिन्तन सत्य और अहिंसा को जीवन के हर क्षेत्र में लेन के लिए अग्रसर हो. टीवी पर गांधीजी की पुत्री तारा गाँधी का गाँधी जयंती पर वक्तव्य आ रहा है. विश्वशांति के लिए गांधीजी के जन्मदिन पर होने वाले कार्यक्रम बहुत लाभप्रद होंगे. ‘सत्याग्रह’ की शताब्दी भी इस वर्ष मनायी जा रही है. वे अपने भीतर शांति का साम्राज्य कायम करें तो बाहर उनके चारों ओर भी शांति का साम्राज्य बनने लगेगा. उसे ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना है जिससे भीतर की या बाहर की शांति भंग हो !

जून आज पुनः गोहाटी जा रहे हैं, उसे श्रवण की छूट है. चैतन्य अदृश्य है, वह दृश्य का सहारा लेकर टिका है. जैसे संगीत वीणा के माध्यम से प्रकट होता है, आत्मा की किरण देह के माध्यम से प्रकट होती है. देह का इतना ही मूल्य है कि वह उस किरण के सहारे परमात्मा के सूरज से मिला दे. आत्मा भीतर है मन कहीं नहीं, मन को खोजने जाएँ तो कहीं मिलता नहीं, वहाँ शून्य के सिवाय कुछ भी नहीं, ध्यान में मन खो जाता है, आत्मा प्रकट हो जाती है, जितनी देर मन नहीं है, वे सहज रहेंगे, परमात्मा ही उनके द्वारा प्रकट हो रहा होगा !


Tuesday, December 15, 2015

गणेश और शिव


आज उसे याद आ रहा है कि पहली बार जब सद्गुरू को देखा था तो देखते ही वह स्तब्ध हो गयी थी, उनके वर्तन ने, उनकी वाणी ने मन हर लिया, जिसके सामने हृदय झुक जाये वह सद्गुरु ही मंजिल तक ले जाता है. जो बुद्धि दूसरों में दोष देखती है वह नीचे गिराने वाली है, ज्ञान कभी भी नकारात्मक नहीं दिखाता, सदा सकारात्मक ही दिखाता है. उसके भीतर न जाने कितनी कमिया हैं, उन्हें यदि बुद्धि न देख सके तो वह बुद्धि पक्षपाती है, बुद्धि में राग-द्वेष हो, लोभ तथा ईर्ष्या हो तो ऐसी बुद्धि परदोष दिखाने लगती है. सद्गुरू कहते हैं आत्मा में रहकर ही कोई सारे दुखों से दूर हो सकता है. सतत् होश रखने की जरूरत है, उस समय तक रखने की जरूरत है जब तक जरा सा भी घास-पात भीतर न रह जाये, जब जरा सा भी घास-पात भीतर न रहे तो होश स्वभाव बन जाता है. यह होश मुक्त अवस्था में ला देता है. यही जीवन मुक्ति है.

इच्छा गति है, यह भविष्य में है, जब कोई इच्छा न रहे तभी कोई वर्तमान में आता है, स्मृति ही भूत है, समय केवल वर्तमान में है, वे कल्पना और स्मृति में रहकर वर्तमान को खोते रहते हैं, अपने आप को खो देते हैं. वर्तमान में आते ही वे साक्षी बन जाते हैं, शक्ति बच जाती है, और वे ऊपर की यात्रा कर सकते हैं, पानी नीचे बहता है और भाप ऊपर उठती है, भीतर भी जब ऊर्जा एकत्र हो जाती है, तो वह ऊपर की और जाने लगती है.

आज उसने सुना काल, स्वभाव, पुरुषार्थ, प्रारब्ध, नियति यह पांच संजोग मिलते हैं तब कोई कर्म होता है, और वे स्वयं को कर्ता मानकर सुखी-दुखी होते रहते हैं. कर्ता भाव से मुक्त होते ही चिंता का कोई कारण नहीं रहता. जीत भी यदि उसकी नहीं है तो अहंकार का कोई कारण नहीं बचता और हार भी यदि उसकी नहीं है तो दुःख भी नहीं, ईर्ष्या भी नहीं. उन्हें पकड़े रहने में दुखों को प्रयोजन भी क्या है, वे इतने मूल्यवान तो नहीं कि दुःख उनकी ओर आएं. यह जगत की व्यवस्था उनके लिए तो नहीं चल रही है, जो एक झूठे केंद्र को मानकर चलता है वह भीतर के सच्चे केंद्र को पाने से वंचित रह जाता है. अहंकार दूसरों के मत पत आधारित है. दूसरे का ध्यान मिले यही अहंकार का भोजन  है. यही अहंकार तो छोड़ना है.

ठीक ही कहते हैं एक माँ कई बच्चों को अकेले पाल सकती है पर कई बच्चे मिलकर एक माँ को सहारा नहीं दे सकते. जिस घर में माँ सुख से न रह पाती हो, उसे न रखा जाता हो, वह शांति का सागर कैसे बन सकता है. उसके अंतर में सासुमाँ के प्रति सम्मान है पर वाणी कठोर हो जाती है कभी-कभी, जो अवश्य उन्हें चुभती होगी. कल जून ने पिता से उनकी बात करके दोनों का दिल दुखाया. उन्हें क्या अधिकार है बड़ों का असम्मान करें. यही सोचना चाहिए कि भाग्यशाली हैं कि दोनों का हाथ सिर पर है.

आज सत्संग है, उसे सत्संग, ध्यान, साधना, स्वाध्याय के मर्म को जानना होगा. चिन्तन शक्ति व्यर्थ न हो, शक्ति का संचयन हो और फिर उस का सदुपयोग भी. बोलें तो ऐसा कि दूसरों को अप्रिय न लगे. सजगता के साथ-साथ सहजता भी आवश्यक है. जून आज गोहाटी गये हैं, परसों शाम को आयेंगे. आजकल वह अपने कम में बहुत रूचि ले रहे हैं. प्रसन्न रहते हैं तथा उत्साह से भरे. योग का चमत्कार है. उसकी साधना भी ठीक चल रही है, समय को व्यर्थ न गंवाए, यही महत्वपूर्ण है.  

अज सद्गुरू ने ‘गणेश पूजा’ का महत्व बतलाया. गणेश का जन्म पार्वती के शरीर की मैल से हुआ और शंकर जब लौटे तो उन्हें पहचान नहीं सके. पार्वती का अर्थ है जो पर्व, उत्सव अथवा जीवन के रंगमय रूप से उत्पन्न हुई है, एक अर्थ यह भी है जो पर्वत से उत्पन्न हुई है. उसमें जो भी मल, विक्षेप, आवरण है उसके द्वारा ही एक आकृति का निर्माण हुआ जो शिव तत्व, आत्मा को नहीं पहचान पाया. शिव ने उसे नष्ट करके हाथी का सिर अर्थात ज्ञान को आरोपित कर दिया. आत्मा के आने पर सारा मल दूर हो जाता है, ज्ञान उदार होता है इसलिए गणेश लम्बोदर हैं, उनके कान आँखों तक आ जाते हैं अर्थात वह देखी हुई और सुनी हुई बातों का मिलान करते हैं. उनकी सवारी चूहा है अर्थत एक छोटे से उपाय से महान आत्मा का ज्ञान गुरूजन करा देते हैं. एक छोटा सा मन्त्र साधक को भीतर के अनंत साम्राज्य से मिला देता है. उनके हाथ में पाश है अर्थात अंकुश आवश्यक है तथा पेट पर सर्प लिपटा है जो कहता है सदा सजग होकर रहो, उनके हाथ में मोदक है जो मस्ती का संदेश देता है, मस्ती भी सजगता भरी, ऐसे गणेश की उपासना उन्हें करनी है !


Monday, December 14, 2015

अश्वत्थ की महिमा


यह जगत अश्वत्थ है, जो आज है, जैसा है, वैसा कल नहीं रहने वाला है, जो चंचल है, चलायमान है, संवेदनशीलल है. जैसे पीपल का पेड़ है जिसके पत्ते अस्थिर हैं, हल्की सी हवा में ही डोलने लगते हैं. चित्त का अर्थ है विचारों का प्रवाह, यह प्रतिपल बदल रहा है, एक ही चित्त कभी दोबारा नहीं पाया जा सकता. इस धारा के पीछे खड़े होकर यदि कोई जगत को देखे तो वह भी खंड-खंड दिखाई पड़ता है. यह संसार साधन स्वरूप है, आत्मा देह के बिना कुछ भी करने में असमर्थ है. मोक्ष के लिए आत्मा को संसार से होकर ही जाना पड़ता है. यह संसार उन्हें साधना करने के लिए मिला है, यह साधना तब शुरू होती है जब अतिथि के रूप में सद्गुरू का जीवन में प्रवेश होता है. चित्त एकाग्र होना सीखता है, जो अबदल है उसे जानने के लिए ध्यान करना होगा. ध्यानस्थ हुआ मन जब खो जाता है तब उसकी झलक मिलती है जिसे ईश्वर कहते हैं. आज उसने उनसे सुना, सबमें ईश्वर है, ईश्वर में सब हैं तथा सब ईश्वर हैं. ईश्वर चार अवस्थाओं में में हर जगह है. पहली-घन सुषुप्ति, दूसरी जैसी वृक्षों में हैं, तीसरी स्वप्नावस्था और चौथी जागृतावस्था. जब किसी को यह ज्ञान होने लगे कि इस सृष्टि में जो कुछ भी है, वह ईश्वर ही है, ईश्वर से भिन्न कुछ भी नहीं है, तो ही उन्हें सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ है, ऐसा मानना चाहिए.

कल फिर उसके अहंकार को ठेस लगी, ईर्ष्या का भाव भी उपजा. इसका अर्थ है कि अहंंकार अभी साबित बचा है. इसका अर्थ है कि प्रेम अभी सार्वभौम नहीं हुआ है. जो उसे कष्ट पहुँचाने की क्षमता रखता है उसके हाथ में मानों अपनी चाबी दे रखी है उसने. या तो वह ऐसे व्यक्ति या स्थान से दूर हो जाए और या तो अपने हृदय को विशाल बनाए. उसके हृदय की क्षुद्रता ही तो दिखाता है भीतर उपजा क्रोध ! ऐसा क्रोध जो नितांत व्यक्तिगत है, जो मन की कल्पनाओं से उपजा है, जो छलावा है, जो प्रेम का विकृत रूप है. जो उसे दूसरों की तथा अपनी दृष्टि में भी नीचे गिराता है ! ऐसा पहले भी हुआ है, यह एक पैटर्न बनता जा रहा है, यह दुनिया में न जाने कितने युगों से होता आ रहा है, पर इससे उसे मुक्त तो होना ही होगा, जहाँ निश्छलता न हो, सत्य न हो, प्रेम न हो, वहाँ संबंधों की औपचारिकता मात्र ही शेष रह जाती है. ऐसे में उपेक्षा ही एक मात्र उपाय है. उपेक्षा भी नहीं उदासीनता, निरपेक्षता, एक तटस्थता तथा ऐसी भावना जहाँ भीतर कोई द्वेष नहीं हो, जहाँ सहज प्रेम तो हो पर वैसा ही जैसा सारे ब्रह्मांड के लिए होता है. फूलों, आकाश, नदियों के लिए होता है, जहाँ शुभकामनायें तो हर पल निकलती हैं पर उनके पीछे कोई चाह नहीं होती. इस जगत से उनका ऐसा ही नाता होना चाहिए. तटस्थता से भरा, वे दें पर लेने की चाह के बिना !

मन भी कभी-कभी अजनबी बन जाता है, पर वह तो अपने मन को अच्छी तरह जानती है, यह अन्यों के मनोभाव भांप जाता है. स्वयं कभी स्मृति, कभी कल्पना में खोया रहता है. सद्गुरु कहते हैं भक्ति वह वर्तमान का पल है जो अपने आप से जोड़ता है. वर्तमान में ही परमात्मा है, वर्तमान में ही प्रेम है, प्रेम को नष्ट करती है स्मृति या कल्पना ! वे जब भूत को याद करके कोई क्रिया करते हैं तो मन बंटा रहता है अथवा भविष्य में होने वाले लाभ को देखकर करते हैं तो भी वे पूर्णतया सजग नहीं होते. शुद्ध वर्तमान उनकी सारी शक्ति को जगा देता है, मन को एक जगह लाता है. वही मुक्ति का क्षण है !

पिछल तीन दिनों से डायरी नहीं खोली, नीरू माँ कह रही हैं कि अंतर्सूझ जब प्रकट होती है तो मानना चाहिए कि उपहार स्वरूप मिली है, उसका अभिमान नहीं होना चाहिए. बुद्धि न जाने कितनी बार घटती-बढती है पर अंतर्सूझ जिसे मिल जाये वह घटती नहीं, वह अनुभवों का निचोड़ है, पिछले दिनों मन विकार ईर्ष्या से ग्रस्त हुआ, रचनात्मक कार्य कम हुआ. सत्संग कम हुआ, चक्रों में जो एक ही चेतना कभी सकारात्मक कभी नकारात्मक भावों में प्रकट होती है, वह अपना रंग दिखाती रही. साक्षी होकर उसको देख पाने के कारण मन में द्वंद्व नहीं रहा, निर्णय लेने में देर नहीं लगी. एक सखी का कल आपरेशन हो गया. सम्भवतः उसे इस स्थिति का सामना नहीं करना पड़ेगा. आज सद्गुरू ने कहा कि ज्ञानी को यदि अहंकार हो जाये तो वह प्रेम नहीं कर सकता और प्रेमी को यदि अहंकार हो जाये तो वह ज्ञानी नहीं है. उनका अहंकार ही उन्हें दूसरों से अलग देखने की बात सिखाता है. वे अपने को जब तक शरीर मानते हैं तब तक इससे मुक्त होना सम्भव नहीं है. स्वयं को वे जब तक आत्मा न मानें अहंकार नहीं मिटेगा. आत्मा की कोई पहचान नहीं, वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, वह अपना अस्तित्त्व सबसे अलग नहीं रख सकती. वह सर्वत्र है, वह परम चेतना है, वह अभी तक अपनी उपाधि से मुक्त नहीं हो पाई है तो शरीर से अलग होना तो दूर है. ध्यान के समय जो वास्तविकता है वह व्यवहार के समय कहीं खो जाती है !   





Friday, December 11, 2015

उड़ते हुए तिनके



आज इतवार है दोपहर के सवा तीन बजे हैं, जून आज गोहाटी गये हैं और अगले इतवार को लौटेंगे इसी समय. टीवी पर भजन आ रहा है, हे गोविन्द ! हे गोपाल ! अब तो राखो शरण..जब किसी को अपने भीतर एक ऐसा तत्व का पता चल जाता है जो है पर जिसको देख नहीं सकते, जो सारे शब्दों से भी परे हैं तो वह रह ही नहीं जाता, जो रहता है वह इतना सूक्ष्म है और उसकी तुलना में ये मन, बुद्धि आदि इतना स्थूल मालूम पड़ता है कि शरण में जाने की बात भी बेमानी लगती है, जो शरण में जायेगा वह स्थूल है और जिसकी शरण में जायेगा वह सूक्ष्म है. मन जब तक सूक्ष्म नहीं हो जाता, निर्मल नहीं हो जाता, सारे आग्रहों से मुक्त नहीं हो जाता, सारे द्वन्द्वों से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक शरण नहीं हुआ, जब वह इतना सहज हो जाये इतना पारदर्शी कि सबके आर-पार निकल जाये, कोई भी अवरोध उसके सामने अवरोध न रहे, वह जैसे यहाँ रहकर भी यहाँ का न हो, उस सूक्ष्म में तभी प्रवेश हो सकता है. यह निरंतर अभ्यास की बात है, लेकिन धीरे-धीरे उनका स्वभाव ही बन जाये, तभी वास्तव में शरणागति घटित होगी, अभी तो वे पल-पल शरण में और पल-पल अशरण में आ जाते हैं.

हिंसा रहित समाज, द्वेष रहित परिवार, कम्पन रहित रहित श्वास, विषाद रहित आत्मा, गर्व रहित ज्ञान और भी कई ऐसे बातें यदि उनके पास हों तब कहना चाहिए कि उन्होंने जीना सीखा है, जीने की कला का लाभ लिया है. आज सुबह नींद पाँच बजे से कुछ पहले खुली. क्रिया आदि की. अभी कुछ देर पूर्व ही ध्यान से उठी है. एक दृश्य में देखा कि हवा बह रही है और फर्श पर पड़े तिनकों को उड़ा रही है, यह चेतना का ही चमत्कार है कि आँखें बंद हैं पर फिर भी सब कुछ दिख रहा है. आज बच्चे अभी तक नहीं आये हैं, शायद तेज धूप के कारण या कोई दूसरा कारण होगा. जून का फोन आया था, उत्साह पूर्ण थे. इन्सान को जीवित रहने का कोई न कोई कारण तो चाहिए न, उत्साह ही जीवन की निशानी है. वृद्ध लोग कैसे नीरस हो जाते हैं, उत्साह खो देते हैं, क्योंकि करने को कुछ बचा नहीं, नन्हे बच्चे हर वक्त कुछ न कुछ करते रहते हैं, उर्जा से भरे रहते हैं. कल शाम बहुत दिनों बाद सीडी लगाकर प्राणायाम किया, आज से नियमित करेगी, जून के आ जाने के बाद भी. बच्चों का ध्यान आ रहा है, जितनी आवश्यकता उन्हें उसकी है शायद उतनी ही उसे भी उनकी. कुछ देर सासूजी से ही बात की जाये, लगता है आज वे नहीं आयेंगे.  

ध्यान, ज्ञान, व्रत तथा पवित्रता जिसके पास है, वह उपासक बन सकता है. उपासक स्वयं का निर्माण करता है, वह जगत में रहकर भी जगत से ऊपर रहता है. आज भी सुबह नींद जल्दी खुल गयी, ध्यान आदि किया. जून से बात हुई, पहले कम्पनी के अधिकारियों की हड़ताल हुई फिर वापस ले ली गयी. नन्हे से भी रात को बात की. वह फोन पर देर तक बात नहीं कर पाती, सच तो यह है कि वह वैसे भी देर तक बात नहीं कर पाती, वार्तालाप की कुशलता उसमें नहीं है, सद्गुरू कहेंगे, कुछ मान के चलो, कुछ जान के चलो, कोई सद्गुण ( अगर बातचीत की कला सद्गुण है तो ) किसी में है ऐसा मानने से वह बढ़ता है खैर ! आज सुबह कैसा स्वप्न देखा, सेंट्रल स्कूल की एक टीचर के पति की मृत्यु का अफ़सोस करने वह वहीं के एक शिक्षक के साथ गयी है पर वहाँ का नजारा ही अलग है. प्रिन्सपल हँस रहे हैं, बाद में एक अध्यापक आकर कहते हैं कि विधवा शिक्षक नौकरी छोडकर नहीं जाएँगी, कितना स्पष्ट दिख रहा था सभी कुछ, कल भी एक स्पष्ट स्वप्न देखा था. आज सुबह निश्चत किया कि साधना को गति देनी चाहिए तथा तय करना चाहिए कि लक्ष्य क्या है, उसे कब और कैसे पाया जा सकता है, कौन सा मार्ग शीघ्र वहाँ पहुंचा सकता है, ये सारी बातें तो वर्षों पहले सोचनी थीं, पर तब इतनी समझ ही कहाँ थी !


कल रात ओशो को सुना, किसी साधिका के पत्र का उत्तर दे रहे थे, रात को स्वप्न में देखा वह उसे भी दीक्षा दे रहे हैं. सुबह ध्यान में भाव जैसे उमड़े आ रहे थे. आज वर्षा हुई और तेज बादलों का गर्जन-तर्जन भी, पर इतने शोर में भी भीतर का नाद सुनाई पड़ रहा था भीतर सन्नाटा था ऐसा गहरा मौन कि अभी तक उस मौन की गूँज छायी है. उसे अपनी साधना को तीव्र करने का मौका मिला है, इसके एक-एक पल का लाभ लेना चाहिए. परमात्मा के विषय में यदि कोई गलत धारणा या अपनी महत्वाकांक्षा जो इसके आवरण में छिपी है, सबसे मुक्त करना होगा मन को, मन अथाह है तथा किस कोने में कौन सा जाला अटका है पता ही नहीं चलता. कोई द्वंद्व कोई द्वेष कोई कामना यदि भीतर कहीं छिपी हो तो उसका पता परमात्मा को है ही, वह कैसे आएगा, उसे तो पूर्ण समर्पण की तलाश है. वह सस्ता नहीं मिलता, पर वह जैसे भी मिले सस्ता ही है, क्योंकि वही तो है जिसकी कृपा से यह लगन भीतर जगी है, उसको याद भी किया तो क्या अपने बल पर, उसने चुना है उसे अपने लिए, उसके भीतर जो यह प्रेम जगा है उसका स्रोत तो वही है, जितना वह उसे ढूँढ़ रही है उससे ज्यादा वह उसकी प्रतीक्षा में है ! 

Wednesday, December 9, 2015

संकल्प की छत


अपने अभ्यास के द्वारा जो वे प्राप्त करते हैं वही टिकता है, गुरू की शरण में जाने का अर्थ है गुरू बनने की प्रक्रिया की शरण में जाना. सत्य के समान कोई मंगल नहीं, जिसने अपने अभ्यास और वैराग्य से सत्य की झलक देख ली वही ऊँची उड़ान भर सकता है. आनन्द की चरम अवस्था का अनुभव वही कर सकता है, वह तृप्ति के सुख को जानता है वह पूर्णकाम होता है. वह अपने उदाहरण द्वारा कितनों को आनन्द व सुख का रास्ता बता सकता है. उसके प्रति पूर्ण श्रद्धा और समर्पण हो तभी सत्य की झलक मिलती है. उन्हें डर भी किस बात का है, वे इस जगत में कुछ भी तो लेकर नहीं आये थे, न ही कुछ लेकर जाने वाले हैं, उन्हें जो भी मिला है यहीं मिला है, वे तो सदा लाभ में ही हैं. जगत का उन पर कितना बड़ा उपकार है, उसे लौटाने का तरीका यही हो सकता है कि वे किसी पर भी अपना अधिकार न मानें, यहीं की वस्तु यहीं लौटा दें. स्वयं सदा मुक्त रहें, खाली ! तब इससे भीतर वह भरेगा जो उनका अपना है, उसे वे लेकर जायेंगे और वही वे लेकर आये थे !  

सद्गुरु कहते हैं, क्यों न दुखद स्थितियों का उपयोग जागने के लिए कर लें, जैसे दुःस्वप्न नींद को तोड़ देते हैं. दुःख में वे पूर्ण जागृत हो सकते हैं सुख में बेहोशी छा जाती है. भूख के समय वे जागृत रहते हैं, उपवास का तभी इतना महत्व है, उपवास में कोई अपने पास रह सकता है, जगा रहता है, शरीर के कष्ट के समय भी मन सोया नहीं रह सकता. भय की अवस्था में भी पूर्ण जागरूक होते हैं, तेज गति में भी मन निर्विचार हो जाता है, जीवन की हर परिस्थिति का साधन के रूप में उपयोग किया जा सकता है. यह जीवन निरंतर जल रहा है, यहाँ हर घड़ी खुद की तरफ ले जाना चाहती है, पर वे इसका उपयोग और बेहोश होने के लिए करते रहते हैं. होश पूर्ण विश्रांति ही तो ध्यान है, परिधि पर कुछ न हो रहा हो, केंद्र पर सजगता बनी रहे तभी ध्यान घटता है.

जाने कब से वे माया के बंधन में हैं और जाने कब से परमात्मा की कृपा भी बरस रही है. मन जब व्यर्थ बातों से हटकर उसकी तरफ मुड़ता है तो वह बाहें खोले ही मिलता है. वह परम सत्ता सदा जागृत है, पर वे उसे देखकर भी अनदेखा करते हैं. परमात्मा के चिह्न चारों और बिखरे हैं, वही भीतर भी है जो उनके होने का कारण है, कितना आश्चर्य है कि वे उसे नहीं जानते, वह जो जानकर भी नहीं जाना जाता, वह जब होता है तो वे नहीं रहते, वहाँ से लौटकर कोई आया ही नहीं, वास्तव में परमात्मा ने ही परमात्मा का अनुभव किया है !

आज भी उसने एक सुंदर संदेश सुना, सर्वोत्तम पद है आत्मपद, इसकी शपथ उन्हें ग्रहण करनी है, नकारात्मक भाव से मुक्त रहना, कटुवचन नहीं कहना और सभी को प्रेम देना..ये तीन बातें इस शपथ में शामिल करनी हैं. उन्हें इस शपथ रूपी संकल्प की छत बनानी है, जिससे मन खाली रहे, यह व्यर्थ की बातों से नहीं भरता. नया संकल्प, नयी कल्पना, नया चिंतन तभी मन में आ सकता है, जब पुराना वहाँ न हो, जगह खाली हो तो आत्मा मुखरित हो जाती है. मन बाह्य संसार से ही विचारों को ग्रहण करता है यदि शपथ रूपी छत हो तो उनकी वर्षा से वे बच सकते हैं. अनावश्यक बातों को त्यागकर वे केवल आवश्यक को ही ग्रहण करें तो कितनी ऊर्जा बचा सकते हैं. फिर वही ऊर्जा भीतर जाने में सहायक होती है और वे मनुष्यत्व के पद की प्रतिष्ठा तभी बनाये रख सकते हैं जब भीतर जाकर आत्मा के प्रदेश में प्रवेश हो ! तभी जीवन सुंदर बनता है. ज्ञानी कर्म बाँधते नहीं हैं, कर्म छोड़ते रहते हैं, उन्हें भी प्रतिपल सजग रहकर अपने कर्मों को छोड़ते जाना है.