Monday, July 20, 2015

जीवन की पहेली


आज जन्माष्टमी है, परमात्मा तो अजन्मा है फिर भी वह जन्म लेता है, मानवों को ज्ञान देने के लिए. कृष्ण अर्जुन के बहाने सभी को अपनी शरण में जाने का उपदेश देते हैं, जहाँ प्रेम है, शांति है आनन्द है. तब वे उसके बनाये इस सुंदर संसार को और अच्छा बनाने में सहयोग कर सकेंगे, कम से कम उसे विकृत तो नहीं करेंगे. यह जीवन एक रहस्य है और वह उसे खोलना चाहती है. कृष्ण उसे आकर्षित करते हैं ताकि वह इस खेल में शामिल हो सके. भीतर ही इसकी चाबी मिलने वाली है, भीतर जाकर जब कुछ भी नहीं मिलता तो विरह सताता है जिससे भीतर का पाप-ताप तो जल ही जाता है. मन समता में रहना सीखता है.

‘सद्गुरु’ को प्रेम करने का अर्थ है जो उन्हें प्रिय है वह भी वही करे. उन्हें ‘सेवा’ प्रिय है सो उसे भी सेवा की भावना को प्रश्रय देना होगा. अभी भी भीतर क्रोध बाकी है, किसी की कही अनावश्यक या मूर्खतापूर्ण बात उसे झुंझला जाती है. उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है उसकी भाषा, उसे मीठा बोलना नहीं आता. सत्य को सत्य कहने से कोई झिझक नहीं है पर सभी तो उस स्तर पर नहीं पहुंचे हैं कि  बात को उसी रूप में लें जिस रूप में कही गयी है. सच्ची बात उन्हें चुभ भी सकती है फिर कर्म बंधन में तो उसे ही बंधना पड़ेगा. सभी को आत्मा जानकर ही दोष दृष्टि से मुक्त हुआ जा सकता है. जिसे अपनी वाणी का दोष नजर नहीं आता वह विचारों का दोष कैसे देख पायेगा ?

मुहब्बत की दुनिया में होशमंदों का क्या काम
जब भी आया है पैगाम आया है दीवानों के नाम  

अक्ल के भटकों को राह दिखाते हुए
जिन्दगी काटी हमने दीवाना कहलाते हुए


जीवन एक पहेली है जो कभी तो लगता है कि अब बस सुलझने ही वाली है फिर अचानक इतनी उलझ जाती है कि...और यह दीवाना मन ही इस का कारण है. मन की क्रिया विधि को समझे बिना साधना पूरी नहीं हो सकती. उस दिन उस पंडित ने कहा था आपका मंगल ठीक नहीं है. सोचा हुआ कार्य पूरा नहीं होता तो उसने जोरदार शब्दों में इस पर आपत्ति की थी. पर अब लगता है उसकी बात में सत्य था. कितनी ही बार उस सच का अनुभव कर चुकी है उसके बाद से, उसके पूर्व भी होता होगा पर सजगता नहीं थी सो इसकी तरफ कभी ध्यान ही नहीं गया. कल बाजार में दो नंग-धडंग बच्चों को देखकर सोचा कि इन्हें एक-एक जोड़ी कपड़े दिलाये पर कहाँ पूरी हुई यह इच्छा. सत्संग में जाने से पूर्व सोचा था कि आज सभी को इसका सही अर्थ बताना है, एक औपचारिकता ही बनता जा रहा है साप्ताहिक सत्संग, पर वहाँ जाकर कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं होती या कहे कि मन ही नहीं होता. मन स्वप्न बहुत देखता है पर पूरा करने की क्षमता नहीं है. एक सखी जो अस्वस्थ रहती है उसे बहुत कुछ कहने का मन है पर वह अपने ही विचारों के प्रति इतनी श्रद्धा रखती है कि उसके विपरीत जा कुछ कहने का साहस नहीं कर पाती. लगता है ऐसा होना सम्भवतः इसलिए भी जरूरी है कि उसके अहंकार का नाश हो, जो कर्त्ता है उसे तो जाना ही होगा. उसने स्वयं को सद्गुरु के आश्रय में रख दिया है अब जो कुछ भी होता है अथवा नहीं होता सब उन्ही का प्रसाद है.   

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