गणपति की मूर्तियाँ
आज पहली तारीख़ है, सभी को मासिक भत्ता दे दिया। कामवालियाँ, दूधवाला, फूलवाली, पेपरवाला, माली सभी को, पानी का बिल आना अभी शेष है। जून मोबाइल पर दिवाली पर देने के लिए मिठाई देख रहे हैं। ऑन लाइन के जमाने में दुकानें भी मोबाइल पर दिख जाती हैं। ‘देवों के देव’ में महादेव और कार्तिकेय के सुंदर संबंध के दृश्य देखे, बिना आसक्त हुए रिश्तों को निभाना आये तो इससे सुंदर कुछ भी नहीं ! पार्वती को एक पुत्री की प्राप्ति हुई है, जिसका नाम अशोक सुंदरी है, यह बात पहले उसे ज्ञात नहीं थी। आज छोटी ननद से बात की, उन्होंने योग शिक्षक से योग सीखना आरंभ किया है, शाम को घर पर आकर एक घंटा अभ्यास कराता है। योग को जीवन का अंग बनाये बिना स्वस्थ रहना कठिन है। दोपहर को पिता जी से बात की। उन्हें बीच-बीच में बायें कूल्हे में दर्द होता है। छोटे भाई ने बताया, हफ़्ते में एक बार उन्हें इंजेक्शन लगाने नर्स आएगी। सुबह एक अजीब सा स्वप्न देखा। जिसमें ख़रगोश थे जो अपने बच्चों के पीछे भाग रहे थे और उनका अवशेष भक्षण कर रहे थे। पता नहीं क्या अर्थ है इसका, बाद में पढ़ा, ख़रगोश को स्वप्न में देखना शुभ माना जाता है। मन तो शंका करने में सिद्धहस्त है, नये विचार करने लगा, सो उठने में देर हो गई, जबकि हर स्वप्न जगाने के लिए आता है।
दोपहर को एक उपहार मिला, सोनू ने भेजा है।जिसमें गणपति की मूर्तियाँ बनाने के लिए सभी सामग्री दी गई है। प्लास्टर ऑफ़ पेरिस, मोल्ड और रंग ब्रश आदि भी। पहली बार वह गणेश की मूर्ति स्वयं बनाने वाली है। पिता जी का स्वास्थ्य अब बेहतर है, उन्होंने फ़ेसनुक पर उसकी एक कविता पर टिप्पणी की, इसी से पता चलता है। मंझले भाई का तबादला दिल्ली हो गया है, उसे डेढ़ वर्ष और जॉब में रहना है। इसके बाद वह भी सेवानिवृत्ति के विश्राम भरे सरल जीवन का आनंद लेगा, जैसा वे आजकल ले रहे हैं। जून शाम को गरिष्ठ पराँठे खाना चाहते थे, उसने जरा सा टोका तो वह ख़फ़ा हो गये, बाद में उन्हें खिलाए पर एक बार मूड बिगड़े तो सही होने में थोड़ा समय तो लगता ही है। उसके पास अब मूड रहा ही नहीं, जो है भीतर सदा एकरस है !
सुबह नींद जल्दी खुली, जब वे टहलने गये, आकाश में तारे खिले थे, भोर का तारा बहुत चमकीला था और चंद्र दर्शन भी हुए। गुरुजी के प्रति मन कृतज्ञता से भर गया, भीतर समता स्थिर होती जा रही है, सब उन्हीं की कृपा है। शाम को उन्होंने शक्ति ड्राप तथा कबासुर औषधि व धन्य लक्ष्मी तरु के बारे में बताया। यह भी कि हर तरह के भय से मुक्ति ही साधना का परम लक्ष्य है। गायत्री परिवार के किन्हीं लालबिहारी जी से आनन्दमय कोष के बारे में सुना, बहुत अच्छा बोलते हैं। जे कृष्णामूर्ति को भी सुना, किसी ने उनसे पूछा, वह असंतुष्ट है, किसी भी तरह से उसे अपने भीतर की असंतुष्टि का जवाब नहीं मिला। जवाब में जे के ने कहा, ज़्यादातर लोग असंतोष की इस भावना को पनपने ही नहीं देते, वे किसी न किसी उपाय से इसे दबा देते हैं। हम बहुत थोड़े से ही संतुष्ट हो जाते हैं पर यदि इसे जलती हुई ज्वाला बना लें तो एक दिन इसका उत्तर मिल ही जाता है। अब सवाल यह है कि क्या उसके भीतर की वह आग अब भी जल रही है या शांत हो गई है? वास्तव में एक बार यह आग किसी के भीतर जलती है तो सदा के लिए जलती रहती है। हाँ, इसे एक दिशा मिल जाती है। यह दुख का कारण नहीं रह जाती , एक गहरे संतोष का कारण बन जाती है। पर वह सन्तोष ऐसा नहीं है कि जिसे सदा के लिए अपने पास रख लिया जाये। यह तो फूल की तरह है, या प्रातः समीरण की तरह, यह अपने होने का अहसास भी देता है और सदा अप्राप्य भी बना रहता है। एक यात्रा है जो सदा ही चलती रहती है।