Thursday, July 23, 2015

शेफाली के फूल


अक्टूबर का प्रथम दिन, शरद ऋतू का आरम्भ ! पूजा और शेफाली की बहार का मौसम ! सभी से बात की, भीतर प्रेम भरा हो तो सारा जगत ही प्रेममय लगता है. कितना सच कहते हैं शास्त्र और संतजन. भीतर ही प्रेम का खजाना है उसकी चाबी हाथ आ जाये तो जीवन धन्य हो जाता है. उस चाबी का पता तो सद्गुरु बताते हैं पर उसे खोजने की इच्छा मन में जगे ऐसी परिस्थितियाँ ईश्वर उत्पन्न  करते हैं. उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए ज्ञान को धारण करना होगा. ईश्वर उसे दोषों से बचाना चाहते हैं. इसलिये वे उसमें उन दोषों को दिखाते हैं जो वह अन्यों में देखती है. जिनके खुद के घर शीशे के हैं वे दूसरों पर पत्थर कैसे फेंक सकते हैं.
पिछले चार दिन दशहरे तथा दुर्गा पूजा के उत्सव के अवकाश के थे. जून की छुट्टी थी और दिन भर घर-गृहस्थी के कार्यों में समय का पता ही नहीं चला, कैसे बीत गया. छुट्टी होने के बावजूद भी जून  कुछ देर के लिए ऑफिस गये, उनको भी अब खाली बैठना जरा नहीं सुहाता. वृत्ति तम से रज में आ गयी है, कभी-कभी सत् में भी टिकती है. उनकी यात्रा सुचारुरूप से चल रही है ! उन्होंने दीवाली के लिए घर की सफाई शुरू की है, काफी कुछ हो गया है अभी काफी कुछ शेष है.
कल की वर्षा के बाद आज धूप निकली है. कल नन्हे को गणित पढ़ने के लिए कहा पर उसे ज्यादा अच्छा नहीं लगा. उन्हें कोई दूसरा टोके कुछ करने को कहे, अच्छा नहीं लगता. अपनी मर्जी से वह काम सहर्ष ही करते हैं. अपनी आजादी पर जरा सा भी अंकुश किसी को पसंद नहीं है. उसका मोह ही उससे यह कहलवाता है. प्रेम में तो जो जैसा है वैसा ही स्वीकारना होता है. नन्हे बच्चों को पढ़ाई के लिए कहना ठीक है पर व्यस्क को यदि स्वयं ही समझ नहीं होगी तो कहने से भी नहीं आएगी. अतः कुछ कहना भी हो तो सहज भाव से कहना होगा कोई पूर्वाग्रह रखकर नहीं !
पूजा के अवकाश के बाद उसे कमजोरी तथा कुछ अन्य लक्षण शुरू हो गये, मन उसी में उलझा रहा. अचानक उसे हाथों-पैरों में कमजोरी का अनुभव होने लगा है तो लगता है जैसे जीवन हाथ से फिसला जा रहा है. जीवन का अंत मृत्यु ही है. मृत्यु उन्हें कितनी तरह से तैयार करती है स्वयं से मिलने के लिए. पहले-पहल जो धक्का लगता है कोई बुरी खबर को पाकर, वह समय निकल गया है, मन अब स्थिर हो रहा है. वास्तविकता को स्वीकार कर रहा है और उससे बहुत कुछ सीख भी रहा है. देह नियन्त्रण में नहीं है यह सबसे पहली बात है. प्रतिपल सजग रहकर कोई मन को निराश होने से बचा सकता है, ईश्वर पर अटूट विश्वास रखकर वह सारे दुखों को हंसते-हंसते सह सकता है, लेकिन प्रारब्ध को नहीं बदल सकता. जब साधन भी भक्ति हो, साध्य भी भक्ति हो तो शारीरिक दुःख-पीड़ा का क्या महत्व रह जाता है ?

जब कोई अस्वस्थ होता है तो लगता है कि पुनः स्वस्थ होगा भी या नहीं, सामान्यत उसे ऐसा नहीं लगता था पर पिछले कुछ दिनों से तन में जो परिवर्तन दिखाई पड़ रहे थे, उसके कारण लगा शायद अब कुछ समय तक ऐसा ही चलने वाला है. विटामिन तथा कल्शियम लिया. जून खाने-पीने का बहुत ध्यान रखने लगे हैं, पहले सी दुर्बलता अब नहीं लग रही है. कल शाम पहली बार इस्कॉन के सत्संग में गयी थी. कीर्तन में मन कहीं खो गया. कृष्ण के नाम का उच्चारण होठों से होता हो, कान उसे सुनते हों, हाथ ताली बजाते हों, मन उसके रूप को देखता हो, नाक उसके सम्मुख रखे फूलों और अगर की सुगंध को सूँघती हो तो अश्रु कहाँ रुक पाएंगे. बहुत अच्छी तरह से दो सदस्यों ने प्रभुपाद द्वारा लिखी भगवद गीता को पढ़ा तथा उस पर चर्चा की. शाम के तीन घंटे कैसे बीत गये पता ही नहीं चला. आज शरद पूर्णिमा है, वे ‘मून लाइट मेडिटेशन’ करने वाले हैं. चावल की खीर भी पकाई है. आज गुरुजी को समर्पित उसकी किताब का उन्होंने कम्प्यूटर प्रिंट भी लिया है.    

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