नव वर्ष का नौवां दिन भी बीत गया। अभी तक लेखन कार्य आरंभ नहीं हुआ है। भगवान बुद्ध की पुस्तक पढ़ने में ही सारा समय चला जाता है। वह ध्यान पर बहुत जोर देते हैं और शील के पालन पर भी। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अलोभ और अक्रोध पर, साथ ही प्रज्ञा पर भी। अनुभव करके स्वयं जानने को कहते हैं न कि किसी की बात पर भरोसा करके ! जगत परिवर्तनशील है, सब कुछ नश्वर है, वस्तुओं के पीछे भागना व्यर्थ है और संबंधों के पीछे भी, भीतर की शांति और आनंद को यदि स्थिर रखना है तो अपने भीतर ही उसका अथाह स्रोत खोजना होगा। शांति और आनंद से मन को भरकर ही करुणा के पुष्प खिलाए जा सकते हैं ! किसीके पास यदि स्वयं ही प्रेम नहीं है तो वे किसी अन्य को दे कैसे सकते हैं ! पहले मन को सभी इच्छाओं, कामनाओं, लालसाओं से ऊपर ले जाकर खाली करना होगा। यशेषणा, वित्तेषणा, पुत्रेष्णा और जीवेषणा से ऊपर उठकर भीतर के आनंद को पहले स्वयं अनुभव करना होगा फिर उसे बाहर वितरित करना होगा। जगत में कितना दुख है, दुख का कारण अज्ञान है, अज्ञान को दूर करने का उपाय ध्यान है, ध्यान से ही दुख और शोक के पार जाया जा सकता है। अहंकार को मिटाकर ही कोई इस पथ का यात्री बनता है । धरती, पवन, अनल और जल की तरह धैर्यवान, सहनशील, परोपकारी और पावन बनकर ही बुद्ध ने अपने जीवनकाल में हजारों लोगों के जीवन को सुख की राह पर ला दिया था। उसे भी उसी पथ का राही बनना है।
आज शाम आश्रम में गुरूजी को सुना, उन्होंने पहले कन्नड़ में बोला फिर अंग्रेजी व हिंदी में। उनके जवाब कितने सटीक होते हैंऔर कितने मजेदार भी, सभी को संतुष्ट करने वाले ! खुले प्रांगण में था कार्यक्रम, हजारों लोग रहे होंगे, जिन्हें गुरुजी के सान्निध्य ने आनंदित किया। । पहले भजनों का दौर चला फिर प्रश्नोत्तर का। अष्टावक्र गीता का एक श्लोक पढ़ा गया, जिसकी व्याख्या की गुरुजी ने। उन्होंने कहा, जब तक अहंकार है तब तक ही झिझक होती है, जब अहंकार नहीं रहता साधक बालवत बन जाता है। आराम बहुत हो गया, उसे अब ब्लॉग पर लिखना आरंभ करना ही होगा, भीतर से कोई बार-बार कह रहा है। नाश्ते के बाद का समय इसी काम के लिए रखा जा सकता है और दोपहर को भोजन के बाद के विश्राम के बाद का समय भी। यदि जरूरत पड़ी तो समय और भी निकाला जा सकता है। जीवन जैसे दौड़ता ही जा रहा है, समय जो बीत गया वापस नहीं आता ! दोपहर को निकट स्थित खेत से वे सब्जी लाए व चीकू भी जिसे यहाँ सपोटा कहते हैं और बहुतायत में होता है। कल नन्हा व सोनू आए थे, व भांजा भी, वे सब पिरामिड वैली गए थे, जो बहुत सुंदर स्थान है। हरियाली और छोटी पहाड़ियों से घिरा यह विशाल स्थान सुकून से भर देने वाला है।यहाँ दुनिया का सबसे बड़ा और दस मंजिल इमारत जितना ऊँचा पिरामिड नुमा ध्यान कक्ष है। जब वे कक्ष में पहुँचे तो कुछ लोग वहाँ पहले से ही बैठे थे, पर इतनी गहन शांति थी कि आपनी श्वास की आवाज भी सुनाई दे रही थी। कुछ देर सब उसी मौन में रहे फिर बाहर आकर फूलों के सुंदर बगीचों में। यहाँ पर दूर-दूर से आकर लोग रहते हैं व ध्यान शिविरों में भाग लेते हैं। कल बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर एक कविता लिखी।
आज भी वे आश्रम गए थे,आश्रम का वातावरण बहुत आनंददायक होता है। सफलता की परिभाषा बताते हुए गुरुजी ने कहा, जो व्यक्ति हर स्थिति में अपने मन की समता को बनाए रख सकता है वही सफल है।उन्होंने आज ध्यान भी कराया। कर्ताभाव जब खो जाता है तब ही ध्यान घटता है, ऐसा ध्यान जो अप्रयास घटता है। जब भीतर कोई इच्छा नहीं रहती तब ध्यान घटता है, ऐसा ध्यान जो सहज अवस्था का अनुभव कराए। जब न राग रहे न द्वेष, न कोई अपना न पराया, न भूत का पश्चाताप न भविष्य की आकांक्षा, तब ध्यान घटता है, ऐसा ध्यान जो मुक्ति का स्वाद देता है, जो शांति प्रदाता है। आर्जव, क्षमा, दया, संतोष और सत्य जब जीवन में घुलमिल जाते हैं तब ध्यान घटता है। मुक्ति की चाह ही व्यक्ति को परमात्मा से मिलने की चाह की ओर ले जाती है। बंधन मन को दुख के सिवाय कुछ नहीं देता, आदतों का बंधन, कर्म का बंधन, अहंकार का बंधन, इच्छाओं का बंधन, अहंकार का बंधन, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, संदेह तथा दंभ जैसे विकारों का बंधन ! मानव के मन को कितनी बेड़ियों ने जकड़ रखा है, जो उसे दुख देती हैं पर सुख का भुलावा भी देती हैं। उसके पास आत्मा का अनंत सुख तो है नहीं, सो उसी छोटे से सुख से काम चलाना चाहता है, यह भुलाकर कि बड़ा सा दुख भी पीछे खड़ा है। स्वर्ग के लोभ में लोग नरक को चुन लेते हैं। फूलों के साथ काँटे भी मिल जाते हैं, मित्र ही शत्रु बन जाते हैं एक दिन और देह माटी बन जाती है। मृत्यु के द्वार से कोई नहीं बचता, एक दिन तो सभी को यहाँ से चले ही जाना है ! जहाँ जाना है वहाँ रहना जो सीख लेता है वह ध्यान में ही है ! आज आश्रम में रहने वाले हाथी को भी देखा, सजा -सजाया हाथी बहुत अच्छा लग रहा था। मस्तक पर तिलक था, गले में घुंघरू थे और माला भी। कई बार गुरूजी उसे अपने हाथों से उसका आहार खिलाते हैं। वे आश्रम के मानव संसाधन विभाग की अध्यक्ष से भी मिले, अपनी रुचि बताते हुए एक ईमेल लिखने को कहा है। आश्रम के कैफे में पुस्तकों के रैक को साफ करके किताबें ठीक से लगाईं, ऐसा ही लगा जैसे अपने घर को ही सहेज रहे हैं। आश्रम उनके घर जैसा ही है और आगे बनने भी वाला है, जब वे यहाँ नियमित काम करना शुरू कर देंगे। आज असमिया सखी का फोन आया वे लोग इसी माह आएंगे।