Friday, January 29, 2016

हुम्मस की रेसिपी


आज ध्यान में पूरा एक घंटा नहीं बैठ सकी, नाश्ता करने के बाद कुछ भारीपन लग रहा था और ठंड भी. लेकिन ध्यान का अनुभव अच्छा था. श्वेत रंग का प्रकाश दिखा तथा सोहम् की धुन सुनाई दी. भीतर कितनी ध्वनियाँ तथा कितने प्रकाश छिपे हैं, वे बाहर ही देखते हैं बाहर का सुनते हैं, जो एक ही जैसा है पर भीतर की दुनिया अचरज से भरी है. भीतर का सब कुछ नया है अभी उसके लिए, हर पल कुछ नया ही होता है. कल शाम ऑयल पर हिंदी में लिखे एक लेख को वे थोड़ा ठीक-ठाक करते रहे, जून उसकी कविता भी दे रहे हैं क्योंकि स्वर्ण जयंती के अवसर पर प्रकाशित होने वाली पत्रिका में हिंदी में लिखे लेख बहुत कम मिल पाए हैं. उसे भी ऑयल से जुड़े किसी विषय पर एक लेख लिखना है, जून से सहायता लेनी होगी. नैनी की बेटी के रोने की आवाज आ रही है, उसके पैर पर लगी चोट पर उसके पिता पट्टी बाँध रहे हैं. नैनी अपने बेटे को प्यार से पुकार रही है, प्रेम कहीं भी हो सब सुंदर कर देता है. आज धूप खिली है. उसने ‘हुम्मस’ बनाया है, काबुली चने की अरब देश में खायी जाने वाली चटनी, पर वैसा नहीं बना है, उसे और पीसने की आवश्यकता है सम्भवतः. आज गुरूजी ने ‘नारद भक्ति सूत्र’ पर बोलना शुरू किया है. दम्भ, अहंकार, आसक्ति बाँधते हैं, वे निर्दोष भाव में रहकर स्वयं को मुक्त रख सकते हैं. जहाँ कोई अहंकार न हो, प्रेम ही झलकता हो, सहज प्रेम जिसमें कोई प्रदर्शन नहीं है. मुम्बई में बाबा रामदेवजी का योग विज्ञान शिविर चल रहा है, जहाँ एक जैन मुनि भी आये थे. कितना सुंदर भाषण उन्होंने दिया. देश में सौ करोड़ की लागत से पुराने ऐसे स्थान नये बनाये जा रहे हैं जहाँ पशुओं की हत्या की जाती है. जो लोग ऐसा जघन्य काम करते हैं, वे स्वयं भी पशु योनि में जन्म लेते हैं तथा मारे जाते हैं.

आज फिर धूप गायब है, लेकिन भीतर का सूरज खिला है ध्यान का, प्रेम का, मस्ती का और रचनात्मकता का सूरज ! दस बजने को हैं, जब तक बच्चे आते हैं, उसे कुछ खास कार्य करने हैं. बुआजी तथा फुफेरी बहन को फोन करना है. दीदी को भी उनकी सुखद यात्रा के लिए शुभकामनायें देनी हैं वह कल दुबई जा रही हैं, कोहरे के कारण फ्लाइट लेट भी हो सकती है, तथा नया लेख लिखने की तैयारी करनी है. अभी-अभी फोन पर बात की, फुफेरी बहन बीमार होने पर भी उत्साह से भरी है. उसके दोनों गुर्दे खराब हो गये हैं, पर जीने का उत्साह जरा भी घटा नहीं है. जिजीविषा ही है जो भयानक से भयानक रोग से लड़ने की शक्ति भीतर भर देती है. नैनी की बेटी पढ़ने आ गयी है, गाना गाते-गाते गृह कार्य कर रही है. आज लंच में मकई की रोटी बनानी है, सरसों की जगह मूली का साग.


आज भी कल के सूत्रों को आगे बढ़ाया गुरूजी ने, जो भक्त होता है वह स्थूल जगत को आनन्दित करता ही है, सूक्ष्म जगत को भी प्रभावित करता है. आज जून ने सिन्धी साईं दादा जेपी वासवानी के बताये तीन वाक्य बोले- God is with me, God is watching me, God is witnessing me. वह भी धीरे-धीरे रंग ही जायेंगे, आखिर कब तक कोई परमात्मा से दूर रह सकता है. वे अपना जीवन तभी तो प्रेममय तथा शांतिमय बना सकते हैं जब विकारों से दूर हों ! ..और विकारों से दूर होने की शक्ति उन्हें परमात्मा से मिलती है, जब उसके प्रेम का अहसास होता है. इस क्षण मन शांत है, अभी-अभी ध्यान करके उठी है, कुछ दृश्य बिलकुल स्पष्ट दीखते हैं ध्यान में सामान्य अवस्था से भी स्पष्ट, भीतर ही यह सारा ब्रह्मांड छिपा है. कल ‘विवाह संस्कार’ पर कुछ लाइनें लिखीं. कल्याण के संस्कार विशेषांक से पढ़कर. पति-पत्नी को एक मन होना ही चाहिए नहीं तो सिवाय तनाव के कुछ हाथ नहीं आता, लेकिन सत्य का आश्रय लेकर ही, अन्याय में गलत कार्य में साथ दिया तो दुःख ही मिलेगा.. इस हफ्ते कई विवाह कार्ड मिले, सभी को बधाई संदेश भी भेजने हैं. इस ठंड में भी बच्चे पढ़ने आये हैं, ज्ञान पाने की इच्छा मानव में नैसर्गिक रूप से होती है. 

Thursday, January 28, 2016

‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’ का ‘एडवांस कोर्स’


उसे स्मरण हो रहा है पिछले वर्ष लगभग इन्हीं दिनों में वे ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’ का ‘एडवांस कोर्स’ करने गये थे. उसने ढूँढ कर वह डायरी निकाली जिसमें उन तीन-चार दिनों का जिक्र था. वे संध्या के वक्त डिब्रूगढ़ के एक होटल पहुंचे थे. बाहर ही आयोजन कर्ता व एक टीचर खड़े थे, जो उन्हें अंदर ले गये, धीरे-धीरे और लोग भी आते गये. देर शाम तक सभी को कमरे मिल गये. ठंड बहुत थी सो वे सामान आदि सेट करके रजाई में बैठकर टीवी देख रहे थे कि फोन आया. एडवांस कोर्स के शिक्षक  आ गये हैं तथा सभी को संबोधित करेंगे.  होटल के सामने ही एक विवाह भवन था, वहाँ भी कुछ लोग ठहरे थे. उसी के प्रांगण में लोग कुर्सियों पर बैठे थे तथा ऋषि जी सभी को होने वाले कोर्स के बारे में कुछ समझा रहे थे.
अगले दिन सुबह पौने छह बजे वे उस मन्दिर के लिए निकले, जहाँ के विशाल प्रार्थना भवन में  कोर्स होना था. साढ़े चार बजे उठकर नहा-धोकर वे तैयार हो गये थे. छह बजे से ही कोर्स आरम्भ हो गया. दो महिला शिक्षिकाओं ने अगले चार दिनों तक छह से साढ़े आठ बजे तक जॉगिंग, आसन, व्यायाम तथा भारतीय ग्रामीण महिला के रोजमर्रा के कार्य, जानवरों की नकल, हॉकी, कबड्डी आदि खेल खिलाकर सभी को खूब हंसाया. उसके बाद नाश्ते के लिए निकट ही स्थित रोटरी क्लब के हॉल में जाते थे. पोहा या दलिया, हर्बल टी था एक फल का पौष्टिक नाश्ता बहुत स्वादिष्ट लगता था. इसके बाद सभी समूह (पांच समूह बना दिए गये थे ) सेवा के कार्य में लग जाते थे. उन्हें एक-दो बार बर्तन धोने का काम मिला. एक बार शौचालय की सफाई का तथा एक बार ध्यान कक्ष की सफाई का काम मिला, सभी मन से सेवा करते थे. दस से एक बजे तक साधना का पहला सत्र तथा तीन से छह तक दूसरा सत्र चलता था. दोपहर एक बजे भोजन मिलता था जिसमें बिना तेल-मसाले की सब्जी, दाल-चावल, सलाद तथा चुपड़ी हुई रोटी होती थी. भोजन हल्का व सत्विक था. शाम का भोजन छह बजे ही मिल जाता था, उसके बाद सांध्य भ्रमण तथा सात बजे सत्संग शुरू होता था, आठ बजे वे अपने होटल आ जाते थे.
अगले दिन शिक्षक ने उन्हें बताया कि उनके भीतर दस तरह के प्रेम हैं जो विकारों के कारण हैं. जब वे इन सभी तरह के प्रेम से आगे बढ़कर उसे ईश्वर, गुरु या आत्मा के प्रति समर्पित कर दें तो धीरे-धीरे ये विकार भी जीवन में नहीं रहते. ये दस प्रेम हैं-
अपने व्यक्तित्व से प्रेम – अहंकार
व्यक्ति विशेष से प्रेम – मोह
अपने परफेक्शन से प्रेम – क्रोध
दूसरों के परफेक्शन से प्रेम – जड़ता
अपने रूप से प्रेम – ईर्ष्या
अपनी कल्पना से प्रेम – कामना
वस्तुओं से प्रेम – लोभ
भूतकाल से प्रेम – नीरसता
भविष से प्रेम - डर  

उनका मूल स्वभाव तृप्ति, उत्सुकता, प्रेम तथा कृतज्ञता का है. ये सब भाव हैं लेकिन क्रोध, लोभ, मोह आदि भावनाएं हैं. ध्यान के लिए दो सुंदर सूत्र बताये-
१.      किसी की भावनाओं का तथा विचारों का बाहर की घटनाओं से कोई संबंध नहीं है. वे उन्हें घटनाओं से जोड़ देते हैं.
२.      मन के स्तर पर जो भावना है शरीर के स्तर पर वह तरंग या संवेदना है. यदि उन्हें भावना से मुक्त होना है तो साक्षी भाव से शरीर में हो रहे स्पंदनों को देखना चाहिए. साक्षी भाव से देखने पर नकारात्मक स्पंदन बदल कर सकारात्मक हो जाता है तथा सकारात्मक ऊपर उठ जाता है.
शिक्षक ने सारे चक्रों में रहने वाली भावनाओं तथा भावों की भी जानकारी दी.
सहस्रार चक्र – परमानन्द
आज्ञा चक्र – क्रोध, ज्ञान, सजगता
विशुद्धि – पश्चाताप, कृतज्ञता
अनहद – नफरत, डर, प्रेम
मणिपुर – ईर्ष्या, लोभ, उदारता, तृप्ति
स्वाधिष्ठान – वासना, सृजनात्मकता
मूलाधार – जड़ता, उत्साह

कोर्स के दौरान उन्होंने गुरूजी के वीडियो सीडी भी देखे. जिसमें ‘मौन की महत्ता’ तथा ‘साधन चतुष्ट्य’ प्रमुख थे. गुरूजी ने कहा साधक को न तो स्वयं पर, न समाज पर, न साधना की पद्धति पर तथा गुरु पर कभी संशय नहीं करना चाहिए, बल्कि स्वयं में ज्ञान को उतार कर पहले परखना चाहिए. साधक के पास साधना के चार सोपान हैं- विवेक, वैराग्य, षट् सम्पत्ति तथा मुमुक्षत्व.
विवेक के द्वारा वे स्थायी, अस्थायी, नित्य-अनित्य, सुख-दुःख का भेद करते हैं.
देखे हुए तथा सुने हुए विषयों के प्रति तृष्णा का शांत हो जाना वैराग्य है.
शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा, समाधान षट् सम्पत्ति हैं.
शम – मन का नियन्त्रण
दम – इन्द्रियों का नियन्त्रण
तितिक्षा – सहन शक्ति
उपरति – कार्य में अंत तक उत्साह रखना
समाधान – वर्तमान में आनंदित रहना
मुमुक्षत्व है अपने जीवन में दुःख को देखकर उससे मुक्त होने की आकांक्षा. दुःख से मुक्ति उन्हें सुख की ओर और सुख प्रेम की ओर ले जाता है, तथा प्रेम अंत में भक्ति की ओर, भक्ति ऐसा प्रेम है जहाँ दूसरे की आवश्यकता नहीं है. 

अगले दिन सुबह छह बजे से ही मौन आरम्भ हो गया था जो चौथे दिन दोपहर तक चला. उन्होंने कई ध्यान तथा क्रियाएं कीं. एक ध्यान में आती-जाती श्वासों को ध्यान से देखना था तथा एक अन्य ध्यान में हर चक्र पर तीन मिनट ध्यान करना था. ज्ञान के दो सूत्र भी दिए गये.
१.      शिकायत करना दानवी प्रवृत्ति है.
२.      प्रशंसा करना दैवीय गुण है.
इस तरह मन को उत्साह से भरे और ज्ञान की सम्पदा को समेटे वे वापस लौटे.       

  

Wednesday, January 27, 2016

मेहनतकश मजदूर


अनुकूल संयोग यदि भोजन हैं तो प्रतिकूल संयोग विटामिन हैं. जीवन में जो कुछ भी अच्छा-बुरा मिलता है, स्वयं के ही कर्मों का फल होता है यदि ऐसी किसी की मान्यता है तो दुखों के आने पर उसे प्रसन्न होना चाहिए कि एक बुरा कर्म कट रहा है. भीतर समता बनाये हुआ जब कोई हर परिस्थिति को झेल जाता है तो भविष्य के लिए कोई कर्म बंधन भी नहीं बांधता. आज भी ध्यान में कुछ अलग अनुभव हुआ. एक सखी ने फोन किया, उसने स्वप्न देखा कि उसके घर में वह अपने जन्मदिन पर नृत्य कर रही है. अद्भुत है यह स्वप्न, उसका मन तो आजकल सदा ही नृत्य करता है कदम भले ही स्थिर हों. परसों एक दूसरी सखी की बिटिया का पहला जन्मदिन है, उसके लिए जो कविता लिखी थी, उसे टाइप करना है. कल शाम सत्संग था उसके बाद भोजन का भी प्रबंध था, समूह भोज का अपना ही स्वाद होता है. सुबह जून से बात हुई, वह ठीक हैं. एक समय था जब अकेलापन उसे खलता था, एक आज का वक्त है जब एकांत उसे भाता है, नितांत एकांत ! जब एक वही होता है कोई दूसरा नहीं होता. एक में कितनी शांति है, अद्वैत ही उनका लक्ष्य है, जहाँ दो हुए, सारे विकार आए.

ब्रह्म का बीज लिए तो सब आते हैं पर बिन बोये ही चले जाते हैं, ऐसे बीज और कंकर में अंतर भी क्या. हर मन की गहराई में ब्रह्म छिपा है पर जैसे बीज को मिटना होता है फूल खिलने के लिए, मन को भी मिटना होता है तभी ब्रह्म का फूल खिलता है. जिस दिन मन जान लेता है कि उसके होने में ही बंधन है तब यह स्वयं को सूक्ष्म करने की प्रक्रिया प्रारम्भ करता है. यह ‘मैं’ का पर्दा मखमल से मलमल का करना है, जिस दिन मन पूरा मिट जाता है उस दिन परमात्मा ही बचता है.  जीवन में दो ही विकल्प हैं, या तो ‘मैं’ भाव में जियें या प्रेम भाव में. जगत और परमात्मा दो नहीं है पर वह तभी दिखाई देता है जब संसार माया हो जाता है. अभी मन खाली नहीं है, भीतर कोलाहल है, इसे शांत करके ही मन महीन किया जा सकता है. जो जितना सूक्ष्म होता जायेगा उतना ही शक्तिशाली होता जायेगा. वह चट्टान सा दृढ़ भी होगा और फूल से भी कोमल. वह होकर भी नहीं होगा और उसके सिवा कुछ होगा भी नहीं, सारे द्वंद्व उसमें आकर मिट जयेंगे. वह होने के लिए कुछ करना नहीं है. वह तो है ही, केवल उसे जानना भर है. मन को खाली करना ऐसा तो नहीं है कि कोई बर्तन खाली करना हो. कामना को त्यागते ही या समर्पण करते ही मन ठहर जाता है. ठहरा हुआ मन ही खाली मन है !

कल रात स्वप्न में गुरूजी को देखा, सुबह तक उसकी स्मृति बनी हुई थी. इस समय दोपहर के ढाई बजे हैं, घर में रंगाई-पुताई का काम चल रहा है, सब सामान फैला है पर इस बिखराव में भी एक सौन्दर्य है. काम खत्म हो जाने पर जब सब सामान पूर्ववत् रख दिया जाता है तो कैसा संतोष भीतर जगता है. ये मजदूर जो दूसरों के घर सजाते हैं अपने कपड़े भी गंदे कर लेते हैं, उनके हाथ भी कितने रूखे हो जाते होंगे, पेंट छुड़ाते-छुड़ाते. इस दुनिया में हजारों पेशे करने वाले लोगों का समाज है, घटिया से घटिया काम भी और बढ़िया से बढ़िया भी, लेकिन हर काम की जरूरत तो है ही. उसका मन इन मजदूरों की ओर जाता है तो उनको कुछ देने की इच्छा होती है. चाय के साथ चंद बिस्किट देकर वह अपनी इस इच्छा की पूर्ति कर लेती है. आज सुबह से ही लग रहा है कि सद्गुरु का वरदहस्त सिर पर है. वह परमात्मा ही सदगुरुओं के रूप में समय-समय पर अवतरित होता है, उन्हें जो पहचान लेता है वह स्वयं का दीपक भी जलाने का इच्छुक हो जाता है. कृपा तो हरेक पर समान रूप से बरसती है पर कोई-कोई उस कृपा को अपने जीवन में फलीभूत होने का अवसर देते हैं. वे मस्ती में खोये रहते हैं. वे अपने भीतर आनन्द के स्रोत से जुड़ जाते हैं. ध्यान और प्रेम के पथ पर निडर होकर कदम रख देते हैं. ऐसा पथ जो प्राप्ति भी कराता है और गति भी भी प्रदान करता है !

       

Sunday, January 24, 2016

कविता का अहसास


आज सद्गुरु ने कहा, इन्द्रियगत ज्ञान सीमित है, वह विस्मय से नहीं भरता, स्वरूपगत ज्ञान अनंत है, जो आनन्द की झलक दिखाता है. अपने अज्ञान को स्वीकारने से ऐसा ज्ञान मिलता है. ज्ञेय सदा ज्ञान से छोटा है, दृश्य से हटकर द्रष्टा में आना योग का प्रथम चरण है. विस्मय से परे वह तत्व है जहाँ स्तब्धता है, मौन है, आनन्द है तथा प्रेम है. अपने आप में मस्त रहने की कला वहीं सीखी जाती है. जिस क्षण कोई साधक द्रष्टा के भाव से नीचे गिरता है, राग-द्वेष से वशीभूत हो जाता है. जून चार-पांच दिनों के लिए एक कांफ्रेंस में भाग लेने आज मुम्बई गये हैं. अगले चार दिन भगवद् ध्यान में बीतेंगे, जैसे आजकल बीत रहे हैं. परमात्मा से कोई प्रेम करे तो वह स्वयं ही उसका ख्याल रखने लगता है. वह खुद को भूलने नहीं देता. उसे तो अब सोचते हुए भी अजीब लगता है कि कभी ऐसा भी था जब उसका मन उससे दूर था. तब कितना खाली रहा होगा जीवन. अब तो हर पल एक नया संदेश लेकर आता है. आज भी ठंड काफी है, इनर व दो स्वेटर पहने हैं उसने. अभी कुछ देर पहले ही वह सांध्य भ्रमण से लौटी है. अब कुछ देर कम्प्यूटर पर काम करना है. कल ‘मृणाल ज्योति’ विशेष बच्चों के स्कूल  जाना है. उन्हें फोटो भी दिखाने हैं तथा नये वर्ष का उपहार देना है. एक सखी ने कल कहा, उसकी छोटी बहन को ‘अहसास’ शीर्षक पर एक कहानी या कविता चाहिए, उसने एक कविता लिखने का प्रयास किया है, इसी नाम से एक कहानी वर्षों पूर्व लिखी थी.

कल रात ठंड के कारण नींद खुल गयी. सुबह उठने में देरी हुई. कल शाम ही वह सखी बिना फोन किये आ गयी, अब कविता ऐसे थोड़ी ही लिखी जाती है. मृणाल ज्योति स्कूल के विशेष बच्चे उसे देखकर खुश हुए, वे उसे पहचानने लगे हैं. फोटो देखकर भी वे आनन्दित हुए. एक अध्यापिका ने उसे आते रहने को कहा, वह होली पर फिर जाएगी. इस समय दोपहर के सवा दो बजने वाले हैं, एक छात्रा पढ़ने आयेगी. नेहरु मैदान में फुटबाल प्रतियोगिता का उद्घाटन समारोह है, एक सखी ने उसमें आने को कहा था, पर सम्भव नहीं है. उसकी नन्ही बिटिया का वीडियो देखा, सहज ही उसके लिए एक कविता लिखी, वह उनके जीवन में सुखद परिवर्तन लेकर आयी है. फिर भी यदि वे संतुष्ट नहीं है तो भगवान भी कुछ नहीं कर सकता. खुश रहना या न रहना मन पर ही निर्भर है और मन बुद्धि पर और बुद्धि विवेक पर, विवेक सत्संग पर और सत्संग गुरु पर, गुरू भगवान की कृपा से मिलते हैं तो अंततः भगवान ही कारण हुए पर भगवान ने तो उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता दी है. वे यदि ठान लें तो खुश रहने से कौन रोक सकता है ? यह ठानना ही तो विवेक है न ? आज बापू की पुण्यतिथि है. शहीद दिवस, कुष्ठ निवारण दिवस तथा अन्य भी कई तरह के दिवस इस दिन मनाये जाते हैं. गांधीजी सत्य के मार्ग के राही थे, तभी तो राजनीति के शुष्क वातावरण में मुस्का सकते थे.


आज गुरूजी ने समाधि के विषय में कल से आगे बताया. कई तरह की समाधि होती है. समाधि में अपने होने का भान रहता है. ‘मैं हूँ’ से ‘यह है’ अर्थात आनन्द है इसका भान रहता है. असम्प्रत्याग समाधि में अपना ज्ञान नहीं रहता. वह अभ्यास के द्वारा मिलती है. भाव समाधि, लय समाधि तथा अन्य भी कुछ समाधियों का अनुभव साधक करते हैं. अंत में तो समाधि का लोभ भी छोड़ना पड़ता है, जैसे साबुन मैल छुड़ाने के लिए लगाया फिर साबुन को भी हटाना होता है. टीवी पर मुरारी बापू अपने चिर-परिचित अंदाज में कथा सुना रहे हैं, एक कविता को वह भजन की तरह गा रहे हैं. आज ध्यान में सुंदर दृश्य दिखे. चाँदी के चमकते आभूषण तथा ताम्बे या कांसे की मूर्तियाँ, भीतर कितनी बड़ी दुनिया है, ध्यान में जिसकी झलक मिलती है. अभी तो उसने पहला कदम रखा है इस मार्ग पर, अभी बहुत चलना है. जीवन तभी तो जीवन कहलाने योग्य है जब तक उसमें कुछ नया-नया मिलता रहे, नये फूल खिलते रहें, एक प्रतीक्षा बनी रहे भीतर. प्रतीक्षा में कितना आनन्द है, कुछ बेहतर घटने वाला है, कुछ ऐसा मिलने वाला है जो आज तक नहीं मिला, जो अमूल्य है. परमात्मा की राह पर चले कोई तो हर क्षण उपहार मिलते जाते हैं और हर अगला उपहार पहले से बेहतर होता है.     

Friday, January 22, 2016

आगरा बाजार


ध्यान क्या है ? जैसे कोई यह नहीं कह सकता कि प्रेम क्या है वैसे ही ध्यान को परिभाषित करना कठिन है. मन जब विशाल हो जाता है, उसमें कोई दुराव नहीं होता, छल नहीं होता, आग्रह नहीं होता, उहापोह नहीं होती, मन बस खाली होता है, तभी ध्यान घटता है. इच्छा मन की समता को भंग कर जाती है पर ध्यान का अभ्यासी मन तुरंत समता में आ जाता है. उसे समता के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए, इच्छा पूरी हो या न हो वह अपनी समता खोना नहीं चाहता. वह जानता है बाहर कुछ भी बदले, वह व्यर्थ ही है, भीतर का बदलना ही वास्तविक है, भीतर का बदलाव बाहर पर निर्भर नहीं करता, वह ज्ञान और प्रेम पर निर्भर करता है.

‘आगरा बाजार’ के बारे में उस दिन सुना था, पढ़कर लगा, तारीफ के लायक है सचमुच.  नजीर की शायरी अद्भुत है और हबीब तनवीर के डायलाग भी बेमिसाल हैं. अब यह सब घटा उनके भीतर ही होगा जो शब्दों में ढला और जब कोई पढ़े तो उसके भीतर को छू जाये, प्रकृति जो बाहर है भीतर उमंग जगाती है, पर ऐसी नहीं कि हर कोई शायर हो जाये, वह आँख भीतर से मिलती है जो शायर बना दे !

आज भी ठंड ज्यादा है. अमृतसर में तापमान शून्य से तीन डिग्री नीचे चला गया है, उसकी तुलना में वे तो स्वर्ग में हैं. सुबह एक सखी की बेटी को जन्मदिन की शुभकामना भेजी. सद्गुरु ने ‘शिव सूत्र’ में बताया भूत संघातः! प्राणी आपस में तत्वों के मिलने से बनते हैं और अलग होने से बिखर जाते हैं. कितना गहन ज्ञान आज दे रहे थे इस जगत की सृष्टि में बारे में. परायापन ही अशुद्धि है, आत्मभाव ही शुद्धि है. सभी के साथ अपनापन हो तभी मन निर्मल रह सकता है. जहाँ भी भेद बुद्धि हुई, वे अपने शुद्ध स्वरूप से दूर हो जाते हैं. इस क्षण भी भीतर झंकार सुनाई दे रही है, अद्भुत शांति है. सुबह एक दादी को भी सुना जो बचपन से ही शिव बाबा या ब्रह्मा बाबा के पास चली गयी थी, जिसके पिता ने कोर्ट में केस भी कर दिया था, पर जो उस उम्र में भी कितनी बहादुर थी, देह भाव से वह स्वाभाविक ही दूर होती गयी तथा देही भाव में आ गयी, आज तक हैं. आज एक नया तरीका अपनाना होगा बच्चों को पढ़ाने का, उन पर जिम्मेदारी डालनी होगी, तभी वे सीखेंगे, मात्र स्पून फीडिंग से वे निर्भर होते जायेंगे. जब तक वे अपने भीतर इस बात का अहसास नहीं करेंगे  कि उन्हें अपना कार्य स्वयं करना है और अच्छी तरह से करना है वे आत्मनिर्भर नहीं होंगे.

दस बजने को हैं, कुछ ही देर में बच्चे जायेंगे, कल उसका तरीका काम में आया. पहले से जल्दी उन्होंने लिखा. टीचर को नये-नये तरीके अपनाने ही चाहिए. आज सद्गुरु ने बताया ध्यान का अर्थ है, मन को सारे विषयों से हटाकर अपने आधार में टिका देना. परमात्मा चैतन्य है, वह सब जानता है, साधक की अटूट श्रद्धा ही उसे सहयोगी बनाती है. मन के टिकते ही आत्मा परमात्मा से एकत्व का अनुभव करती है. उसकी शक्ति सहज ही प्राप्त होने लगती है. वह शक्ति व्यर्थ नहीं जाती, कुछ उपयोगी कार्यों में लगती है. जिसकी सारी ऊर्जा बाहर जा रही है वह भीतर का दिया जलाने में चूक जाता है. व्यक्ति की दृष्टि ही सृष्टि करती है. साधक ध्यान से ही चारों तरफ के जगत को निर्मित करता है, उसकी आँख जब बाहर से संबंध तोड़ देती है तो भीतर आत्मा का जन्म होता है. प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वर्ग व नर्क का निर्माता स्वयं है. ध्यान में उसे आज सुंदर दृश्य दिखे. कितनी सुंदर दुनिया उनके भीतर भी है. वह सुंदर पक्षी उड़ कर सम्मुख बैठा तो जैसे उसका मन पुनः लौट आया, जो खो गया था. यह कैसा विरोधाभास है, जो मन संसार से उपराम हो गया, वह ध्यान की गहराइयों में डूबना चाहता है. ईश्वर के राज्य में अनंतता का होना स्वाभाविक है. वहाँ कोई सीमा नहीं, जितना डूबते जाये उतना ही गहराई और बढ़ती जाती है.


Saturday, January 16, 2016

शिव सूत्र का अर्थ


आज सुबह गुरूजी को ‘शिवसूत्र’ पर बोलते सुना. इच्छा शक्ति कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं होती और  इच्छा का अंत हुए बिना आनन्द की प्राप्ति नहीं होती, तो करना यह है कि इच्छा को नमस्कार करते हुए उसके पार चले जाया जाये. उससे युद्ध नहीं कर सकते. उसके बावजूद शिव तत्व को पाना है. सद्गुरु के बोल सुनकर लगता है जैसे वह उनके ही मन की बात बोल रहे हैं. जैन संत ने बताया नैतिकता का अर्थ है मानवीय एकता व संवेदनशीलता, सभी के साथ एकता का अनुभव होने से स्वतः ही उनके सुख-दुःख उन्हें प्रभावित करेंगे. उसका हृदय उन सभी की ओर जाता है जो अस्वस्थ हैं, दुखी हैं. वे यदि चाहें तो अपने को उबार सकते हैं, उन्हें कोई राह बताने वाला चाहिए. नैनी व पास के बच्चों को पढ़ाने में वह सफल नहीं हो पा रही है, वे उद्दंड होते जा रहे हैं. वे पल भर भी टिक कर नहीं बैठते, उनका दिमाग एक से दूसरी वस्तु पर बहुत तेजी से दौड़ता है. क्रोध दिखाना ही पड़ता है. उनकी माएँ भी ध्यान नहीं देती, उसे ही कोई उपाय सोचना होगा. जून ने फोटो फ्रेम में फोटो लगा दिए हैं, आश्रम के तथा अंकुर संस्कार केंद्र के बच्चों के. शाम को उनके यहाँ होने वाले सत्संग में दिखाएगी, बच्चे भी देखकर प्रसन्न होंगे. सभी प्रसन्न हों, यही तो उसका उद्देश्य है.

यह संसार एक दर्पण है, या कहें कि सांसारिक संबंध दर्पण हैं, जिनमें उन्हें अपना सच्चा स्वरूप दिखाई पड़ता है. जब वह लोगों से मिलती है तो अपनी सच्चाई को ज्यादा स्पष्टता से देख पाती है. उनके साथ व्यवहार करते समय मन कैसा स्वार्थी, लोभी और कभी-कभी ईर्ष्यालु भी बन जाता है, देह में नकारात्मक संवेदनाएं भी होती हैं, जबकि कुछ लोगों  के संपर्क में आने से ऐसा कुछ भी नहीं होता, तब भीतर का प्रेम प्रकट होता है. लेकिन पहले वर्ग के लोग उसके सच्चे हितैषी हैं, उनके द्वारा ही पता चलता है कि भीतर अभी कितना कचरा भरा है. कभी कभी वे अपनी सहजता व सरलता खो बैठते हैं और हर बार इसका कारण है उनका संकीर्ण मन, आत्मा में तब उनकी स्थिति नहीं होती. किसी ने गुरूजी से पूछा कि ऐसा क्यों होता है तो उन्होंने कहा खेल जानकर इसे दृश्य की तरह देखो, यह भी क्षण भंगुर है, पर यदि यही क्रम जीवन में बार-बार दोहराया जाता है तो चिंता की बात है, क्योंकि तब यह संस्कार बन जाता है और वे अनजाने ही ऐसा व्यवहार करने लगते हैं. संस्कार को तोड़ने के लिये सजगता सर्वोपरि है, जैसे ही भीतर कोई नकारात्मक भाव उठे, उसे वहीँ देखकर समाप्त कर देना होगा ताकि वह आगे अंकुरित ही न हो. कभी मन में अवांछित विचार भी आ जाये तो उससे छूटने का प्रयास विफल ही जाता है जब तक यह न मान लिया जाये मन एक धोखा ही तो है. वास्तव में भीतर ढूढने जाएँ तो मन कहीं है नहीं, ऐसा अनुभव होते ही शांति छा जाती है. तब लगता है सारी साधनाएं खेल है, वे हर वक्त वही हैं जो होना चाहते हैं, लेकिन उनका वह होना उनसे दूर इसलिए हो गया है क्योंकि उस अटूट शांति की धारा से विलग होकर वे स्वयं इस माया की दुनिया में विचरते हैं, भिन्न-भिन्न अनुभव प्राप्त करते हैं. एक स्वप्न से ज्यादा कहाँ है यह माया की रचाई दुनिया. मकर संक्रांति के बाद मौसम में हल्की गर्माहट आ गयी है. कल शाम को सत्संग ठीक तरह, एक घंटा भजन गाते-गाते कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चलता. संगीत आत्मा को स्पर्श करता है.

वर्षा के कारण मौसम ठंडा हो गया है, भीतर कमरे में भी ठंड का अनुभव हो रहा है. अभी-अभी ध्यान से उठी है. मन शांत है. अनहद की धुन निरंतर सुनाई पडती है आजकल, मधुर वंशी, कभी वीणा, कभी पंछियों का मधुर कलरव. मन विचार शून्य हो तभी सुनाई दे ऐसा भी नहीं, चौबीसों घंटे. गुरुमाँ कहती हैं वह ध्वनि भी सत्य नहीं है. जैसे बंद आँखों से दिखने वाला प्रकाश असत्य है और रात को देखे स्वप्न मिथ्या हैं. ये सब मन का ही चमत्कार हैं. मन आत्मा की शक्ति है लेकिन परमात्मा को जाना नहीं जा सकता क्योंकि वही तो जानने वाला है. इन दार्शनिक प्रश्नों में उलझना व्यर्थ ही है, क्योंकि निरा सिद्धांत किसी काम का नहीं, यदि वह प्रयोग में न आए. परमात्मा जीवन में झलके तभी उसकी सार्थकता है. परमात्मा अर्थात प्रेम, शांति, आनन्द और उत्साह..उनका जीवन उसकी साक्षी दे, वर्तन वैसा हो तभी कहा जायेगा कि उन्होंने धर्म को जाना है. भीतर जब निर्मलता होगी तभी धर्म का वास्तविक रूप वे जान पाएंगे.        

  

Thursday, January 14, 2016

गुलाबी धूप


ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो, इसका जवाब हरेक को खुद ही खोजना होगा. सत्य का आचरण हो तो ज्ञान अपने आप प्रकट होने लगता है. वे सत्य का निर्वाह नहीं करते, अनावश्यक झूठ भी बोलते हैं, कभी अहंकार के कारण वे झूठ का आश्रय लेने में नहीं हिचकते. भय और शंका का शिकार फिर उन्हें ही होना पड़ता है. उनके जीवन का हर पल शंका रहित हो, तृप्ति भरा हो, आनन्दमय हो, इसके लिए जरूरी है कि सत्य का आश्रय लें, स्वभाव में टिकें. संसार तो दर्पण है, वे जैसे हैं वैसा ही उसमें दिखाई देगा. संसार तो कोरा कागज है, वे जैसा चित्र उस पर बनाएं वैसा ही दीखता है. परम स्वीकार ही परम स्वतन्त्रता है.

वे देह नहीं हैं देही हैं. देहाध्यास का लक्षण है जड़ता, लोभ, काम, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध तथा अहंकार तथा आत्मा का लक्षण है उत्साह, सृजनात्मकता, उदारता, संतोष, प्रेम ज्ञान तथा निरभिमानता. उन्हें यह अधिकार है कि दोनों में से जो चाहे चुन लें. देहाध्यास की आदत जन्मों-जन्मों से पड़ी हुई है, यह उसी तरह सरल है जैसे पानी का सदा नीचे को बहना, आत्मा में रहने के लिए अभ्यास करना पड़ता है, ऊपर उठना हो तो श्रम चाहिए, गिरने में तो कोई श्रम नहीं है. आज सुबह नींद खुल जाने के बाद भी जो वह नहीं उठी तो स्वयं को देह ही मान रही थी, कल जून द्वारा गलती निकाले जाने पर भीतर जो परमाणु हिले, वह भी देहाभिमान के कारण. कल शाम लोहरी की पार्टी में जो शिकायत भीतर उठ रही थी वह भी इसी कारण थी कि आत्मा में स्थिति नहीं थी, पर इस समय जो भीतर नाद सुनाई दे रहा है, ध्यान में जो अद्भुत रंग दिखे वे आत्मा के कारण हैं. मन, बुद्धि तथा संस्कार के माध्यम से आत्मा ही अपनी शक्ति को दिखाती है, पर वह उनसे परे है. जीवन की सार्थकता इनके पार जाकर उस आत्मा को जानने में है. उसने प्रार्थना की, उसके जीवन से उसकी साक्षी मिले जो अदृश्य है, जो सुक्ष्तं भी है अस्थुल्तं भी. जहाँ सरे द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं और जो सारे विरोधाभासों की जड़ है. वह परमात्मा ही उसका केंद्र है, वही लक्ष्य है, परिधि से केंद्र तक जाना है.

उन्हें जीवन से जो भी चाहिए, वह उनके पास पहले से ही मौजूद है, उन्हें जीवन के लिए जो भी चाहिए वह भी उनके पास है, तो भी वे क्या चाहते हैं कि सारी उम्र बीत जाती है और तलाश खत्म ही नहीं होती. शायद इसलिए कि उन्हें इस बात का पता ही नहीं है कि जो खजाना उनके पास है वह गहरे गाद दिया है और ऊपर इतनी घास उग आई है कि अब लगता ही नहीं कभी यहाँ खजाना रहा होगा. सत्संग के औजार से अब वह घास हटाने का काम शुरू हुआ है, झलक मिलने लगी है. पर मजा तो तब है जब इसे बाँट सकें. अनंत खजाना है तो अनंत शक्ति भी होनी चाहिए बांटने की, क्योंकि बांटने से ये कम होने वाला है नहीं. यह जगत उनसे प्रेम के रूप में उनकी भौतिक उपस्थिति को चाहता है, शांति व आनन्द से उसे कोई सरोकार नहीं. वे दोनों उन्हें स्वयं के लिए चाहिए और जब जगत से कुछ नहीं चाहते तो शक्ति अपने आप प्रवाहित होने लगती है. उसके विचार कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहे हैं, भीतर जो स्पष्ट है वह बाहर आकर कैसे मिलजुल जाता है. घृणा, प्रेम, लोभ, उदारता, क्रोध, ज्ञान, उत्साह, जड़ता ये सभी उनके भीतर साथ-साथ रहते हैं. एक ही शक्ति के दो रूप..तो कौन सा रूप वे बाहर प्रदर्शित करते हैं, इस पर निर्भर करती है मन की शांति ! शांति के बिना आनन्द हो ही नहीं सकता. अध्यात्म की यात्रा कितनी विचित्र है, यहाँ विरोधाभास ही विरोधाभास है. एक पल में लगता है मंजिल करीब है फिर अगले ही पल लगता है अभी तो चलना शरू ही किया है !

हरी घास पर फूलों के मध्य बैठकर गुलाबी धूप का आनन्द लेते हुए डायरी लिखना तथा बीच-बीच में ठंडी हवा से सिहर जाना..इन सर्दियों में पहली बार हो रहा है. प्रकृति का कितना अद्भुत करिश्मा है, बीहू, मकर संक्रांति के आते ही बादल छा गये, ठंड बढ़ गयी, लोग देर रात तक आग तपते रहे और बीहू की छुट्टियाँ खत्म होते ही धूप निकल आयी है. यह जगत कितने आश्चर्यों से भरा हुआ है और जगत्कर्ता भी आश्चर्यों की खान है. उनका खुद का जीवन, तन, मन कितने-कितने आश्चर्यों से भरा है ! प्रकृति में अनंत जीव हैं, उनके भीतर भी लाखों जीव हैं. यह सब कुछ कितना अद्भुत है. आज सुबह उठी तो लगा रात भर में कितने स्वप्न देख लिए. अजीबोगरीब स्वप्न. एक में तो घोर अंधकार में वे सड़क पर बैठकर चल रहे हैं. छोटी ननद का छोटा पुत्र आगे है और वह मध्य में जून पीछे हैं, अँधेरा घुप है पर वे ख़ुशी-ख़ुशी आगे बढ़ रहे हैं. आज जून भी जल्दी उठ गये, कल उन्हें आत्मा को जानने से क्या होता है, इस पर जो भाषण दिया था, उसका असर रहा होगा. जो फ्रेंच नहीं जानता उसे यदि कोई फ्रेंच में समझाये तो उसे क्या समझ में आयेगा. इसी तरह जो आत्मा को नहीं जानता वह परमात्मा के बारे में क्या समझ पायेगा. आत्मा को जानना तो पहला कदम है, वे देह नहीं हैं, आत्मा हैं इस विश्वास को दृढ़ करते जाना है तथा आत्मा में जीना शुरू करना है. इसकी अनुभूति होने लगती है जब वे बार-बार इसका चिन्तन करते हैं, ध्यान करते हैं और देह, मन अदि को स्वयं से अलग देखने लगते हैं. उनका मन हावी नहीं होता, देह स्वस्थ रहती है. बुद्धि विकसित होती है तथा भीतर प्रकाश तथा शांति का वातावरण छाया रहता है. ऐसी शांति जिसकी गहराई नापी नहीं जा सकती !

  

Friday, January 8, 2016

पानी की टंकी


भक्तियोग साधन भी है और साध्य भी. अध्यात्म के मार्ग पर लोग शांति व आनन्द की खोज में आते हैं, वही तो परमात्मा है, तो उसकी भक्ति करते-करते भीतर भी शांति व आनन्द प्रकट होने लगते हैं. भक्ति के कुछ नियम हैं जिन्हें कोई अपनाये तो सहज ही परमात्मा का अनुभव होता है. भक्त कभी विचलित नहीं होता, वह ईश्वर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहता. वह व्यर्थ के विवादों में नहीं उलझता, उसके पास इसके लिए समय ही नहीं है, वह तो चौबीस घंटों से भी ज्यादा उस भगवान को भजना चाहता है, वह अनदेखे के प्रति समर्पित है, उसको हर रूप में देखता है. उसे लोकलाज की परवाह नहीं. वह उच्चतम को चाहता है. आज भक्ति पर सुने संदेश का इतना अंश उसे याद है. दिगबोई से एक परिचित प्राध्यापक का फोन आया है. अगले हफ्ते तिनसुकिया में होने वाले कवि सम्मेलन की बात कही, यदि वे जा सके तो अच्छा होगा. उसे कविताओं का चुनाव कर लेना होगा, समसामयिक विषयों पर लिखी कविता ही ज्यादा ठीक होगी. तीन कविताएँ आत्मपरिचय के साथ एक संग्रह के लिए भी भेजनी हैं. हिंसा, बढ़ता हुआ आतंकवाद, देश का विकास, विश्व की स्थिति, नया साल, युवाओं का आधुनिक रहन-सहन, मोबाइल फोन, कितने ही विषय हैं. जीवन में सब है आज पर संतोष नहीं है, तनाव, आत्महत्या समाज में बढ़ते जा रहे हैं.
नील-हरे रंग की इस डायरी में विवाह की सालगिरह पर दोपहर के दो बजे कुछ लिखने के लिए कलम उठाई है. सुबह सभी के फोन आए. शाम को चाय-पार्टी का आयोजन करना है. नन्हा अभी रास्ते में है देर शाम तक हॉस्टल पहुँचेगा. थोड़ी दूर से पानी की टंकी पर काम कर रहे मजदूरों के औजारों की ठक-ठक आवाजें आ रही हैं. पिछले कई दिन से लगभग सारा दिन मजदूर ऊपर चढ़े काम करते हैं. परसों छोटी बहन का फोन आया. नया वर्ष आरम्भ हुए सात दिन हो भी गये. समय कितनी तेजी से गुजर जाता है, वे पीछे रह जाते हैं, यूँही समय गंवाते हैं. आर्ट ऑफ़ लिविंग के सेंटर पर जाना है जो बन रहा है, एओल की टीचर से मिलने भी जाना है, और मृणाल ज्योति भी जाना है. कई दिनों से हिंदी लाइब्रेरी भी नहीं गयी है वह. जब तक श्वास है तभी तक इस सुंदर जगत को वे देख सकते हैं. !
जिस प्रेम में कभी परदोष देखने की भावना नहीं होती, कोई अपेक्षा नहीं होती, जो सदा एक सा रहता है, वह शुद्ध प्रेम है, वही भक्ति है. जिस प्रेम में अपेक्षा हो वह सिवाय दुःख के क्या दे सकता है ? दुःख का एक कतरा भी यदि भीतर हो, मन का एक भी परमाणु यदि विचलित हो तो मानना होगा कि मूर्छा टूटी नहीं है, मोह बना हुआ है. इस जगत में उसे जो भी परिस्थिति मिली है, उसके ही कर्मों का फल है. राग-द्वेष के बिना यदि उसे स्वीकारे तो कर्म कटेंगे वरना नये कर्म बंधने लगेंगे. कल शाम का आयोजन ठीक रहा. इस समय वह हीटर के पास बैठी है, ठंड कुछ ज्यादा है आज, आँखें मुंद रही हैं. कुछ देर पूर्व ध्यान करने बैठी तो लगातार होते शोर के कारण नहीं बैठ सकी. भीतर उस चेतना का ध्यान सदा ही बना रहता है, अब नियमित ध्यान नहीं कर पा रही है.

ध्यान पुनः नियमित कर दिया है. शाम को जून भी ध्यान करते हैं. असर भी होने लगा है. अनोखे अनुभव होते हैं. भीतर आश्चर्यों का खजाना है, हजारों रहस्य छुपे हैं आत्मा में. जो कुछ बाहर है वह सब भीतर भी है ऐसा पढ़ा था अब अनुभव भी होने लगा है. वह यदि परमात्मा को भूल जाये तो वह याद दिला देता है. एक बार कोई उससे प्रेम करे तो वह कभी साथ नहीं छोड़ता. वह असीम धैर्यवान है, वह सदा उन पर नजर रखे है, साथ है, उन्हें बस नजर भर देखना है. उसे देखना भी कितना निजी है बस मन ही मन उसे चाहना है, कोई ऊपर से जान भी न पाए और उससे मिला जा सकता है. उसके लिए शास्त्रों को पढ़ने की जरूरत नहीं, तप करने की जरूरत नहीं, बस भीतर प्रेम जगाने की जरूरत है. सच्चा प्रेम, सहज प्रेम, सत्य के लिए, भलाई के लिए, सृष्टि के लिए, अपने लिए और उसके लिए.. 

Wednesday, January 6, 2016

अंतहीन आकाश



उसके भीतर ख़ुशी का एक ऐसा स्रोत है, जहाँ से प्रतिपल तरंगें उठती हैं, अहैतुकी कृपा प्रतिपल बरस रही है, अमृत का स्रोत भीतर है, जिसका राज उसे मिल गया है. भीतर अनंत शांति है, अपार नीरवता, भीतर एक ऐसी दुनिया है जिसका इस बाहर की दुनिया से कोई संबंध नहीं, वह इसके बिना भी है, वह कुछ करने से प्राप्त नहीं होती, वह बस है. उसकी खबर बस भीतर ही मिलती है. उसके आसपास के लोगों को इसकी भनक भी नहीं है कि इन्सान के भीतर ऐसा भी एक खजाना छिपा है जो अनमोल है. जिसकी खबर मिलने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रह जाता. जो संतुष्टि व तृप्ति का सागर है, जिसे पाने के बाद ही जीवन को उसकी पूर्णता में जीना वे सीखते हैं. इन्द्रियां सजग हो जाती हैं, मन सजग हो जाता है, तन हल्का हो जाता है, त्वचा की संवेदना बढ़ जाती है. कान वह भी सुनते हैं जो और लोग नहीं सुन सकते, भीतर प्रकाश का एक अजस्र स्रोत उत्पन्न हो जाता है. तरंगों के रूप में ऊर्जा का अनुभव निरंतर होता है. कोई भी समस्या होने पर ज्ञान समाधान बनकर सम्मुख आ जाता है. दूसरों के लिए कुछ करने का जज्बा हर वक्त जागृत रहता है. जब अपने लिए कुछ पाना शेष न रहे तो मन अपने आप ही दाता बन जाता है. भीतर कोई उहापोह नहीं, द्वंद्व भी नहीं, विचार भी नहीं, बस एक स्थिरता तथा आनन्द का अहसास. उसे लगता है कि इस ऊर्जा तथा इस शांति का उपयोग सृजनात्मक कार्य में करना चाहिए तथा ज्ञान के इस अमृत का औरों को भी पान कराना चाहिए.
ज्ञान ही वह दर्पण है जिसमें वे अपना वास्तविक रूप देखते हैं. संबंधों की नींव में यदि मोह नहीं है तो उनमें कभी कटुता नहीं आती, कर्म नहीं बंधते. भीतर जब एक क्षण के लिए भी विचलन न हो, सदा समता ही बनी रहे तो मानना चाहिए कि ज्ञान में स्थिति है. आज उसने सुना, उनके कर्मों के अनेक साक्षी हैं. सूर्य, चन्द्र, अनल, अनिल, आकाश, भूमि, यमराज, हृदय, रात्रि तथा दिवस, संध्या तथा धर्म और आत्मा स्वयं भी कर्मों की साक्षी है. परमात्मा रूपी सद्गुरू का हाथ सदा सिर पर है, मस्तिष्क पर उसकी पकड़ है, बुद्धि को प्रेरणा वही देता है, वही सद्विचारों से भर देता है. साधना के समय जब मन दूसरी ओर चला जाता है तो वही इसे श्वास पर टिकाने में सहायक होता है. कल दिन भर, नये वर्ष के पहले दिन तथा आज भी सुबह से अब तक उसका मन किसी बात से विचलित नहीं हुआ है. वाणी का अपव्यय अवश्य हुआ. नया वर्ष उसके जीवन में नई जाग्रति लाये, ज्ञान में स्थिति दृढ़ हो हो, अहंकार न रहे, इसके लिए सजगता की ही आवश्यकता है. इसके द्वारा ही मन की खुदाई कर उसकी गहराई में प्रवेश मिल सकता है. जहाँ का परिष्कार कर संस्कार शुद्ध किये जा सकते हैं, पिछले जन्म के संस्कारों से मुक्ति पाने के लिए यह बहुत जरूरी है.

निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाए पति-पत्नी के लिए एक-दूसरे से बढ़कर निंदक कौन हो सकता है, आंगन की दूरी भी नहीं, दोनों एक ही कमरे में रहते हैं, एक दूसरे की कमियों को दूर करने का कितना बड़ा कार्य करते हैं. उन्हें एक-दूसरे का सम्मान इसलिए करना चाहिए. वे एकदूसरे को जागृत करत हैं, मोह को दूर करते हैं. वे यदि चाहें तो स्वयं का कल्याण हर कदम पर कर सकते हैं. आज मुरारी बापू के यह वचन सुने तो उसे लगा कितना सही कह रहे हैं वे. हर अगला क्षण कितनी नयी सम्भावनाओं से भरा है. उनके सम्मुख है ख़ुशी का आकाश, अंतहीन आकाश ! पर वे हर बार धरा को चुन लेते हैं, डरते हैं आकाश में गुम न हो जाएँ, पर गुम हुए बिना क्या कोई अपने को पा सका है. एक बार तो मरना ही होता है, खोना ही होता है, सहना ही होता है. नितांत अकेलापन जिसके बाद मिलता है निरंतर साहचर्य का भाव, उस परमात्मा से एकता का, अभिन्नता का अपार सुख ! वह जो भीतर कटुता छिपाए है, छल, वंचना तथा ईर्ष्या छिपाए है, तब प्रकट हो जाती है, वह उसे स्वयं से भिन्न देखती है. जैसे कोई अपने को देखे और अपने कपड़ों को जिन पर मैल लगी है, वैसे ही वह अपने मन को देखे और मन पर लगे धब्बों को. वह परमात्मा उन्हें उसके साथ ही कबूल करता है, वह उन्हें चाहता है, उसके उनके संबंध में कोई छल न हो बस इतना ही. वे उसके प्रति सच्चे हों. पर इस जगत में उसे अपने चारों और कोई ऐसा नजर नहीं आता जैसा गुरु जी उनसे चाहते हैं, कोशिश तो हरेक की होनी ही चाहिए.