Wednesday, October 16, 2013

आंवले का पेड़


दिल की बातें समझें ऐसे लोग कहाँ मिलते हैं
दीवाने हम जैसे जग में रोज कहाँ खिलते हैं

धूप गुनगुनी चादर ओढें नदियों की भाषा भी बूझें
पत्थर-पत्थर पाँव बढ़ाएं ऐसे कदम कहाँ चलते हैं

आँखों से मन पढने वाले खो गये वे दिल मतवाले
भूले भूले से कुछ वादे अब शाम हुए से ढलते हैं

Be happy ! it is a way of being wise !
This is a golden advice, few moments earlier she was so miserable but now heart is swinging with swing.
बाल्मीकि रामायण में किषिकंधा काण्ड के अंतर्गत राम के मुख से ‘चौमासे’ का वर्णन अद्भुत है, कल्पना की उड़ान कहाँ से शुरू होकर कहाँ तक जाती है. उपमाएं भी नवीन हैं और भाषा इतनी सुंदर, उस काल में भी मन बादलों को देखकर कैसी अनोखी कल्पनाएँ किया करता था, कवि कालातीत होता है. वह हर युग में ऐसा ही रहेगा, भाव प्रवण हृदय लिए प्राकृतिक सुन्दरता से विभोर ! वह अपने हृदय में भी उन सभी विधाओं को उमगते, विकसित होते देखता है जैसे बाहर. उसका दिल और प्रकृति कब एक हो जाते हैं पता ही नहीं चलता संसार के सबसे सुंदर गीतिकाव्यों , महाकाव्यों में से है रामायण और रामायण में प्रक्रति का सुंदर चित्रण ! कल रात बल्कि सुबह  पौने तीन बजे नन्हा बेड से नीचे गिर गया, वह तो झट दुबारा सो गया पर उसे बाद में नींद नहीं आई. सुबह जून भी यही कह रहे थे.

कल दोपहर नन्हा अपने प्रोजेक्ट वर्क के लिए मैप बना रहा था, वे खाना खाकर लेटे ही थे कि  नन्हे ने आकर कहा कोई मित्र आए हैं, उसे इस वक्त किसी के आने की उम्मीद नहीं थी, पर उसकी वह सखी सीधा कमरे में ही आ गयी और उस दिन के व्यवहार के लिए क्षमा मांगने लगी, उसकी भी आँखें भर आयीं, और कुछ ही मिनटों में सारे गिले शिकवे दूर हो गये.

पिछले आधे घंटे से कुछ ज्यादा समय से वह पत्रिका के लिए कोई अच्छी कविता खोज रही थी, पर उसे लगा डायरी में लिखी सारी कविताएँ मन की अकुलाहट को प्रकट करने का साधन मात्र हैं, इतना तो समझ में आया कि दुःख एक सिलसिला है जो आगे भी जारी रह सकता है. यूँ भी सुख-दुःख जीवन में लगा ही रहता है. ऐसी कविता जो महज आत्मकाव्य के घेरे से बाहर आ सके अर्थात सबके पढ़ने के योग्य हो अथवा जिसका आयाम विस्तृत हो, सिर्फ दो हैं, जून ने भी उन्ही दो को ठीक करने को कहा है. लेख लिखने का समय शायद ही मिले. उसने बाहर जाकर देखा माली ने आंवले का पेड़ काफी काट दिया है, कटी हुई डालियों से बच्चे आंवले तोड़ रहे हैं. एक बूढ़ा  उनके यहाँ आंवले लेने आया करता था, उसने सोचा तुड़वा कर कुछ उसके लिए रखेगी,.

कल शाम को उन्हें यात्रा पर निकलना है, पहाड़ अपनी ओर खींच रहे हैं, बर्फ से ढकी चोटियां उन्हें निमन्त्रण दे रही हैं और मन में ख़ुशी लिए वे कल अपनी यात्रा आरम्भ करेंगे. ईश्वर उनके साथ है. आज पहली बार उसने दो स्वेटर पहने हैं, धूप में बैठना भला लग रहा है., पहाड़ों पर तो शायद तीन-चार पहनने पड़ें. जाने की तैयारी भी आज करनी है. ढेर सारे गर्म कपड़े, शालें, स्कार्फ, टोपियाँ, जुराबें और दस्ताने. कल सारे कार्ड्स पर जून ने पते लिख दिए, नये वर्ष से पहले ही सबको मिल जायेंगे. नन्हे के स्कूल में स्पोर्ट्स मीट चल रही है, कल उसने तीन events में भाग लिया, खेलकूद में उसकी उतनी रूचि नहीं है जितनी पढ़ाई में, जैसे वे भाई-बहन थे बचपन में. आज उसे जून का स्वेटर पूरा करने की पूरी कोशिश करनी है, सो वह उसी क्षण से जुट गयी.

शनिवार, ३ बजे हैं दोपहर बाद के. दो घंटे बाद उन्हें निकलना है, अगले दो घंटों में उन्हें तैयार होना है, नाश्ता खाना है और साथ के लिए पैक करना है. उसने सोचा एक बार अपने साथ बैठकर सभी चीजों का जायजा ले ले, यानि सभी कुछ व्यवस्थित करने के साथ अपने विचारों को भी व्यवस्थित कर ले. सुबह उसकी पड़ोसिन का फोन आया, उसे गुजराती स्टिच सीखना था, उसने बताया तो है पर वापस आकर पुनः बताएगी. एक हफ्ते के लिए घर से दूर जाते वक्त मन थोड़ा सा आशंकित तो है, ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि देगा और खास तौर से उसे कि सही निर्णय ले सके. छोटे-छोटे निर्णय, क्योंकि बड़े-बड़े तो जून के सुपुर्द हैं, उनके सुपुर्द कर दिया है स्वयं को और वह  सक्षम हैं उन्हें हर हाल में सुरक्षित रखने में. सो अब इस डायरी से विदा लेती है, वापस आकर फिर मिलेगी.

Tuesday, October 15, 2013

स्वप्नों का संसार



आज सुबह वह उठी तो रात देखे सपनों की बातें दिमाग में स्पष्ट थीं, अजीबोगरीब सपने, सोने से पहले टीवी सीरियल देखकर सोयी थी, जिसमें murder, kidnapping, war सभी कुछ था, इसी वजह से और उनकी यात्रा के प्रति आशंका लिए मन रात भर कल्पनाएँ बुनता रहा. एक नृत्यांगना भी देखी जो अख़बारों में English column भी लिखती है और भी कई बेसिर पैर की बातें... कल शाम क्लब में उसने जून से कहा, वह उसके बैडमिंटन खेल को प्रोत्साहित नहीं करते हैं, तो उन्होंने पता नहीं इसका क्या अर्थ लिया, उसे लगा, इन्सान अपने अलावा और किसी से भी अपने मन की बात नहीं कह सकता. बाद में एक बालिका से टीटी में हार गयी, खैर.. उसका अफ़सोस नहीं हुआ बल्कि आनन्द आया. लाइब्रेरियन ने पिछले हफ्ते ली एक साप्ताहिक पत्रिका north-east वापस करने के लिए कहा था, रद्दी में चली गयी है शायद, उसके बदले में कोई और पत्रिका देने से शायद काम चल जाये. सुबह-सुबह नन्हे को भी उपदेश सुनने पड़े...उसे लगता है कि उनका कोई असर होने वाला नहीं है सो चुप रहना ही बेहतर है, वह अपनी प्रक्रति के अनुसार एक ढर्रे में ढलता जा रहा है जिसे बदलना सम्भव तो है पर मुश्किल भी है.

इस वक्त उसका मन एक ऐसे दुःख को अनुभव कर रहा है जिसका अहसास पहले कभी नहीं हुआ, यदि हुआ होगा तो बरसों पहले जब किसी सखी ने स्कूल या कालेज में उसका दिल तोडा होगा. आज ऑंखें भरी हैं और दिल भारी, एक सखी के कुछ शब्द कानों में अब भी ताजा हैं, एक मित्रता की मौत कैसे होती है यह तो पता नहीं पर कहीं गहरे कुछ चटक जरुर गया है.

डायरी उठाई तो एक दर्द भरी कविता अंगड़ाई ले रही थी. सच ही है दुःख मानव को सृजनशील बनाता है. कल रात भी सपने देखती रही और एक पहेली का हल जो पहले नहीं मिल रहा था, काफी देर बाद मिल ही गया. सपने में ही पायी वह ख़ुशी अब भी याद है, कैसा सुकून मिला था, पर सपने आखिर सपने ही होते हैं. पहले-पहल जब आँख खुली तो शायद उसी स्वप्न की वजह से मन हल्का लगा कि शायद सब कुछ भुला दिया है पर कहाँ, जरा सा होश आया नहीं कि वही दंश भरे शब्द कानो को बेंध कर दिल को चीरते चले गये, शायद वह overreact कर रही है. उसे इस वाकये को इतनी अहमियत नहीं देनी चाहिए, पर उसका मन, उसका पागल मन किस कदर जुड़ा था, उसे ऐसी ठेस लगने पर प्रतिक्रिया स्वाभाविक नहीं क्या ? समय धीरे-धीरे सारे घाव भर देता है पर एक मित्र का दिया घाव ऐसा गहरा होता है कि समय के पास भी उसकी कोई दवा नहीं होती.. क्यों नहीं होती होगी अगर कोई लेना चाहे और न मिले ऐसा तो हो ही नहीं सकता, अचानक उसके मन के भावों में जोश भरने का श्रेय एक अन्य परिचिता को है, जो क्लब की पत्रिका के लिए कुछ लिखने का वायदा कर चुकी हैं, पहले भी वादे तो बहुतों ने किये पर निभाएं ऐसे लोग कम ही होते हैं. कल शाम जून ने जब उसका चेहरा देखा तो समझ गये, कुछ हुआ है. उस वक्त की उनकी परेशानी और उसके दुःख को अपना दुःख समझने की वह कोशिश ...उस पल वे दोनों कितना करीब आ गये थे, एक ही सोच में बंधे हुए, सुख की चरम सीमा में भी शायद इन्सान ऐसे ही बंध जाते हैं. ख़ुशी की याद आ रही है.. उसने सोचा, लक्षण तो अच्छे हैं, लगता है जल्दी ही इस सदमे से उबर जाएगी. पर पिकनिक के लिए जिस जोश और मूड की जरूरत होती है वह कहीं मर गया है.


Sunday, October 13, 2013

सिक्किम की सैर


फिर एक अन्तराल.. आजकल सुबह रजाई से निकलने का मन नहीं होता, ठंड बढ़ गयी है. नन्हा भी आजकल उठने में आनाकानी करता है, यूँ तो वह हर मौसम में करता है. ‘जागरण’ भी नहीं देख पाती और कोई अच्छी किताब भी नहीं पढ़ी है. कविता भी नहीं लिखी. पढ़ना-लिखना आजकल  बस अख़बार या इक्का-दुक्का पत्रिकाएँ पढ़ने तक ही सीमित रह गया है. क्लब मीट आने वाली है, पत्रिका के लिए मांगें तो प्रेरित होकर वह झट लिख सकती है, उसने सोचा ही था कि एक फोन आया क्लब की कमेटी के एक सदस्य का. इसी महीने वे लोग दार्जिलिंग जाने की बात सोच रहे हैं. साल का अंतिम महीना शुरू हुए पांच दिन बीत गये हैं, कुछ हफ्तों बाद नया साल आ जायेगा और इसी तरह साल दर साल गुजरते जायेंगे, नन्हा बड़ा हो जायेगा और...

छोटी बहन और मंझले भाई के पत्र आए हैं, जिनमें जवाब देने लायक बाते भी हैं. बहन ने अपनी जिस समस्या का जिक्र किया है वह उसके साथ भी है हूबहू वही. भाई ने अपने तबादले का जिक्र किया है. श्रीनगर में हुए बम विस्फोट में फारुख अब्दुल्ला बाल-बाल बचे, शांति और विश्वास (जो लोगों की शक्ति पर निर्भर है) की जीत होगी और हिंसा चाहे कितना भयानक रूप धारण कर ले एक दिन उसे मरना होगा क्योंकि अमन पसंद आदमी की जिन्दगी में उसकी कोई जगह नहीं. जून और नन्हा British comedy देखने के लिए तैयार हैं और वह भी कुछ देर पहले शुरू हुए सिर के दर्द को भूलकर बस हँसना चाहती है.

जून ने फोन पर बताया, २२ तारीख को उनकी सीट रिजर्व हो गयी है यानि वे दार्जिलिंग और सिक्किम जा ही रहे हैं. एक सहयात्री परिवार भी उनके साथ जा रहा है. बहुत दिनों बाद डीडी पर कवि सम्मेलन का एक अंश सुना ‘अंगड़ाई न लो चैत का आलस्य बिखर जायेगा’. अच्छी कविता थी. किसी सखी से एक किताब लायी थी, अभी शुरू भी नहीं की है, उसमें रूचि ही खत्म हो गयी है. वह बातें व्यवहारिक नहीं लगतीं या कहें कि उन पर चलना बहुत मुश्किल है. आजकल उसका अध्यात्मिक ग्राफ निचली तरफ जा रहा है फिर एक दिन कोई झटका लगेगा और ऊपर की ओर चढ़ना शुरू होगा. कभी रुककर, थम कर आराम से बैठकर अंतर में झांके तो पता चले कि वहाँ कितना सूनापन भर गया है. लेकिन दुनियादारी के प्रलोभनों में पड़ा मन कहीं विश्राम लेना ही नहीं चाहता, हर वक्त किसी न किसी उधेड़बुन में लगा ही रहता है तो भला जरूरत ही कहाँ महसूस होगी उसे तारनहार की. एक तरह से यह भी ठीक है, हर वक्त काम में लगे रहना, खाली न बैठना भी राजयोग का एक लक्ष्ण है, और उसे काम करना, करते-करते थक जाना अच्छा लगता है. जैसे कल टीटी की wall प्रैक्टिस करते समय महसूस हो रहा था.

पीटीवी पर एक आर्टिस्ट नजीर के बनाये खूबसूरत लैंडस्केप देखे, जिनसे नजरें हटाना मुश्किल था, इतने सुंदर चित्र भी बनाये जा सकते हैं, इन्सान भी एक जादूगर से कम नहीं. आज सुबह समाचर सुनते वक्त ख्याल आया कि कहीं अचानक वह मर जाये तो इन डायरियों का क्या होगा, जून इन्हें संभाल कर तो रखेंगे या फिर यूँ ही किसी के हाथ लग जाएँ और...कल दोपहर जून एक बड़ा सा पार्सल लाये, सलाद काटने के लिए SUZI CHEF नाम की एक hand operated मशीन भी थी  उसमें, सलाद अच्छा कटता है उसमें, अभी और कुछ तो काटकर देखा नहीं है. इस बार पिकनिक पर जाने का विशेष उत्साह है, सर्दियां ज्यादा खुशनुमा हैं इस बार, धूप खिली रहती है. इस समय भी लॉन में धूप पीछे पीठ को छूती हुई निकल रही है. कल शाम गुलाब के पौधों से मिलकर झड़ चुके गुलाबों की टहनियों को काटा, गुलदाउदी के पौधों को बांधा, पानी दिया. नन्हे के लिए नाईट ड्रेस सिली, जून और नन्हे दोनों ने ही तारीफ करके उसका हौसला बढ़ाया है.





Wednesday, October 9, 2013

गर्मागर्म पकौड़े


आज दिन बदली भरा है, सो हल्की ठंडक महसूस हो रही है आज काम जल्दी समाप्त करके उसे टोपी बनानी है. शाम को एक सखी के घर जाना है, उसका जन्मदिन है, उसके हाथ में हरी मिर्च छूने से जलन हो रही है, किसी पत्रिका में इसके मिटाने का उपाय पढ़ा था पर याद नहीं है, वक्त पर याद न आये ऐसे पढने से क्या लाभ, वह पत्रिकाएँ पढकर बहुत जल्दी ही भूल जाती है. लेडीज क्लब की मीटिंग में एक सरप्राइज गेम था, पर न तो वह विज्ञापन ही पहचान सकी न कलाकारों के चित्र, किसी ने कहा आप इतनी पत्रिकाएँ पढ़ती हैं, ठीक ही कहा, उसे ज्यादा पहचान होनी चाहिए, पर वह विज्ञापन न तो देखती है न पढ़ती है. टीवी पर ‘झूठी’ फिल्म आ रही है, माँ-पिता बहुत शौक से देख रहे हैं. कल शाम असमिया सखी बहुत दिनों बाद आयी, उसने पकौड़े बनाये, और लगा कि उसमें तेल बहुत लगता है, इतना तेल स्वास्थ्य के लिए शायद ठीक नहीं है, अच्छा है कि वह साल में एक या दो बार ही बनाती है. कल दोपहर ‘बुनियाद’ देखा, अच्छी लगती है लाजो जी की बातें और हवेलीराम का उसे ‘लाजो जी’ कहना. नन्हे का आज हाफ डे है, २६ से उसकी परीक्षाएं शुरू होने वाली हैं शायद इसीलिए. नैनी बगीचे से मूला का साग तोड़ कर लायी है, इस वक्त काट रही है.

  
ठंड एकाएक पिछले दो दिनों से बढ़ गयी है, कल सारे स्वेटर, स्कार्फ आदि निकाल दिए, आज धूप दिखाने के लिए रखे हैं. जून आज सुबह माँ-पिता को गोहाटी तक छोड़कर वापस आ गये, उस दिन जब वे जा रहे थे उसकी आँखें भर आई थीं. उनका रहना उसे अच्छा भी लगा और कुछ बंधन सा भी था. फिर इतवार और कल का दिन नन्हे को पढ़ाते व पढ़ते बीते. इस बार उसे पढ़ाने में मेहनत कम लग रही है, जैसे-जैसे बड़ा हो रहा है उसे याद करने की अथवा रटने की जरूरत कम होती जा रही है.

पिछले दो दिन फिर मौन, कल सुबह आशा पारेख और धर्मेन्द्र के अभिनय में उलझी रही और परसों एक पुराने मित्र के लिए लंच बनाने में, पता नहीं क्यों उनसे मिलकर वह जिसे कहते हैं न दिल से ख़ुशी होना, वह नहीं हुई, जून भी उतना खुलकर नहीं मिले जैसे अन्य मित्रों से मिलते हैं. वह अपने दिल्ली वासी होने के या विदेश भ्रमण करने के गरूर में खोये से लगे खैर.. नन्हे से कहकर उनके बेटे के लिए कार्ड अवश्य बनाना है. कल रात जून से और भी कार्ड बनाने की बात कही थी, नया साल आने वाला है और उन्हें कई जगह कार्ड भेजने हैं. आज धूप नहीं निकली है सूरज बादलों के पीछे छिपा है, सर्दियों में धूप की कीमत कितनी बढ़ जाती है. जून आजकल खुश रहते हैं, कुछ दिनों की नियमित दिनचर्या से मिली आजादी को अच्छी तरह enjoy करते हुए ! कल पूरे एक महीने बाद उसने पत्रों के जवाब दिए, फोन और पत्र दूरियों को कम कर देते हैं.

अपने–अपने घरों में कैद
खुद से बतियाते
अपने इर्दगिर्द ब्रह्मांड रचने वाले लोग
क्या जानें कि नदी क्यों बहती है
दूर बीहड़ रास्तों से आ
ठंडे पानी को अपने अंक में समेटे
तटों को भिगोती, धरा को ठंडक
पहुंचाती चली जाती है
क्यों सूरज बालू को सतरंगी बनाता
नदी की गोद से उछल कर शाम हुए उसी में सो जाता है
आकाश झांकता निज प्रतिबिम्ब
संवारते नदी के शीशे में वृक्ष भी अपना अक्स
सदियों से सर्द हुआ मन
धूप की गर्माहट पाकर पिघल कर
बहने लगता है नदी की धरा के साथ
बर्फ की चादर से ढका धरा का कोना
जैसे सुगबुगा कर खोल दे अपनी आँखें
नन्हे नन्हे पौधों की शक्ल में
मन की बंजर धरती पर भी गुनगुनी धूप
की गर्माहट पाकर गीतों के पौधों उग आयें
हल्की सी सर्द हवा का झोंका घास को लहराता हुआ सा
जब निकल जाये
तो गीतों के पंछी मन के आंगन से उड़कर
नदी के साथ समुन्दर तक चले जाँए..
धूप की चादर उतार, शाम की ओढ़नी नदी ओढ़े जब
सिमट आयें अपने-अपने बिछौनों में
अगली सुबह का इंतजार करते कुछ स्वप्न