Sunday, July 19, 2015

मौन और सेवा



ध्यान में प्रभु की निकटता का आनंद पाने वाला मन क्या इतना भी पावन नहीं हो पाता कि ध्यान के बाद अपने भीतर से प्रेम को बाहर भेजे. यदि ऐसा नहीं है तो कहीं कुछ गड़बड़ है जरूर. भीतर यदि प्रेम है ही नहीं तो बाहर व्यक्त कैसे होगा, तो जो भीतर ईश्वर के प्रति महसूस होती है, वह अनुभूति जो इतनी पावन लगती है वह संसार के बीच आकर कितनी बदल जाती है.

आज उसने सेवा के बारे में कितने सुंदर वचन सुने कथा में- क्रियात्मक सेवा, भावात्मक सेवा तथा विचारात्मक सेवा अथवा ज्ञानात्मक सेवा...ये सभी परमात्मा व सद्गुरु स्वयं करते हैं तथा करने के लिए प्रेरित करते हैं. सेवा स्नेहवश होती है, वहाँ कुछ चाहिए नहीं, चाहिए तो केवल सेव्य की प्रसन्नता. यदि कोई अपनी रूचि सेव्य पर लादता है तो वह अपनी सेवा कर रहा है. सेवा किये बिना अंतर्मन की शुद्धि नहीं होती !

आज उसे लग रहा है, जीवन प्रभु का दिया अमूल्य उपहार है, आनंद से इसका एक-एक क्षण भरा है. हर श्वास एक आनंद की धारा से भीतर को स्वच्छ कर रही है तथा भीतर के विकारों को बाहर ला रही है. उसका अंतर्मन एक ऐसी अद्भुत शांति से भरा हुआ है जिसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता. इसी तन में और इसी मन में कभी पीड़ा भी हुई थी सोचकर ही विश्वास नहीं होता. सद्गुरु ठीक कहते हैं जीवन एक सागर है, जो डूबता है इसमें वही उबरता है, इसमें छिपे खजाने को पा लेता है. वही जीवन के रहस्य को जान पाता है. इतना सुखमय जीवन क्यों किसी के लिए दुःख का कारण बना रहता है ? परमात्मा से जुड़े बिना जो जीवन बीतता है वह अधूरेपन का शिकार रहता ही है. भीतर की आँख यदि खुल जाए तो जगत पहले जैसा नहीं रह जाता, उसका क्रीड़ा स्थल बन जाता है. जब कोई खुद पर कृपा करे तभी ऐसा होता है. जो इस सच्चाई को समझ गया है कि कर्म करते समय जो आनंद मिला बस उतने पर ही उसका अधिकार है तो वह मुक्त है. आशापूर्ति के लिए अथवा प्रतिक्रिया स्वरूप किये गये कर्म ही बांधते हैं और दुःख का कारण बनते हैं. वैसे देखा जाये तो हर व्यक्ति अपनी जगह ठीक है, वह किसी कारणवश ही वहाँ तक पहुंचा है, मूल में सभी निर्दोष हैं. अंतत सभी को एक ही लक्ष्य पर पहुँचना है.

उसे मौन सुहाता है, पर उसके भीतर ‘वह’ क्या है जिसे मौन सुहाता है, शुद्ध चेतना अथवा अशुद्ध मन, मन में रहकर यदि कोई कर्म किया, चाहे वह साधना ही क्यों न हो अभिमान को जन्म मिलेगा. जगत में रहते हुए वह जगत से पूर्णतया अलग है यह मानना भी तो अज्ञान ही है. प्रेम को यदि स्वयं तक सीमित रखा तो वह सड़ने लगेगा. प्रेम को बहने देना है, चारों ओर बिखरने देना है, अपने शब्दों से, हाव-भाव से, कृत्यों से, वाणी से उसी परमात्मा की खुशबू आनी चाहिए जिसे भीतर खोजा जा रहा है. ऐसे कर्म संस्कार गढ़ने हैं जो बाद में दुःख न दें तथा जो उस क्षण भी चित्त को शुद्ध ही बनाये रखें. जैसे निर्मल आकाश अपने आप में टिका हुआ मुक्त है.



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