Monday, November 30, 2015

गीता और रामायण


जैसे ईश्वर सभी के हृदयों में निवास करता है वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति के अंतः करण में विश्वास भी होता है और संदेह भी. विश्वास बढ़ता रहे तो व्यक्ति भक्त हो जाता है और संदेह बढ़ता रहे तो जिज्ञासु और अंत में ज्ञानी. लेकिन जहाँ संदेह तो है पर ज्ञान की जिज्ञासा अभी नहीं उपजी है वह वहीं का वहीं रह जाता है. भक्ति भगवान से संबंध जोडती है ज्ञान असंग रहकर दर्शन करता है, पर जिसका हृदय बालक सा निर्दोष है वह सान्निध्य और सायुज्य दोनों पाते हैं. कल रात जून और उसकी चर्चा इस बात पर हुई कि मानव का आनन्द भौतिकता से उपजे या आध्यात्मिकता से ! इस बहस का कोई अंत होने वाला नहीं है.

आज एकादशी है. टीवी पर रामकथा आ रही है. संत पूछ रहे हैं राम-रावण युद्ध कितने दिन चला. रामायण में लिखा है कभी पढ़ा भी होगा पर उसे याद नहीं. उनकी कथा प्रकाश से भर देती है. आज उन्होंने ध्यान का महत्व भी बताया. भीतर स्वरूप अनुसन्धान ही ध्यान है. जब अपनी खबर मिलने लगती है तब परिवर्तन शुरू होता है. उनके अनुसार रामायण और महाभारत जैसे दो अंतर आँखें हैं, हरि ने जैसे उड़ने के लिए ये दो पंख दिए हैं, दो पंखों से ही जीवन की पूर्णता होती है. रामायण जीवन की पांख है और महाभारत मृत्यु की. मानव रूपी पंखी को यदि नील गगन में उड़ान भरनी है तो जीवन के साथ मृत्यु भी उतनी ही महत्वपूर्ण है. जीवन उजाला है तो मृत्यु रात्रि है. दिन के साथ रात न हो तो जीना कठिन हो जाये. नीरू माँ कह रही हैं की मृत्यु के बाद जो कर्मकांड किये जाते हैं उनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. मृतक की आत्मा के लिए की गयी प्रार्थना तो उस तक पहुंच सकती है पर भौतिक वस्तु तो वहाँ नहीं पहुंच सकती. कल दोपहर सुना कि देव योनि, प्रेत योनि तथा पशु योनि में कर्म करने का अधिकार नहीं है. कर्ता मन है और भोक्ता भी मन है. जब कर्मों की बढ़ोतरी हो जाती है तो पशु योनि मिलती है तथा जब संचित कर्म कम हो जाते हैं तब देव योनि मिलती है. आत्मज्ञान पाए बिना कर्म नष्ट नहीं होते और मानव जन्म उन्हें मिला ही इसी विशेष कार्य के लिए है.

जब तक वे द्रष्टा में सहज रूप से नहीं रहते तब तक मन की ग्रन्थि बनी रहती है और व्यर्थ ही मन विचार करता है. जैसे वे तन का उपयोग करते हैं जब जरूरत पडती है और जब जरूरत नहीं होती तब शांत होकर बैठ जाते हैं वैसे ही विचार करने की जरूरत हो तभी मन का उपयोग करें तो मनसा कर्म नहीं होंगे. आत्मा में रहना ही सुख से रहना है, निर्भय और निर्वैर रहना है, निर्विकल्प होकर रहना है ! पर आत्मा में रहना पल भर को ही होता है, जाने कहाँ से मन हावी हो जाता है, मन में जैसे कोई गहरा कुआँ हो जिसमें से विचार निकलते ही आते हैं, लाखों, करोड़ों, अरबों विचार..व्यर्थ के विचार, जो तन को भी पीड़ित करते हैं मन को भी, आखिर मन चाहता क्या है, वह स्वयं को आहत कर कैसे सुखी हो सकता है.वह स्वयं ही नकारात्मक भाव जगाता है फिर बिंधता है, उसे क्यों नहीं समझ में आता ? पर वह तो जड़ है, आत्मा चेतन है, यदि आत्मा असजग रहे तो मन इसी तरह करता रहेगा. सजग उन्हें स्वयं को होना है, वे जो मन से परे हैं. वे नादान बच्चे को घातक हथियार हाथ में लिए देखें तो क्या उसे रोकते नहीं, वे क्यों सो जाते हैं जब मन मनमानी करता है. उन्हें अपने आप पर भरोसा नहीं, तभी तो ईश्वर को पुकारते हैं. ईश्वर हँसते होंगे, उन्होंने तो उन्हें निज स्वरूप में ही रचा है. वह कहते होंगे पुकारने से पहले एक नजर खुद पर भी डाल ली होती !

उसके जीवन में प्रमाद तो साफ दिखाई पड़ता है. उसे ज्ञात है कि बड़ों का असम्मान करना गलत है, उन्हें प्रेम ही दें, आदर ही दें, आदर न दे सकें तो असम्मान तो हरगिज न करें. ऐसा करके वे अपनी ही हानि करते हैं. उनके दिल को जो दुख होगा वह व्यर्थ तो नहीं जायेगा, कर्म बंधेगा. उसका प्रमादी मन बार-बार यही गलती करता है. साधना के पथ पर सबसे बड़ी बाधा है. सद्गुरु की शरण गये बिना इससे छुटकारा नहीं, उन्होंने बताया कि जप इन दोषों से मुक्त करा सकता है. मन में जप चलता रहे तो मन शुद्ध होने लगेगा, शुद्ध मन प्रमादी नहीं होगा.

साधक को कभी भी सन्तोषी नहीं होना चाहिए. प्रेक्षा ध्यान के बारे में पढ़कर पता चला कि जिस अनुभव को वह उच्च मानती थी वह तो भूमिका से भी पूर्व की स्थिति है, भीतर इतने विकार होते हुए भी वे स्वयं को ध्यानी-ज्ञानी मानने की भूल कर बैठते हैं. आनन्द और शांति की प्राप्ति ही साधक का लक्ष्य नहीं है बल्कि मन को सारे दोषों से मुक्त करना ही उसका एकमात्र लक्ष्य है. अपने से श्रेष्ठ को देखकर मुदिता, हीन को देखकर करुणा, दुष्ट के प्रति उपेक्षा तथा गुणी के प्रति प्रेम, यही उनके व्यवहार का आधार होना चाहिए, वे न तो अहंकारी बनें, न ही अन्याय के सामने झुकें, एक विनम्र प्रतिरोध की आवश्यकता है, प्रेम भरी दृढ़ता तथा सत्य के लिए कुछ भी सहने की क्षमता !  


Friday, November 27, 2015

चाँदी की पायल


आज सदगुरु ने अभ्यास और वैराग्य पर प्रकाश डाला, जिसे साधक चित्त की वृत्तियों को शांत कर सकें. अभ्यास के लिए समय की आवश्यकता है पर वैराग्य काल निरपेक्ष है. जिस क्षण किसी को चैतन्य सत्ता से प्रेम हो जाता है जगत तत्क्षण फीका पड़ जाता है, यही तो वैराग्य है. एक बार जिसने अमृत चख लिया हो वह पुनः विष की तरफ कैसे जायेगा ? सदगुरु कितने सहज होकर सरल शब्दों में पुनः पुनः पथ पर लौटा लाते हैं, उन्हें जो बार-बार रास्ते से भटक जाते हैं. आज बहुत दिनों के बाद ध्यान की गहराई को महसूस किया. मन कितना गहरा है उन्हें इसकी कोई खबर ही नहीं है. भीतर अनंत शक्ति छिपी है इसकी भी खबर नहीं है. छोटी-छोटी चीजों के पीछे जाकर वे अपना समय और शक्ति नष्ट करते रहते हैं. उस खजाने को अनछुआ ही छोड़ देते हैं. बहुत हुआ तो थोड़ा सा ही पाकर संतुष्ट हो जाते हैं. झलक मात्र से ही संतुष्ट हो जाते हैं. पुनः-पुनः लौटकर आने में जो अब तक का कमाया था वह नष्ट प्रायः ही हो जाता है जैसे कोई एक तरफ से झोली में डाले और नीचे से निकलता जाये तो कैसे भरेगी झोली और फिर वे भरने का प्रयास ही छोड़ देते हैं. अध्यात्म का पथ निरंतर सजगता का पथ है, एक-एक क्षण में सजग. कभी भी यह न मानें कि जान लिया, पा लिया, यह तो जीवन भर की साधना है !

‘कुछ हूँ’ से ‘हूँ’ तथा ‘हूँ’ से ‘है’ तक की यात्रा ही अध्यात्म की यात्रा है. जब ‘है’ की अनुभूति होती है तो कोई भेद नहीं रहता. मुक्त अवस्था तभी मिलती है. आज सुना अभ्यास के द्वारा जो समाधि मिलती है वह असम्प्रज्ञात है, प्रेम, श्रद्धा तथा वीरता से भी समाधि घटती है. मन जब अपने मूल स्वरूप में टिक जाये तत्क्षण समाधि घटती है. आज ध्यान में उसे कुछ अनोखे दृश्य दिखे. चाँदी की पायजेब पहने सुंदर पैर, सम्भवतः कृष्ण के वे चरण जो वह उनकी मूर्ति में देखती है. रंग, प्रकाश और ध्वनि..यह आत्मा का ही स्फुरण है, उसी की ज्योति है, उसी का नाद है, उसके ही रंग हैं, मन जब ठहर जाता है तो ये सब दीखते हैं, इनसे परे वह दृष्टा है जो इन्हें देखता है और द्रष्टा से भी परे  जो है वही वह सत्ता है जिसका कोई नाम नहीं है, कोई रूप नहीं है. जो है. मन न रहे अर्थात मन ठहर जाये तो जगत भी लुप्त हो जाता है. मन ही तो जगत है. उन्हें मन को खाली करना है तब वह प्रकाश और नाद से भरेगा जब उससे भी खाली होगा तब केवल परमात्मा ही रहेगा. सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा, उसे कोई भी नाम दें वह एक ही सत्ता है.


आत्मा में रहना जिसे आ जाये उसे मन परेशान कैसे कर सकता है. आत्मा शुद्ध, बुद्ध, चिन्मात्र सत्ता है, वह आकाशवत् है, मन उसमें उठने वाला एक आभास ही तो है, आभास से न तो डरने की आवश्यकता है न ही उसमें बंधने की जरूरत है ! मन को जब वे अलग सत्ता दे देते हैं तभी दुःख का शिकार होते हैं. जहाँ द्वैत है वहीं दुःख है. विचार भी उसी आत्मा की लहरें हैं जो आनन्दमयी है. भीतर उठने वाले सारे संशय, डर तथा भ्रम उसी आत्मा से ही उपजे हैं, वे दूसरे नहीं हैं, उनसे कैसा डर, विचार तो शून्य से उपजा है और शून्य में ही विलीन हो जाने वाला है. सागर क्या अपनी लहरों से कभी डरेगा, चाहे लहर कितनी भी विशाल क्यों न हो, आकाश क्या बादलों की गर्जन से डरेगा ? वे क्यों अपने मन से डरते हैं, वे सागर की तरह गहरे तथा आकाश की तरह अनंत हैं, वे निर्मल हैं, स्वच्छ पावन हैं. एक भी दुर्गुण उनके भीतर प्रवेश नहीं कर सकता. वे जो हैं वहाँ न कोई गुण है न दुर्गुण वहाँ कुछ भी नहीं है. निर्दोष अनछुए वे शुद्ध प्रकाश हैं, प्रकाश का कोई आकार नहीं. वे उससे भी सूक्ष्म हैं, ऐसा प्रकाश जो भौतिक नहीं है, जो पदार्थ से परे है, ऐसी ध्वनि जो अनाहत है ऐसे स्पंदन जो स्वतः हैं, वे उन सबसे भी परे हैं, मन, बुद्धि आदि तो सहायक हैं उनके न कि दुश्मन, जिनसे बचने के लिए वे ..?  

Thursday, November 26, 2015

वृक्ष मित्र


आज फिर उसने सुना, इन्द्रियों की आसक्ति तथा मन की चंचलता जब तक कम नहीं होती, तब तक साधना का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. श्रेय को नष्ट करने वाला दानव है मन तथा इन्द्रियां. साधक जो भी सत्कर्म करे वह भस्म हो जायेगा यदि मन वश में नहीं है. अभ्यास के द्वारा ही यह सम्भव है, जीवन अभ्यास और वैराग्य के बल पर ही आगे बढ़ता है. जिह्वा से शब्द निकले उसके पूर्व ही मन विवेकी होकर सोचे कि सुनने वालों पर शब्द का असर कैसा पड़ने वाला है, यदि किसी को दुःख मिला तो कर्म बंध गया, अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली.

सद्गुरु कहते हैं जो मैं हूँ सो तू है, मुझमें और तुझमें कोई भेद नहीं, तो सद्गुरु ऐसा आत्मा के स्तर पर ही कह सकते हैं. यही तो अद्वैत है, इसमें दो नहीं हैं, सारी सृष्टि ही एक स्रोत से निकली है, वही है, नाम-रूप का भेद है, तत्त्वतः सब एक ही है. ध्यान में जब वे शरीर व मन से परे अपनी ज्योतिर्मय सत्ता का अनुभव करते हैं तो उन्हें अनुभव होता है कि सभी के भीतर ऐसी ही चेतना है. सभी का मन और बुद्धि, स्मृति और चित्त इसी सत्ता से निकले हैं. यह सत्ता अमर है, मृत्यु के समय हरेक को इसकी अमरता का अनुभव हुआ है पर बाद में वे इसे भुला बैठते हैं. मृत्यु के समय यदि कोई इसे पहचान कर इसमें टिक जाये तो पुनर्जन्म नहीं होगा, होगा भी तो अपनी इच्छा से होगा या उच्च योनियों में होगा. जैसे स्वप्न में कोई अपने को भूल जाता है और स्वप्न की सृष्टि को ही सत्य मानने लगता है वैसे ही मृत्यु के समय मन में चल रहे स्वप्न के आधार पर ही सम्भवतः जीव नया शरीर लेने चल पड़ता है.

पिछले कुछ दिनों से ध्यान का क्रम छूट सा गया है. हिंदी के लिए दो दिन लगे, शनिवार को बच्चों के लिए और कभी ऐसे ही कोई आवश्यक कार्य आ गया तो ध्यान के लिए नहीं बैठी. आजकल रात को नींद जल्दी घेर लेती है सो सोने से पूर्व दस-पन्द्रह मिनट से अधिक नहीं होता ध्यान. कभी-कभी लगता है अब इसकी जरूरत भी क्या है, सहज योग सर्वोत्तम है पर मन की चंचलता इसमें आड़े आती  है. मन बेवजह ही इधर-उधर की बातें सोचता रहता है. वह साक्षी भाव से उसे देखती तो है पर सजगता निरंतर नहीं रहती. वह शुद्ध चेतना है, ज्ञाता है, द्रष्टा है अर्थात उसे अपने शरीर व मन में होने वाले हर छोटे-बड़े स्पंदन का पता होना है, बुद्धि इसमें आड़े आती है, वह राय देने लगती है. तभी नीरुमा कहती हैं बुद्धि को किनारे करके ही अध्यात्म साधना करनी चाहिए. जब तक बुद्धि शुद्ध नहीं हुई है तब तक वह हानि ही करेगी. आत्मा में रहकर जब कोई इस जगत को देखता है तब कोई भी दोषी नहीं दिखाई देता. सभी तो एक ही ज्योति से उत्पन्न हुए हैं, सभी अपने-अपने स्तर पर सही हैं. एक का मन व बुद्धि जिस तरह इधर-उधर जाते हैं व विकारों का शिकार होते हैं वैसे ही सभी के साथ होता है. जैसे वे अपनी प्रकृति के वश होकर न करने योग्य कार्य कर देते हैं वैसे ही सभी के साथ होता है.

आज विश्व पर्यावरण दिवस है, सुबह के समाचारों में सुना कि वृक्षमित्र को, डाल्यु के दगड्या को पुरस्कृत किया जायेगा, मन अतीत में लौट गया. पहली बार जब पर्यावरण शब्द सुना था तो उसका अर्थ शब्दकोश में देखना पड़ा था. डाल्यु के दगडया गढवाली भाषा का यह शब्द जैसे किसी स्वप्न की याद दिलाता है, वे जीवन भर एक स्वप्न से दूसरे स्वप्न में ही तो प्रवेश करते रहते हैं ! उनके पास जो बहुमूल्य है वह है प्रेम, वही ईश्वर है, वही आत्मा है, वैसे उसकी कीमत कुछ भी नहीं, वह तो बिन मोल मिलता है, बस भीतर झाँकने की जरूरत है, दिशा बदलनी है, वह तो वह सदा से है ही, उसे पाना नहीं है, खोजना भी नहीं है, वह मिला है पहले से ही, वह खो ही नहीं सकता, केवल उसकी ओर देखना भर है, वे उतना सा भी कष्ट उठाना नहीं चाहते. वे सोचते हैं जो मिला ही है उसकी क्या चिंता, थोडा संसार भर लें, पर संसार आज तक किसी को भी नहीं मिला !

Tuesday, November 24, 2015

फूलों के पेड़


आज सुबह उठने में देर हुई. कपड़े प्रेस करते समय प्रेस में आग की हल्की सी एक लपट निकली, दिखानी होगी. घर के बाहर फूलों के पेड़ लगवाने के लिए गड्ढे खुदवाये और गुरूजी को सुना. कह रहे थे साधक को आत्मग्लानि से सदा बचना चाहिए. अपने मुक्त स्वभाव में रहना चाहिए, न प्रभाव में न अभाव में बल्कि अपने मूल स्वभाव में. जो प्रेम, शांति, करुणा और भक्ति का स्थान है, जहाँ न राग है न द्वेष और वही वास्तव में वह है. कल शाम टहलते हुए वे नन्हे के मित्र से मिलने गये पर घर बंद था. एक सखी से फोन पर बात हुई, वे लोग हिमाचल की यात्रा पर हैं. कल एक सखी ने फोन किया सत्संग के बारे में, वह उत्साही है बस अपने मुख से अपना बखान करती है थोड़ा सा, उसकी सहयोगी है बच्चों के कार्यक्रम अंकुर में.

आज चिदाकाश के बारे में सुना, जिसे बुद्ध शून्य कहते हैं. वह प्रकाश भी नहीं है, रंग भी नहीं और ध्वनि भी नहीं, इसे देखने वाला शुद्ध चैतन्य है, जो आकाश की तरह अनंत है और मुक्त है. जो कुछ भी दिखाई पड़ता है या अनुभव में आता है वह सब क्षणिक है, नष्ट होने वाला है पर वह चेतना सदा एक सी है. मृत्यु के बाद भी सूक्ष्म शरीर में होकर उसका अनुभव किया जाता है बल्कि वही अनुभव करता है. मन के द्वारा वही सुख-दुःख भोगता है, जब तक कोई उसे मन से पृथक नहीं देख पाता. अधिक से अधिक साधक को उसी में टिकना है. आनन्द स्वरूप उस चेतना में साधक जितना-जितना रहना सीख जायेगा, मृत्यु के क्षण में उतना ही शांत रहेगा. आगे की यात्रा ठीक होगी. ध्यान में साधक उसी में टिकता है या टिकने का प्रयास करता है. वहाँ कुछ भी नहीं है, न मन, न बुद्धि, न कोई देखने वाला, न दृश्य, न कोई संवेदना, केवल शुद्ध चेतना !

आज गुरूजी ने बताया कि जब साधक से कोई भूल हो जाये तो उसे प्रायश्चित करना चाहिए. गुरु के साथ आत्मा का संबंध, हृदय का संबंध बनाना चाहिए, शरीर व मन दोनों से परे है गुरु ! माँ शारदा कीं कथा पढ़ी, अद्भुत कथा है. ईश्वर चारों ओर न जाने कितने रूपों में है, वे ही उसकी ओर नजर नहीं डालते !

उसे अब समझ में आने लगा है, बोलते समय वाणी के साथ भीतर की तरंगें भी प्रभावित करती हैं, वाणी यदि मधुर होगी तो तरंगें प्रेम लेकर वाणी से पहले ही पहुंच जाएँगी, और यदि भीतर कटुता है, खीझ है, क्रोध है, अहंकार है तो वाणी के पहले तरंगे वही लेकर जाएँगी. वाणी का असर नहीं होगा, बल्कि बात अभी कही भी नहीं गयी उसके प्रति नकारात्मक भाव पहले ही जग उठा होगा. भीतर का वातावरण शांत हो तभी तरंगे ऐसी होंगी और ऐसा तभी हो सकता है जब कोई उस जगह रहना सीखे जहाँ कोई विक्षेप नहीं, जहाँ एक सी सौम्यता है, जहाँ न अतीत का दुःख है न भविष्य का डर, जहाँ निरंतर वर्तमान की सुखद वायु बहती है, मन से परे आत्मा के उस आंगन में अपना निवास बनाना है जहाँ प्रेम आनन्द और शांति के सिवा कुछ है ही नहीं. जब जरूरत हो तब चित्त, बुद्धि, मन तथा अहंकार के क्षेत्र में जाएँ अपना काम करके तत्क्षण अपने घर में लौट आयें. तब विचार भी शुद्ध होंगे, बुद्धि भी पावन होगी तथा स्मृतियाँ सुखद बनेंगी और शुद्ध अहंकार होगा. वाणी तथा कर्मों की शुद्धता अपने आप आने लगेगी, ऐसे में वह शक्ति जो अभी व्यर्थ सोचने, बोलने में चली जाती है, बचेगी, ध्यान में लगेगी तथा लोकसंग्रह भी स्वत ही होने लगेगा.     




Friday, November 13, 2015

मधु-कैटभ


मृत्यु के समय और उसके पहले क्या होता है, इसके बारे में नीरू माँ भी आजकल बता रही हैं तथा वह जो पुस्तक पढ़ रही है, Tibeten book of living and dying उसमें भी यह बताया गया है कि मरने की तयारी कैसे करनी चाहिए. मृत्यु को जीवन का अंग मानकर जीवन में ही इसके लिए तयारी करनी चाहिए. एक-एक करके सारे सेन्स ऑर्गन काम करना बंद करने लगते हैं, इसी तरह मन भी आपने शुद्ध स्वरूप में आ जाता है, जिसने जीवन में अभ्यास किया है वह इसे पहचान कर मुक्त  हो सकता है पर जो जानता ही नहीं वह पुनः जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है. उन्हें नित्य-प्रति हर क्षण आत्मा में ही रहना होगा, कोई राग नहीं, कोई द्वेष नहीं, कोई छल-कपट नहीं, कोई चाह नहीं ! आज सुबह नींद चार बजे से भी पहले खुल गयी, आजकल सुबह उठकर टीवी नहीं खोलती तो समय काफी बच जाता है, स्नान भी सुबह हो जाता है. कल रात को जून से वह बात करने लगी कि उन्हें तथा कुछ अन्य को विदेश चले गये कुछ लोगों को देखकर जो लगता है कि पिछड़ गये, यहीं रह गये, यहाँ का जीवन एकरस लगता है, इन बातों का कांटा मन से निकाल देना चाहिए, जो ज्ञान से ही सम्भव है, पर वह समझ नहीं पाए. मानव अपने दुखों से भी मुक्ति नहीं चाहते, उन्हीं में रहकर स्वयं को पीड़ित मानकर सुखी होते हैं. पर इससे उसके लिए सीखने की बात यह है की चाहे कोई अपना हो या पराया ( वैसे पराया कोई है नहीं ) किसी को सलाह देने या समझाने की कोई जरूरत नहीं है, यदि कोई स्वयं दुःख से दूर होना नहीं चाहता तो कोई दूसरा उसे चाहकर भी नहीं निकाल सकता. सो अपने ज्ञान को अपने भीतर ही सम्भाल कर रखना चाहिए, हरेक को अपना रास्ता खुद ही ढूँढना पड़ता है ! उसे हर हाल में मुक्त रहना है !

आज मई का एक गर्म दिन है, आज उन्होंने मृणाल ज्योति में पुराने पर्दे, कुशन वगैरह भिजवाये, शायद उनके कुछ काम आयें. घर में जितना कम सामान हो अच्छा है. कल शाम दक्षिण भारतीय पड़ोसिन अपने भाई अरुणाचलम् तथा माँ को लेकर आई, उसकी माँ ने क्रोशिये से बना एक ऊन का रुमाल दिया, उनकी अवस्था भी काफी है तथा मस्तिष्क की कोई बीमारी भी है पर अभी तक हाथ से काम करती हैं क्रोशिये का. उनके माथे पर चन्दन लगा था तथा चेहरे पर मुस्कान थी. वह हिंदी नहीं बोल पातीं पर दिल की भाषा में कोई शब्द नहीं होते. जून अभी आने वाले होंगे, उसने ध्यान कक्ष की सफाई की, इसके बावजूद वहाँ चीटियों का आना जारी है. इतिहास पढने में उसे उतनी रूचि नहीं है यह नेहरु जी की पुस्तक पढ़ते समय पता चल रहा है.

आज सद्गुरु ने बताया चंड-मुंड, मधु-कैटभ था शुम्भ-निशुम्भ सब भीतर हैं. रक्तबीज भी डीएनए की विकृति है. राग-द्वेष ही मधु-कैटभ हैं और उनसे तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती जब तक चेतना प्रेम में विश्राम न पाले. हृदय और मस्तिष्क ही चंड-मुंड हैं, अति भावुकता भी नहीं और अति-बौद्धिकता भी नहीं, दोनों का संतुलित मेल ही जीवन को सुंदर बनाता है. जन्मों-जन्मों के संस्कार जो बीज रूप में भीतर पड़े हैं उनसे भी तभी मुक्ति हो सकती है जब चेतना मुक्त हो अर्थात स्वयं को शुद्ध-बुद्ध आत्मा जानें, तन व मन दोनों के साक्षी व द्रष्टा बनें, अभी तो तीन एक-दूसरे से चिपके हुए हैं, एक को पीड़ा हो तो दूसरी उसे अपनी पीड़ा मान लेता है, एक को हर्ष हो तो दूसरा उसे अपना हर्ष मान लेता है और होता यह है कि एक न एक को तो सुख-दुख का अनुभव होता ही है, तो हर वक्त बेचारी चेतना बस परेशान-दुखी या फूली हुई रहती है, उसे कभी मन के साथ भूत में जाकर पछताना पड़ता है तो कभी भविष्य में जाकर आशंकित होना पड़ता है, वह कभी चैन से रह ही नहीं पाती, नींद में भी मन उसे स्वप्न की दुनिया में ले जाता है.



Thursday, November 12, 2015

अष्टावक्र गीता पर भाष्य


जून आज जोरहाट गये हैं, अभी-अभी उनका फोन आया, पहुंच गये हैं. कल दोपहर तक लौटेंगे सो आज किसी काम की जल्दी नहीं है. कल सत्संग है उनके यहाँ सो कुछ फोन करने हैं. आर्ट ऑफ़ लिविंग की टीचर से भी बात की, वे लोग नहीं आ पाएंगे, व्यस्त हैं. आजकल सत्संग में लोगों की उपस्थिति बहुत घट गयी है. सत्संग का एक घंटा संगीत और प्रभु के नाम में कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चलता. मोरारी बापू की कथा टीवी पर आ रही है. वे कहते हैं सत्य, प्रेम और करुणा यदि जीवन में हों तो इन्हें बांटना शुरू कर दें, क्योंकि ये कभी खत्म न होने वाला खजाना है. जितना- जितना कोई इसे लुटायेगा उतना-उतना यह भीतर से और स्रावित होता है. कोई यदि अध्यात्म की ऊँचाई पर पहुंचना चाहता है तो प्रेम, सेवा और करुणा के मार्ग के अलावा कोई मार्ग नहीं. सद्गुरु कहते हैं भीतर देखो, भीतर उजियारा है, पर लोग डरते हैं, आत्मविस्मृति में चले जाते हैं. सम्यक बोध के बाद साधक के हाथ में पारस पत्थर आ जाता है, तब वह जो छूता है सोना हो जाता है. मनोरंजन के सभी साधन आत्मा से दूर जाने के साधन हैं ! कल रात जब वह सोई तो जीव और आत्मा की बात करके, रात को अद्भुत स्वप्न देखा, वह अपने कमरे में बिलकुल मध्य में जैसे हवा में तैर रही है और साथ ही सारे कमरे में रखे सामान भी देख पा रही है, फिर स्वयं से स्वयं ही पूछ  रही है कि इस समय उसकी आँखें बंद हैं या खुली. एक छोटे से शिशु से बात भी की स्वप्न में जो अभी बोलना नहीं जानता, उसकी आधी जीभ पर छोटे-छोटे कंटक हैं. स्वप्न की दुनिया कितनी अनोखी होती है.

आज दोपहर दीदी का फोन आया, उन्होंने ‘अष्टावक्र गीता’ पर ओशो का भाष्य पढना आरम्भ किया है जो छह भागों में है. जीजाजी ने लाकर दिया है, उन दोनों की कहानी कितनी मिलती है. आज महीनों बाद पहले की तरह कमर के निचले भाग में दर्द हुआ है, शरीर के भीतर क्या चल रहा है वे कहाँ जान पाते हैं. कल रात सोने से पहले हल्का भय का अहसास हुआ, एक हल्की सी तरंग उठी और क्षण भर में ही पूरे बदन में फ़ैल गयी, कितनी तेजी से यह हुआ पर वह उसे महसूस कर पायी, जैसे शांत झील में एक छोटा सा कंकर फेंके तो सारे पानी में हलचल मच जाती है. रात एक स्वप्न भी देखा कोई उसे कुछ सुंघा कर बेहोश करना चाह रहा है, पर वह सफल नहीं होता, वह सामना करती है, पुलिस को बुलाती है शायद किसी जन्म में उसके साथ ऐसा घटा होगा तभी वह अनजान लोगों से एक भय सा महसूस करती है. डर की जड़ें उनके भीतर होती हैं. गोयनका जी कहते हैं जब तक जड़ों से नहीं निकालेंगे डर जायेगा नहीं !


धीरे-धीरे उन्हें सेवा में आनन्द आने लगा है, बच्चे उनसे कुछ सीख रहे हैं और वे उनसे ! आज भी सुबह नौ बजे वह एक सखी के साथ पहुंच गयी, सत्ताईस बच्चे आये थे. इस समय शाम के चार बजे हैं, जून दफ्तर गये हैं शायद उसकी किताब की पाण्डुलिपि बनाने, उनके भीतर भी कोई उथल-पुथल चल रही है, वह थोड़ा मौन हो गये हैं आजकल, न जाने किस सोच में डूबे रहते हैं, वह भीतर उतरने लगे हैं. मौन इन्सान को अपना पता जानने में मददगार है. आज सुबह भी सद्गुरु को सुना, अद्भुत है उनका सहज तरीका, कठिन से कठिन विषय को भी इतना सरल बना देते हैं. वह कहते हैं कि थोडा सा क्रोध, अहंकार अपने में दिखे तो उसे रहने दो, उससे लड़ने मत जाओ. वह नम्र बनाये रखेगा. यदि कोई गलती हो जाये तो बजाय आत्मग्लानि में जाने के उससे इतना ही सीख लो कि अभी और सीखना है, बस आगे बढ़ जाओ. अपनी कमियों पर साधक न तो शर्मिंदा हों न ही उनसे डरें बल्कि उन्हें सहजता से स्वीकारें तथा उनसे आगे बढ़ जाएँ ! नन्हे का फोन ठीक हो गया होगा. उसने अपने प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया है, वह अगले महीने घर आएगा !  

Saturday, November 7, 2015

आजादी की पहली लड़ाई


कल एक नन्ही बालिका से मिली, एक सखी की नन्ही सी बेटी, अभी तीन महीने की भी नहीं हुई, कल होगी. बहुत अच्छा लगा, वे सभी बहुत खुश थे, एक परिवार पूरा हुआ, बच्चे के होने पर ही परिवार पूर्ण होता है. नूना का स्वास्थ्य ठीक नहीं है, गला खराब है, सर में दर्द है, लेकिन ये सब वास्तव में उसमें नहीं हो रहा है, वह शरीर से परे है, शरीर को ऐसा अनुभव पहले भी कई बार हुआ हैं. प्रारब्ध का कोई कर्म होगा जो अब सामने आया है. वैसे पिछले दो-तीन दिनों में भी कई ऐसे कर्म किये उसने जो ठीक नहीं थे. बालों में खराब हो गई मेंहदी को लगाना और ढक कर रखना पूरे तीन घंटों तक, सुबह-सुबह ठंडे पानी से स्नान, मैदे का आहार तथा बाहर का खाना, ये सारी बातें निमित्त बनीं उसके प्रारब्ध को प्रकट होने के लिए. दीदी का फोन कुछ देर पहले आया, कुछ देर को सब भूल गयी. बहुत दिनों बाद छोटी चाची से भी बात की, वह कई दिनों से उन्हें फोन करने की बात सोच रही थी. उन्होंने अपने काम की परेशानियों के बारे में बताया, कढ़ाई का कम अब पहले सा नहीं रहा. कम्प्यूटर वाली मशीनें आ गयी हैं. वह चाहती थीं कि नूना छोटी बहन से बात करे कि उनके बड़े पुत्र को विदेश आने के लिए कहे, पर उसे लगता है इन पारिवारिक मामलों में न पड़ना ही ठीक है, वैसे भी छोटी बहन दो महीने बाद आ रही है वह स्वयं ही बात कर लेंगी.

आजादी की पहली लड़ाई १८५७ में लड़ी गई थी आज उसको डेढ़ सौ वर्ष हो गये हैं. टीवी पर सोनिया गाँधी इस अवसर पर लाल किले से ओजस्वी भाषण दे रही हैं. उनका भाषण तो किसी अन्य ने लिखा होगा लेकिन उनके बोलने का तरीका तथा उच्चारण काफी अच्छा हो गया है. उसने पिछले दिनों इंदिरा, नेहरु तथा आजादी की लड़ाई के वक्त की घटनाओं के बारे में पढ़ा. गाँधी फिल्म भी देखी, उनके देश की कहानी अद्भुत है और अनोखा है सेनानियों का बलिदान !

कल उन्होंने बच्चों के कार्यक्रम के द्वारा गुरूजी का जन्मदिन मनाया. उनका उत्साह देखते ही बनता था. इसी महीने मृणाल ज्योति भी जाना है. इसी महीने उसका जन्मदिन भी है, ऐसे ही कुछ और जन्मदिन आयेंगे और फिर आएगा निर्वाण का दिन, जीते जी जिसने आत्मा का अनुभव कर लिया उसका निर्वाण तो निश्चित है. उसके बाद उनका मन है कि वे इस धरा पर कहाँ जन्म लें. अभी तक तो वे अपने कर्मों के द्वारा भटकाए जाते रहे हैं, पर अब सद्गुरु के द्वार पर आकर यह भटकन खत्म हो गई है, वह उनकी आत्मा है, उनके रूप में मानो अपनी आत्मा को ही पा लिया है. उन्हें अपने भीतर भी वैसी ही पवित्रता, मस्ती और आनन्द का खजाना मिल गया है, जैसे वे जगत में बांटते फिरते हैं. वे पूर्ण तृप्त हो गये हैं. पूर्ण काम और पूर्ण निश्चिन्त !

जब ध्यान स्वयं घटित होने लगे तो अलग से उसके लिए बैठने की बहुत आवश्यकता महसूस नहीं होती, आज यह उसके ध्यान का समय है पर वह लिख रही है, कितनी बातें भीतर है जो उससे कहनी हैं जो सब जानता है. लिखना भी अब अति आवश्यक नहीं रहा, मन पूरी तरह खाली होना चाहता है, कोई अपेक्षा नहीं, कोई बंधन नहीं. आज वर्षा की रिमझिम जारी है. पिछले तीन-चार दिनों से ऐसा ही हो रहा है, उनके सतनाम-ध्यानकक्ष की सभी पाँचों खिड़कियाँ खुली हैं, ठंडी हवा रह-रह कर आ रही है. सामने की दीवार पर गुरूजी तस्वीर में मुस्कुरा रहे हैं, उनकी मुद्रा मोहक है. मुस्कान चित्ताकर्षक है. उसके पीछे राधाकृष्ण की मूर्ति है तथा दीपदान जो वे वाराणसी से लाये थे. इस कमरे को जून ने कितनी लगन से उसके साथ मिलकर सजाया है पर अफ़सोस कि उनके हृदय में संतों के प्रति कोई आदर नहीं है, ईश्वर के प्रति प्रेम भी नहीं, आर्ट ऑफ़ लिविंग की टीचर कहती है यह जरूरी तो नहीं कि सब उनके जैसे हों, उसे यह प्रतीक्षा धैर्यपूर्वक करनी होगी तथा प्रार्थना भी कि उनके आसपास के लोग भी उस आनन्द को चखें जो उन्हें मिला है !    



Friday, November 6, 2015

रस्ता और मुसाफ़िर


वाणी का दोष पुनः हुआ, उसने नये माली की तारीफ़ की और पुराने माली की निंदा, अब निंदा का दोष जो लगा वह तो है ही, नया माली प्रशंसा सुनकर दो घंटे से पहले ही चला गया. इन्सान अपनी जिह्वा के कारण कितनी बार फंस जाता है. वाणी पर संयम रखना कितना कठिन है, एक बार वे बोलना शुरू करते हैं तो खत्म कहाँ करना है, यह भूल जाते हैं. आज शाम को सत्संग में जाना है, नॉलेज पॉइंट्स लेकर जाने हैं. सुबह सुना जिस तरह मिट्टी आग में तपकर प्याला बन जाती है और उपयोग में आती है वैसे ही उनका यह मिट्टी का तन जब ईश्वर की लगन रूपी लौ में तप जाता है तब यह उसके हाथों का उपकरण बन जाता है और काम में आता है. ईश्वर की लगन भी क्रमशः तीव्रतर होती जाती है, पहले राख में छिपे अंगारे की तरह जो ऊपर से दिखती भी नहीं, फिर तपते हुए लाल अंगारे की तरह, जो प्रकाश भी देता व ताप भी, फिर गैस के चूल्हे की नीली लपट की तरह और फिर माइक्रोवेव की तरह जो नजर भी नहीं आती, बस चुपचाप अपना काम कर देती है. सद्गुरु ने कहा कि ज्ञान पा लिया है यह अहंकार भी छोड़ना होगा पर नहीं मिला है सदा यह संदेह भी नहीं रखना है. मध्यम मार्ग पर चलना श्रेष्ठ है. आत्मा का परमात्मा से नित्य का संबंध है. उन्हें बनाना नहीं है, वे स्वयं आत्मा हैं यह बात जितनी दृढ़  हो जाएगी तो उतना ही वे परमात्मा से अभिन्नता अनुभव कर सकेंगे, और तब शेष ही क्या रहा ?

आज गुरूजी ने कहा शब्दों से वे लाख चाहें, अपनी बात समझा नहीं सकते जो काम मौन कर देता है वह शब्द नहीं कर पाते. वे अपने व्यवहार से, भीतर छिपी करुणा से अपने विरोधी को प्रभावित कर सकते हैं किसी हद तक. आज भगवद्गीता पर उनके प्रवचन का प्रथम भाग सुना, कल दूसरा सुनेगी, भीतर जो प्रतीक्षा है उसी में सारा रहस्य छिपा है. आतुरता, प्यास यही साधना की पहली शर्त है. ज्ञान को जितना भी पढ़े, सुने तृप्ति नहीं मिलती, वह परमात्मा कितना ही मिल जाये ऐसा लगे कि मिल गया है फिर भी मिलन की आस जगी रहती है. प्रेम में संयोग और वियोग साथ-साथ चलते हैं. इसलिए भक्त कभी हँसता है कभी रोता है, वह ईश्वर को अभिन्न महसूस करता है पर तृप्त नहीं होता फिर उसे सामने बिठाकर पूजता है पर दो के मध्य की दूरी भी उससे सहन नहीं होती. वह स्वयं मिट जाता है, केवल एक ईश्वर ही रह जाता है. ज्ञानी भी एक है. और कर्मयोगी के लिए यह सारा जगत उसी का स्वरूप है. एक का अनुभव ही अध्यात्म की पराकाष्ठा है.

मैं हूँ मंजिल, सफर भी मैं हूँ, मैं ही मुसाफिर हूँ...

आज सद्गुरु ने कितना सुंदर गीत गाया. मन व् बुद्धि भी उसी आत्मा से निकले हैं, यानि वही हैं जिन्हें आत्मा तक पहुंचना है ..मन रूपी यात्री विचार रूपी रस्ते को पार करके घर पहुँचता है. कितना सरल और सहज है अध्यात्म का रास्ता..न जाने कितना पेचीदा बना दिया है इसे लोगों ने. सीधी- सच्ची बात है जब मन स्वार्थ साधना चाहता है तो आत्मा से दूर निकल जाता है जब यह अपनी नहीं सबकी ख़ुशी चाहता है तो यह आत्मा में टिक जाता है. यह जान जाता है कि जगत एक दर्पण है जो यहाँ किया जाता है वही प्रतिबिम्बित होकर वापस आता है, तो यह खुशियाँ देना आरम्भ करता है. अहंकार को पोषने से सिवाय दुःख के कुछ हाथ नहीं आता, क्योंकि अहंकार उसे सृष्टि से पृथक करता है, जबकि वे सभी सृष्टि के अंग हैं, एक-दूसरे पर आश्रित हैं. स्वतंत्र सत्ता का भ्रम पलने के कारण ही वे सुखी-दुखी होते हैं. वे ससीम मन नहीं असीम आत्मा हैं !



Thursday, November 5, 2015

कमल कुण्ड की शोभा



जितनी कोई उठा सके उतनी जिम्मेदारी उसे उठानी ही चाहिए, आज सद्गुरु ने कहा, जैसे-जैसे कोई किसी काम को करने का बीड़ा उठाता है वैसे-वैसे उसे करने की शक्ति भरती जाती है ! उसे लगा, वे स्वयं ही अपनी शक्ति पर संदेह करते हैं और फिर आत्मग्लानि से भर जाते हैं. उन्होंने यह भी कहा, सारे गुण भीतर हैं, यह मानकर चलना है. अवगुण तो एक आवरण की तरह ऊपर-ऊपर ही हैं. यदि वे शरण में जाते हैं तो ईश्वर की पवित्रता उनके दोषों को दूर करने में सहायक होती है, वह पावन है और उसकी निकटता में वे भी पावन हो जाते हैं. उनकी वह शक्ति तथा सामर्थ्य जो ईश्वर की कृपा से मिलती है, उनमें अभिमान नहीं जगने देती बल्कि नम्रता ही सिखाती है. वे विनम्र होकर अपनी शक्ति को उसी की सृष्टि में लगाना चाहते हैं क्योंकि वे स्वयं तो तृप्त हो जाते हैं. जो एक बार सच्चे हृदय से शरण में गया, वह तृप्त ही है ! आज वह जून के विभाग के मुख्य अधिकारी के घर गयी उनकी पत्नी से मिलने, बहू व पोते से भी मिलन हो गया जो कुछ दिनों के लिए यहाँ आए हैं, उसने उनकी कुछ तस्वीरें उतारीं. वापसी में पड़ोसिन के यहाँ गयी उनके छोटे से सुंदर तालाब में पांच कमल खिले हैं. कल बंगाली सखी के बेटे को संस्कृत पढ़ाई बहुत दिनों बाद, खुद भी पढ़ना होगा पहले, उसे हिंदी पढ़ने का भी कुछ कारगर तरीका सोचना होगा. आज दोपहर कार्ड्स बनाने का कार्य समाप्त कर  देना है, यदि कोई सहायक न भी मिले तो अकेले ही. मौसम आज अच्छा है, रात भर वर्षा हुई, ठंडी हवा बह रही है. सासुमाँ सो रही हैं, आज लंच में सब्जी उन्होंने बना दी है.

मन खाली है इस क्षण, कोई वस्तु नहीं मांगता, कुछ नहीं चाहता, यह जैसे है ही नहीं. सुबह मसालदान गिर गया पर भीतर एक कतरा भी नहीं हिला, कुछ हो तभी न हिले. कुछ भी नहीं है मन की गहराइयों में. सब कुछ ठोस है वहाँ, कोई हलचल नहीं. वहाँ से केवल एक पुकार आती है कि कैसे इस जगत को कुछ दे दें, देने की बात ही अब प्रमुख है. प्रभु भी तो हर पल दे ही रहा है, अपना प्रेम, करुणा और कृपा..सद्गुरु भी यही कर रहे हैं..वे उनके जैसे बनने का प्रयत्न तो कर ही सकते हैं ! वे दें और बस ! एक क्षण भी वहाँ रुके नहीं उस लेने वाले का आभार देखने के लिए, बल्कि वे उसके आभारी हों कि वह वहाँ है ताकि उनके भीतर प्रेम जगे.. न जाने कितने जन्मों से वे लेते आये हैं..अब और नहीं !

पिछले चार दिन फिर डायरी नहीं खोली, शनि, इतवार को तो सुबह काफी व्यस्तता होती है, पर कल व परसों अपने कामों में इस माया ने उलझा कर रखा. आज गुरूजी ने कहा, जो कुछ भी वे व्यवहार जगत में देखते हैं वह सब अविद्या है, इसी को नीरूमा कहती हैं कि सभी रिलेटिव में है, रियल नहीं है. विद्या तो आत्मा में ही है. गोयनका जी ने कहा, श्वास का सहारा लेने से वे भीतर शरीर व मन दोनों को जान पाते हैं, तथा दोनों को बदल सकते हैं. श्वास दोनों के बीच की कड़ी है. वह अपने भीतर देखती है तो सर्वप्रथम वाणी का दोष दीखता है. चाहकर भी इसे दूर नहीं कर पाती, शायद यह चाह्ना पूर्ण नहीं है और यह एक साधक की भाषा नहीं है, साधक को अपने पर संदेह नहीं होता, न गुरू पर न आत्मा पर. आज से दृढ़ निश्चय करना है आज से, नहीं इसी क्षण से ही यह निश्चय करना है कि जो भी शब्द मुख से निकलेगा वह सारगर्भित होगा, मधुर होगा तथा स्पष्ट होगा. आज दोपहर को हिंदी कक्षा भी है, उसके लिए भी पूर्ण तैयार रहना होगा, भाषा शुद्ध व स्पष्ट हो. उसका हर कार्य ऐसा हो जिसमें आत्मा की झलक मिले. वह आत्मा है, पूर्ण शांति, पूर्ण आनन्द तथा पूर्ण ज्ञान की अनंत राशि ! उसे इस जगत से कुछ भी प्राप्य नहीं है, बस देना है स्वयं को. लुटाना है, भीतर से खाली होना है !  


Wednesday, November 4, 2015

इंदिरा गाँधी की कहानी



पिछले दो-तीन दिन छुट्टी के थे, बीहू की छुट्टी, सो डायरी नहीं खोली. इस समय दोपहर के दो बजे हैं. मौसम अब बदल गया है, गर्मी की शुरुआत हो गयी है. पिछले दिनों बगीचे से तोड़ कर गन्ने खाए, दांत व मसूड़े में दर्द है, हर सुख की कीमत तो चुकानी ही पडती है. आज सुबह वे समय से उठे, ‘क्रिया’ आदि की. ध्यान कक्ष में पंखा नहीं लगा है टेबल फैन से आवाज ज्यादा आती है, सो इस वक्त वह इधर बैठी है अपने पुराने स्थान पर. संडे योग स्कूल के बच्चों ने कार्ड बनाने का कार्य शुरू कर दिया है, लिफाफे भी बनाने हैं. पत्रिका के लिए कल उन्हें प्रेस जाना है, किताब के लिए जून ने लिख दिया है. वह आजकल कैथरीन फ्रैंक द्वारा लिखी इंदिरा गाँधी की कहानी पढ़ रही है. बनारस पर जो लेख लिखा था, वह आंटी को पढ़ने के लिए दिया था, सम्भवतः अभी उन्होंने पढ़ा नहीं है. लिखने का बहुत सा कम पड़ा है, गीतांजलि पर आधारित जो छोटे-छोटे पद लिखे थे, उन्हें भी टाइप करना है. ऐसा लगता है जैसे कुछ छूटा जा रहा है, लेकिन वह क्या है, उस पर ऊँगली रखना कठिन है. भीतर एक बेचैनी सी है, मगर इतनी तीव्र भी नहीं बस मीठी-मीठी आंच सी बेचैनी. ईश्वर ने उसे इतनी शक्ति दी है, इतना ज्ञान, इतना प्रेम और इतना समय दिया है, उसका लाभ इस जग को नहीं मिल रहा है, वह तो सौ प्रतिशत लाभ में ही है हर पल !

दोपहर के सवा दो बजे हैं, अप्रैल माह की तपती हुई दोपहरी है, सूरज जैसे आग फेंक रहा है. अभी थोड़ी देर पहले वह प्रेस से आई है, क्लब की वाइस प्रेसिडेंट और एडिटर के साथ गयी थी. उसने वाराणसी वाला लेख छपने के लिए दिया है. आज उठने में दस मिनट देर हुई पर सुबह के वक्त इतना समय भी कीमती होता है. आज उसने कई दिन बाद क्रोध का अभिनय किया, नैनी की बेटी को डांटा कि वह अपना स्कूटर जून के गैरेज के आगे न धोये, बाद में कोई उसे भीतर से डांटता रहा, वह कौन है भीतर जो उससे कोई गलती हो जाये तो चुप नहीं रहता. कल नन्हे का फोन खो जाने की खबर आई तो जून बिलकुल चुप थे, उसे कुछ भी महसूस नहीं हुआ, न दुःख न अफ़सोस..जैसे कुछ हुआ ही नहीं. वह धीरे-धीरे आत्मा में स्थित होने का प्रयास दृढ़ करती जा रही है. छह वर्ष पहले जो यात्रा शुरू की थी वह अब काफी आगे आ चुकी है, लेकिन यह यात्रा जीवन भर बल्कि जन्मों तक चलने वाली है, इसकी मंजिल भी यही है और मार्ग भी यही है. आज जून ने भी तो थोड़ा गुस्सा किया, वह ड्रेसिंग टेबल देखने गये थे पर अभी भी उसमें कमी थी. वे यह जानते ही नहीं कि ऐसा करके वे अपने को कर्मों के बंधन में फंसा लेते हैं.

धर्म को यदि धारण नहीं किया तो व्यर्थ है, नहीं तो उनकी हालत भी दुर्योधन की तरह हो जाएगी जो कहता है, वह धर्म जानता है पर उसकी ओर प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म जानता है पर उससे निवृत्ति नहीं होती. उसे कृष्ण के भजन भाते हैं, उसकी सूरत भी, पर उसके कहे अनुसार चलना तो अभी नहीं आता. आज सद्गुरु को सुना, वह उनसे कितनी उम्मीदें लगाये हुए हैं, वह तो उन्हें अपने जैसा ही मानते हैं, कितने भोले हैं वह, सब समझते हुए भी उनका मान बढ़ाने के लिये जो गुण उनमें नहीं हैं वे भी बताते हैं, तब वे लज्जा से झुक जाते हैं. सद्गुरु की महानता की तो कोई सीमा ही नहीं है, वह कहते हैं कि थोड़ा सा विकार यदि रह गया हो तो उससे मत लड़ो, रहने दो, उन्हें पता ही नहीं यहाँ तो विकार का ढेर लगा है, अहंकार तो इतना ज्यादा है कि..आज भी गर्मी काफी है. अभी डेढ़ बजे हैं, संगीत का अभ्यास तो उसने कई महीनों से छोड़ दिया है, लिखने-पढ़ने का कार्य ही काफी है. आज सत्संग में भी जाना है. वहाँ पढ़ने के लिए आज से अपनी कविता की जगह गुरूजी का कोई ज्ञान सूत्र ही लेकर जाएगी. किताब का काम दस मई के बाद होगा, तब तक भूमिका का प्रबंध भी हो जायेगा. नन्हा दो रातों तक अपने मित्र के साथ अस्पताल में रहा, उसमें सेवा की भावना है, अच्छी बात है. उसका पुराना मोबाइल काम करने लगा है.    


  

Tuesday, November 3, 2015

शायरी की खुशबू



आज हालात ठीक हैं, मौसम खुला है बाहर का भी भीतर का भी, अभी-अभी जून का फोन आया, उन्हें कुछ दवाओं के नाम चाहिए.... उसके बाद वह हिंदी अनुभाग गयी, हिंदी अधिकारी से कवितायें भेजने तथा किताब की भूमिका लिखवाने की बात की, वापस आकर चाय पी और बच्चों को पढ़ाया. ‘वाक्य’ पढ़ाते समय मिश्र वाक्य में थोडा संदेह हुआ, उसे स्वयं भी पढ़ना होगा. आज शाम क्लब भी जाना है. क्लब की पत्रिका के लिए एडीटोरियल ग्रुप का फोटो सेशन होगा. कल उनके इस नये कमरे में पहली बार सत्संग होगा, अच्छा होगा, इस कमरे में आते ही कैसी शांति का अनुभव होता है. नीला कारपेट, गुरूजी की तस्वीर, राधा-कृष्ण की मूर्ति तथा दीपदान सभी सात्विक वातावरण पैदा करते हैं ! लेकिन जब तक भीतर समता न हो, ज्ञान न हो, बाहर का वातावरण पूर्ण रूप से सहायक नहीं हो पाता है. उसने तो वर्षों पहले से ही बाहर देखना बंद कर दिया है, वह भीतर देखती है किस तरह मन अभी भी छल-कपट, परनिंदा, परदोष देखने में लिप्त होता है, कैसे मन अभी भी बिना वजह सोचता है ऊलजलूल सोचता है, पर अब वह स्वयं मन से हट जाती है तो मन की बात अपनी नहीं लगती. वह जैसे एक नादान बच्चा हो, उसकी बातों पर क्या ध्यान देना. पर अब भी राह चलते कोई दृश्य देखकर भीतर जो कम्पन होता है, सद्गुरु कहते हैं आत्मनिंदा से साधक को बचना चाहिए, तो जो कुछ मन का है वह आत्मा का नहीं, आत्मा तो सदा निर्दोष है जैसे उसकी वैसे हर एक की !

कल फोटोसेशन हो गया, आज भी क्लब में मीटिंग है, वही सोविनियर के बारे में. इस समय डेढ़ बजे हैं दोपहर के, वह ध्यान कक्ष में है. अभी तक नया माली नहीं मिला है, सो लॉन की हालत बहुत खराब हो रही है, देखे, कौन से हाथ हैं जो इसे संवारेंगे. कल लाइब्रेरी से कुछ नई किताबें लायी है. आज सुबह गुरूजी को सुना, छोटी-छोटी गूढ़ ज्ञान युक्त बातें उन्होंने सूत्र रूप में कहीं. वह जैसा कहते हैं वे उसे मानें तो यह जग कितना सुंदर हो जाये. यह जग तो सुंदर है ही, वे जब तक अन्यों में दोष देखना बंद नहीं करते, जगत उन्हें असुन्दर ही लगेगा. नीरू माँ कहती हैं सभी को निर्दोष देखो. ज्ञानी सभी को शुद्ध आत्मा ही देखते हैं. वह कभी किसी की कमियां नहीं देखते, बल्कि सभी को उनके शुद्ध स्वरूप का ज्ञान करा देते हैं तो कमियां आपने आप छिटक जाती हैं. कोई जब कमियां देखता है तो उसके मन में भी उस कमी का भाव दृढ़ हो जाता है. वह न चाहते हुए भी उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं. यह जगत जैसा है वैसा है. उन्हें चाहिए, हो सके तो किसी की सहायता कर दें, न हो सके तो अपने हृदय को खाली रखें, उसमें संसार की कमियां तो न ही भरें. इस नाशवान, स्वप्नवत संसार के पीछे छिपे तत्व को पहचानें और उसी पर नजर रखें !

आज मुरारी बापू के सत्संग में उसने कुछ उम्दा शायरी सुनी टीवी पर –

खुद से हाल छिपाना क्या, दर्पण से शर्माना क्या
चाहत तो बस चाहत है, चाहत का जतलाना क्या

जो खुलकर भी बंद लगे उस दरवाजे जाना क्या
लौ से बचता फिरता है ऐसा भी परवाना क्या

तू पत्थर की ऐंठ है मैं पानी की लोच
तेरी अपनी सोच है मेरी अपनी सोच  

लौ से लौ को जोड़कर बनजा तू मशाल
फिर तू देख अंधेरों का क्या होता है हाल

काम न आएँगी ये दम तोडती शमें
नये चिराग जलाओ बहुत अँधेरा है !


Monday, November 2, 2015

महावीर के सूत्र


आज यूँ तो द्वादशी है पर कल वह भूल गयी सो आज उपवास है, उपवास यानि निकट बैठना, उसके निकट जो वे हैं, प्रकाश, पावनता, सत्य और दिव्यता का जो स्रोत है, यानि आत्मा, वही तो परमात्मा है. आज ध्यान में अनोखा अनुभव हुआ, विचार शून्य चेतनता का अनुभव काफी देर तक होता रहा, फिर मन ने कैसे-कैसे रूप गढ़े. गीलापन, तेल, स्वाद अभी कुछ ध्यान में कितना स्पष्ट अनुभव होता है, मोती, प्रकाश और भी न जाने क्या-क्या. मानव होने का जो सर्वोत्तम लाभ है वह यही कि वे अपनी आत्मा को जानें यानि खुद को जानें. जिसके बाद यह सारा जगत होते हुए भी नहीं रहता. वे सभी कुछ करते हैं पर भीतर से बिलकुल अछूते रहते हैं. सब नाटक सा लगता है कुछ भी असर नहीं करता. वे इन छोटी-छोटी बातों (संसार ही छोटा हो जाता है) से ऊपर उठ जाते हैं. जीना तब कितना सहज होता है, मन भी हल्का और तन भी हल्का, कोई अपेक्षा नहीं, कुछ पाना भी नहीं, कुछ जानना भी नहीं, कहीं जाना भी नहीं, कहीं से आना भी नहीं, खेल करना है बस, जगना, सोना, खाना-पीना सब कुछ खेल ही हो जाता है. वह परमात्मा जो कभी दूर-दूर लगता था, अपने सबसे करीब हो जाता है, वही अब खुद की याद दिलाता है, वह जग जाता है जो जन्मों से सोया हुआ था. सद्गुरु की बातें अक्षरशः सही लगती हैं, शास्त्र सही घटित होते हुए लगते हैं. ऐसी मस्ती और तृप्ति में कोई नाचता है तो कोई हँसता है, कोई मुस्कुराता भर है !

आज ‘महावीर जयंती’ है, गुरूजी ने उस पर प्रकाश डालते हुए कहा, उन्हें आत्मलोचन करना है, उनके सिद्धांतों को व्यवहार में लाना है. अहिंसा को मनसा, वाचा, कर्मणा में अपनाना है. उन्हें संग्रह की भी एक सीमा बांधनी है, उनका मन यदि सजग हो प्रतिपल, तो चेतना की अनंत शक्तियों को पा सकता है. मन यदि पल भर के लिए भी विकार ग्रस्त होता है तो वह उस शक्ति से वंचित हो जाता है. चेतना का सूरज जगमगाता रहे इसके लिए प्रमाद के बादलों को बढ़ने से रोकना होगा, तंद्रा के धुंए से बचना होगा. जीवन थोड़ा सा ही शेष बचा है, हर व्यक्ति मृत्यु का परवाना साथ लेकर आता है, कुछ वर्षों का उसका जीवन यदि किसी अच्छे काम में लगता है तो ईश्वर के प्रति धन्यता प्रकट होती है. सद्गुरु कितनी सुंदर राह पर चलने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. साधक भटक न जाएँ इसलिए वह भीतर से कचोटते भी रहते हैं, वे मंजिल के करीब आ-आकर फिर भटक जाते हैं !

बल, बुद्धि, विद्या उन्हें श्री हनुमान से प्राप्त होते हैं तथा अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष राम से, इन सभी के साथ जब तक विवेक न हो तो यही सभी वरदान उनके लिए शाप भी बन सकते हैं. उसकी बुद्धि  में धैर्य नहीं है, उसके बल में विवेक की कमी है और उसकी विद्या में नम्रता नहीं है. नीरू माँ कहती हैं जो कोई रिकार्ड करके लाया है वही तो बोलेगा. नूना भाव शुद्ध करती है भीतर प्रण भी लेती है पर वे भीतर ही रह जाते हैं, बाहर निकलती है केवल एक उदासीनता, एक कटुता, एक खीझ और एक अतृप्ति. जो मन नाचता था, गाता था और खिला रहता था हर पल, वह किसी बाहरी प्रभाव के कारण ऐसा पीड़ित हो जायेगा, यह कहाँ पता था. पर इसके लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो वह स्वयं  है, यात्रा के दौरान तो साधना में खलल पड़ा ही, यहाँ लौटकर भी पहले की सी तीव्रता नहीं है, बल्कि मन को इधर-उधर के कामों में ही उलझाये रखा, मन तो छोटा बच्चा है और बुद्धि उसकी बड़ी बहन, पर दोनों का आधार तो आत्मा है, आत्मा यदि स्वस्थ हो, सबल हो, सजग हो तो इनमें से किसी के साथ तादात्म्य नहीं करेगी, अपनी गरीमा में रहेगी, उस गुंजन को सुनेगी जो रात-दिन भीतर हो रही है, उस ज्योति को देखेगी जो भीतर जल रही है.

तमोगुण की प्रधानता होने पर जीवन में रजोगुण व सतोगुण दब जाते हैं. हो सकता है यह उसके किसी पूर्व कर्म का फल हो अथवा पुरुषार्थ में कमी का अथवा तो सजगता की कमी हो, पर दुःख देने वाला यह तम रूपी विष उसकी इन्द्रियों को ताप दे रहा था. आज नीरू माँ ने कहा यदि जीवन में अभी भी दुःख है तो कोई आत्मा को जानता है, ऐसी बस उसकी मान्यता भर ही है. उसका स्वभाव यानि प्रकृति वैसी की वैसी ही बनी हुई है, सम्पूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ है, अपनी आजादी को किसी भी कीमत पर वह खोना नहीं  चाहती, उसका ‘स्व’ अत्यंत संकीर्ण है, आत्मा को जानने वाला तो उदार होता है, उल्लास उसका साथ कभी नहीं छोड़ता, वह कामनाओं से उपर उठा होता है. अपने भीतर झांक कर देखे तो कोई विशेष कामना नजर नहीं आती, सिवाय इसके कि..परमात्मा से उसकी भेंट हो जाये, पर उसके लिए तो हृदय को पवित्र करना होगा, राग-द्वेष से मुक्त होकर, छल-छिद्र और कपट से रहित होना होगा, वाणी को मधुर बनाना होगा, वाचा, मनसा, कर्मणा एक होना होगा, हृदय व बुद्धि का मिलन करना होगा. आज इस वक्त दोपहर के साढ़े बजे वह सद्गुरु और कान्हा की उपस्थिति में स्वयं से वादा करती है कि सजगता के साथ हर कार्य करेगी. तमोगुण का अर्थ ही है बेहोशी, प्रमाद. उसे सत्वगुण के भी पार जाना है, उसकी डायरी में नीचे लिखी सूक्ति में गाँधी जी भी यही कह रहे हैं जब किसी के मन, वाणी तथा कर्म में साम्य होगा, तभी वह प्रसन्न होगा !