Friday, July 10, 2015

भविष्य की दुनिया


आज उसने सुंदर वचन सुने, मन को मैला करने का स्वभाव यदि बनाया तो संवेदना दुखद होगी और फल भी दुःख ही होगा. निर्मल चित्त से किया गया कर्म सुख का कारण बनेगा. सत्कर्म करते हुए मन मुदित होता है, यदि मुदिता का स्वभाव ही बनता जाये तो फल भी मोद ही मोद के रूप में प्राप्त होगा.  

आजकल रोज सुबह डायरी नहीं खोल पाती, सुबह से शाम हो जाती है और फिर नया दिन. आज उनके यहाँ सत्संग है. नन्हा है इसलिए कमरा खाली करने में तथा पुनः सामान रखने में सुविधा होगी. जब भीतर से प्रेरणा मिलती है तब बाहर के सारे कार्य अपने—आप सधते चले जाते हैं. जीवन में एक निश्चिंतता आ जाती है, बेफिक्री और निडरता भी. तब वही होता है जो उचित होता है. जैसे अरविन्द घोष को अदालत में सारे लोग कृष्ण ही दिखाई देने लगे थे वैसे ही तब जगत में सभी के भीतर उस परमात्मा का दर्शन होने लगता है.


आषाढ़ का प्रथम दिन, नन्हा आज तिनसुकिया गया था, वहीं से डिब्रूगढ़ चला गया है, अभी कुछ देर पहले उसका फोन आया. जून का आज प्रेजेंटेशन है, दोनों देर शाम तक घर पहुंचेगे. आज सासू माँ का जन्मदिन है, पिछले वर्ष भी इसी दिन मनाया था. देखते-देखते समय बीत जाता है. नन्हे को कालेज जाना है, अगले वर्ष वह आज के दिन सेकंड ईयर का विद्यार्थी होगा, एक दिन पढ़ाई खत्म करके इंजीनियर बन जायेगा. बच्चे बहुत आगे की सोचते हैं, माता-पिता उनके जैसे बनने का प्रयत्न करें तो ठीक है पर वे उनकी तरह बनें ऐसी अपेक्षा करना मूर्खता ही होगी. उनके शरीर वे जरूर देते हैं पर उनके विचार उनके अपने हैं. वे भी आत्मा हैं और वे अपने आप में पूर्ण हैं जैसे माता-पिता आत्मा होने के नाते पूर्ण हैं. उनके विचारों में भविष्य की दुनिया है. समय सदा आगे बढ़ता है, पीछे नहीं लौटता. समय बदल रहा है, समय के साथ जो स्वयं को नहीं बदले पीछे रह जाता है. कुछ वर्षों बाद उनका जीवन भी पहले से अलग होगा. वे साधना में परिपक्व हो जायेंगे. हो सकता है उन्हें ईश्वर का अनुभव भी हो जाये, अभी जो कुछ भीतर अनुभूत होता है वह भी कुछ कम नहीं है. एक अजस्र आनंद का स्रोत भीतर बहता रहत है. जगत से उतना ही प्रयोजन रह गया है जितना जरूरी हो लेकिन स्वयं सुखी हो जाना ही काफी नहीं है, उनके आस-पास भी उस शांति की धारा का प्रभाव फैलना चाहिए जो वे अपने भीतर अनुभव करते हैं. कभी-कभी ध्यान में ऐसे अनुभव होते हैं जिनका उनके वर्तमान जीवन से कोई संबंध नहीं होता, सम्भवतः वे उनके पूर्व जीवन से संबंधित होते हैं. तब ज्ञान होता है कि इस शरीर से कैसा मोह, न जाने कितने शरीर वे धारण कर चुके हैं, हर बार वही कहानी दोहराई जाती रही है, बस, अब और नहीं, अब और इस झूले में नहीं बैठना जिसका एक सिरा जन्म फिर दूसरा नीचे मृत्यु की ओर ले जाता है. इसी जन्म को अंतिम जन्म बनाना है. मृत्यु से पूर्व ही आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना है, वे अपने स्वरूप में टिक तो जाते हैं पर यह स्थिति सदा नहीं बनी रहती. कभी मन भूत में खो जाता है कभी भविष्य में. अब भी झुंझला जाता है मन, भीतर का सूक्ष्म अहंकार ही क्रोध बनकर बाहर आता है, जब तक अहंकार शेष है, पर्दा बना रहेगा.

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