Thursday, December 27, 2012

भारत रत्न



आज एक जन्मदिन और...उम्र यूँ ही बीतती जाती है और जिन्हें जीना चाहिए सुला दिए जाते हैं, राजीव गाँधी के लिए जितने आँसूं बहें कम हैं.. भारत का यह हीरा..एक खरा इंसानएक समझदार राजनीतिज्ञ...आखिर कौन जिम्मेदार है उसकी मृत्यु के लिए.?

पिछली बार कब डायरी खोली थी, याद नहीं, और याद करने की जरूरत भी नहीं, न ही यह वादा करने की कि अब से नियमित लिखेगी...क्योंकि वादा हमेशा टूटने के लिए ही होता है. आज मन हल्का हल्का है, घर भी साफ-सुथरा और मौसम भी सही..यानि सुहावना, न ज्यादा गर्म न ज्यादा ठंडा, बहुत दिनों बाद पुराने घर की पड़ोसिन का फोन आया, अच्छा लगा. वह  घर आयेगी, कैरम खेलने और ‘सदमा’ फिल्म देखने, जिसका अंत बहुत कारुणिक है. कल वह नन्हे को लेकर क्लब गयी थी, एरोमॉडलिंग देखी, बहुत आनंद आया, नन्हे को उससे भी ज्यादा, वही दीदी मिलीं उन्होंने वापसी में लिफ्ट दी. आज सोमवार है यानि खत लिखने का दिन, इस हफ्ते तीन खत लिखने हैं.

कल शाम को जून ने दो लोगों को चाय पर बुलाया था, बाद में कहने लगे कि...बेकार ही बुलाया...जितने उत्साहित वह थे उतने आने वाले नहीं लगे, शायद इसीलिए..ऐसा कई बार होता है ...शायद सबके साथ होता हो. आज सुबह वह एक स्वप्न देख रही थी अद्भुत था किसी फिल्म की कहानी कल तरह..कल शाम को अल्फ़ा द्वारा अपहृत किये गए लोगों के बारे में सुनकर, (जो ओएनजीसी के थे, ऑयल के भी हो सकते थे) मन ही तो है डर गया..लेकिन मन अगर इसी तरह डरता रहा तो यहाँ वे कैसे रह सकेंगे..भगाना ही होगा इस डर को तो. जून कल एक फिल्म का कैसेट लाए थे, उसने सोचा कि वह अभी देखे या नन्हे के आने पर, उसे अभी सारी फ़िल्में नहीं दिखानी चाहिए. ज्यादातर फ़िल्मों में वही सब दिखाते हैं खून खराबा हत्या, यानि शुद्ध हिंसा, इसे ही मसाला फिल्म कहते हैं. कल वह स्कूल में गिर गया, सारे कपड़े गंदे हो गए, टीचर ने दूसरे कपड़े पहना कर भेजा.

अखबार खोलते ही कैसी भयानक खबर पढ़ने को मिली. लन्दन में दो बच्चे भूख और प्यास से मर जाते हैं क्योंकि उनकी माँ मर चुकी है और दस दिनों तक किसी को खबर नहीं होती, कैसा शहर है जहां पड़ोसियों को पड़ोसियों की खबर ही नहीं रहती.
कल रात उन्होंने ‘हिना’ फिल्म देखी, अच्छी फिल्म है, नायिका जेबा भी बहुत अच्छी है. आज अखबार नहीं आया, शायद कल फ्लाईट नहीं आई होगी. कल शाम को जून के साथ एक और सप्लायर आये थे, चाय पिलानी थी उन्हें, उसने बेमन से नाश्ता बनाया, गर्मी इतनी ज्यादा थी और उसके रेशमी कपड़े चिपक गए थे पसीने से, कुछ कोफ़्त पिछली रात की भी थी कि वह ठीक से किसी के सवालों के जवाब नहीं दे पायी, वही अंग्रेजी बोलने में झिझक..पता नहीं क्यों..आज फिर वर्षा हो रही है, बिजली भी चली गयी है, नन्हे के जन्मदिन के लिए पहला कार्ड आया है, उसकी छोटी बुआ ने एक पार्सल भी भेजा है, शायद ड्रेस भेजी होगी. चार वर्ष का हो जायेगा वह, समय कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चलता.

अभी-अभी राजीव गाँधी को मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ दिए जाने का अलंकरण समारोह टीवी पर देखा. उनके बच्चों व पत्नी के लिए कैसा दृश्य रहा होगा, भारी पल रहे होंगे, बेहद भारी. अगर वे जीवित होते तो क्या यह सम्मान उन्हें मिलता. कितना कुछ कहा जाता, कितनी चर्चाएँ होतीं, विरोध होता. जून ने फोन किया कि दोपहर के खाने पर वह घर नहीं आ रहे हैं, कोई इंटरव्यू है, वह तो सुनकर समझी थी कि इंटरव्यू उन्हें देना है पर बाद में बताया कि लेना है, अब देने की उम्र नहीं रही उनकी. सोनू गृहकार्य करके टेस्ट के लिए पढ़ रहा है, उसकी बड़ी बुआ ने भी जन्मदिन पर पैसे भेजे हैं. सर्वोत्तम(रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण) का नवीनीकरण कराया था उन्होंने, उसे उपहार में मिलने वाली पुस्तक की प्रतीक्षा है. 

फिर एक अंतराल.. आज सब काम कुछ जल्दी ही निपट गए हैं, मन ने कहा डायरी उठा लो तो हाथों ने उठा ली. चारों और मन की ही सत्ता है, हर काम मन के इशारे पर होता है, उसका मन खुश तो वह भी खुश मन उदास तो...पर यह ‘मैं’ कौन ? क्या मन से अलग कुछ, हाँ, कुछ अलग तो है.. नन्हे की चंपक आई है आज, अब वह कहानियाँ सुनाने को कहेगा. गर्मी बहुत है आजकल, ऊपर से बिजली चली गयी कल रात, पर वर्षा हो गयी सो नींद आ ही गयी बाद में. ऐसे में जून को जुकाम हो गया है, कल शाम वे क्लब गए, आइसक्रीम खायी पर वह ने नहीं खा सके, परसों जो डिटेक्टिव किताब वह लाइब्रेरी से लायी थी शायद पहले भी ला चुकी है एक बार, हल्का सा याद आता है, पढकर रात भर स्वप्न आते रहे, शायद.. नहीं पक्का.. उसी किताब का असर था.


Tuesday, December 25, 2012

राजीव गाँधी का अस्त



उसने कहीं पढ़ा, किसी एक शहर का नाम लो...झट उत्तर आया..दुलियाजान, उसने फिर से वे पंक्तियाँ पढीं जो यहाँ आने के कुछ ही दिनों बाद लिखी थीं-

मन में भीतर तक उतर गया है
इस शहर का अक्स
वह अक्स.. जो बादलों के झुरमुट में..
कभी लबालब भर आए पोखर-तालों में
चमकती बिजलियों में.. नजर आता है
इसकी हरियाली अंदर तक फ़ैल चुकी है
पत्थर पर दूब उगाती, दीवारों से पेड़
यह धरती सब कुछ लौटा देना चाहती है
अपने गर्भ से उलीच कर.. जैसे
सब कुछ बाँट रही हो
हरियाली, रंग, चाय और तेल..
फूल इतने शोख देखे हैं कहीं
मौसम इतना नशीला
पंछी भी जैसे मधुपान कर गूंजते
दुनिया में होंगे कई शहर
पर ऐसे नाम वाला एक भी नहीं
शांत, सौम्य और सभ्य
यह अतीत में भी उसका प्रिय था
आज भी है..

मई आधा गुजर गया, पूरे एक महीने बाद उसने डायरी खोली है, कल पूरा एक महीना हो गया इस नए घर में आए हुए और इतने दिनों में कितनी ही घटनाएँ हुईं, बनारस से सभी लोग यहाँ आए, और वे सब कई जगह घूमने गए. उसके हाथ में एक बार दर्द हुआ शायद ज्यादा क्रोशिया चलाने के कारण या पता नहीं क्यों..सोनू का परीक्षा परिणाम आया, उसे एक बार बुखार हुआ, पर इतने दिनों में एक दिन भी दस मिनट का समय भी नहीं निकाल पायी. बहुत सारे बहाने मिल जायेंगे लेकिन सही बात यही है कि लिखने की इच्छा ही नहीं हुई सिवाय चिट्ठी लिखने और एकाध पत्रिका पढ़ने के, पढ़ने-लिखने से उसका सम्बन्ध ही कितना रह गया है. अफ़सोस होता है न, उसने खुद से कहा, पर बजाय अफ़सोस करने के लिखना शुरू करना चाहिए. अब कल से जून के ऑफिस जाने के बाद से पहला काम यही करेगी, अभी तो नन्हे की छुट्टियाँ भी हैं. आज सुबह एक स्वप्न देख रही थी, आज अखबार में उसके दो लेख छपे हैं, कल शाम किसी ने कहा था, आप हिंदी में आर्टिकल लिखती थीं...जैसे पिछले युग की बात हो. कोई भी शौक या रूचि हो, पनपने देने के लिए समय तो देना ही पड़ता है न, यूँ ही फालतू इधर-उधर के कामों में वक्त गंवाना क्या अच्छा है? जीवन एक ही बार मिलता है और उसका जीवन आधा तो बीत गया है, इसी महीने तीन दशक पार कर  लेगी...कुछ है गर्व से कहने के लिए किसी के पास उसके लिए? सचेत हो जाना होगा और कुछ वक्त देना होगा अपने आप को, अपने अंतर्मन को. लिखने का अभ्यास छूट जाने से हाथ में कैसा तनाव आ गया है, उसने हाथ की उंगलियों को खोला और बंद किया.

कल सुबह ट्रांजिस्टर खोलते ही यह भयानक समाचार सुना, कानों को विश्वास ही नहीं हुआ. राजीव गाँधी भी इंदिरा गाँधी की तरह हिंसा के शिकार हुए अपने ही देशवासियों के हाथों, जो करोड़ों के प्रिय थे, कितना सूनापन छा गया है जैसे पूरे वातावरण में. आँखें हैं कि..और मन भी भारी है. उनके चित्र आँखों के सामने आ जा रहे हैं. पलक झपकते सब कुछ खत्म हो गया..कितना निष्ठुर होता है स्वार्थी मानव, अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेता है.

करोड़ों दिलों का मौन रुदन
एक फूल की दर्दनाक मौत पर
सुना है ?
करोड़ों की आवाज..एक सूर्य के अस्त होने पर
हाँ, वह सूरज था, प्रकाश था, स्वप्न था,
प्रतीक था आशा का
हिंसा का दानव जाने अभी कितना प्यासा है ?
बापू को छीना, इंदिरागांधी  को
और अब...
क्या पत्थर के लोग बसते हैं यहाँ
या नरभक्षी...आदमखोर !
जो आँखों के स्वप्न छीन कर भर जाते हैं अंतहीन सन्नाटा
कोई पूछे उनसे
क्या उनकी प्यास खून से बुझती है ?

उदासी उसकी रग-रग में छा गयी थी, देश में जो हो रहा था उससे अलिप्त नहीं रहा जा सकता था. एक और कविता लिखी थी तब..

हम कितने दीवाने थे तब

दुनिया को बदल कर रख देंगे
स्वप्नों में खोये रहते थे
आदर्श भरा जीवन होगा, काँटों से भरा फिर पथ होगा
सम्पूर्ण क्रांति को लक्ष्य बना
हम कितने अनजाने थे तब

कदम-कदम पर भ्रष्टाचार
भूख, गरीबी, अत्याचार
नहीं जानते थे तब यह, जीवन समझौतों का नाम
यथार्थ नहीं स्वप्न ही थे
हम कितने दीवाने थे तब

लेकिन उदासी का साया कितना ही घना हो, भीतर गहराई में तो आनंद छिपा है, जो बाहर आना चाहता है. यदि कोई यह समझ नहीं पाया कि आनंद के क्षण ही जीवन का वास्तविक रूप दर्शाते हैं तो वह जीवन का मर्म नहीं समझ पाया. यह बात अलग है कि किसी को पीड़ा में ही आनंद का अनुभव हो.

उसे लिखना पड़ा

बस कुछ पल और अँधेरा है
फिर किरणें घूंघट खोलेंगी
कण-कण धरती का चमकेगा
लहरों में सूरज खेलेगा
पाखी नयनों से भांप सुबह
ऊंची उड़ान पर निकलेंगे
फिर खिलना होगा फूलों का
कलियाँ ज्यों सुगबुग सी करतीं
शिशु वैसे पलने में होगा
ऊं आं कर माँ को बुलाएगा
बस थोड़ी देर अबोला है
फिर ध्वनियाँ ही ध्वनियाँ होंगी
ओ पथिक नही घबराना तुम
नदिया का थाम किनारा इक
बस आगे ही बढ़ते जाना
बुलाता तुम्हें सवेरा है
नम धरती के मखमल तन पर
खेतों में बिछे ओसों के कण
चुपचुप सी हवा की गुपचुप सुन
इक गीत हवा में उड़ा देना
मंजिल-मंजिल बढ़ते जाना
बस कुछ पल और अँधेरा है !







Monday, December 24, 2012

नए घर में



कल जून आएंगे, आज उन्हें गए पूरा एक हफ्ता हो गया है, पहली बार घर से आने के बाद इतने दिनों तक वे अकेले रह रहे हैं. एक-एक कर के दिन बीत रहे हैं और कल इंतजार का अंतिम दिन है. नन्हे को होमवर्क कहने को कहा है पर वह टेलीफोन और टाइपराइटर में व्यस्त है, जब से जून गए हैं उसने गेस्ट रूम को ऑफिस बना लिया है और छोटे पापा बनकर यहाँ आता है, फोन अटेंड करता है और न जाने क्या-क्या कहता है, कल वह थोड़ा उदास थी और परसों भी कुछ....वह न होता तो... वह हर वक्त बातों में लगाये रखता है. नन्हा रोज उसे कहानी सुनाने को कहता है, उसने चिंटू खरगोश और मीकू बिल्ली की कहानी बना कर सुनाई, जिसमें वे दोनों घर को चोरों से बचा लेते हैं. फिर उसने मंझले भाई व माँ-पिता को खत लिखे.

मूसलाधार वर्षा हो रही है, नए घर में बड़ा सा आँगन है, उसने सोचा वहाँ वे बारिश में नहा सकते हैं, पुराने घर में भी छोटा सा आंगन था, जहां वे एक बार जलधारा में बहुत भीगे थे. कल रात तेज वर्षा हुई गर्जन-तर्जन के साथ, आवाज से उसकी तो नींद ही गायब हो गयी. ज्यादातर वर्षा यहाँ रात को ही होती है, बिजली की गड़ागड़ाहट से कैसा डर लगा, कितना मोह होता है इंसान को अपने जीवन से...  अप्रैल का आरम्भ हुए चार दिन हो गए हैं और आज उसने डायरी खोली है. जून फिर कलकत्ता गए हैं, परसों शाम को आएंगे, नए घर के लिए कुछ सामान भी लायेंगे. नन्हे की परीक्षाएं शरू होने में केवल पांच दिन हैं.

आज उसका इंग्लिश का पहला इम्तहान है, इस बार तैयारी काफी अच्छी है, जरूर कोई पोजीशन लाएगा. आज फिर बादल छाये हैं, कल कितने दिनों बाद धूप निकली थी. वे तिनसुकिया से कुशन भी ले आये हैं और पर्दे भी, जो रंगने को दिए थे. एक डायरी और कैलेंडर भी लाए हैं, चाहे वह नियमित लिखती न हो पर नई डायरी देखकर कितना आनंद होता है, लोभ शायद इसी को कहते हैं...एकत्र करने की प्रवृत्ति है उसमें...चाहे वस्तुओं का उपयोग हो या नहीं पर वे होनी जरूर चाहियें. उसने ध्यान दिया कि उसकी भाषा खिचड़ी होती जा रही है. असम में रहकर शुद्ध हिंदी जैसे भूल ही जायेगी. कल उसने कालेज की सखी सुरभि के पत्र का जवाब दिया और दोनों घरों पर भी पत्र लिखे. उसने सोचा है, धीरे-धीरे पैकिंग का काम आरम्भ कर देना चाहिए. शनिवार को उन्हें शिफ्ट करना है, दो कार्टन भी आकर बड़े हैं छोटा-मोटा सामान रखने के लिए. कितना अजीब लगेगा शुरू-शुरू में, पर वे घर व्यवस्थित करने में इतने व्यस्त रहेंगे कि शेष सब भूल जायेंगे. अच्छा लगेगा बड़े घर में रहना. कभी देखा सपना पूर्ण होगा.. कि बाहर लॉन हो, जिसमें फूल खिले हों, हरी घास हो. गैराज में गाड़ी खड़ी हो.

आज मौसम अच्छा है न वर्षा न धूप. ट्रांजिस्टर पर आशिकी फिल्म का गाना आ रहा है, इस फिल्म के सभी गाने अच्छे हैं. वह गाना खत्म होने का इंतजार कर रही है, अधूरा गाना सुनना उसे नहीं भाता और गाते हुए गायक को बीच में रोकना भी अच्छा नहीं लगता, इसके बाद वह पड़ोसिन को शाम की चाय के लिए निमंत्रित करने जायेगी, अब पता नहीं कब वे उनके नए घर में आयें. कल रात उसने फुफेरी बहन को स्वप्न में देखा, सोचा इस बार उसे पत्र अवश्य लिखेगी, कितने महीने, शायद साल भर हो गया हो उसे खत लिखे. घर से भी कोई पत्र नहीं आया है, जून फोन करना चाह रहे हैं पर मिल नहीं रहा है, शायद हड़ताल है दूर संचार विभाग में. उसके दिमाग ने आजकल सोचना बंद कर दिया है, सोचने से घबराने लगी है, सिर्फ कुछ न कुछ करना चाहती है जिससे दिमाग न खली रहे न सोचे..क्या यह पलायन है?
लगभग आधा सामान तो उस घर में पहुंच ही गया है, कितना खाली-खाली लग रहा है यह घर, कितने साल वे इस घर में रहे अपना समझ कर और अब कोई और रहेगा अपने अपनों के साथ...घर बदलना इतना आसान तो नहीं होता, कितनी यादें जुडी होती हैं, कितनी बातें याद आती हैं, कोई मीठी तो कोई खट्टी बात..आज शाम को वह उन दीदी से अवश्य मिलेगी कितने दिन हो गए हैं पूरा एक सप्ताह ही तो..और अपनी असमिया सखी के यहाँ भी जाना है एक-दो दिन में. नन्हा सुबह उठा तो कहने लगा उसने एक अच्छा सा सपना देखा है, स्नेहा (उसकी फुफेरी बहन) का परिवार, वे तीनों और दादा-दादीजी लोग एक पार्टी में गए हैं...यानि उसने एक ही स्वप्न में सबको देख लिया.


Saturday, December 22, 2012

तरला दलाल की किताब



होली भी आकर चली गयी और उसकी नींद नहीं टूटी. कई दिनों के बाद आज डायरी खोली है. हफ्तों बीत गए मन से बातें किये हुए, पता नहीं चलता कैसे दिन गुजर जाते हैं, पूरा दिन इधर-उधर की भाग-दौड़ में गुजर जाता है. कई पुस्तकें हैं पढ़ने के लिए पर पढ़ने का भी समय नहीं मिल पाता लिखने की कौन कहे. इस समय सोनू होमवर्क कर रहा है, यही समय ठीक रहेगा, उसने सोचा, कल से कोशिश करेगी कि नियमित लिख सके. दो दिन की धूप के बाद आज फिर मौसम ने मिजाज बदल लिया है. कल कारपेट भी धुलकर आ गए हैं, अभी सभी बिछाए नहीं हैं. कल जून टैटिंग के लिए धागा भी ले आए हैं, पता नहीं क्यों आजकल वह एकाग्रचित्त होकर पढ़ नहीं पाती है, बल्कि टैटिंग में ज्यादा रूचि होने लगी है. अभी कुछ देर बाद वह लेस बनाना शुरू करेगी. नन्हे के सो जाने के बाद एक केक भी बनाएगी. परसों तिनसुकिया से तरला दलाल की किताब लायी है. आजकल बगीचे की हालत बिगड़ती जा रही है, माली जो नहीं है, वे सोच रहे हैं कि अब तो नए घर जाना ही है, पर अभी एक महीना शायद और लगेगा.

आज फिर वही वक्त है, नन्हा पढ़ाई कर रहा है. भोजन खाकर बैठना कितना मुश्किल लगता है, आज उसने खाना भी कुछ ज्यादा खा लिया है. कल दोपहर उसने पड़ोसिन के साथ मिलकर केक बनाया, बहुत अच्छा तो नहीं बना पर ठीक ही है. अगली बार वह गलती नहीं होगी जो इस बार हुई. अनुभव से ही व्यक्ति सीखता है. कल उसने पत्रों के जवाब भी दे दिए. आज गमलों की मिट्टी थोड़ी उलटी-पलटी, शाम को पानी डालना है, नन्हे के सो जाने के बाद वह यही काम करेगी.

आज दिन की शुरुआत कुछ अच्छी नहीं हुई, पर अब सब ठीक है. जून आज बहुत दिनों बाद खाने के वक्त नाराज हुए. घर कितना गंदा हो गया है, आज सफाई कर्मचारी भी नहीं आया है. नन्हे का आज टेस्ट है, कल व परसों उसकी पढ़ाई ठीक से नहीं हो पायी, पता नहीं कैसा किया होगा. अगले महीने उसकी परीक्षाएं हैं. उसे लगता है कुछ दिनों के लिए वह मौन रहे पर कैसे ? जून इस हफ्ते चार दिनों के लिए कैम्प जा रहे हैं, शायद तभी और वह नन्हे को ज्यादा पढ़ा भी पाएगी.
फिर एक अंतराल ! अपने करीब आने का वक्त ही नहीं मिलता या कहें कि वे बचना चाहते हैं, अपने से मुँह चुराए फिरते हैं. अपने ही सामने अपने को छोटा देखना नहीं चाहते. आज तेरह मार्च है और अगले महीने जून घर जा रहे हैं. उसका जरा भी मन नहीं है, वे सब मिलकर अक्टूबर में जायेंगे जब मौसम भी ठीक-ठीक होगा. तब तक उदासी ? भी शायद कुछ कम हो जाये.
शाम के चार बजे उन्होंने यह शर्त लगाई है कि अगर चुनाव में चन्द्र शेखर प्रधान मंत्री बने तो जून उसे एक साड़ी लेकर देंगे और अगर नहीं बने तो...वह उन्हें एक कॉटन की शर्ट लेकर देगी.
फिर कुछ दिनों बाद डायरी खोली है. आज मन ठिकाने पर है. सुबह साढ़े पांच बजे उठी, महीनों बाद सुबह का आसमान, चिड़ियों का कलरव, सुबह की मधुर बयार का अनुभव किया. कितना अच्छा लगता है सुबह जल्दी उठकर ठंडी हवा में धीरे-धीरे टहलना. आज उसने स्नान में पूरा एक घंटा लगाया, कितना हल्के लग रहे हैं तन व मन दोनों..
रात को जल्दी सो गए थे नन्हा और वह, दोपहर को नन्हा सो नहीं पाया था, वही रिश्तेदार आ गयीं थीं, जिन्हें वह दीदी कहने लगी है. उन्हीं ने बताया, जून को अभी तीन-चार दिन और लग सकते हैं. उसने सोचा अगर इसी ट्रिप में वह घर भी होकर आ जाएँ तो अच्छा है. अन्यथा अगले महीने फिर अकेले, अब अच्छा नहीं लग रहा है. दो-तीन बार नन्हे की आँखों में आंसू देखे हैं उसने, पिता की याद उसे भी सताती है. उसके मन में नन्हे पर असीम ममता उमड़ आई.





Friday, December 21, 2012

हर्बी गोज बनाना



कल रविवार था, दिन में उसकी दो सखियाँ आयीं, दोपहर बाद गयीं, शाम भी फिर सारे काम निपटाते जल्दी से बीत गयी. पर सोमवार की शाम बिताए नहीं बीतती, उन्होंने कैरम खेला, डांस किया, नन्हे ने होमवर्क किया, कुछ देर राइम्स की किताब पढता रहा, उसकी लिखाई भी अब सुधरती जा रही है, टेस्ट में भी अच्छे मार्क्स आए हैं. और फिर वे जल्दी ही सोने आ गए, जून के होने पर वह इस समय खाना बनाने जाती है.

आज सुबह उसने अपनी पड़ोसिन को दिन में आने के लिए निमंत्रित किया था, दोपहर भर वे साथ रहे. शाम को मालूम हुआ कि उसे बुखार हो गया है, नूना को बहुत खराब लगा. शायद वह उसमें अपनी छोटी बहन को देखती है तभी उसका दुःख अपना दुःख लगता है. सुबह से जून का फोन नहीं आया था, पर उसकी बंगाली सखी आई उनका समाचार लेकर, उसके पति ने खबर दी थी जो जून के साथ ही काम कर रहे हैं. उन्होंने ड्राइवर के हाथ फल भिजवाए थे और दो कैसेट भी, एक हिंदी फिल्म “हम” दूसरा “हर्बी गोज बनाना” जो बहुत अच्छी कॉमेडी फिल्म है.

सप्ताहांत पर वे वापस आए हैं, उन्हें एक जगह सत्यनारायण की कथा में जाना था. वहाँ से लौटे तो पड़ोसियों के यहाँ गए, दरवाजा खुलने में थोड़ी देर लगी, बाद में उसे लगता रहा व्यर्थ  ही गए वहाँ. कल वे लोग तिनसुकिया जा रहे हैं और बाद में आर्मी कैंटीन भी, उसने सोचा  पहले कितना सोच-समझ कर वे पैसे खर्च करते थे और अब मन में ख्याल आते ही उस सामान को मूर्त देखना चाहते हैं. गर्मियों में माँ-पिता आ रहे हैं, कुछ सामान उसी की तैयारी है. हो सकता है तब तक वे बड़े घर में शिफ्ट हो जाएँ.

वे फिर चले गए हैं, नन्हा झूला पार्क गया है, उसने कुछ देर बगीचे में सफाई की, कुछ देर अखबार पढा, पर मन नहीं लगा. कढ़ाई का काम भी अधूरा पड़ा है. तिनसुकिया से सारिका भी लायी थी, अभी तक एक कहानी ही पढ़ी है, वह भी रास्ते में ही पढ़ ली थी कार में. किसी को दुखी देखकर, परेशान देखकर दिल में कैसी गांठ सी पड़ जाती है, आँखों में आँसू आ जाते हैं, जाने कहाँ से, क्या इसी का नाम सहानुभूति है, भाईचारा है, प्यार है, मानवता है..उनकी महरी के मन में भी ऐसी ही गांठ पड़ जाती है, उसका दिल भी ममता से भरा है, दुनिया में कितने ही लोग ऐसे होंगे.

पिछले कुछ दिनों से डायरी लिखने का अभ्यास या कहें क्रम कुछ बिखर सा गया है. आज फिर एक बार यह सीखने के बाद कि..अपने घर सा सुख कहीं नहीं..मन अपने अंदर की ओर झाँकने को कह रहा है. उसने सोचा, वे हमेशा बाहर ही देखते हैं, बाहर ही सब कुछ खोजते हैं, किसी से कुछ न कुछ कहने को, सुनने को लालायित रहते हैं. पर कितना समय वे अपने आप को देते हैं..अपने मन से बातें करते हैं, अपनी आवाज को पहचानते हैं. उसने सोचा उसे तो कम से कम इधर-उधर भटकने के बजाय अपनी प्रिय डायरी के पास होना चाहिए जो उसकी सारी बातों को सुनती है, जवाब भी देती है, उसे अकेलेपन से मुक्त करने के बजाय उससे जुड़ने का सुख देती है. जून का प्रेम असीम है यह बात वह पहले भी कई बार महसूस कर चुकी है और लिख भी चुकी है पर बार-बार कहने का मन होता है. उसका प्रेम इतना विशाल है कि उसकी कड़वी बातें भी उसकी मिठास में घुल जाती हैं, और उसे भी उसके सान्निध्य में अवश्य ही सुख मिलता होगा तभी तो..और कभी थोड़ी बहुत नोक-झोंक होने पर नन्हा बड़ी जल्दी सुलह करा देता है.

कल माँ-पिता का पत्र मिला, हमेशा की तरह चंद पंक्तियाँ पिता की अंग्रेजी में लिखी हुईं फिर लम्बा सा पत्र माँ का. सुबह से ही वह सोच रही थी कि उन्हीं रिश्तेदार को फोन करके घर आने के लिए कहेगी पर..साढ़े नौ बजे के लगभग उनकी नौकरानी ने बताया कि वे लोग घर गए हैं, उनके बड़े भाई की मृत्यु हो गयी है. सुनकर कैसा तो लगा, वह तो रो ही पडती शायद कि जून आ गए..उन्हें फिर दो दिनों के लिए तलप जाना था सो सामान लेने आए थे. दोपहर को उसकी असमिया सखी आई, शाम को सामने वाले घर की छोटी बालिका के साथ कैरम खेला, वे लोग भी आज नए घर में शिफ्ट कर रहे हैं. पुराने लोगों में इस लेन में वे ही रह गए हैं, एक दिन उन्हें भी जाना होगा, शाम के पांच बजे हैं नन्हा सोया है, वह बाहर बैठ कर  लिख रही है, पूरी लेन खाली है.

Wednesday, December 19, 2012

युद्ध का दानव



जनवरी का अंतिम दिन, वह कब से डायरी लिखने की प्रतीक्षा कर रही थी, जून अभी-अभी नन्हे को लेकर क्लब गए हैं और यही वक्त है जब वह अपने आप से कुछ बातें कर सकती है. यूँ सच कहे तो अपनेआप से बातें किये उसे वर्षों बीत गए हैं, क्योंकि उसके लिए हिम्मत चाहिए, अपने को कटघरे में खड़े करना आसान है क्या? तो वह अक्सर इस डायरी से ही बातें करती है. शायद आज भी ऐसा ही होगा. उसका गला आज काफी ठीक है, जून के प्यार और देखभाल के कारण ही यह ठीक हुआ है. उसके लिए जितना उसे करना चाहिए वह नहीं कर  पाती है. उसके प्रेम के सामने...यह प्रेम है या कर्त्तव्य? कुछ भी हो, उसके भीतर पहले का सा भाव न रहा हो फिर भी वे एक-दूसरे के लिए हैं. परसों उन्हें फिर फील्ड जाना है और इस बार चार-पांच दिनों के बाद ही आयेंगे. इस हफ्ते का चौथा दिन है वह कहीं नहीं गयी और न ही कोई उनके घर आया यह उसका सौभाग्य ही था क्योंकि वह बोल ही नहीं सकती थी. हाँ, आज पड़ोसियों ने जरूर पूछा उसके स्वास्थ्य के बारे में.

नए साल का दूसरा माह शुरू भी हो गया है और वे हैं कि वहीं खड़े हैं, कभी-कभी अपने आप से चिढ़ होने लगती है कि वह कुछ करती क्यों नहीं? कुछ ऐसा विशेष जो सार्थक हो-रचना किसी भी वस्तु की, सृजन किसी का भी, शिल्प, कला, कविता कुछ भी..कुछ भी ऐसा जिसमें वह खुद को व्यक्त कर सके. कुछ ऐसा जरूर ही करना चाहिए, चित्र ही सही या फिर शब्दों का खेल...अच्छा यहीं से आरम्भ करेगी, उसने सोचा. इराक, अमेरिका में जो युद्ध हो रहा है उसकी विभीषका पर कुछ कहना नहीं है क्या उसे?

ओ दानव !
क्या अब भी बुझी नहीं तुम्हारी प्यास
रक्त के नद में तैरते हुए भी
हजारों के श्रम से बने शहर खाकर भी
तुम भूखे हो
जो बेजबान पंछियों, निरीह जीवों को
निगलना चाहते हो
युद्द के दानव
तुम्हें चाहिए शिशुओं के आँसू, क्रन्दन और रुदन
पीड़ा, दर्द, घुटन, अंधकार और निराशा
यही तुम्हारे साम्राज्य के सिपाही हैं
मिसाइलें, बंदूकें, बम और अनगिनत हथियार
जिनके नाम भी वे नहीं जानते
तुम चलाते हो उन पर
इन बहादुर सैनिकों के हाथों
जिन्होंने प्यार से छुआ होगा अपनी
प्रिया के बालों को, बच्चों के गालों को
ओ दानव ! कितने क्रूर हो तुम
नहीं देखा तुमने
घर कैसे बनता है
अपने सीने से लगाकर कैसे बड़ा किया जाता है
बच्चों को
क्या इसलिए कि तुम उड़ा दो
उनके स्कूलों को
तुम्हें बूढ़ों पर भी दया नहीं आती
वृद्धाश्रम से आती दिल दहलाने वाली पुकारें
नहीं सुनते क्या तुम
उन रातों के तुम नहीं हो गवाह
जब दिल के पास छिपाकर बाँहों में
जीवन भर साथ चलने का वादा लेती है कोई स्त्री
और अगली ही रात तुम आकर चीर डालते हो
दोनों को लकड़ी की तरह अलग अलग
आकाश..धरा..सागर..हवा..क्या कोई भी नहीं
बचेगा तुम्हारे पंजो से
जहरीली हवा, काला धुँधुआता आकाश..लोहित जल..यही तुम्हारा अभीष्ट है
ओ मानव ! युद्ध के दानव को क्यों नहीं रोका
क्यों उसे बुलाया
मानव ही जब बन जाता है दानव
तभी भयानक युद्ध होते हैं
सभ्यताएँ सिर धुनती हैं
और वे मूक दर्शक से
सब कुछ देखते हैं, सब सुनते हैं..लेकिन कुछ कर नही पाते...

कैरम का खेल



जून आज सुबह जल्दी चले गए, देर रात तक लौटेंगे, सो दोपहर वह और नन्हा उन्हीं दूर की रिश्तेदार के यहाँ गए, बहुत सी बातें हुईं, अच्छा लगा वहाँ, नन्हा तो पूरा वक्त खेलता ही रहा. वहाँ एक और परिचिता मिल गयीं, जो वापसी में अपने घर ले गयीं, जिसमें उन्होंने अभी-अभी शिफ्ट किया है. घर लौटते-लौटते चार बज गए थे, उसे थोड़ी थकान हो रही थी पर नन्हा, गजब का स्टेमिना होता है बच्चों में, इतना खेलने के बाद भी शाम को खेलने के लिए तैयार हो गया. खेल कर आया तो होमवर्क करने बैठ गया, तभी उसकी एक बंगाली मित्र आ गयी मिलने, यानि पूरा दिन ही व्यस्तता में बीत गया. अकेलेपन का अहसास ही नहीं हुआ, पर वह नहीं हैं यह बात तो याद आती ही है हर बात में...वह इतना ख्याल रखते हैं उन दोनों का कि...कल ‘बंद’ है गणतंत्र दिवस के कारण, यहाँ छब्बीस जनवरी हो या पन्द्रह अगस्त यही होता है. टीवी पर ही देख पाएंगे झंडा आरोहण वे लोग.

रिपब्लिक डे ! आज एक अनूठे उत्साह से मन ओत-प्रोत है. जून और उसने साथ-साथ परेड देखी, यूँ उन्हें इतना शौक नहीं है टीवी देखने का, सारे काम निपटाते रहे, ताकि वह आराम से परेड देख सके. सुबह की चाय, गाजर का हलवा, और दोपहर का पुलाव भी बनाया, उसने बस तैयारी भर की. दोपहर को धूप में अलसाये भी. पिछले दिनों वह सोच रही थी कि अब उन्हें एक-दूसरे की कमी पहले की सी नहीं खलती, पर मूड की बात होती है और यह कोई ऐसी बात नहीं है जिसके लिए कोई हार्ड और फास्ट नियम बनाएँ जा सकें, कभी-कभी मन अपने आप ही व्याकुल हो जाता है और अक्सर ऐसा नहीं होता, यह भी सच है. विवाह के छह वर्ष भी तो गुजर गए हैं लेकिन साथ रहना कितना भला लगता है यह बात और है कि कभी-कभी रात को नींद नहीं आती...आजादी याद आती है...उसे लगा यह क्या लिखती जा रही है...कल वह चले जायेंगे और फिर अकेले रहना होगा. आज की फिल्म महानंदा ठीक सी ही थी पर देखी हुई थी, सो वे कैरम खेलने लगे. सोनू ने कल उनके किसी बात पर झगड़ने पर कैसे मासूमियत से कहा, अब मुझ पर असर पड़ेगा ! पूछा, किस बात का असर...तो बोला, आपके बोलने का, उसने कभी सुना होगा माँ-बाप की लड़ाई का असर बच्चों पर पड़ता है..कितना भावुक है वह और कितना प्यारा भी...परसों उसका टेस्ट है, तैयारी तो ठीक है..देखें क्या करता है.

इतवार है आज, जून दोपहर को ही चले गए, नन्हा सो रहा है और वह कुछ सोच रही है. परसों बालकवि बैरागी की कविता- सड़कों पर आ गए अंगारे.. बहुत अच्छी लगी थी. दिक्कत यह है कि कविता की लाइनें उसे याद नहीं हैं पर भाव अच्छी तरह से याद हैं, गोविन्द व्यास भी अच्छे रहे, और शरद जोशी थोड़ा कम जितनी उनसे उम्मीद थी..पर विचार बहुत अनूठे थे उनके भी. अनजान कवयित्री बस यूँ ही सी थी एक शेर को छोड़कर बाकी तुकबंदी थी. गाँधी जी के सपनों का जहान भी ठीक था पर उसे लाएगा कौन ? इन कवियों की बातें लोग (उस  जैसे) रात को सुनते हैं और सुबह भूल जाते हैं, दिल को अच्छी लगती हैं, भाव जगाती हैं, सहलाती हैं, प्रश्न करती हैं, बस यही तो काम है कविताओं का..उसने कविता लिखना क्यों छोड़ दिया ? क्या अब वह नहीं लिख सकती..या पहले भी जो लिखा करती थी वह तुकबंदी ही थी..वह लिखे किस पर...हर रोज बढ़ते अपने मोटापे पर...चाह कर भी व्यायाम न करने की अपनी दुर्बलता पर..यूँ ही व्यर्थ होते समय पर पर या बढ़ती हुई उम्र पर, सोनू के नन्हें सवालों पर या...इस खालीपन पर...अपने मन की उर्जा को यूँ ही से कार्यों में खर्च करने पर...अपने नेह की गर्मी को बातों की गरमी में बदलने पर ...खैर इस तरह तो लिस्ट बहुत लम्बी हो सकती है.
कल शाम को चिक्की बनाने की कोशिश की, थोड़ी सी बनाई और जब खायी तो..शायद उसके बाद पानी भी पिया होगा या फिर किसी और वजह से ही उसका गला खराब हो गया है, सुबह सोकर उठी तो आवाज जैसे फंस रही थी. जून का फोन आया, वह कल आने वाले हैं, बताया तो शाम को ही वह आने को तैयार थे पर उसने मना कर दिया, थोड़ी सी खराश ही तो है, ठीक हो जायेगी.
आज सुबह उठी तो सबसे पहले बोलना चाहा, एक शब्द भी नहीं सुनाई दिया कानों को, उसकी आवाज तो बिलकुल ही बंद हो गयी लगती है, जून अगर कल ही आ जाते तो अच्छा रहता लेकिन वह शाम को आएंगे, उसकी समझ में नहीं आ रहा है की क्या करे, सिर में भी दर्द है, नन्हा कह रहा है डिस्प्रिन लेने के लिए.

जून कल शाम आ गए थे पर काफी इंतजार कराया, सिर दर्द बढता गया और फिर जो अक्सर ऐसी में होता है खाया-पिया बाहर, गला बंद, लेकिन जून ने आते ही इलाज शुरू कर दिया. दिन भर के थके होने के बावजूद. कार की सर्विसिंग कराते हुए आए थे, काफी वक्त लग गया और फिर उसकी चिंता भी थी. एक प्रशिक्षित नर्स की तरह उसकी देखभाल करते रहे. आज सुबह वे अस्पताल गए पांच तरह की दवाएं दी हैं डॉक्टर ने. फेरिनजाईटिस शायद यही नाम है उसकी बीमारी का.

The happy and sad years  यह उपन्यास वह तीन-चार दिनों से पढ़ रही है पर अब पढ़ा नहीं जा रहा आँखों में दर्द होने लगा है, उसकी नायिका अजीब जीवट की लड़की है, ऐसे लोग कम ही होते हैं दुनिया में. Susannah Curtis का यह नॉवल उन्होंने कोलकाता में फुटपाथ से खरीदा था मात्र दस रूपये में. जिस हरे पेन से वह लिख रही थी वह ठीक से नहीं लिख रहा था और यह काला पेन भी उससे बेहतर तो नहीं है उसकी डायरी लाल, हरे, नीले, काले रंगों से भरती जा रही है.