Friday, July 31, 2015

अनित्य- मृदुला गर्ग का उपन्यास


इस वर्ष उस यह नीले रंग की सुंदर डायरी मिली है. मन कई भावनाओं से भरा है. नये वर्ष के लिए कई संकल्प पिछले कई दिनों से उमड़ते-घुमड़ते रहे हैं. जीवन कितना अद्भुत है, कितना सुंदर तथा कितना भव्य ! कितना अनोखा है सृष्टि का यह चक्र ! मन कभी आश्चर्य से खिल जाता है कभी मुग्ध हो जाता है उस अनदेखे परमात्मा की याद आते ही उसके लिए श्रद्धा से भर जाता है. इसकी खुशबू को वे अपने भीतर समोते हैं, इसके रस को पीते हैं, इसकी नरमाई तथा गरमाई को महसूसते हैं. वे कितने भाग्यशाली हैं, भीतर एक संतोष का भाव जगता है. इस सुंदर प्रकृति को बिगाड़ने का उन्हें कोई अधिकार नहीं. जीवन की कद्र करनी है, जीवन को खत्म करने का उन्हें क्या अधिकार है ? नये वर्ष के प्रारम्भ में मन क्यों आतंक का शिकार हुए लोगों की तरफ जा रहा है. मानव के भीतर देवत्व भी है और पशुत्व भी. उसने संकल्प लिया कि अपने भीतर के जीवन को सुन्दरतम करेगी !  
इस समय दोपहर के तीन बजने वाले हैं, आशा पढ़ने आई है. उसने कुछ देर पूर्व सद्गुरु को पत्र लिखा, पिछले वर्ष फरवरी में उन्हें पत्र लिखने का जो क्रम आरम्भ किया था, उसमें आजकल व्यवधान पड़ने लगा है. समय कहाँ चला जाता है पता ही नहीं चलता. आजकल लगभग हर समय उसे अपने लिए कुछ करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती. देह को स्वस्थ रखने के लिए उसे समय पर भोजन, व्यायाम आदि देना तथा परमात्मा के प्रति कृतज्ञता जाहिर करने हेतु पूजा, शास्त्र अध्ययन, घर के आवश्यक कार्य के बाद जो भी समय बचता है वह भी पढ़ने-लिखने में ही जाता है. जिससे मन भी स्वस्थ रहे तथा बुद्धि को जंग न लगे.
आज वह बहुत खुश है. लगता है वह फरवरी में बंगलुरु जा सकती है. जून उसकी टिकट के लिए प्रयास कर रहे हैं. सुबह एक परिचिता का फोन आया, वह ट्रेन से जा रही हैं, वह चाहे तो उनके साथ जा सकती है. उसे लगा यह गुरू कृपा है, उसने प्रार्थना की कि जून मान जाएँ, उन्होंने फ़िलहाल तो मंजूरी दे दी है. भविष्य में क्या लिखा है कौन जानता है ? वह नन्हे से भी मिल सकती है एक दिन के लिए. आज क्लब में मीटिंग है, वह कुछ किताबें लेकर जाएगी. लॉन में प्रकृति के सान्निध्य में बैठकर मन कैसा हल्का हो गया है. एकात्मकता का अनुभव यहीं होता है. ऊर्जा जैसे मुक्तता का अनुभव करती है.
आज बापू की पुण्य तिथि है. पिछले चार दिनों से मन पुस्तक के पन्नों में खोया था, मृदुला गर्ग का लिखा उपन्यास ‘अनित्य’ कल खत्म किया. इस उपन्यास में गांधीजी का जिक्र कई जगह हुआ है. उनको आदर्श मानने वाले कितने ही व्यक्ति स्वयं को छला हुआ मानने लगे जब उन्होंने ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ वापस ले लिया. कई उनके प्रयोगों के आलोचक भी थे. पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि साधारण मानव एक महामानव का मूल्यांकन कैसे कर सकता है, और ही मिट्टी के बने होते हैं वे लोग जो महान कहलाते हैं, साधारण लोगों से भिन्न होती है उनकी सोच और दृष्टि.

वसंत का आगमन हो चुका है. हवा में ठंडक कम है. अभी सुबह के दस भी नहीं बजे हैं धूप तेज हो गयी है. कल रात स्वप्न में वह सभी को बता रही थी कि मैं ‘आत्मा’ हूँ, यह बात कहने से प्रकट नहीं होगी, उसके आचरण से प्रकट होनी चाहिए. ध्यान की अवधि बढ़ानी चाहिए ऐसे प्रेरणा भीतर से उठी है.   

Wednesday, July 29, 2015

नदी किनारे पिकनिक



सत्संग में ही मुक्ति है, सत्संग अर्थात परमात्मा का संग..वही मुक्त करता है. सारा दुःख दो के कारण है, परमात्मा एक है..उसमें टिकने से ही तृप्ति मिल सकती है. जगत के सारे कार्य तब होते हैं, उन्हें करना नहीं होता. जीवन को ठीक से जीने के लिए, शरीर को स्वस्थ रखने के लिए भी उन्हें अपने भीतर की शक्ति को जगाना आवश्यक है, यह शक्ति बिना भीतर गये मिलती नहीं. उसने नये वर्ष के लिए कुछ निर्णय अपने आप के लिए लिए हैं. नये वर्ष में कोई भी व्यक्तिगत कविता नहीं लिखेगी, उसके गीत अब परमपिता परमात्मा तथा सद्गुरु के लिए ही होंगे. नये वर्ष में  वह अपनी  तीसरी पुस्तक को भी छपने के लिए भेजेगी. इस बार वाराणसी में छपवानी है, जिसे पिताजी को समर्पित करना है. अमावस तथा पूर्णिमा की जगह अबसे एकादशी का व्रत रखना है. नया वर्ष उसके लिए परमात्मा की निकटता का वर्ष तो होगा ही पर सेवा का वर्ष भी होगा. हरि कि सेवा तभी होगी जब उसके जगत कि सेवा कोई करता है. आत्मा के लिए कुछ भी नहीं करना है, वह स्वयं में पूर्ण है, कर्म तो संसार के लिए ही हैं, स्वार्थ पूर्ण कर्म ही तो बांधते हैं.


कल वे पिकनिक पर गये. धूप और पानी का यानि अनल और नीर का संग बहुत भला था. पानी में ठंडक थी, नीचे बालू थी, नदी गहरी नहीं थी. वे काफी दूर तक आगे बढ़ते ही गये. नदी किनारे आग  जलाकर भोजन भी बनाया. कोई फ़िक्र नहीं, कोई चिंता नहीं, वे बस थे..प्रकृति का अंग बनकर उसके साथ जीते हुए. कल फिर उन्हें पिकनिक पर जाना है, दो दिनों के लिए पुनः प्रकृति के साथ जीना है. जून का मन नहीं है, पर वे क्यों घबरा रहे है इसका कारण उन्हें स्वयं भी अस्पष्ट है. नन्हा पूर्णतया निश्चिंत है, वह अपने मित्र को भी साथ ले जाना चाहता है. आज नैनी को काम करने का विशेष उत्साह जगा है, वह लॉन की सफाई पूरे मन से कर रही है. वे सभी अपना-अपना निर्धारित काम दिल से करें तो काम अच्छा होगा ही. अभी-अभी उसने एक केक बनाया पर निकालते समय शीघ्रता कर दी जिससे वह टूट गया, यदि थोड़ी समझदारी से काम लिया होता तो पहले की तरह साबुत बनता. कल की थोड़ी सी थकान का अनुभव हो रहा था, सो वह सो गयी लेकिन उतनी ही देर में स्वप्नों की दुनिया शुरू हो गयी. गोहाटी में अकेले सफर कर रही है. कुछ थोड़े से पैसे पास में हैं. रास्तों का भी ज्ञान नहीं है. एक व्यक्ति कुछ पैसे मांगता है..न जाने कैसा है मन..कहाँ-कहाँ की सोचता रहता है, उधेड़बुन में लगा रहता है. जागृति ही उचित है. 

सत्यम..शिवम..सुन्दरम..


सद्गुरू से जुड़े रहना साधना में आगे बढ़ने के लिए प्रथम और अंतिम शर्त है. सद्गुरु दूर नहीं हैं, वह हृदय के बिल्कुल निकट हैं. हमारे स्वयं से भी निकट. उनसे मिलकर भी यदि जीवन में कुछ परिवर्तन नहीं हुआ तो व्यर्थ है वह जीवन. आज सुबह नींद देर से खुली, स्वप्न देखती रही कि आम खरीदे हैं पर उसमें रस नहीं है, एक छेद के जरिये सारा रस उसमें से पहले ही निचोड़ लिया गया है. अनार खरीदा है पर उसमें दाने नहीं हैं, ऊपर से छिलका सही-सलामत है. ऐसे ही तो वे ऐसे कार्य करते हैं जो ऊपर से भले दीखते हैं पर उनमें कोई सार नहीं होता. गुरू के साथ जुड़े रहो तो वह स्वप्नों में भटकने नहीं देता. उन्होंने कहा था कि स्वप्न से जैसे ही जगो तो उठकर बैठ जाओ, स्वस्थ हो जाओ, अपने आप में स्थित. आत्मा में स्थित. वहीं बोध मिलेगा, वहीं मुक्ति है, वही वास्तविकता है !

जैसा-जैसा शास्त्रों में लिखा है उसे वैसा-वैसा अनुभूत होता है. सत्य एक ही है वह जिसके भीतर प्रकट होगा, समान रूप से होगा. उसका मन आजकल कितना जीवंत रहता है. सदा तृप्ति और उछाह से भरा, पता नहीं भीतर क्या रिसता है और कौन उसका पान करता है, लेकिन एक निर्द्वंद्वता, निडरता तथा स्वतन्त्रता का अनुभव होता है, जैसे अब इस जहाँ में कुछ भी पाना नहीं है. आत्मा को क्या पाना है जो स्वयं ही सबका स्रोत है, जो नित्य है, अनंत है. आज दोपहर एक अंग्रेजी फिल्म देखी, जिसमें रोबोट मानवों पर हुकूमत करने लगते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि मानव अपना विनाश कर बैठेंगे, मानव ने जिन्हें बनाया वही मशीनें उस पर अधिकार करने लगी पर अंत में जीत मानव की हुई. मानव के भीतर दैवीय शक्ति है, प्रभु ने उसे बनाया है, वह भी अपने जैसा, ईश्वर का मित्र है वह.. यदि उसकी आज्ञा में रहे, पर अंततः जीत तो परमात्मा की ही होती है.

आज सुबह वह तीन घरों में गयी, एक के यहाँ किताब भेजी. दो ने मना कर दिया, एक ने लेकर कहा पैसे बाद में भिजवा देगी. एक और प्रति किसी परिचिता ने खरीदी, सेवा का यह यह काम करते हुए उसे बहुत ख़ुशी हो रही है, लोगों से बात करने का एक नया अनुभव. वह जो पहले लोगों से बात नहीं करती थी, मतलब की बात ही करती थी. अब अपने स्वाभिमान को ताक पर रखकर बात कर रही है. लोग तो सारे उसके अपने ही हैं. वे जो भी जवाब दें, उसे एक नया पाठ सीखने को मिल रहा है. इसी बहाने लोगों से उसकी जान-पहचान भी बढ़ रही है. मिलते-जुलते रहने से वक्त पर लोग काम आते हैं. ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’ के लिए काम करते समय मन में ऐसा भाव भी है कि कुछ भी नहीं कर रही. जो कुछ भी हो रहा है वह अपने आप ही हो रहा है, किसी बड़े कार्य का छोटा सा हिस्सा ! एक परिचिता के पास गयी तो उसने अपना पूरा जीवन दर्शन सुना दिया. वे सभी ही तो ज्ञानी हैं, सदा एक-दूसरे को ज्ञान देते हुए. जून परसों आयेंगे, उनसे फोन पर बात हुई. वे ये जानते हुए भी कि वस्तुओं की वस्तविकता क्या है, उन्हें महत्वपूर्ण बनाते रहते हैं, क्योंकि वस्तुएं उनके जीवन में बाह्य ही सही रंग भरती हैं. जून उसके लिए और वस्तुएं ला रहे हैं. वे सभी सौन्दर्य के पुजारी हैं. उनका इष्ट देवता उनका प्रिय कान्हा भी तो सौन्दर्य का देवता है. सत्यं, शिवं, सुन्दरं की परिकल्पना कितनी अद्वितीय है, जो सत्य है, वही शिव है, जो शिव है  वही सुंदर है..पर जो सुंदर है वह शिव भी होगा इसमें संदेह हो सकता है...क्योंकि हर चमकती हुई चीज सोना नहीं होती.. .भारतीय संस्कृति पर निर्मल वर्मा का एक विस्तृत निबन्ध पढ़ा पर पूरा डूब कर नहीं, क्योंकि साथ-साथ माली के काम का निरिक्षण भी कर रही थी.  सुबह उठने से पूर्व फिर स्वप्न देखे, जो उस समय वास्तविक ही लग रहे थे. एक छोटी लड़की जो स्वप्न में मृत हो जाती है फिर जीवित और फिर एक जलती हुई देह का स्वप्न देखती है ..कितना अजीब था यह स्वप्न पर तब बिलकुल स्वाभाविक लग रहा था, उनका जीवन भी तो एक स्वप्न की तरह ही है, पल में बीत जाने वाला !


जून आज आ रहे हैं, फ्लाइट एक घंटा लेट है. अभी एक सखी से बात की, उसकी सासूजी परसों बाथरूम में गिर पड़ीं. बुढ़ापे की कमजोरी तथा भारी शरीर, कहीं जाने की जल्दी के कारण..तथा स्नानघर में में लोहे की बाल्टी थी, उन्हें थोड़ी चोट भी लग गयी है. उसने सोचा शाम को वे उन्हें देखने जायेंगे, यदि आज नहीं तो कल अवश्य ही. 

Tuesday, July 28, 2015

महामंत्र का जाप


नन्हा कल शाम को आ गया. सारी शाम वह अपने हॉस्टल की ढेर सारी बातें बताता रहा. इस समय सोया है क्योंकि देर रात तक जगता रहा. यह नई पीढ़ी ऐसी ही है. हर काम उलटे वक्त पर करती है. खैर...वह सुबह ध्यान नहीं कर पायी. आज पहली बार माला पर महामंत्र का जाप किया, माला जो नन्हा लाया है, उसी ने उसे पकड़ना सिखाया और एक सौ आठ बार जोर से बोलकर स्वयं सुनते हुए जप करने को कहा. पूरे पन्द्रह मिनट लगे, बीच-बीच में मन कहीं और भी गया. योग वशिष्ठ में लिखा है इस जगत का कारण मन ही है, मन ही दृश्य है और मन ही द्रष्टा भी. एक न रहे तो दूसरा भी नहीं रहेगा, तब स्वयं ही स्वयं में स्थित रहेगा. सारी परेशानियों का कारण मन ही है, मन ही न रहे तो कोई दुःख नहीं और यह मन वास्तव में है कुछ नहीं, एक परछाईं है. उसे खत्म करना है ज्ञान की तलवार के द्वारा, वरना यह भूत बनकर चिपक जाता है और वे इसके अनुसार चलते रहते हैं. नीरूमाँ ने कहा जब भी कोई दूसरे की गलती देखता है, उसमें भेद बुद्धि आ जाती है, वह भेद करता है जबकि यहाँ दो हैं ही नहीं, सब उसी एक का पसारा है. जो वे हैं वही अन्य हैं, सभी अपनी-अपनी जगह सही हैं. आज धूप खिली है वह भी स्वीकार्य है और कल बदली होगी वह भी स्वीकार्य होगी.
पिछले पांच दिन डायरी नहीं खोली, नन्हे के आने से व्यस्तता बढ़ जाएगी यह तो स्वाभाविक ही था. आज सुबह अलार्म बजा तो फौरन नहीं उठी. गुरूजी की बतायी विधि के अनुसार स्वयं से जुड़ने का प्रयास किया किन्तु स्वप्न देखने लगी. आजकल तमस की प्रधानता है अथवा रजस की तभी सत्व ज्यादा देर तक नहीं टिकता. आज क्रिया में अनुभव हुआ कि सद्गुरु का हाथ उसके सर पर है. उनकी कृपा से ही भीतर भक्ति के भाव उमड़ते हैं. जब कोई ईश्वर को याद करता है तो मानना चाहिए कि उसकी कृपा है, वरना वह उसे भूलता ही क्यों.

आज शाम को उसे कवि-सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाना है. उसके जीवन का प्रथम कवि-सम्मेलन. इसमें उसे बुलाया गया है और चूँकि वह कविता लिखती है, लिख सकती है इसलिए जा रही है. इसे अपना कर्त्तव्य कर्म मानकर, इससे किसी लाभ की आशा लेकर नहीं, लाभ यदि है भी तो इतना कि लोगों के मन को कुछ देर के लिए मुदित कर सके. देने की भावना ही मन में है लेने की बिलकुल भी नहीं, इसलिए कोई भी उद्ग्विनता नहीं है, मन शांत है, जैसे यह कोई सामान्य घटना हो. ईश्वर तथा सद्गुरु से प्रार्थना है कि उसके मन कि यह समता वहाँ भी ऐसी ही बनी रहे, उसकी कविता चाहे सराही जाये अथवा न सराही जाये, दोनों ही स्थितियों में. जून आज यहाँ नहीं हैं, उनका मन भी आजकल समता में रहना सीख रहा है. वह होते तो अच्छा होता ऐसा भाव भी मन में नहीं आता. इस जगत में जिस क्षण भी जो हो रहा है वही होना था, वही ठीक है ऐसा ही लगता है. कोई शिकायत नहीं, जब कोई कामना ही नहीं तो शिकायत का प्रश्न पैदा नहीं होता. रस की धारा प्रकट हुई है जिसने सभी कुछ ढक लिया है वही अब मुख्य है ईश्वर की अनुभूति की रस धार, वह निकट है, वह सुगंध बनकर भीतर समाया है, वह संगीत बनकर भीतर समाया है, वह प्रकाश बनकर और वही तरंग रूप में भीतर समाया है. वही अमृत बनकर भीतर रिस रहा है अनवरत !


गुरूमाँ गा रही हैं, ‘जोगी मस्ताना, दिल किया दीवाना..’उनकी आवाज दिल को गहरे में जाकर छू जाती है. सद्गुरु होते ही ऐसे हैं प्रेम  से पगे हुए, पूरे डूबे हुए अपने भीतर के अमृत में.. उन्होंने कितने सरल शब्दों में.. जैसे सद्गुरु बताते हैं, मन के बारे में बताया. अचेतन मन को ध्यान में सुझाव दिया जा सकता है, स्वभाव तभी बदलता है जब कोई भीतर जाकर बदलने का प्रयास करता है, भीतर के सच को जो एक बार पा लेता है वह कभी भी उससे विलग नहीं हो सकता, वह सूर्य की तरह निरंतर उसके जीवन में चमकता रहता है. उसके जीवन में भी ऐसा ही प्रकाश भरा है. अब उसे अपने लिए कुछ भी नहीं करना है, जो करना है वह दूसरे के द्वारा दूसरे के लिए ही करना है. यह  शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियां तथा संसार सभी तो अन्य हैं आत्मा को अपने लिए कुछ भी नहीं करना है. वह पूर्ण तृप्त है. कितना खाली हो जाता है एक क्षण में मन जब कोई आत्मा से जुड़ जाता है. पहले मन को खाली करके स्वयं में जाती थी अब पहले खुद में जाती है तो मन गायब हो जाता है ! 

Monday, July 27, 2015

ए सर्च इन सीक्रेट इंडिया


लगता है उसकी विद्यार्थिनी आज फिर भूल गयी है. पिछले शुक्रवार भी वह नहीं आई थी. उसे एक कविता लिखनी है ‘विश्व विकलांग दिवस’ के लिये समय मिल जायेगा. शाम को क्लब जाना है कोरस के अभ्यास के लिए. रात को एक सखी के यहाँ खाने पर जाना है, उसकी शादी की सालगिरह है. सुबह उठने से पूर्व कितने स्वप्न देखे. बर्फ गिर रही है, आकाश एक बड़ी सी फिल्म की स्क्रीन बन गया है, वहाँ लोग एक दूसरे पर बर्फ के गोले बनाकर डाल रहे हैं. सब कुछ इतना स्पष्ट था जैसे सामने घट रहा हो. रात को देर तक नींद नहीं आई, पर इससे उसे कोई परेशानी तो महसूस नहीं होती, शायद वह जगते हुए भी सोती रहती है अर्थात सोते हुए भी जगती है, शायद ध्यान करने से ऐसा होता है. आज नीरू माँ का कार्यक्रम देखा, ऑंखें भर आयीं. कितनी करुणा, कितना प्रेम है उनके भीतर. प्रश्न पूछने वाले तरह-तरह के प्रश्न पूछते हैं पर बिना जरा भी विचलित हुए सभी को जवाब देती हैं. जैन मुनि आचार्य महाप्राज्ञ ने बताया मस्तिष्क का एक प्रकोष्ठ विकसित हो जाय तो मानव का व्यवहार ही बदल जाता है. भीतर की सुप्त शक्ति जब तक जाग्रत नहीं होती वह अज्ञान से मुक्त नहीं हो पाता. उसे जाग्रत करने का पुरुषार्थ तो करना ही है, उसे भाग्य पर नहीं छोड़ा जा सकता. सद्गुरु के बताये मार्ग पर तो चलना ही पड़ेगा. कल पता चला बड़ी भाभी के बड़े भाईसाहब नहीं रहे, उन्हें फोन करना है. कल से नन्हे के इम्तहान हैं. वह कुछ पल नियमित जप करता है. उसे शांति का अनुभव होता है. जब मन शांत होता है तो आत्मा का सहज स्वभाव मुखर हो जाता है. मन को अपने सही स्थान पर रखना ही साधना है.

कल का कार्यक्रम ठीकठाक हो गया. आज शाम को सत्संग में जाना है, कल एक शादी में तथा परसों तीन दिसम्बर है, नेहरू मैदान जाना है. आचानक ही उनके शामें व्यस्त हो गयी हैं. सुबहें और दोपहर तो पहले से ही थीं. कल सद्गुरु को समर्पित उसकी पुस्तिका की उन्नीस प्रतियाँ निकल गयीं, अगले हफ्ते.. और इसी तरह अगले कुछ हफ्तों में और भी लोग इसे लेकर पढ़ेंगे. अभी-अभी वह धूप में गयी, दिसम्बर में भी धूप इतनी तेज है कि दस मिनट से अधिक उसमें नहीं बैठा जा सकता. इसी तरह संसार रूपी धूप में भी देर तक अब रहा नहीं जाता, आत्मा की छाँव में लौट-लौट कर आना होता है, तभी भीतर शीतलता छायी रहती है. ऐसी शीतलता जो अलौकिक है, दिव्य है, प्रेम से पूर्ण है !

पिछले दो दिन फिर नहीं लिखा, रात्रि के पौने आठ बजे हैं. मन में विचार आया कि दिन भर का लेखा-जोखा कर लिया जाये. सुबह उठते ही जैसे पहले अधरों पर प्रार्थना आ जाती थी, “दूर दुनिया की हर बुराई से बचाना मुझको, नेक जो राह हो उस राह पर चलाना मुझको” अब नहीं आती. रात्रि को आने वाले स्वप्न भी पहले से आध्यात्मिक नहीं रह गये हैं, लेकिन होते बहुत अद्भुत हैं. आज दोपहर को Paul Bruntun की पुस्तक A search in secret india पढ़ती रही. शिक्षक ने कहा, विलम्बित ठीक से नहीं हो रहा है, अभ्यास बढ़ाना होगा. शाम को कोपरेटिव जाकर नन्हे के लिए कुछ समान खरीदा, वह परसों आ रहा है, उसकी आलमारी भी पिछले दिनों ठीक कर दी थी. 

Friday, July 24, 2015

विश्व विकलांग दिवस


आज एक परिचिता का फोन आया. तीन दिसम्बर को ‘विश्व विकलांग दिवस’ है, उसे कुछ स्लोगन लिखकर तख्तियां बनानी हैं. उस दिन नेहरू मैदान में कार्यक्रम है. उससे पूर्व एक बार ‘मृणाल ज्योति’ भी जाना है. आज सत्संग थोड़ी देर ही सुन पायी. सब बातों का सार तो यही है कि “वे किसी को पीड़ा न पहुंचाएं, दूसरों के काम आयें और अहंकार न करें. आत्मा का क्या मान-अपमान और शरीर तो जड़  है उसका क्या मान-अपमान ! ईश्वर से संयोग ही वास्तविक सुख है उससे वियोग ही वास्तविक दुःख है !”

आज सुबह ध्यान के बाद उसे लगा जैसे भीतर से कोई कह रहा है कि उसे कुछ वक्त पूरी तरह माँ के साथ बिताना चाहिए. वह ऊँचा सुनने लगी हैं, सो बातचीत चाहेन हो पर साथ तो रहे. यूँ तो सुबह की चाय, नाश्ता, दोनों वक्त भोजन था पाठ सुनाते वक्त साथ रहता है पर तब मुख्य कार्य को ही प्रमुखता दी जाती है, ऐसा समय जब दुनिया का कोई भी कार्य प्रमुख न हो, बस वे ही प्रमुख हों. लगता है उनका हृदय ऐसी तरंगें भेज रहा है तभी उसे ईश्वर ने ऐसी प्रेरणा दी है. भीतर की आवाज इतनी स्पष्ट रूप से कम ही सुनाई देती है. सुबह सद्गुरु को टीवी पर देखा व सुना. वह कह रहे थे, सेवा करो तो तुम मेरे निकट आ सकते हो. वह तो सेवा किये बिना भी स्वयं को उनके निकट ही मानती है. वह ईश्वर की नाईं सर्व व्यापक हैं. उनकी चेतना इतनी विशाल हो गयी है कि उसमें सब समा गया है. वह उस हवा की तरह हैं जो परमात्मा रूपी फूल की खुशबू उन तक लाती है. वह उन्हें परिष्कृत करते हैं. वह पत्थर को तराश कर हीरा बनाते हैं. वह पुकार सुनते हैं. आज तक जितने भी सद्गुरु संत हुए हैं, वे सभी परमात्म स्वरूप होकर सदा विद्यमान हैं. कल उसने सच्चे हृदय से नानक को याद किया तो ध्यान में फूलों और प्रकाश बिन्दुओं की अनुपम छवि उन्होंने दिखाई. उन्हें शरण भर लेनी है ! जैसे शक्कर को मिठास खोजनी नहीं पड़ती, वैसे ही शरण में गये हुए को सुख की खोज नहीं करनी है.  


पिछले दिनों दिनचर्या में कुछ ढील आ गयी थी, आज से पुनः व्यवस्थित करने का प्रयास है. योगासन भी रोज नहीं कर पा रही थी जो अति आवश्यक है. तन स्वस्थ होगा तो मन स्थिर होगा, ध्यान होगा तथा सेवा होगी. ‘साहित्य सेवा’ भी तो एक सेवा है. बच्चों को पढ़ाना भी सेवा है. कल शाम को पुस्तकालय से दो पुस्तकें लायी है. क्लब की पत्रिका के लिए एक लेख लिखना है, अध्यात्म उसके हृदय के निकट का विषय है, उसी पर लिखे तो अच्छा रहेगा. आजकल क्लब में गाने का अभ्यास चल रहा है. अगले हफ्ते मीटिंग है. उसे कविता पाठ भी करना है. उसके लिए कविताओं का चुनाव भी करना है. मौसम वर्षा के कारण ठंडा हो गया है, बगीचे में सब्जियों और फूलों की पौध लग गयी है. अब वर्षा होने से भी कोई परेशानी नहीं होगी. वैसे तो उसकी सारी परेशानयों को प्रभु ने एक साथ ही दूर कर दिया है. जब उसका कुछ रहा ही नहीं तो दुःख क्या ? अब उसके सिवाय अंतर में कोई दूसरा नहीं रहता ! आज जून ने लंच में गोभी पुलाव बनाने को कहा है.     

Thursday, July 23, 2015

आंवले का वृक्ष


आज कई दिनों बाद डायरी खोली है. यह तो निश्चित है कि जो पन्ने खाली रह गये हैं, वे भी भर ही जायेंगे, ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’... प्रभु के बारे में यदि लिखना हो तो शब्द अपने आप भीतर से झरते आते हैं. वह प्रभु, परमेश्वर, ईश्वर, ब्रह्म, कृष्ण, राम, शंकर या पारब्रह्म किसी भी नाम से उसे पुकारो वह जितना-जितना समझ में आता जाता है उतना ही उतना रहस्यमय भी होता जाता है. वही भीतर है वही बाहर है. टीवी पर राम कथा आ रही है. ईश्वर का रस जिसे भीतर से मिलने लगता है, उसके लिए यह जगत अपनी सत्ता ईश्वर रूप में रखता है. संत कह रहे हैं कि ‘तुलसी’ प्रभु को प्रिय है. तुलसी तथा निंब इन दोनों का औषधि रूप में भी महत्व होता है. बगीचे में आंवले के वृक्ष के नीचे एक क्यारी बनवाई है, उसमें फूल लगाने हैं. आज शेष फूलों के बीज भी डालने हैं. कल बालों में मेहँदी लगाई थी एक महीने बाद, अब लगता है दो हफ्तों के अन्तराल पर ही लगानी होगी.

पिछले दो दिन फिर कुछ नहीं लिखा, इसे प्रमाद भी कह सकते हैं और अति व्यस्तता भी. उपन्यास पढ़ने को एक साधक की दृष्टि में प्रमाद ही कहा जायेगा. john की जिंदगी के बारे में पढ़कर इतना ज्ञान हुआ कि यह जीवन क्षणिक है, इतना ज्ञान तो शास्त्रों के अध्ययन से भी होता है. मन को जहाँ साधक खत्म करता जाता है वहाँ उसकी आत्मा मुखर होती जाती है पर उसने आत्मा को दबाकर मन को सुख देने के लिए ही उपन्यास में इतना समय लगाया, खैर जो हो चुका है वह हो चुका. कल सत्संग भी ठीक-ठाक हो गया. उन्होंने aol के लिए कुछ योगदान भी दिया, इतने बड़े यज्ञ में उनकी छोटी सी आहूति. कल चने व सूजी का हलवा खाया सो आज पेट में कुछ हलचल है. आज सुबह से वक्त का पूरा उपयोग किया है, लेकिन सारे कार्य तो शरीर के स्वास्थ्य और मन की शुद्धि के लिए ही हुए. सेवा का तो कोई कार्य नहीं हुआ, अभी दिन शेष है, जो भी सम्मुख आएगा, सहर्ष उसे ग्रहण करना है. आज बड़ी ननद की छोटी बेटी का जन्मदिन है, उसे फोन करना सुबह वे भूल गये. परमेश्वर को सुबह याद किया उठते ही तो पवनपुत्र हनुमान का स्मरण हो आया. उनकी कृपा से सुबह-सुबह समुद्र तट पर बैठे श्रीराम के दर्शन हुए. कैसी अद्भुत घटना है यह, उनके भीतर ही सभी कुछ है, उस दिन नदी, पानी, रस्ते सब इतने स्पष्ट दिख रहे थे !


आज सुबह चार बजे से पूर्व ही उठ गयी थी. मन था कि विचारों से मुक्त ही नहीं हो रहा था. नींद में भी उसे पता चलता रहता है कि मन खाली है या विचार चल रहे हैं. कुछ देर ध्यान का प्रयास किया पर कोई बेचैनी थी भीतर. जब तक मन सारी चेष्टाएँ त्याग नहीं देता तब तक निर्विचार नहीं हो सकता. हर चेष्टा एक न एक विचार को जन्म देती है. उन्हें तो सब छोड़कर मात्र साक्षी भाव में जीना है. एक बार यदि साक्षी भाव में आ गये तो सारी चेष्टाएँ होती भी रहें बाधक नहीं होंगी, बाधा तभी आती है जब मन स्वयं सभी कुछ करना चाहता है. ‘कीत्या न होई, थाप्या न जाई आपे आप सुरंजन सोई’ ईश्वर तो सदा ही है, उसे बस अनुभव ही करना है, कहीं से लाना नहीं है. वह करने से नहीं, न करने से प्रकट होता है. बाद में क्रिया के बाद मन खाली हो गया. क्रिया के दौरान भी कई बार भटका, पर बोध रहा. संगीत अभ्यास के समय मन एक पुलक से भरा हुआ था जैसे न जाने कौन सी निधि इसे मिल गयी हो. भीतर कितने खजाने भरे पड़े हैं, वे चाहें तो तत्क्षण उन्हें पा सकते हैं. मन व्यर्थ की कल्पनाओं में खोया रहता है और जो निधि सहज ही पा सकता है जन्मभर उससे वंचित ही रह जाता है. सद्गुरु का आना ऐसी घटना है जो जीवन को बदल कर रख देती है, वे सुख स्वरूप परमात्मा को पहचानने लगते हैं !         

शेफाली के फूल


अक्टूबर का प्रथम दिन, शरद ऋतू का आरम्भ ! पूजा और शेफाली की बहार का मौसम ! सभी से बात की, भीतर प्रेम भरा हो तो सारा जगत ही प्रेममय लगता है. कितना सच कहते हैं शास्त्र और संतजन. भीतर ही प्रेम का खजाना है उसकी चाबी हाथ आ जाये तो जीवन धन्य हो जाता है. उस चाबी का पता तो सद्गुरु बताते हैं पर उसे खोजने की इच्छा मन में जगे ऐसी परिस्थितियाँ ईश्वर उत्पन्न  करते हैं. उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए ज्ञान को धारण करना होगा. ईश्वर उसे दोषों से बचाना चाहते हैं. इसलिये वे उसमें उन दोषों को दिखाते हैं जो वह अन्यों में देखती है. जिनके खुद के घर शीशे के हैं वे दूसरों पर पत्थर कैसे फेंक सकते हैं.
पिछले चार दिन दशहरे तथा दुर्गा पूजा के उत्सव के अवकाश के थे. जून की छुट्टी थी और दिन भर घर-गृहस्थी के कार्यों में समय का पता ही नहीं चला, कैसे बीत गया. छुट्टी होने के बावजूद भी जून  कुछ देर के लिए ऑफिस गये, उनको भी अब खाली बैठना जरा नहीं सुहाता. वृत्ति तम से रज में आ गयी है, कभी-कभी सत् में भी टिकती है. उनकी यात्रा सुचारुरूप से चल रही है ! उन्होंने दीवाली के लिए घर की सफाई शुरू की है, काफी कुछ हो गया है अभी काफी कुछ शेष है.
कल की वर्षा के बाद आज धूप निकली है. कल नन्हे को गणित पढ़ने के लिए कहा पर उसे ज्यादा अच्छा नहीं लगा. उन्हें कोई दूसरा टोके कुछ करने को कहे, अच्छा नहीं लगता. अपनी मर्जी से वह काम सहर्ष ही करते हैं. अपनी आजादी पर जरा सा भी अंकुश किसी को पसंद नहीं है. उसका मोह ही उससे यह कहलवाता है. प्रेम में तो जो जैसा है वैसा ही स्वीकारना होता है. नन्हे बच्चों को पढ़ाई के लिए कहना ठीक है पर व्यस्क को यदि स्वयं ही समझ नहीं होगी तो कहने से भी नहीं आएगी. अतः कुछ कहना भी हो तो सहज भाव से कहना होगा कोई पूर्वाग्रह रखकर नहीं !
पूजा के अवकाश के बाद उसे कमजोरी तथा कुछ अन्य लक्षण शुरू हो गये, मन उसी में उलझा रहा. अचानक उसे हाथों-पैरों में कमजोरी का अनुभव होने लगा है तो लगता है जैसे जीवन हाथ से फिसला जा रहा है. जीवन का अंत मृत्यु ही है. मृत्यु उन्हें कितनी तरह से तैयार करती है स्वयं से मिलने के लिए. पहले-पहल जो धक्का लगता है कोई बुरी खबर को पाकर, वह समय निकल गया है, मन अब स्थिर हो रहा है. वास्तविकता को स्वीकार कर रहा है और उससे बहुत कुछ सीख भी रहा है. देह नियन्त्रण में नहीं है यह सबसे पहली बात है. प्रतिपल सजग रहकर कोई मन को निराश होने से बचा सकता है, ईश्वर पर अटूट विश्वास रखकर वह सारे दुखों को हंसते-हंसते सह सकता है, लेकिन प्रारब्ध को नहीं बदल सकता. जब साधन भी भक्ति हो, साध्य भी भक्ति हो तो शारीरिक दुःख-पीड़ा का क्या महत्व रह जाता है ?

जब कोई अस्वस्थ होता है तो लगता है कि पुनः स्वस्थ होगा भी या नहीं, सामान्यत उसे ऐसा नहीं लगता था पर पिछले कुछ दिनों से तन में जो परिवर्तन दिखाई पड़ रहे थे, उसके कारण लगा शायद अब कुछ समय तक ऐसा ही चलने वाला है. विटामिन तथा कल्शियम लिया. जून खाने-पीने का बहुत ध्यान रखने लगे हैं, पहले सी दुर्बलता अब नहीं लग रही है. कल शाम पहली बार इस्कॉन के सत्संग में गयी थी. कीर्तन में मन कहीं खो गया. कृष्ण के नाम का उच्चारण होठों से होता हो, कान उसे सुनते हों, हाथ ताली बजाते हों, मन उसके रूप को देखता हो, नाक उसके सम्मुख रखे फूलों और अगर की सुगंध को सूँघती हो तो अश्रु कहाँ रुक पाएंगे. बहुत अच्छी तरह से दो सदस्यों ने प्रभुपाद द्वारा लिखी भगवद गीता को पढ़ा तथा उस पर चर्चा की. शाम के तीन घंटे कैसे बीत गये पता ही नहीं चला. आज शरद पूर्णिमा है, वे ‘मून लाइट मेडिटेशन’ करने वाले हैं. चावल की खीर भी पकाई है. आज गुरुजी को समर्पित उसकी किताब का उन्होंने कम्प्यूटर प्रिंट भी लिया है.    

Tuesday, July 21, 2015

नीरू माँ की शिक्षा


आज ध्यान में कैसी खुमारी छा रही थी. नाश्ते में दलिया, पोहा और एक ‘बनाना’, लिया था, अन्न का भी एक नशा होता है. यह ध्यान था या नींद थी, कैसे कह सकते हैं. सद्गुरु कहते हैं ध्यान के बाद तो चेतनता का स्तर बढ़ जाना चाहिए. नींद के बाद भी एक ताजगी आती है पर मन उतना सचेत नहीं रहता. उसका मन पूर्ववत है, एक सा, एक शांत सरोवर की तरह. सर के ऊपरी भाग में एक अजीब सी सनसनाहट का अनुभव हो रहा है. कई बार होता है एक सिहरन या कहें स्पंदन महसूस होता है. कभी-कभी पूरे शरीर में ही अद्भुत रोमांच और कम्पन होता है ध्यान में. पता नहीं कितने रहस्य छुपे हैं चेतना में, जगत भी दीखता है. स्वप्न में भी तो चेतना कितने अद्भुत दृश्य गढ़ लेती है. कल स्वप्न में देखा फिर वह एक मुस्लिम मोहल्ले में फंस गयी है. वहाँ एक के बाद एक घर ही नजर आते हैं, न कोई सड़क न गली, घरों के दरवाजों से गुजरकर ही जाना पड़ता है यदि कहीं बाहर जाना हो. यह स्वप्न उसे अनेकों बार आ चुका है शायद किसी पूर्वजन्म की स्मृति है. गुरुमाँ कहती हैं जिस तरह जगने के बाद स्वप्न महत्वहीन हो जाता है वैसे ही संतजन इस जगत को स्वप्न मानकर कोई महत्व नहीं देते !

“घर में वृद्ध माता-पिता हों तो घर में ही तीर्थ होता है, उनकी सेवा करने से ही सारे तीर्थों का सेवन करने का पुण्य मिल जाता है.” स्वामी रामसुखदास जी का प्रवचन सुनकर हृदय पर कैसा मीठा आघात होता है, शहद की तरह मीठी उनकी वाणी और उससे भी मधुर ईश्वर के प्रेम में रची-बसी जैसे चाशनी में डूबी हो, ऐसी हँसी उसके अंतर को छू जाती है. उसने सद्गुरु को भी सुना. नन्हे बच्चों को कैसे संस्कार दें, इस पर चर्चा कर रहे थे. पहले लिंग, मूर्तिपूजा, मन्त्र जप, मन्दिर आदि के महत्व पर प्रकाश डाला. अद्भुत ज्ञान का भंडार है उनके पास और कैसी सहज, बालवत् निश्छलता. संतों के अलावा जगत में किसको जीने की कला आती है, उधर स्वामी रामदेव जी हैं जो उन्हें कितने भिन्न-भिन्न तरीकों से देह से ऊपर ले जाना चाहते हैं, वे अद्भुत क्रान्तिकारी संत हैं, उनकी वाणी भीतर जोश भरती है. गुरूमाँ तो साक्षात् सरस्वती हैं, कितना प्रेम है उनकी वाणी में, उनके हृदय में. नीरूमाँ की ज्ञान की विधि कैसी अनोखी होगी कि लोग अपनी फाइलें सुधारने लगते हैं. ये सारे संतजन उसे बहुत प्यारे हैं. सभी को उसने अनंत-अनंत नमन किये. सद्गुरु तो और भी निराले हैं, वह कहते हैं कुछ मान के चलो, कुछ जान के चलो. वे भावना पर बल देते हैं. वे भीतर के विश्वास को दृढ करना चाहते हैं वे ज्ञान को बोझिल नहीं बनाते. हर संत अपने आप में अनूठा होता है. सबके रास्ते भिन्न-भिन्न हैं मंजिल एक ही है, उसे भी एक ही मार्ग पर चलना है, सद्गुरु के मार्ग पर !  फिर उसने सद्गुरु से प्रार्थना की, वही तो हैं जो भिन्न-भिन्न रूप धर कर ज्ञान फैला रहे हैं. एक ही सत्ता है जो चारों ओर फैली है, वही भीतर है वही बाहर है. वही उसे सत्य के मार्ग की ओर ले जाएगी ! उसने प्रार्थना की कि उसका हृदय किसी के प्रति राग-द्वेष से लिप्त न रहे.  


कल उसे हल्का जुकाम था, आज अपेक्षाकृत शरीर स्वस्थ है. सारे रोग प्रज्ञापराध के कारण ही होते हैं. पर इससे उसे कितना कुछ सीखने को मिला है. एक तो देह से अलग जानकर स्वयं को स्वस्थ जानने का अभ्यास. दूसरा नम्रता का पाठ, जो रोग पढ़ाता है. पिछले दिनों उसने अन्यों की बीमारी को देखकर उन्हें दोषदृष्टि से देखा. उससे मुक्त करने के लिए शायद यह रोग आया, ताकि वह स्वयं को सजग तथा अन्यों को असजग न समझे. प्रकृति उसे दोष रहित देखना चाहती है.

Monday, July 20, 2015

जीवन की पहेली


आज जन्माष्टमी है, परमात्मा तो अजन्मा है फिर भी वह जन्म लेता है, मानवों को ज्ञान देने के लिए. कृष्ण अर्जुन के बहाने सभी को अपनी शरण में जाने का उपदेश देते हैं, जहाँ प्रेम है, शांति है आनन्द है. तब वे उसके बनाये इस सुंदर संसार को और अच्छा बनाने में सहयोग कर सकेंगे, कम से कम उसे विकृत तो नहीं करेंगे. यह जीवन एक रहस्य है और वह उसे खोलना चाहती है. कृष्ण उसे आकर्षित करते हैं ताकि वह इस खेल में शामिल हो सके. भीतर ही इसकी चाबी मिलने वाली है, भीतर जाकर जब कुछ भी नहीं मिलता तो विरह सताता है जिससे भीतर का पाप-ताप तो जल ही जाता है. मन समता में रहना सीखता है.

‘सद्गुरु’ को प्रेम करने का अर्थ है जो उन्हें प्रिय है वह भी वही करे. उन्हें ‘सेवा’ प्रिय है सो उसे भी सेवा की भावना को प्रश्रय देना होगा. अभी भी भीतर क्रोध बाकी है, किसी की कही अनावश्यक या मूर्खतापूर्ण बात उसे झुंझला जाती है. उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है उसकी भाषा, उसे मीठा बोलना नहीं आता. सत्य को सत्य कहने से कोई झिझक नहीं है पर सभी तो उस स्तर पर नहीं पहुंचे हैं कि  बात को उसी रूप में लें जिस रूप में कही गयी है. सच्ची बात उन्हें चुभ भी सकती है फिर कर्म बंधन में तो उसे ही बंधना पड़ेगा. सभी को आत्मा जानकर ही दोष दृष्टि से मुक्त हुआ जा सकता है. जिसे अपनी वाणी का दोष नजर नहीं आता वह विचारों का दोष कैसे देख पायेगा ?

मुहब्बत की दुनिया में होशमंदों का क्या काम
जब भी आया है पैगाम आया है दीवानों के नाम  

अक्ल के भटकों को राह दिखाते हुए
जिन्दगी काटी हमने दीवाना कहलाते हुए


जीवन एक पहेली है जो कभी तो लगता है कि अब बस सुलझने ही वाली है फिर अचानक इतनी उलझ जाती है कि...और यह दीवाना मन ही इस का कारण है. मन की क्रिया विधि को समझे बिना साधना पूरी नहीं हो सकती. उस दिन उस पंडित ने कहा था आपका मंगल ठीक नहीं है. सोचा हुआ कार्य पूरा नहीं होता तो उसने जोरदार शब्दों में इस पर आपत्ति की थी. पर अब लगता है उसकी बात में सत्य था. कितनी ही बार उस सच का अनुभव कर चुकी है उसके बाद से, उसके पूर्व भी होता होगा पर सजगता नहीं थी सो इसकी तरफ कभी ध्यान ही नहीं गया. कल बाजार में दो नंग-धडंग बच्चों को देखकर सोचा कि इन्हें एक-एक जोड़ी कपड़े दिलाये पर कहाँ पूरी हुई यह इच्छा. सत्संग में जाने से पूर्व सोचा था कि आज सभी को इसका सही अर्थ बताना है, एक औपचारिकता ही बनता जा रहा है साप्ताहिक सत्संग, पर वहाँ जाकर कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं होती या कहे कि मन ही नहीं होता. मन स्वप्न बहुत देखता है पर पूरा करने की क्षमता नहीं है. एक सखी जो अस्वस्थ रहती है उसे बहुत कुछ कहने का मन है पर वह अपने ही विचारों के प्रति इतनी श्रद्धा रखती है कि उसके विपरीत जा कुछ कहने का साहस नहीं कर पाती. लगता है ऐसा होना सम्भवतः इसलिए भी जरूरी है कि उसके अहंकार का नाश हो, जो कर्त्ता है उसे तो जाना ही होगा. उसने स्वयं को सद्गुरु के आश्रय में रख दिया है अब जो कुछ भी होता है अथवा नहीं होता सब उन्ही का प्रसाद है.   

Sunday, July 19, 2015

मौन और सेवा



ध्यान में प्रभु की निकटता का आनंद पाने वाला मन क्या इतना भी पावन नहीं हो पाता कि ध्यान के बाद अपने भीतर से प्रेम को बाहर भेजे. यदि ऐसा नहीं है तो कहीं कुछ गड़बड़ है जरूर. भीतर यदि प्रेम है ही नहीं तो बाहर व्यक्त कैसे होगा, तो जो भीतर ईश्वर के प्रति महसूस होती है, वह अनुभूति जो इतनी पावन लगती है वह संसार के बीच आकर कितनी बदल जाती है.

आज उसने सेवा के बारे में कितने सुंदर वचन सुने कथा में- क्रियात्मक सेवा, भावात्मक सेवा तथा विचारात्मक सेवा अथवा ज्ञानात्मक सेवा...ये सभी परमात्मा व सद्गुरु स्वयं करते हैं तथा करने के लिए प्रेरित करते हैं. सेवा स्नेहवश होती है, वहाँ कुछ चाहिए नहीं, चाहिए तो केवल सेव्य की प्रसन्नता. यदि कोई अपनी रूचि सेव्य पर लादता है तो वह अपनी सेवा कर रहा है. सेवा किये बिना अंतर्मन की शुद्धि नहीं होती !

आज उसे लग रहा है, जीवन प्रभु का दिया अमूल्य उपहार है, आनंद से इसका एक-एक क्षण भरा है. हर श्वास एक आनंद की धारा से भीतर को स्वच्छ कर रही है तथा भीतर के विकारों को बाहर ला रही है. उसका अंतर्मन एक ऐसी अद्भुत शांति से भरा हुआ है जिसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता. इसी तन में और इसी मन में कभी पीड़ा भी हुई थी सोचकर ही विश्वास नहीं होता. सद्गुरु ठीक कहते हैं जीवन एक सागर है, जो डूबता है इसमें वही उबरता है, इसमें छिपे खजाने को पा लेता है. वही जीवन के रहस्य को जान पाता है. इतना सुखमय जीवन क्यों किसी के लिए दुःख का कारण बना रहता है ? परमात्मा से जुड़े बिना जो जीवन बीतता है वह अधूरेपन का शिकार रहता ही है. भीतर की आँख यदि खुल जाए तो जगत पहले जैसा नहीं रह जाता, उसका क्रीड़ा स्थल बन जाता है. जब कोई खुद पर कृपा करे तभी ऐसा होता है. जो इस सच्चाई को समझ गया है कि कर्म करते समय जो आनंद मिला बस उतने पर ही उसका अधिकार है तो वह मुक्त है. आशापूर्ति के लिए अथवा प्रतिक्रिया स्वरूप किये गये कर्म ही बांधते हैं और दुःख का कारण बनते हैं. वैसे देखा जाये तो हर व्यक्ति अपनी जगह ठीक है, वह किसी कारणवश ही वहाँ तक पहुंचा है, मूल में सभी निर्दोष हैं. अंतत सभी को एक ही लक्ष्य पर पहुँचना है.

उसे मौन सुहाता है, पर उसके भीतर ‘वह’ क्या है जिसे मौन सुहाता है, शुद्ध चेतना अथवा अशुद्ध मन, मन में रहकर यदि कोई कर्म किया, चाहे वह साधना ही क्यों न हो अभिमान को जन्म मिलेगा. जगत में रहते हुए वह जगत से पूर्णतया अलग है यह मानना भी तो अज्ञान ही है. प्रेम को यदि स्वयं तक सीमित रखा तो वह सड़ने लगेगा. प्रेम को बहने देना है, चारों ओर बिखरने देना है, अपने शब्दों से, हाव-भाव से, कृत्यों से, वाणी से उसी परमात्मा की खुशबू आनी चाहिए जिसे भीतर खोजा जा रहा है. ऐसे कर्म संस्कार गढ़ने हैं जो बाद में दुःख न दें तथा जो उस क्षण भी चित्त को शुद्ध ही बनाये रखें. जैसे निर्मल आकाश अपने आप में टिका हुआ मुक्त है.



Friday, July 17, 2015

मुरारी बापू की कथा


ध्यान में अपने बारे में सच्चाई प्रकट होती है. चित्त ही काया बनता जाता है, जैसे ही चित्त पर कोई तरंग उठती है वैसे ही काया पर भी तरंगें उठती हैं. जब मन मन में समा जाता है, कोई विचार नहीं रहत, अनुभूति ही अनुभूति है तो विकारों कि शक्ति खत्म होती जाती है. ध्यान में ही यह सम्भव है. दोपहर के तीन बजने वाले हैं, उसके सिर में, नहीं इस शरीर के सिर में हल्का दर्द है. जून जब गये तो दवा ली थी, पूरी तरह से ठीक नहीं हुआ. गुरूजी की बात याद आती है कृपा होने के बाद यदि तीर से सिर कटना हो वह मात्र टोपी ही उड़ा कर ले जाता है. वैसे ही उसे दो दिन से लग रहा था कि शरीर अस्वस्थ होगा पर सिर में हल्के दर्द के सिवा अभी तक तो सब ठीक है. दो सखियों को देखने गयी थी, उन्हें बुखार था, अब वे भी स्वस्थ हो रही हैं. कल पता चला छोटे भाई, छोटी भांजी तथा दीदी को भी बुखार हुआ है. शरीर कमजोर होता है, रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है तभी रोग धर दबोचते हैं. जून के दाहिने वक्ष में जब से वह आये हैं दर्द रहता है जो यात्रा में शुरू हुआ था, सम्भवतः भारी सामान उठाने के कारण ही उन्हें यह दर्द हुआ है. ईश्वर की चर्चा तभी हो सकती है जब तन व मन दोनों पूरी तरह स्वस्थ हों. आज सद्गुरु को सुना, उन्होंने कहा, यदि ध्यान करने से पूर्व कोई चिंता मन में हो तो उसी विचार को तोड़ते-तोड़ते उसके मूल तक पहुँचना चाहिए. मन ध्यानस्थ होता जाता है. उसे आजकल ध्यानस्थ होने में जरा भी कठिनाई नहीं होती. कृपा उस पर बरस रही है.
उसकी लिखाई को देखकर लगता है कि मन भीतर ही भीतर अशांत था पिछले दिनों. कितने बड़े-बड़े व टेढ़े-मेढ़े अक्षर हैं एक कारण यह भी हो सकता है कि जल्दी में लिखा गया है. पहले की तरह सुबह आराम से बैठकर आजकल नहीं लिख पाती, कोई समय नियत नहीं रह गया है. जबकि होना यह चाहिए था कि समय के साथ-साथ लेख अच्छा होता जाये. आत्मा के स्तर पर जीने का अर्थ है पूर्ण मुक्त होना, सभी तरह के बन्धनों से मुक्त लेकिन मन मुक्त होने नहीं देता, बीच में आ जाता है. जिसकी सत्ता ही नहीं है वह इतना बलवान हो उठता है. ध्यान में भी मनोराज्य चलने लगता है यह कैसी मनोस्थिति है ? प्रारब्ध वश कोई पाप सिर उठा रहा है शायद. उसका यह क्षण एक न मालूम सी उदासी से भरा है. यह पीड़ा अनबूझ है जो कभी-कभी अपने आप ही आ जाती है फिर अपने आप ही चली भी जाती है. वह साक्षी की तरह इसे देखती है, साक्षी होकर जीना कितना कठिन है. साधना का पथ सरल है ऐसा तो सद्गुरु ने नहीं कहा था. सद्गुरु के लिए सभी कुछ कितना सहज है. उसे उन्हीं की शरण में जाना चाहिए. उनके निकट जाते ही परमात्मा की अनुभूति होती है. शांति और सुख के भंडार परमात्मा को याद करने से राहत मिलती है. जो है नहीं पर महसूस होती है वह माया है जो है पर नजर नहीं आता वह भगवान है !
अगस्त मास का प्रथम दिन ! सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठी. ‘क्रिया’ आदि की संगीत का अभ्यास और ध्यान भी. आज ध्यान में एक बार पूरा शरीर गर्म हो गया और अत्यंत तीव्रगति से कम्पन का अनुभव हुआ. देह ठोस नहीं है तरंगे ही तरंगे हैं इसका अनुभव इतना स्पष्ट रूप से कभी नहीं हुआ था. दो घंटे संत मुरारी बापू की कथा सुनी, जो वे नैरोबी में कह रहे हैं, अफ्रीका महाद्वीप में केन्या देश में गुजराती भारतीयों के लिए. कथा गुजराती में कह रहे थे पर समझ में आ रही थी. तुलसी की चौपाइयां तो वैसे भी अवधी में ही थीं. संतश्री कथा इतनी मधुरता से कहते हैं कि कितना भी सुनो मन नहीं भरता है. अद्भुत वक्ता हैं वे और अद्भुत कवि हैं तुलसी, पर सबसे अद्भुत है वह परमात्मा जो सबके भीतर छिपा है और प्रेम का ऐसा जाल बिछाता है कि कोमल हृदय उसमें बंध जाता है. ईश्वर का प्रेम अमूल्य है, अनुपम है, अद्भुत है, उसी के कारण तुलसी अमर काव्य की रचना करते हैं, संत कथावाचक बनते हैं तथा उस जैसे श्रोता जो सुनते-सुनते आसुंओं की गंगा बहाते जाते हैं. उसका हृदय ईश्वर और सद्गुरु के प्रति अगाध प्रेम से भरा है और गद्गद् हो रहा है. ईश्वर की कृपा से ही उसका प्रेम मिलता है, संत कृपा से ईश्वर मिलते हैं सद्गुरु के ज्ञान से संतों के प्रति आदर जगता है.   


Thursday, July 16, 2015

धूप और बदली


मौसम कितनी तेजी से अपना रूप बदलता है. कुछ देर पहले वर्षा हो रही थी, उसने झटपट बाहर सूख रहे कपड़े उतारे, अब पुनः धूप निकल आई है पर थोड़ी देर में पुनः वर्षा हो सकती है. इसी तरह मन में भी भावों के मौसम पल-पल अपना रंग बदलते हैं. ज्ञान की बातें सुनीं तो मन ज्ञानवान हो जाता है पर जहाँ कोई प्रतिकूलता दिखी तो मन पुनः अपने असली रंग में आ जाता है. यह पराधीनता है, अभी वह मुक्ति से कोसों दूर है. कितना ही स्वयं को ज्ञानी-ध्यानी माने जब तक आचरण इसकी गवाही नहीं देता, तब तक सब व्यर्थ है.

आज ध्यान में अनुभव हुआ कि सभी कार्य अपने आप हो रहे हैं ! वास्तव में जब-जब जो-जो होता है वह एक पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार अपने आप होता ही जाता है, वे निमित्त मात्र हैं. उनका जन्म-मृत्यु, संयोग-वियोग, यश-अपयश उनके हाथ में नहीं है. वर्तमान अतीत के कर्मों के अनुसार मिला है, लेकिन भविष्य तो वर्तमान पर आधारित है, सो मुख्य तो वर्तमान का क्षण ही है. ध्यान में एकत्व का अनुभव भी होता है पर ध्यान से बाहर आते ही जब मन सद्गुरु और परमात्मा को धन्यवाद देना चाहता है तो स्वयं को उनसे पृथक मानना ही ठीक लगता है. कृतज्ञता की भावना व्यक्त करने के लिए भी तो दो की आवश्यकता है न !

आज गुरु पूर्णिमा है, मन उद्दात भावों से भरा है. सद्गुरु को टीवी पर देखा, सुना. साधक के लिए आज का दिन विशेष महत्व का है. जो कुछ उसने गुरु से पाया है, सीखा है, जिसने उसका जीवन बदल दिया है, वह सारा अमूल्य ज्ञान, शिक्षा तथा प्रेम...उसके लिए कृतज्ञता के भाव प्रकट करने का दिन है. उसकी कृपा तो असीम है और कृतज्ञता के भाव उसकी तुलना में तुच्छ हैं पर यही भाव साधक के अंतर को पावन करते हैं.

उसके मन में बहुत सारे कार्यों की एक लिस्ट बनती जा रही है- खत लिखने हैं, पिताजी को पत्र लिखे बहुत दिन हो गये हैं. रक्षा बंधन के लिए भी सभी भाइयों को पत्र लिखने हैं. छोटी बुआ, दीदी से भी लग रहा है संवाद ठीक से नहीं हो पा रहा है. दोनों लकड़ी की आलमारी जिनमें किताबें तथा अलबम आदि रखे हैं, साफ करनी हैं. कम्प्यूटर पर नई कविताएँ टाइप करनी हैं. टेलर को कुरता सिलने को देना है. स्लीपर ठीक करवानी है अथवा नई खरीदनी है. जूता ठीक करवाना है. ग्रॉसरी खरीदनी है. और इतने सारे काम तभी पूरे होंगे जब एक-एक करके इन्हें करना आरम्भ करेगी. जीवन  छोटे-छोटे कर्मों की एक श्रृंखला ही तो है. मन से परमात्मा को समर्पण और हाथों से संसार के कार्य करना. मन किन्तु अपने आप में स्थिर रहे, कर्त्ता न बने बल्कि इन सब कार्यों को पूरा होता हुआ देखने वाला द्रष्टा बने. कर्त्ता मन ही दुःख का भोक्ता बनता है. जब वह जगत से अलिप्त बनी रहती है, तभी भीतर आनंद की अजस्र धारा अनवरत बहती रहती है. एक क्षण का भी व्यवधान उसमें हुआ तो उसे अच्छा नहीं लगता. छोटा सा भी विकार सहन नहीं होता साधक को !  

कल रात नींद में व्यवधान पड़ा स्वप्न के कारण, जो उसकी टाइप की कविताओं के न मिलने से आया था, पर एक साधक तो ईश्वर की हर रजा में राजी रहता है. उदास होने का उसे वक्त ही कहाँ है, वह तो हर वक्त प्रभु की कृपा का पान करता है. उसका व्यक्तिगत लाभ या हानि जैसा कुछ भी नहीं होता. उसका मन सदा की तरह शांत है. जो कुछ मिला है उसके बाद यदि उसका सभी कुछ खो जाये तो भी कोई शिकायत नहीं होगी. इस समय दोपहर के तीन बजे हैं. जून आराम कर रहे हैं. सासुमाँ भी सोयी होंगी, उन्हें कल हाथों में जलन की वजह से नींद नहीं आयी, आज से होमियोपैथी दवा शुरू की है. 

Wednesday, July 15, 2015

कर्नाटक की ओर


पिछले तीन दिन डायरी नहीं खोली. पहले की तरह लिखना अब नियमित नहीं रह गया है. जून के आने के बाद सम्भवतः नियमित हो सके. सुबह के काम के बाद सीधे ही ध्यान के लिए बैठ जाती है. टीवी पर योग कार्यक्रम देखकर आसन करने में भी थोड़ा अधिक समय जाता है, पर उसका प्रभाव भी साफ़ देखने में  आ रहा है. आजकल वह काफी स्वस्थ अनुभव कर रही है. नन्हा और जून इस समय कर्नाटक जाने वाली गाड़ी में बैठे हैं. वे काफी दिनों से सफर में हैं. नन्हे का सफर तो कल समाप्त हो जायेगा जब उसका दाखिला हो जायेगा. पर जून अभी एक हफ्ते बाद घर आएंगे. माँ को सर्दी लगी है, जुकाम हो गया है एसी में सोने के कारण. उस दिन नैनी ने कहा था कि बूढ़े लोग बच्चे की तरह हो जाते हैं, उन्हें अपने भले-बुरे का भी ज्ञान नहीं रहता. वे कभी-कभी ऐसी ही बातें भी करती हैं, बिलकुल बच्चों की तरह. लेकिन आमतौर पर वे स्वस्थ रहती हैं, उनकी दिनचर्या भी यहाँ रहके नियमित रहती है. उनके कारण किसी को कोई असुविधा नहीं होती, इस जगत में सभी को यदि ऐसे जीना आ जाये तो कोई शिकायत कभी भी न हो साथ-साथ रहते हुए भी अलग-अलग रहना ! नूना के लिए तो सारी स्थितियां समान हैं. वह अपने साथ रहती है अपने मन के साथ सो जगत के परिवर्तन का उस पर कोई असर नहीं पड़ता. उनके प्रति उसका व्यवहार और कोमल होना चाहिए कभी-कभी ऐसा उसे लगता है, शायद उन्हें भी लगता हो. वह उन्हें आत्मननिर्भर बनते हुए देखना चाहती है. हर समय दूसरों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता. वैसे वह खुश रहती हैं पर थोड़ी सी अस्वस्थ होते ही घबरा जाती हैं. उसकी डायरी पुनः कुछ वर्षों जैसे होती जा रही है, क्या यह पतन की निशानी है ? जिन पन्नों पर ईश्वर चर्चा के अतिरिक्त और कुछ लिख ही नहीं पाती थी, वह अब सांसारिक बातों से भरे जाने लगे हैं. सम्भवतः इसका कारण यह हो कि अब उसे सभी के भीतर उसी आत्मा के दर्शन होते हैं. सभी उसे भगवान के मेहमान लगते हैं, जो भीतर है वही बाहर है. वही इस सृष्टि का कारण है, वह स्वयं ही सृष्टि हो गया है तो भौतिक और आध्यात्मिक के बीच का भेद भी अब समाप्त हो गया है. ईश्वर करे यही कारण हो क्योंकि पुनः गड्ढे में गिरने का तो उसका इरादा है नहीं !


आज ध्यान में अद्भुत अनुभव हुआ. सभी के भीतर एक ही चेतना है यह बुद्धि के स्तर पर तो जानते हैं वे पर जब तक यह अनुभूति के स्तर पर न जाना जाये तब तक इसका फल नहीं मिलता. ध्यान में उसे जड़-चेतन सभी के भीतर एक चेतना का अनुभव हुआ. वह ही पानी की लहर बन गयी वह ही हवा का झोंका ! वह ही नाव बन गयी और वह ही नाविक..जिस वस्तु या व्यक्ति की कल्पना वह करती उसके भीतर स्वयं को ही पाती. उनकी चेतना कितनी असीम है, दूर गगन के पार अनंत ब्रह्मांडों में भी व्याप्त है उनकी चेतना. वे सदा थे सदा हैं सदा रहेंगे, यह चेतना अजर है, अमर है,  नित्य है, शाश्वत है, यह असीम है ! सद्गुरु की कृपा उस पर बरस रही है. मन ध्यानस्थ रहता है. ईश्वर से जुड़ने के बाद जगत से थोड़ा ही प्रयोजन रहता है. इससे शरीर चलता है. शरीर के बिना आत्मा कैसे स्वयं को व्यक्त कर सकती है ?  

Monday, July 13, 2015

सिलचर में कुछ दिन


मन जैसे खाली हो गया है, कुछ लिखने को नहीं है, कुछ कहने को भी नहीं है. वे घर में कुल मिलाकर दो ही प्राणी हैं, पर बात करने लायक कुछ भी नहीं है. उसके भीतर कोई विरोध नहीं है, न ही कोई अपेक्षा, एक उदासीनता है और शांति है. ऐसी शांति जिसे बाहर का कुछ भी खंडित नहीं कर पाता. सुबह पांच बजे नींद खुली, धूप तेज थी फिर भी सासुमाँ टहलने गयीं. हिम्मत की उन्होंने. आयीं तब तक उसकी ‘क्रिया’ खत्म नहीं हुई थी. चाय के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ा. धैर्य दिखाया. फिर सात बजे उसे योग साधना का कार्यक्रम देखकर आसन करने थे सो उन्हें नहाने के लिए भेजा, फिर धैर्य दिखाया उन्होंने. बाल बनाने के लिए कहा, सुनकर उठीं. आलस्य के कारण शाम को एक ही बार बाल बनाने से कम चल जायेगा वे सोच रही थीं. उन्हें शायद इस बात पर भी थोड़ा रोष हुआ हो जब कहा कि सब्जी में तेल अधिक है. अब वह बड़ी हैं, पूज्या हैं, ठीक है लेकिन हर नयी पीढ़ी स्वयं को पुरानी पीढ़ी से अधिक जागरूक मानती है. उसे उन्हें कुछ भी कहने में कोई संकोच नहीं होता क्योंकि उसके भीतर उनके लिए अथाह प्रेम है, इस जगत के हर एक प्राणी के लिए, हर जीव के लिए, उस परमात्मा के लिए और परमात्मा के नाते उसकी सृष्टि के लिए प्रेम के सिवाय कोई भाव आ भी कैसे सकता है. जो एक बार परमात्मा के प्रेम में पड़ जाता है, वह सदा के लिए उसमें डूब जाता है !

आज ध्यान में सद्गुरु को अपने मन के निकट पाया, ध्यान में मन साधारण मन नहीं रह जाता कुछ और ही हो जाता है. मन आश्रम पहुंच गया और ऐसा प्रतीत हुआ वह उसका चिर-परिचित स्थान है अपना घर ! सुबह नींद चार बजे ही खुल गयी. आज टीवी पर गुरूजी को देखा. मस्ती का आलम था, भजन चल रहे थे फिर प्रश्न पूछे गये, हर प्रश्न का संक्षेप में सटीक उतर देना कितनी गूढ़ कला है पर जितनी सहजता से वे उत्तर देते हैं लगता ही नहीं कि उन्हें कुछ करना पड़ रहा है, वे सभी कुछ सहज होकर करते हैं. आज सुबह वह योग साधना कर रही थी कि फोन की घंटी बज उठी, उठने का मन नहीं हुआ, तारतम्य टूट जाये तो आसन ठीक से नहीं हो पाते. जाने कौन होगा, जो भी हो उससे मन ही मन क्षमा मांगती है. आज आषाढ़ की अमावस्या है, फलाहार का दिन. नन्हा और जून सिलचर में हैं. कल दोपहर तक ज्ञात होगा कि नन्हे को अगले चार वर्ष कहाँ बिताने हैं. सासू माँ  कल पैर में दर्द की शिकायत कर रही थीं, उनके पैर में घाव हो गया है और घुटने में दर्द है. इलाज चल रहा है. उसे लगता है बुढ़ापे में उन्हें ही रोगों का सामना करना पड़ता है जो जीवन भर अपने शरीर की देखभाल नहीं करते. उसके दायीं तरफ के घर में अस्सी वर्ष की वृद्धा को सब कुछ भूल गया है, अपना नाम भी !

आज सत्संग पंजाबी सखी के यहाँ था. उसने कहा कि सुबह सिर में दर्द था. इतने वर्षों तक ‘क्रिया’ करने की बाद भी वह इससे छुटकारा नहीं पा सकी, आश्चर्य होता है. अपने स्वास्थ्य के प्रति लोग जागरूक क्यों नहीं रहते ? जून ने फोन किया कि नन्हा रात को देर तक होटल में भी जगता है, टीवी देखता है जिससे उनकी नींद खराब होती है. एक बच्चा अपने पिता की अवज्ञा कर मनमानी करता है और मोह-माया में डूबा पिता कठोर नहीं हो पाता. लोग जीवन में जो भी दुःख उठाते हैं उसके जिम्मेदार स्वयं होते हैं. बचपन में ज्यादा लाड-प्यार के कारण माता-पिता बच्चों की हर इच्छा पूरी करते हैं, वह उसी का आदी हो जाता है. यहाँ घर में चाहकर भी वह माँ से घुलमिल कर बातें नहीं कर पाती है, ज्यादा बातें करना उसे पसंद भी नहीं  और दूसरे वह ऊंचा सुनने लगी हैं, तीसरे वह किसी न किसी की बारे में बात करने लगती हैं, चौथे उसके पास खाली वक्त भी नहीं होता. वह स्वयं भी देख रही हैं और इस तरह चुपचाप अपना-अपना काम किये जाने की अभ्यस्त होती जा रही हैं. कम बोलने से उनकी भी ऊर्जा बचेगी. उसे व्यर्थ ही स्वयं को दोषी नहीं ठहराना चाहिए. बस वाणी की मधुरता का ध्यान अवश्य रखना चाहिए !

बाहर भी शांति है और भीतर भी, आजकल उसे जरूरत से ज्यादा एक शब्द भी बोलना अच्छा नहीं लगता. जून और नन्हा आज कोलकाता जा रहे हैं. अभी सफर में कई दिन रहना है, ईश्वर उनकी सेहत ठीक रखे. वे स्वयं ही अपना ख्याल रखेंगे. ईश्वर उन्हें सद्प्रेरणा देगा. वह तो सदा ही देता है. उसने सोचा वे स्वयं ही अनसुनी कर देते हैं. वह सद्मार्ग पर चलने को कहता है पर वे स्वभाव वश उसी रास्ते पर चलते हैं जिसपर गड्ढा है, वे बार-बार गड्ढे में गिरते हैं, फिर उठकर सोचते हैं कि अब नहीं, पर स्वभाव, आदत हावी हो जाती है. होश में नहीं रहते न, होशपूर्वक जीना ही जीने कि कला है. सद्गुरु भी यही कहते हैं कि सजग रहो. वह निर्भयता का अनुभव करती है, सही बात कहने से डरती नहीं तथा अपने भीतर अनोखे आनंद का अनुभव करती है. सद्गुरु कि कृपा उस पर हो रही है. उसकी सबसे बड़ी कमी है वाणी का दोष, क्रोध तथा अहं. हर दिन की दिनचर्या लिखते समय इस बात का जिक्र सबसे पहले करना चाहिए कि पूरे दिन में कितनी बार वाणी का दोष हुआ और कितनी बार क्रोध तथा अहंकार का शिकार हुई !


Friday, July 10, 2015

भविष्य की दुनिया


आज उसने सुंदर वचन सुने, मन को मैला करने का स्वभाव यदि बनाया तो संवेदना दुखद होगी और फल भी दुःख ही होगा. निर्मल चित्त से किया गया कर्म सुख का कारण बनेगा. सत्कर्म करते हुए मन मुदित होता है, यदि मुदिता का स्वभाव ही बनता जाये तो फल भी मोद ही मोद के रूप में प्राप्त होगा.  

आजकल रोज सुबह डायरी नहीं खोल पाती, सुबह से शाम हो जाती है और फिर नया दिन. आज उनके यहाँ सत्संग है. नन्हा है इसलिए कमरा खाली करने में तथा पुनः सामान रखने में सुविधा होगी. जब भीतर से प्रेरणा मिलती है तब बाहर के सारे कार्य अपने—आप सधते चले जाते हैं. जीवन में एक निश्चिंतता आ जाती है, बेफिक्री और निडरता भी. तब वही होता है जो उचित होता है. जैसे अरविन्द घोष को अदालत में सारे लोग कृष्ण ही दिखाई देने लगे थे वैसे ही तब जगत में सभी के भीतर उस परमात्मा का दर्शन होने लगता है.


आषाढ़ का प्रथम दिन, नन्हा आज तिनसुकिया गया था, वहीं से डिब्रूगढ़ चला गया है, अभी कुछ देर पहले उसका फोन आया. जून का आज प्रेजेंटेशन है, दोनों देर शाम तक घर पहुंचेगे. आज सासू माँ का जन्मदिन है, पिछले वर्ष भी इसी दिन मनाया था. देखते-देखते समय बीत जाता है. नन्हे को कालेज जाना है, अगले वर्ष वह आज के दिन सेकंड ईयर का विद्यार्थी होगा, एक दिन पढ़ाई खत्म करके इंजीनियर बन जायेगा. बच्चे बहुत आगे की सोचते हैं, माता-पिता उनके जैसे बनने का प्रयत्न करें तो ठीक है पर वे उनकी तरह बनें ऐसी अपेक्षा करना मूर्खता ही होगी. उनके शरीर वे जरूर देते हैं पर उनके विचार उनके अपने हैं. वे भी आत्मा हैं और वे अपने आप में पूर्ण हैं जैसे माता-पिता आत्मा होने के नाते पूर्ण हैं. उनके विचारों में भविष्य की दुनिया है. समय सदा आगे बढ़ता है, पीछे नहीं लौटता. समय बदल रहा है, समय के साथ जो स्वयं को नहीं बदले पीछे रह जाता है. कुछ वर्षों बाद उनका जीवन भी पहले से अलग होगा. वे साधना में परिपक्व हो जायेंगे. हो सकता है उन्हें ईश्वर का अनुभव भी हो जाये, अभी जो कुछ भीतर अनुभूत होता है वह भी कुछ कम नहीं है. एक अजस्र आनंद का स्रोत भीतर बहता रहत है. जगत से उतना ही प्रयोजन रह गया है जितना जरूरी हो लेकिन स्वयं सुखी हो जाना ही काफी नहीं है, उनके आस-पास भी उस शांति की धारा का प्रभाव फैलना चाहिए जो वे अपने भीतर अनुभव करते हैं. कभी-कभी ध्यान में ऐसे अनुभव होते हैं जिनका उनके वर्तमान जीवन से कोई संबंध नहीं होता, सम्भवतः वे उनके पूर्व जीवन से संबंधित होते हैं. तब ज्ञान होता है कि इस शरीर से कैसा मोह, न जाने कितने शरीर वे धारण कर चुके हैं, हर बार वही कहानी दोहराई जाती रही है, बस, अब और नहीं, अब और इस झूले में नहीं बैठना जिसका एक सिरा जन्म फिर दूसरा नीचे मृत्यु की ओर ले जाता है. इसी जन्म को अंतिम जन्म बनाना है. मृत्यु से पूर्व ही आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना है, वे अपने स्वरूप में टिक तो जाते हैं पर यह स्थिति सदा नहीं बनी रहती. कभी मन भूत में खो जाता है कभी भविष्य में. अब भी झुंझला जाता है मन, भीतर का सूक्ष्म अहंकार ही क्रोध बनकर बाहर आता है, जब तक अहंकार शेष है, पर्दा बना रहेगा.

Wednesday, July 8, 2015

प्रकृति के रंग-ढंग


उसके भीतर एक अजीब सी व्यथा ने जन्म लिया है, यह विरह की पीड़ा है या नहीं, नहीं जानती पर अब उसके सब्र का बाँध टूटता जा रहा है. सद्गुरु कहते हैं दुःख का कारण भीतर ही है पर यह दुःख बिलकुल अलग तरह का है, यह किसी कामना से नहीं उपजा है, यह एक कसक है जो अपने होने की, अपनी अस्मिता की वजह से उपजी है. कौन है वह ? यह जगत क्यों है ? यह गोरख धंधा क्या है ? यह जगत इतना निष्ठुर क्यों है ? अन्याय, अपराध, दुःख, पीड़ा, अत्याचार की बढ़ती हुई घटनाओं को देखकर कोई कब तक उदासीन रहने का भ्रम पाल सकता है ? कब तक कोई अपने भीतर से मिलने वाले आनंद को देखकर, पाकर जगत से आँखें मूंदे रह सकता है, कभी तो सत्य का उद्घाटन होना चाहिए, कभीं तो कोई यह राज खोले, यह संसार जो हर पल बदल रहा है, उसे देखने वाला कोई तो है वह जो अबदल है, कौन है वह ? क्या चाहता है ? क्यों है वह, प्रकृति इतनी सुंदर है कि मन मोह लेती है लेकिन वही प्रकृति कभी क्रूर भी हो जाती है माँ काली की तरह. उसके मन में उठने वाले इन सवालों का जवाब कौन देगा ? कहीं यह पीड़ा अहंकार जनित तो नहीं. दुःख का मूल कारण अहंकार है, पर किस बात का अहंकार. यहाँ तो कुछ है ही नहीं, अपना आप भी नहीं तो कैसा अहंकार और कौन करेगा अहंकार ? ये सारे प्रश्न कौन उठा रहा है ? क्या वही तो अहंकार नहीं कर रहा, प्रश्न कौन उठाता है, मन, बुद्धि या अहंकार ? इनसे परे जो आत्मा है वह कब मिलेगी ? जब ये तीनों शांत हो जायेंगे !

आज छोटी बहन का पत्र मिला, पिछले महीने जब दिल्ली से शारजाह जा रही थी तो वे उसे छोड़ने गये थे, तभी का लिखा पत्र आज मिला है. उसने पिछले कई महीनों से कोई पत्र नहीं लिखा, विरक्ति सी हो गई है. वे कुछ भी कर लें, कह लें, इस जगत कि जो रीत है वह उसी के अनुसार चलता जाता है. वे ही अपनी खुशफहमी का शिकार होते रहते हैं कि फलां को हम कुछ प्रभावित कर सकते हैं. यह जगत ऐसा ही है, न कोई राग रहे न द्वेष रहे, क्योंकि यह है तो उसी परमात्मा की रचना, जिसे वे प्रेम करने का दम भरते हैं, वास्तव में प्रेम करते हैं या नहीं यह भी वे नहीं जानते, लेकिन उसे नाता जोड़ने की आवश्यकता तो हर क्षण अनुभव करते ही हैं. वे अपने मन से दुखी हैं, क्योंकि मन संसार के पीछे भागता है, ठोकर खाता है, गिरता है फिर पछताता है पर अपनी आदत से बाज नहीं आता, यह कैसा विरोधाभास है. ईश्वर से उनका सहज संबंध है, जीव ईश्वर का अंश है, जीव सहित यह सारी सृष्टि उसी प्रभु की शक्ति से ही प्रकट हुई है फिर उन्हें उससे दूर कौन करता है, माया ही मन के रूप में आकर उनके बीच परदा बन कर छायी है, अब और सहन नहीं होता, इस माया को जाना होगा. भीतर की यह छटपटाहट अब सहन नहीं होती, भीतर की तलाश अब हर क्षण बढ़ती जा रही है, वह जो झलक दिखाकर ही रह जाता है उसे अब प्रकट होना ही होगा !

आज सुबह ध्यान में बार-बार कुछ अनुभव किया, जैसे ही कोई विचार आता था, एक झटका सा लगता था और वह पुनः सचेत हो जाती थी, सब कुछ कितना अद्भुत था. मन से परे प्रकाश का साम्राज्य है, प्रेम तथा शांति भी वहीं है. कल रात को भी वह मात्र अस्तित्त्व को अनुभव कर रही थी, बल्कि अनुभव ही शेष था, क्या था वह, कौन जानता है, शब्दों से परे का अनुभव शब्दों में कैसे कहा जायेगा. अब लगता है समाधान हो रहा है, मन को कोई आधार मिल गया है.