Thursday, April 30, 2015

क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला



कल दोपहर डेढ़ बजे वे जोरहाट पहुँचे, नन्हे को(RRL-जोरहाट )रीजनल रिसर्च प्रयोगशाला – जोरहाट में कई स्कूलों के कुछ अन्य विद्यार्थियों के साथ आने का निमन्त्रण मिला था. इन सभी बच्चों ने हाई स्कूल की परीक्षा में अच्छे अंक पाए थे. उनके ठहरने का इंतजाम जून के एक परिचित ‘क्षेत्रीय अनुसन्धान प्रयोगशाला’ के एक वैज्ञानिक द्वारा RRL के सामने बने ‘अनुपमा विवाह भवन’ में किया गया है. काफी अच्छी साफ-सुथरी जगह है. सभी तरह का आराम है. नन्हा बेहद खुश है, उसकी कई छात्रों से जान-पहचान भी हो गयी है. कल रात वह दूसरे कमरे में सोया, अब वह अपना ख्याल स्वयं रख सकता है. कहीं से पूजा की घंटियों की आवाज आ रही है. सुबह जून साढ़े पांच बजे उठे, सभी ने स्नान आदि किया, नन्हा चला गया तो उन्होंने क्रिया की. जून को भी उन परिचित से मिलना था, उनके जाने के बाद उसने कुछ देर ‘ध्यान’ किया पर दो बार व्यवधान पड़ा, सो अब प्रयास छोड़कर तैयार हो गयी है. कुछ देर बाद वे बाजार जायेंगे. घर से दूर कुछ समय बेफिक्री से बिताना अच्छा है कभी-कभी. अब श्लोकों क ध्वनि आ रही है, भारत भूमि इतनी पावन है कि इसके हर कण में प्रभु का वास है !

आज उन्हें यहाँ आये तीसरा दिन है. नन्हा प्रसन्न है. कल उन्हें वैज्ञानिकों से मिलने का मौका मिला. प्रयोगशालाओं को देखा. आज प्रैक्टिकल ट्रेनिंग है, शाम को अभिनन्दन व पुरस्कार समारोह है. लगभग साढ़े पांच तक सभी कार्यक्रम सम्पन्न हो जायेंगे. वे उसी समय घर के लिए प्रस्थान करेंगे.

कल रात लगभग सवा नौ बजे वे वापस आये जोरहाट से. जून ने बहुत धीरे-धीरे कार चलायी. रास्ता कुछ जगहों पर काफी खराब था. कुछ जगह काफी अच्छा भी था. वापस आकर भोजन बनाया, सोते-सोते साढ़े दस बज गये, सो सुबह छह बजे उठे. टीवी पर श्री श्री को देखा, कह रहे थे, अभिमान, क्रोध और लोभ अथवा कामना करनी है तो उसी एक की करो, मन के सब भावों को उस एक से जोड़ दो फिर देखो जीवन में भक्ति अपने आप उदित होगी और भक्ति के पीछे-पीछे सुख, शांति, और हृदय की शुद्धता, सौम्यता भी ! उनको सुनकर हृदय स्वर्गिक आनंद का अनुभव करता है, उनकी भाषा सुंदर है, हाव-भाव सुंदर हैं, उनकी आँखों में कितनी गहराई है, समुद्र से गहरी और प्रेम भरी आँखें ! नन्हा कल शाम को वापस आना नहीं चाहता था, जिद कर रहा था सो जून को क्रोध आया, पर थोड़ी देर बाद ही संयत भी हो गये. उनमें एक धैर्य और दृढ़ता है जो दिनों-दिन और तीव्र हो रही है. वह नन्हे और उसका बहुत ख्याल रखते हैं और बहुत गहरे जुड़े हैं. उन्हें अपने कार्य का, अपने लक्ष्यों का, अपने मन का पूरी तरह पता है. वह चाहते हैं कि नन्हा और वह उनकी बात का मान रखें और ऐसा उन्हें करना ही चाहिए. उनके प्रेम का प्रतिदान वे और कैसे दे सकते हैं. उसका मन उनके प्रति पूर्णतया समर्पित है और आत्मा कृष्ण के प्रति. कृष्ण उसका जीवनधन है, उसका सर्वस्व, उसके अस्तित्व का प्रमाण, वह उसका हितैषी है, शुभचिंतक और सुहृदयी, वह उसकी अंतर आत्मा है. उसका नाम उसके पोर-पोर में अंकित है. उसके प्रति वह अपने भीतर इतना प्रेम उमड़ते अनुभव करती है कि उसकी गूँज तक उसे सुनाई देती है. उसका नाम लेते ही आँखें नम हो जाती हैं. वह प्रियतम है, अनुपम है और मधुमय है. वही जानने योग्य है, मानने योग्य है, एक उसी की सत्ता कण-कण में व्याप्त है, वही चैतन्य हर जड़-चेतन में समय है. उसी का प्रकाश सूर्य आदि नक्षत्रों में है. उसी का प्रकाश है जो आँखें बंद करते ही उसे घेर लेता है !
आज ‘जागरण’ में दीपावली के त्योहार का आध्यात्मिक अर्थ बताया गया. मन के विकारों को घर के कूड़े-करकट की तरह निकाल फेंके, ज्ञान के दीपक अपने अंतर में जलाएं. स्वयं प्रसन्नता रूपी प्रसाद ग्रहण करें तथा अन्यों को भी दें. नये विचारों को नये वस्त्रों की तरह धारण करें. उसने प्रार्थना की, दीवाली सबके लिए शुभ हो, उसके अंतर में सभी के लिए प्रेम दिनोंदिन बढ़ता रहे, वह सबमें अपनी आत्मा को व सबकी आत्मा में स्वयं को देखे. कृष्ण उसके आराध्य बनें रहें, उनके चरण कमलों में उसका मस्तक सदा अवनत रहे. सद्गुरु के प्रति उसकी श्रद्धा और भक्ति में विकास हो. सद्गुरु से जो बंधन बंधा है वह अटूट है. अध्यात्म के क्षेत्र में सीमाओं की कोई जगह नहीं है, वहाँ सब कुछ अनंत है...निस्सीम, मुक्त और परम..उनकी कृपा से ही उसे इस अनन्तता का अनुभव हुआ है.






Wednesday, April 29, 2015

हरसिंगार के फूल


आज सुबह उसने डायरी नहीं खोली, फूलों को इकट्ठा किया और उन्हें सजाया घर में. इस वक्त तक हरसिंगार के ये पुष्प मुरझा गये हैं पर सुबह बहुत सुंदर लग रहे थे. ‘जागरण’ पर सद्वचन सुनकर अंतर्मन खिल गया है. भीतर ही ज्ञान है, शक्ति है, प्रेम है, साहस है, ऊर्जा है, उत्साह है, ईश्वर है पर मानव को उसका ज्ञान नहीं. शास्त्र और गुरू उससे परिचय कराते हैं, तब कोई नये उत्साह से जीवन का सामना करता है. सब कुछ बेहद सरल लगने लगता है, हृदय प्रेम से भर उठता है, अकारण प्रेम..सारी सृष्टि के लिए प्रेम...जैसे कृष्ण उन्हें दे रहे हैं अनवरत...उसकी ओर मुड़े तो पाएंगे कि वह उन्हें प्रेम भरी दृष्टि से देख रहे हैं ! उसके सभी कार्य वही तो सम्पन्न करते हैं, उनकी ही चेतना से सारी सृष्टि चल रही है. वे खुद उनके हाथों में एक साधन मात्र हैं. जैसे देह उसके लिए साधन है, चित्त भी साधन है, यदि कोई इसे उनकी ओर मोड़ दे तो वह स्वयंमेव ही आगे का कार्य सरल कर देते हैं. वही भीतर से निर्देश देते हैं, सामर्थ्य देते हैं, सत्कर्मों की प्रेरणा देते हैं. अपनी अनुभूति कराते हैं. कृष्ण को वह कितने ही रूपों में देख चुकी है, अपने मन की आँखों से भी और इन आँखों से भी...वह स्वयं जब चाहते हैं..मिलते हैं...   

उसने दिनकर की पुस्तक में डॉ राधा कृष्णन के विचार पढ़े तो डायरी में लिख लिए- “ सम्यक ज्ञान की स्फुरणा एकाग्र-चिंतन से होती है, एक ही विषय पर दिन-रात ध्यान लगाये रहने से होती है. निदिध्यासन सोचने की उस प्रक्रिया का नाम है, जिसमें मनुष्य सम्पूर्ण मस्तिष्क तथा समग्र अस्तित्त्व से सोचता होता है. सम्यक चिंतन संश्लिष्ट चिंतन है, पूर्ण चिंतन है. यह चिंतन की वह प्रक्रिया है जिसमें सभी इन्द्रियां, सम्पूर्ण बुद्धि, समग्र चेतना, वस्तुतः सारा अस्तित्त्व विचारों से संचालित रहता है. शरीर का कोई अवयव नहीं है जो मन या आत्मा के नियन्त्रण से परे हो. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मनुष्य का सारा व्यक्तित्व एक है. उसके अवयव, मन और चित्त उस एक ही व्यक्तित्व के भिन्न-भिन्न पक्ष हैं. बुद्धि से जो विचार तैयार होता है, उसे मनुष्य के अंतर्मन के भीतर पहुंचना चाहिए जिससे चिंतक के चेतन व अचेतन दोनों ही अंश उस विचार से अनुप्राणित हो सकें. शब्द और विचार दोनों को मनुष्य के मांस में मिल जाना है. मानव-मनोविज्ञान का यही रूपांतरण रचनात्मक कहलाता है. रचना मनुष्य की वह मानसिक प्रक्रिया है जिससे वह अपनी अपरिचित एवं निगूढ़ आत्मा को जानने में समर्थ होता है.”

पिछले तीन दिन फिर डायरी नहीं खोली. कल ‘सुदर्शन क्रिया’ का फालोअप था. योग शिक्षक पहले की तरह सभी को हँसाते नहीं है, कुछ दूरी बनाकर रखते हैं, खैर..वक्त बदलता है, रिश्ते बदलते हैं और इन्सान भी बदलते हैं. सड़क पर कुछ मजदूर हँसते हुए चले जा रहे हैं. इन्सान किसी भी स्थिति में क्यों न हो हँसी और ख़ुशी उसका साथ नहीं छोड़ती, जैसे कि दुःख..तो क्यों न वे दोनों को समान भाव से अपनाते चलें. दोनों ही आते-जाते रहेंगे भिन्न-भिन्न रूपों में, पर एक तो वही एक है अपना आप.. जिसे न सुख व्याप्ता है न दुःख. जो रसमय है, जो जीवन को अर्थ देता है, चुनौती देता है, लक्ष्य देता है. जो अपना दिव्य रूप धरे अपनी ओर आकर्षित करता है. वह खुद सा बनाना चाहता है, बल्कि उसने खुद सा ही बनाया था, पर वे उससे दूर होते चले गये और संसार को अपना मानकर उसमें फंसते गये जो हाथ से रेत की तरह फिसलता जाता है..देह जो दिन-प्रतिदिन जरा की ओर बढ़ रही है, कोई न कोई व्याधि उसे सताती है. मन जो सदा किसी न किसी ताप में जलता रहता है...और वह जो शीतल फुहार सा, अलमस्त झरने सा, प्रेम का झरना भीतर ही कहीं बह रहा है, उससे वे अनजान ही बने रहते हैं !  


Tuesday, April 28, 2015

नाश्ते में परांठे


कल शाम को माँ-पिता जी वापस चले गये, अभी तो वे ट्रेन में होंगे, आने वाली शाम को पहुंचेंगे. वह उस अद्वैत, अच्युत, अनादि कृष्ण की कथा सुन रही है. जीवात्मा यदि भक्त हो तो वह कृष्ण की कथा में ही तो रस लेगा ! इस मार्ग पैर कितनी ही सफलता मिले, फिसलने का डर रहता ही है. सद्गुरु माँ-पिता की तरह कभी प्रेम से तो कभी डांट-फटकर कर सन्मार्ग पर ले जाने का प्रयत्न करते हैं. पिछले दिनों कई बार ऐसा हुआ जब वह मोह का शिकार हुई, अर्थात उसकी बुद्धि विकृत हो गई, पर झट ही सचेत भी हुई. शुद्ध अन्तःकरण में ही ईश्वर का प्रागट्य होगा. कृष्ण का अवतरण हृदय की जेल में होगा तो सारे बंधन खुल जायेंगे, सारी गांठें भी खुल जाएँगी, तब शर्मिंदा नहीं होना पड़ेगा. अभी बहुत कुछ सीखना है. यह मार्ग कितना भी लम्बा क्यों न हो पर सुखदायक है. सद्गुरु का ममता भरा हाथ और कृष्ण का अहैतुक प्रेम सदा-सर्वदा उसके साथ जो है.

“पायी संगत जो संतन की, पायी पूंजी अपने मन की” सद्गुरु ने अपने वचनों और अपने कार्यों से उन्हें ‘स्वयं’ से मिला दिया है, और उन्हें अपने आप से प्यार हो गया है. पहले स्वयं से आँख मिलते भी डरते थे और दूसरों से भी. अब हर जगह वही दीखता है तो डर किसे और किसका ? उन्होंने स्वयं ही अपने लिए बाधाएँ खड़ी की हुई थीं, अब इनका अंत होता नजर आता है. बुद्धिफल है अनाग्रह, किसी भी स्थिति का आग्रह नहीं करना है, समर्पित बुद्धि को ही यह फल मिलता है. आज सुबह जून ने अपने घटते हुए वजन को देखते हुए नाश्ते में परांठा बनाने को कहा, साथ-साथ उन्होंने नाश्ता किया सो अभी व्यायाम नहीं कर पायी है. ग्यारह बजे तक सभी शेष कार्य हो जायेंगे यदि एक-एक मिनट का उपयोग किया तो. मौसम आज अच्छा है, पापा-माँ अभी भी ट्रेन में बैठे होंगे  !

नौ बजने को हैं, आज भी मौसम बदली भरा है, नैनी किचन की विशेष सफाई कर रही है. कल शाम को फोन आया, वे लोग सकुशल पहुंच गये हैं, उन्हें यहाँ रहना यकीनन अच्छा लगा होगा, वह बल्कि परीक्षा में कई बार फेल होते-होते बची. सबसे पहले तो असत्य भाषण, चाहे कितना भी निर्दोष असत्य हो..पर उससे छुटकारा तो पाना है न, दूसरा क्रोध, यह बहुत कम रह गया है पर समाप्त नहीं हुआ है, तीसरा लोभ, यह बहुत ज्यादा है, वस्त्रों की कमी का अहसास और किसी को दिए जाने वालों सामानों पर नजर रखने की प्रवृत्ति.. मन यदि शुद्ध नहीं तो ध्यान कैसे होगा और ध्यान में उतरे बिना ज्ञान भी नहीं टिकेगा...जीवन में ज्ञान नहीं तो पशु से भी गया गुजरा है जीवन...कृष्ण को सदा मन में बसाये रखे तो वही मुक्त करेगा... संगीत का अभ्यास हो चुका है. उसके गले में हल्की सी खराश है, सिर भी थोड़ा भारी है, कल रात पंखा तेज करके सोयी सम्भवतः यही कारण हो, पर यह इतनी मामूली सी बात है कि..अभी पाठ करना शेष है, माँ थीं तो वे सुबह-सुबह ही पाठ कर लेते थे, वे रोज सुनती थीं. एक सखी के ससुरजी  अस्पताल में दाखिल हैं. सम्भवतः अंतिम दिन नजदीक आ रहे हैं, आत्मा की नश्वरता के बारे में जानकर इतना ज्ञान तो हो चुका है कि शरीर जो जर्जर हो चुका है, उसके प्रति मोह न रहे. सो मन में दुःख नहीं होता. जीवन जितना भी जियें होशपूर्वक जियें, तभी सार्थक है अन्यथा तो लकड़ी के लट्ठे का सा ही जीवन है. सजगता अत्यंत आवश्यक है. एक चेतन सत्ता है जो उनके प्रत्येक कार्य, विचार व वचन की साक्षी है, उससे वे कुछ भी छुपा नहीं सकते. वह उनका आदर्श बने, तभी मुक्ति सम्भव है. श्रद्धा रूपी जल, मन रूपी सुमन था अपने कर्मफल और अपने अंतर का प्रेम भरा अश्रुजल यही ईश्वर को समर्पित करना है.





Friday, April 24, 2015

नाद और ज्योति


आज फिर एक अन्तराल के बाद डायरी खोली है. सुबह वर्षा हो रही थी, पर अब थमी हुई है. कल दोपहर की तेज गर्मी की तुलना में, जब वे कार में बैठे थे, आज मौसम सुहावना है. उसका सुबह का कार्य लगभग हो चुका है. पिताजी बाहर बैठकर किताब पढ़ रहे हैं, माँ शाम के सत्संग के लिए साड़ी तय कर रही हैं. आज उनकी तबियत पूरी तरह ठीक नहीं लग रही है. कल तिनसुकिया यात्रा में उन्हें काफी थकान हो गयी थी. कल शाम हल्का सिरदर्द उसे भी था पर थोड़ी देर के ध्यान से ठीक हो गया. शाम को एक मित्र दम्पत्ति मिलने आए, गुरूजी के बारे में विश्वास पूर्वक बातें बता रहे थे. मन श्रद्धा से परिपूर्ण हो तभी विश्वास टिकता है. उसी विश्वास ने सम्भवतः उसे पलों में ठीक कर दिया ! सद्गुरु की महिमा का जितना बखान करो, उतना कम है. जीवनमुक्त स्वयं को उस स्थिति तक पहुंचा लेते हैं कि उनका दर्शन अथवा उनका स्मरण भी हृदय को कैसी शीतलता पहुँचाता है. सुबह-सवेरे की क्रिया में आज मन एक-दो बार इधर-उधर गया और ध्यान में समझ नहीं पायी मन कहाँ चला गया, कुछ पलों की जानकारी ही नहीं है, वह निद्रा था अथवा..ध्यान में पूरी तरह सचेत रहना होगा. कल गांधीजी का जन्मदिन था. वह भी जीवन मुक्त थे और ऐसे व्यक्ति निर्भीक हो जाते हैं. उन्हें न कोई कामना होती है न किसी वस्तु के खो जाने का डर. वे साक्षी भाव से जगत को देखते हैं, उसमें लिप्त नहीं होते. वह सदा आत्मभाव में स्थित हुए जगत को शांत देखने में सफल होते हैं.

सत्य एक है, सत्य ही धर्म है, सत्य ही वह पथ है जिसपर चलकर परमात्मा को पाया जा सकता है. आज ध्यान में उसे अनुभव हुआ कि कृष्ण ने असत्य बोलने पर उसे टोका, फटकारा, समझाया. असत्य बोलने में उसे कोई हिचक नहीं होती, उसका असत्य निर्दोष होते हुए भी असत्य तो है ही. जितना-जितना असत्य छूटेगा उतना-उतना चित्त शुद्ध होगा. मजाक में अथवा सहज भाव से कहा गया असत्य भी आत्मा पर अज्ञान की लेप चढ़ा देता है. बाबाजी कह रहे हैं, ऊंचे हित के लिए लघु हित को त्यागना पड़ता है. परम के निकट जाने की यात्रा जिसे करनी है, उसे अंतर्मुख होकर स्वयं को जानना होगा. क्योंकि वह जितना दूर है उतना ही निकट भी है. वह उन्हें उतना ही प्रेम करता है जितना वे उससे करते हैं बल्कि उनके प्रेम से भी कई गुणा अधिक. उन्होंने कहा गहन ध्यान में नाद सुनाई पड़ता है और ज्योति के दर्शन होते हैं.

कल जिस नाद की बात उसने सुनी थी, आज सुबह ‘क्रिया’ के बाद सद्गुरु की कृपा से वह संगीत सुनाई दिया, घंटों सुनते बैठे रहें ऐसा अद्भुत वादन था, पर मन सचेत था. जून इंतजार कर रहे थे सो ध्यान से बाहर आई, कृष्ण की अनुभूति अंतर को अनंत सुख से ओतप्रोत कर देती है और कृष्ण तक ले जाने वाले तो उसके सद्गुरु ही हैं. वह देह नहीं है, जीव है और जीव परमात्मा का अंश है, उसके लक्षण वही हैं जो परमात्मा के हैं. वह भी शाश्वत, चेतन तथा आनंद स्वरूप है, जिसका भान होने पर सारा का सारा विषाद न जाने कहाँ चला जाता है.  



मोमबत्ती का प्रकाश


जीव चेतन स्वरूप हैं पर जड़ की ओर उनका झुकाव है. जब वे अपनी चेतना को परम चेतना की ओर लगाते हैं तो सारे कार्य कर्मयोग बन जाते हैं, अन्यथा कर्म भी जड़वत प्रतीत होंगे. इस क्षण उसका हृदय पूर्णतया संतुष्ट है, कुछ भी पाने की न तो आकांक्षा है और न ही कुछ खो जाने की चिंता है. उसे न किसी से भय है न ही किसी को उससे भय मिले ऐसी कामना है. सभी की मित्रता उसे मिले और इस सृष्टि के सभी स्थावर-जंगम प्राणी उसकी मित्रता पायें ! जहाँ कहीं भी शुभ हो उसकी दृष्टि उसे ही देखे, अन्यों के दोषों पर नजर न जाये. अगर जाये भी तो हृदय में कटुता का उदय न हो, उन्हें उनके सम्पूर्ण गुणों व दोषों सहित वह अपना ले. कभी भी ऐसा न हो कि अपने लक्ष्य से विचलित हो जाये ! इस समय शाम के छह बजने को हैं, नन्हा कोचिंग गया है. जून पिताजी को लेकर सुबह ही डिब्रूगढ़ गये थे, सात बजे तक आएंगे. मौसम बादलों भरा है. कल शाम को जो आंधी आई थी, उसके बाद से वर्षा लगातार ही हो रही है. कल बिजली चली गयी थी और रात्रि भोजन मोमबत्ती के प्रकाश में किया. अभी कुछ देर पूर्व ही बिजली आई है. बड़े भाई का फोन आया अभी कुछ देर पहले.

टीवी पर ‘जागरण’ आ रहा है, गुरूमाँ कह रही हैं, पानी जैसे तापमान के बदलने पर अपनी अवस्था बदलता रहता है वैसे ही मन बदलता रहता है. लेकिन इन सबको देखने वाला निर्विकार आत्मा है जो अचल है. उसे लगता है जब कोई अध्यात्म के मार्ग पर चल पड़ता है तो हानि-लाभ की चिंता से मुक्त हो जाता है. कर्म सहज होते हैं. कोई कामना पूर्ति उनका लक्ष्य नहीं होती. अंतर में समता जगती है. प्रेम की भावना का उदय होता है, प्रेम ही जीवन को रसमय करता है. आज वर्षा थमी है. कल शाम उसने लिखना शुरू किया था कि जून आ गये, डाक्टर ने कहा है आपरेशन करना पड़ेगा.

आज उसे लग रहा है, उनकी कथनी और करनी में कितना अंतर होता है. किसी निकट के सम्बन्धी ने उनसे मदद मांगी और उन्होंने खुले दिल से फौरन मदद करने की बजाय सोच-विचार शुरू किया. मन जो सदा संदेह करता है, कैसे-कैसे तर्क देने लगा. मन के लोभ का कोई अंत नहीं है. उसने जून को सही सलाह नहीं दी या उनकी स्वयं की भी यही इच्छा रही होगी और उसे समर्थन मिल गया. वे धर्म की सिर्फ ऊपरी सतह तक ही पहुंचे हैं, अभी मन विशाल नहीं हुआ है. गुरू से प्रेम करने वाले भी यदि मन छोटा रखें तो इसका अर्थ है कि प्रेम अभी हुआ ही नहीं, स्वार्थ से ऊपर अभी उठे ही नहीं, अविश्वास दिल से निकला ही नहीं, अविश्वास भी अपने ही जन के प्रति..अभी बहुत दूर जाना है ! स्वय को यदि कष्ट होता हो तो भी यदि कोई कुछ मांगता है तो मुँह से ‘ना’ न निकले, ईश्वर ऐसा हृदय उन्हें दे. ईश्वर की प्रसन्नता भी इसी में है कि उसके भक्त उसके मार्ग पर चलें. ईश्वर उन्हें हर क्षण कुछ न कुछ प्रदान करता है, अनवरत उसकी कृपा का प्रसाद उन्हें मिलता है ..तो वे क्यों कृपण बनें ! भक्त तो विश्वास की ज्योति की लौ के सहारे-सहारे अंदर-बाहर दोनों ही जगह उजाला पाता है.

आज सुबह ध्यान में एक अनोखी अनुभूति हुई, सही होगा यह कहना कि ईश्वर ने अपनी उपस्थिति का अहसास कराया ! मन कृतज्ञता से भर उठा था...और उस क्षण की स्मृति चित्त में अंकित हो गयी है. मौसम भी आज सुहावना है. विश्वास गहरा हो तो कोई निश्चिन्त होकर जीवन बिताता है, एक-एक क्षण का आनंद लेता है. भक्ति के कितने ही कीर्तिमान संतों व भक्तों ने बनाये हैं और कुछ हो सकने की सम्भावना उनके भीतर भी है. उसके लिए कुछ होने का अर्थ है..उसका होना ! ईश्वर की सुखद स्मृति में मन को सदा लगाये रखना..इन्द्रियों, मन व वाणी पर नियन्त्रण ही उसे इस पथ पर आगे ले जायेगा ! देह रूपी यंत्र को स्वस्थ रखना उनका कर्त्तव्य है जिससे आत्मा स्वयं को प्रकाशित कर सके. आत्मा को साधन रूपी मन तथा तन मिले हैं, जिन्हें सजग रहकर  स्वस्थ रखना है यह करने का मार्ग भी आत्मा ही सिखाता है.








Wednesday, April 22, 2015

चावल की कचरी


पिछले तीन दिन वह फिर नहीं लिख सकी, पर आज से तय किया है नियमित लिखेगी. टीवी पर जागरण आ रहा है. पिताजी यहीं बैठकर सुन रहे हैं, उनका इलाज आरम्भ हो गया है. सम्भवतः चेन्नई जाना पड़ेगा. माँ स्नान के लिए गयी हैं. कल उन्हें आये पूरा एक हफ्ता हो जायेगा, उनके दिन अच्छे बीत रहे हैं, जीवन में एक रंग भर गया है. कल शाम वह क्लब गयी, मासिक मीटिंग के सिलसिले में. उसे कविता पाठ व मेहँदी के बारे में कुछ बोलने को कहा गया है. वह प्रतिपल इश्वर की स्मृति में रहने का प्रयत्न करती है और निन्यानवे बार यह सफल भी होता है. आज सुबह चार बजे उठे वे, क्रिया आदि की. आज ‘विश्वकर्मा पूजा’ है, जून ऑफिस से जल्दी आ जायेंगे.

आज उसने सुंदर वचन सुने- ‘सद्ग्रंथों का अध्ययन उन्नत करता है. सद्विचार मन को महकाते हैं. विचारों के गुलाब जब मन के बगीचे में खिलते हैं तो आस-पास सभी कुछ महकने लगता है. चेहरे पर मुस्कुराहट बनाकर आँखों से ही अपनी बात कहने की कला आती है. वाणी जब खामोश हो और मन का चिंतन भी शांत हो जाये. मन उस क्षण न ही बाहरी शब्दों को ग्रहण करता है और न ही मन से विचारों का सम्प्रेषण बाहर की ओर होता है. गहन मौन में ही उस परम सत्ता का वास है’.

अन्तर्मुखी होकर, ध्यानस्थ होकर भीतर जो भी दिखे, वह सहज ज्ञान है. भगवद् ज्ञान कहीं बाहर से मिलने वाला नहीं है बल्कि इस सहज ज्ञान का आश्रय लेकर ही पाया जा सकता है. उद्देश्य यदि दृढ़ हो तो जीवन को एक ऐसी दिशा मिल जाती है जो ऊर्जा को व्यर्थ नष्ट नहीं होने देती. कल दोपहर को वह कुछ क्षणों के लिए क्रोध का शिकार हुई और वही क्रोध या विरोध जून से भी उसे मिला. जो वे देते हैं वह पूरे ब्याज के साथ वापस मिलता है. प्रेम दें तो प्रेम ही मिलेगा. आनंद देने पर आनंद और विरोध करने पर विरोध ही हाथ आयेगा ! संसार चाहे जितना भी मिल जाये, जब तक वह परम पूर्ण सदा साथ नहीं रहेगा, संसार दुखमय होगा. उसके साथ से यह संसार अनुकूल हो जाता है. उसे भुलाकर वे एक क्षण के लिए भी सुरक्षित नहीं हैं. कर्म बंधन से मुक्ति चाहिए तो कर्म, विचार, वाणी उसी परमात्मा से युक्त होकर होने चाहियें. योग भी तभी सधेगा. सहज रूप से जीने की कला आना ही योग है. उसने प्रार्थना की कि कृपा बनी रहे इसी में उसका कल्याण है और उसके इर्दगिर्द के वातावरण का भी !

आज धूप बहुत तेज है. कल माँ-पिता जी ने चावल की कचरी बनाई थी, सूखने के लिए बहर लॉन में रख दी है. इस समय उसके हृदय में हल्का सा ताप है कितना अजीब सा लगता है गुस्सा करना भी आजकल, पर किये बिना काम ही नहीं करते स्वीपर और कभी-कभी नैनी भी. लेकिन इस क्रोध को लाने के लिए भीतर कहीं क्रोध का बीज तो अवश्य रहा होगा अन्यथा यह हल्की सी जलन भी न होती. पिता अभी तक अस्पताल से आये नहीं हैं, उनका व्यायाम चल रहा होगा. उनके एक हाथ की उँगलियाँ पूरी तरह सीधी नहीं होती. माँ को कल वह सत्संग भी ले गयी थी, उन्हें अच्छा लगा, इस वक्त भी भजन सुन रही हैं. कल भी वह ध्यानस्थ हो सकी ऐसा महसूस हुआ. बीच-बीच में कोई अन्य विचार आ जाता था पर मन सजग था. रात को स्वामी विवेकानन्द की पुस्तक का कुछ अंश पढ़ा और दोपहर को दिनकर की पुस्तक का पर ध्यान का समय उतना नहीं मिल पाता. उसकी आध्यात्मिक यात्रा में थोडा सा व्यवधान तो आया है. दुनियादारी में फंसा मन प्रभु की स्मृति में इतनी शीघ्रता से नहीं आ पाता जैसे पहले आता था. कृष्ण का नाम लेते ही मन भक्तिभाव से भर जाता था अब जैसे कई परतें मन पर चढ़ गयी हैं. संवेदना मृत हो गयी हो ऐसा भी नहीं है, पर कुछ कम अवश्य हुई है !




गणपति बप्पा मोरया


उनका अधिकार मात्र कर्म करने तक सीमित है. कर्म भी ऐसा जिससे मात्र निज स्वार्थ सिद्ध न होता हो, निष्काम कर्म, कामना रहित कर्म ही बंधन में डालने वाला नहीं होता. शुभेच्छा, सुविचारना, आत्मा में स्थिति निष्काम कर्म से ही मिलती है. कृष्ण ही आत्मा है और कृष्ण जिनके रक्षक होते हैं उन्हें अभय मिल जाता है. आज गणेश पूजा की छुट्टी है. इतवार को ध्यान में उसे स्वस्तिक और गणपति की आकृति दिखी थी. उसके ईष्ट तो कान्हा ही हैं जो हर क्षण उसके मन में रहते हैं. जिनकी आकृति, जिनका नाम, जिनका संदेश उसके लिए अमूल्य है. उन्हें पुराने कर्मों का फल तो मिलेगा ही, प्रारब्ध में जो है वह तो मिलेगा पर नये कर्म कैसे हों इसकी तो पूरी आजादी है.

कल कुछ नहीं लिख पायी, सुबह के वक्त समय तो था पर भागवद् पढ़ती रही, अद्भुत ग्रन्थ है यह, श्लोक हैं ऐसे की मणियां हों, ज्ञान से युक्त जीवन को सही दिशा प्रदान करने में सहायक हैं. कल सुबह जून तीन बजे ही स्टेशन चले गये थे, वापस आये पौने छह बजे माँ-पिताजी को लेकर. वे दोनों पूर्णतया स्वस्थ लग रहे हैं, खुश तथा प्रेम और उत्साह से परिपूर्ण ! अच्छा लगता है उन्हें देखकर. इस समय वे दूसरे कमरे में सोये हुए हैं. नन्हा अभी स्कूल से वापस आ रहा होगा. कल उसका कम्प्यूटर का प्रैक्टिकल था, वह अपना अनुभव बता रहा था. आजकल कई बार वह स्कूल, पढ़ाई, टीचर की बातें अपने आप ही बताता है. बहुत अच्छा अनुभव है यह भी. जीवन ऐसे ही छोटे-छोटे अनुभवों का नाम है. जून जिस तरह माँ-पिताजी की देखभाल मन से करते हैं और वे भी अपने मन की बातें कहते हैं, लगता है कि सबके दिल मिले हुए हैं ! इस वक्त दोपहर के दो बजे हैं. आज शाम वे सभी एक सत्कार्य में व्यस्त रहेंगे, जो उन सभी को आत्मा के स्तर तक उठाएगा. उनके यहाँ सत्संग है. उसके लिए और सभी के लिए यह बेहद ख़ुशी का दिन है. उसने पिताजी व दीदी को भी बताया, मानसिक रूप से वे भी उपस्थित रहेंगे. सद्गुरु और कृष्ण भी उपस्थित रहेंगे, क्योंकि उनके नाम और उनमें कोई भिन्नता नहीं है. कृष्ण और उनका नाम अभिन्न हैं. उसे अपनी वाणी पर संयम रखने का भी प्रयास करना होगा. स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा, सब अपने स्तर पर उसी परमेश्वर की और चल रहे हैं, सभी में उसी की सत्ता है.

कल का सत्संग अच्छा रहा. उसने सद्गुरु के लिए एक-दो छोटी कविताएँ पढ़ीं. उनके प्रति कृतज्ञता तो उन्हें व्यक्त करनी ही चाहिए, अन्यथा वे सिर्फ उनसे लेते ही रहेंगे. उनकी ही कृपा है कि हर हफ्ते सत्संग के लिए लोग जुटते हैं और ईश्वर के नाम का उच्चारण करते हैं. ईश्वर और उसका नाम एक ही है, उस वक्त वे उसके सान्निध्य में होते हैं. आज सुबह वे टहलने गये, माँ-पिताजी, जून और वह. ‘क्रिया’ नहीं की, शाम को फॉलोअप है, जून और वह दोनों जायेंगे. माँ-पिताजी एक घंटे के लिए अकेले रहेंगे, नन्हे को भी कोचिंग जाना है. सुबह ‘जागरण’ सुना था पर इस वक्त याद नहीं है. अभी ‘ध्यान’ किया. कृष्ण और सद्गुरु दोनों उसके उपास्य हैं. दोनों ही उस पर कृपालु हैं. मन उनके प्रति कृतज्ञता से पूरित रहता है, कैसी संतुष्टि का अनुभव होता है, जैसे कुछ भी पाना शेष न रहा हो, उनको पाना भी नहीं. अब सत्संग में जाना अथवा फॉलोअप में जाना उनके प्रति कृतज्ञता दिखने का एक अवसर लगता है, फिर संसार से कुछ पाने की कामना तो अपने आप ही लुप्त हो जाती है, कोई अर्थ ही नहीं रहता उसका, ईश्वर से यही चाह पूर्ण करने की प्रार्थना उठती है कि मन में कोई चाह पुनः उत्पन्न न हो. सद्गुरु के प्रति प्रेम मन में बढ़ता रहे और बढ़ते-बढ़ते इतना विशाल रूप ले ले कि सभी प्राणी उसकी गिरफ्त में आ जाएँ. जब सारे प्राणियों के अंतर में वही परम पिता दिखाई देने लगे, सबकी कमियां नहीं, खूबियाँ ही दिखें, उनके प्रति प्रेम ही प्रेम का भाव रहे, आलोचना नहीं प्रशंसा ही प्रशंसा उभरे तभी समझना चाहिए कि भक्ति का उदय हृदय में हुआ है ! अभी सफर बहुत लम्बा है !



 



Monday, April 20, 2015

संस्कृति के चार अध्याय


जैसे भिन्न-भिन्न घट होने पर भी सबमें स्थित आकाश एक ही है, चेतना भी एक है जो भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती है. आज भी गुरू वाणी सुनी, जो उनके जीवन की नौका का लंगर खोलकर उसे दिशा प्रदान करते हैं, लगा वह सरल हृदय से उन्हें उस ऊंचाई पर ले जाना चाहते हैं जहाँ कर्म ही पूजा हो जाते हैं, बुद्धि का विकास होता है, आत्मदर्शन होता है. उनके दिल में पीड़ा भी है कि कोई सद्शिष्य उन्हें अभी तक नहीं मिला जो उनके विचारों को, उनके ज्ञान को उसी रूप में ग्रहण कर सके जिस रूप में वह प्रदान करन चाहते हैं. आज के समाज में व्यक्ति कितना स्वार्थी हो गया है और सबसे अधिक स्वार्थ सुख पाने का है. जीवन का ध्येय ही जब यह हो कि जीवन में सुख-सुविधाएँ बढ़ती जाएँ ! ज्ञान पाना जीवन का ध्येय नहीं है, परहित और परोपकार भी जीवन का ध्येय नहीं है, बस कोई खुश रहे किसी भी कीमत पर, दूसरों को ( जो अपने ही होते हैं) दुःख देकर भी ख़ुशी ( जो टिकती नहीं है ) बनी रहे, कितनी नीचता है, कितने तुच्छ विचार..उसे सद्गुरु की पीड़ा का अहसास होता है. काश वह उनके सान्निध्य में रह पाती, लेकिन ईश्वर ने उसे जहाँ रखा है, वहीं उसे रहना होगा और अपने कर्त्तव्य को पूरा करते हुए, हर क्षण का उपयोग करते हुए उसी प्रभु की ओर निरंतर कदम बढ़ते चलना है. वह भी उनसे दूर नहीं रह पाता जब वे उसकी ओर चलते हैं. सद्गुरु तक भी उसका विचार जरुर पहुंच रहा होगा, उनका दुःख दूसरों की भलाई के लिए है, अपना आप तो वे पा ही चुके हैं, संतत्व की प्राप्ति कर चुके हैं, अब उन्हें और क्या चाहिए, यही कि शिष्य भी आगे बढ़ें, वह उनका सम्मान करती है और उनके वचनों पर मनन भी, उसने प्रार्थना की सद्गुरु उसका मानसिक नमन स्वीकार करें !

राम नाम की औषधि खरी नीयत से खाए
अंग रोग व्यापे नहीं, महारोग मिट जाए  !

कल श्री रामधारी सिंह दिनकर जी की एक पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में संत परमहंस श्री रामकृष्ण जी के बारे में पढ़ते समय कई अद्भुत अनुभूतियाँ हुईं. उनका असर कल शाम सत्संग में भी बना रहा. वे जो भी भजन गा रहे थे, उसके देवता या ईश्वर का रूप उसके मन में स्पष्ट होने लगता था. कृष्ण के साथ तो मन ही मन उसने नृत्य भी किया. कृष्ण उसे हर क्षण अपनी ओर खींचते हैं, उनका नाम ही सर्व आकर्षक है, उनकी तस्वीर देखते ही मन ठहर जाता है. कृष्ण को कोई प्रेम करे तो वह अपनी उपस्थिति का अहसास कराते हैं. उनका प्रेम जैसे उन्हें हर ओर से ढक रहा है ऐसा प्रतीत होता है. उसका मन कल से ही अटूट शांति में डूबा हुआ है. इस दुर्लभ सुख को पाने के लिए ही ऋषि-मुनि संत इतने सत्संग करते हैं, करते आये हैं. सद्गुरु की कृपा कितनी अनमोल है, यह कृपा भी लेकिन ईश्वर कृपा से ही मिलती है. कोई पुण्य कर्म जागृत हुआ है, उसी का प्रसाद है कि अंतरात्मा सौम्यता के भाव में स्थित है ! अब सचेत रहते हुए नये कर्म नहीं बंधे ऐसा प्रयास करना है. बुद्धियोग में स्थित रहते हुए चित्त निर्मल होता जायेगा  और निर्मल चित्त में ही आत्मा का दर्शन होगा. अहंकार से भी सजग रहना होगा, अहम् इस बात का भी न हो कि कृपा हुई है. देह से अलग होकर उसे देखना चाहिए, रोग भी तब टिकता नहीं और मन भी ऊंचे केन्द्रों में रहता है ! जीवन का फल यही है, देहात्म बुद्धि को त्यागना !

हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम हो और होठों पर उसी के नगमे तो दुनिया कितनी हसीन हो जाती है, कोई स्वयं को भुला दे, अहम् त्याग दे तो अपना आप कितना हल्का लगता है. अहम् ही भारी बनाता है और कोई संसार में धंसता चला जाता है, वरना तो वे फूल से भी हल्के हैं. ईश्वर ने उनकी सारी आवश्यकताओं की व्यवस्था पहले से ही कर दी है, वह हर क्षण उन पर नजर रखे हुए है तो व्यर्थ ही स्वयं की रट लगाकर वे स्वयं को विषाद में डाल देते हैं. जब ईश्वर की याद दिल में हो तो परहित की बात भी अपने आप ही आ जाती है. यह दुनिया उसी की तो है, उसी का रूप है, कण-कण में वही समाया है, मानवता का दुःख तब दिल को छूता है पर किसी स्वार्थ हेतु या वाहवाही हेतु नहीं, अपना सहज स्वभाव है ऐसा मानकर तब सेवा करने की भावना जगती है. अन्यों के दोषों पर निगाह नहीं जाती, सारे अपने ही लगते हैं. सुबह-सुबह आजकल जून भी सत्संग सुनते हैं, उनके भीतर छिपा हुआ ईशप्रेम भी जागृत हो रहा है. अगले हफ्ते जो उनके यहाँ सत्संग होगा, उसकी तैयारी वह पूरे मन से कर रहे हैं. सत्संग की महिमा यूँ ही तो नहीं गाई गयी है. रोज-रोज सुनते-सुनते हृदय उन बातों को स्वीकारने लगता है और एक बार जहाँ उजाला हो जाये, अंधकार कैसे टिक सकता है, जो बातें पहले अगम्य लगती थीं, बुद्धि जहाँ तक नहीं पहुंच पाती थी, अब सहज ही समझ में आने लगी हैं. उस दिन जो अनुभूति उसे हुई थी अब वृक्ष बन गयी है. अब उसमें फल लगने शुरू हुए हैं, उनके कहे अनुसार महाभारत, भागवद व योग वशिष्ठ आदि का अध्ययन भी फलीभूत हुआ दीखता है. संत वचन का आदर करने से ही यह अनंत सुख का साम्राज्य उसे मिला है !    



Sunday, April 12, 2015

कल्याण का अंक


पिछले दो दिन फिर कुछ नहीं लिखा, शनिवार को जून का अवकाश था, कल जन्माष्टमी थी, शाम को वे झांकी देखने गये. इस समय रिमझिम वर्षा हो रही है और यहाँ खिड़की के पास बैठकर ठंडी हवा के झोंकों के साथ –साथ फुहार भी तन को सिहरा रही है, पर जल्दी ही खिड़कियाँ बंद करनी पड़ेंगी, पानी से सब कुछ भीग रहा है. आज से नन्हे के छमाही इम्तहान शुरू है, पहला पेपर ही गणित का है. आज उसे हिंदी पुस्तकालय जाना है, बहुत दिनों से कविताएँ नहीं पढ़ीं, जून ने इंटरनेट से ‘काव्यालय’ से कुछ कविताएँ लाकर भी दी हैं, सभी नहीं पढ़ीं. अभी-अभी मंझले भाई से बात की, कल सुबह दीदी का फोन आया था, शाम को बड़े भाई-भाभी से, पिताजी आजकल वहाँ गये हुए हैं. अगले हफ्ते ससुराल से माँ-पापा आ रहे हैं, घर में चहल-पहल हो जाएगी. शनिवार को दिल्ली में शक्ति मन्दिर में आग लगने से पांच बच्चों की मृत्यु हो गयी. ईश्वर की लीला भी विचित्र है. मानव अपनी करतूतों को कितनी आसानी से ईश्वर के नाम मढ़ देता है. वह स्वयं ही अपनी हालत का जिम्मेदार होता है न. पर वे बच्चे क्या यह बात जानते थे ? दिल्ली के एक अस्पताल की हालत पढ़कर भी अच्छा नहीं लगा. देश में एक तरफ तो ऐसे अस्पताल हैं जो पांच सितारा होटलों को भी मात करें और दूसरी ओर ऐसे , जहाँ सफाई भी नहीं है. यह जीवन कितने विरोधाभासों से घिरा है. ऐसे द्वन्द्वों में उलझा मन कैसे ध्यानस्थ हो सकता है, पर यही संसार है. कृष्ण का उपदेश उन्हें सदा याद रखना है कि ऐसे वातावरण में भी जो स्वयं को स्थिर रख सके अर्थात आँखें मूंद सके, नहीं, कृष्ण ऐसा नहीं कहते, वे तो जूझने को कहते हैं. लोगों का दुःख दूर करने की क्षमता अपने भीतर जगाने को कहते हैं. अन्याय का मुकाबला करने को कहते हैं. कर्म क्षेत्र में डटे रहने को कहते हैं. जितनी अपनी क्षमता हो उतना ही वे इस जग का भला करके जाएँ !

कल इस समय वर्षा हो रही थी, आज धूप खिली है, ऐसे ही जीवन भी हर पल रंग बदलता है. परेशानियाँ भी आ जाती हैं फिर साक्षी भाव से देखते रहें तो चुपचाप चली भी जाती हैं. ऐसे ही सुख भी आता है तो टिकता थोड़े न है, चला जाता है, वे वहीं के वहीं रह जाते हैं, अपने आप में पूर्ण, न तकलीफ आने से उनका कुछ घटता है न सुख आने से कुछ बढ़ता है. मान हो, वह भी कुछ नहीं बढ़ाता, अपमान हो वह भी कुछ नहीं घटाता. वे पूरे हैं पूरे ही रहते हैं. हर क्षण उस पूर्ण परमात्मा की तरह ! कल शाम उसके सिर में दर्द था पर उसका मन एक अनोखी शांति से ओतप्रोत था. वह हँस रही थी, बातें क्र रही थी. दर्द से स्वयं को अलग देखने का प्रयास सफल हुआ था, फिर सोने से पूर्व ध्यान में भी आत्मा ने अद्भुत रंग दिखाए अपनी तुलिका से. वे जब ज्ञान में स्थित रहते हैं तो वह उनकी रक्षा करता है. आज बाबाजी ने टीवी पर कृष्ण कथा सुनाई. साथ-साथ स्वास्थ्य संबंधी कुछ बातें भी..जीरा और गुड़ वायु का शमन करते हैं, आंवले और तिल का उबटन लगाने से ताप दूर होते हैं. कल वह एक परिचिता से तीन और कल्याण लायी है. पिछले दोनों पढ़कर बहुत लाभ हुआ. ज्ञान कहीं से भी मिलता है, अमूल्य है. जीवन में सभी भौतिक वस्तुएं साथ निभाने वाली नहीं हैं, किसी न किसी मोड़ पर सभी छूटने वाली हैं, सिर्फ ज्ञान ही अंत तक साथ रहेगा और सम्भवत उसके बाद भी. नन्हे का आज फिजिक्स का इम्तहान है, यह उसका प्रिय विषय है. कल गणित का बहुत अच्छा नहीं हुआ पर उसे इस बात का अहसास था. छोटे भाई को आज पत्र लिखा है. पिताजी को लिखना है. मंझले ने अभी तक पत्र का उत्तर नहीं दिया है.

 


Friday, April 10, 2015

महाप्रभु का जीवन


गुरू रूपी कीली से कोई जुड़ा रहे तो चक्की में पिसने से बच जायेगा. गुरू की कृपा रूपी छाता लेकर वह वर्षा का भी आनंद ले सकता है. गुरु की कृपा ही तो है जो उसे ध्यान में तारे और चाँद दिखे, कितना अद्भुत दृश्य था, पूर्णिमा का चाँद बादलों से झांक रहा था. मन एक अद्भुत शांति से भर गया है. आत्मभाव में स्थित रहते हुए कितना सुख है, देह व मन, बुद्धि से स्वयं को संयुक्त करके वे व्यर्थ ही अपने को सुखी या दुखी मानते हैं, जबकि संसार की किसी भी वस्तु में ऐसी सामर्थ्य नहीं जो आत्मा को अल्प कष्ट पहुँचा सके. समस्याएँ आती भी रहें पर हृदय में उसकी स्मृति है तो वह दुःख दुःख नहीं लगता. नन्हे का स्वास्थ्य ठीक नहीं है, जून उसे लेकर होमियोपैथिक डाक्टर के पास जाने वाले हैं. बीमारी पहले नहीं थी बाद में भी नहीं रहेगी सो उसके लिए परेशान होने की क्या जरूरत है, नन्हे को यही समझाना है !

जीवन में ताजगी चाहिए तो जो कुछ उसे मिला है उसे बाँटना चाहिए. तितलियाँ, फूल, खुशबू और प्रेम को तिजोरी में नहीं रख सकते. बहता हुआ पानी ही स्वच्छ रहता है. हवा एक तरफ से प्रवेश करे और दूसरी ओर से निकलने की भी व्यवस्था हो तो सब कुछ ताजा रहेगा. देह तो किसी के वश में है नहीं, यह अस्वस्थ भी होगी और इसका नाश भी होने वाला है, तो कब तक इसके पीछे दौड़ते रहेंगे जबकि सदा रहने वाला अविनाशी मुक्त आत्मा उसके साथ है बल्कि वह स्वयं ही है. कल शाम उसने भागवद् का प्रथम अध्याय पढ़ना आरम्भ किया है जो पहले नहीं पढ़ पायी थी. महाप्रभु चैतन्य के जीवन चरित पर आधारित रचनाएँ भी पढ़ीं. वे तो साक्षात् कृष्ण थे पर उनमें से हरेक को कृष्ण को स्वयं पाना है, उसकी ओर हर कदम स्वयं बढ़ाना है. कोई सद्गुरु, कोई महात्मा  और ईश्वर स्वयं भी उनकी उतनी ही मदद कर सकते हैं जो पहला कदम बढ़ाने की प्रेरणा दे, उसके आगे तो उन्हें स्वयं ही चलना होगा.

aol का हर बृहस्पतिवार को होने वाला साप्ताहिक सत्संग आज उनके यहाँ है. उसके मन में कुछ बातें हैं जो वह सभी से कहने चाहती थी, उसने सोचा लिख कर रखेगी ताकि कोई बात छूट न जाये...उसे सद्गुरु की उपस्थिति का आभास हो रहा था, सभी के रूप में मानो परमात्मा भी वहीं थे. उसने लिखा..वह जो कुछ कहना चाहती है उसका एकमात्र कारण प्रेम है, सद्गुरु और ईश्वर के प्रति प्रेम..उन सभी का आपस में प्रेम. पहली बात- ॐ के गायन से पूर्व सभी दो बार गहरी श्वास लें, तीन बार ॐ कहने के बाद दो सामान्य श्वास लेने के बाद भजन शुरू करेंगे. हर भजन के मध्य दो मध्यम श्वास लेकर नया भजन होगा. अंतिम भजन के बाद सभी अपने स्थान पर रहेंगे और प्रसाद वितरण के लिए एक या दो व्यक्तियों से अधिक की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए. बेसिक कोर्स शुरू हुए एक वर्ष हो चुका है, इस कोर्स से जीवन की एकरसता टूटी थी जीवन में नये उत्साह को अनुभव किया था अब इस सत्संग को भी एकरस न बना लें, यह प्राणों को उत्साह से भरता है. सप्ताह दर सप्ताह मन को निर्मल करता चला जा रहा है, इसका पूरा लाभ तभी मिलेगा जब पूरी तरह मन को इसके साथ जोड़ें. भजन गाते समय मन ईश्वर के प्रति गुरू के प्रति कृतज्ञता के भावों से भरे रहे. सर्वप्रथम अपने-अपने स्थान पर उनका मानसिक पूजन करें और हर भजन के बाद भी नमन करें.

पिछल दो दिन नहीं लिख सकी. शरीर अस्वस्थ हो तो मन भी कैसा हो जाता है. ऐसा नहीं है कि शेष सभी कार्य भी छूट गये हों बस यही एक छूटा अर्थात मन का काम. लिखना तो तभी सम्भव है जब मन किसी एक विचार पर टिके. आज अपेक्षाकृत शरीर ठीक लग रहा है. शाम को एक सखी के यहाँ जाना है, उसे डिबेट में थोड़ी मदद चाहिए. आज सुबह वे समय से उठे. जून आजकल पूरे फॉर्म में हैं. उन्हें अपने काम में इस तरह जुटे देखकर अच्छा लगता है, उतनी ही तन्मयता से योग भी करते हैं. कोर्स किये उन्हें पूरा एक वर्ष हो गया है और कोई भी उनके जीवन में ए परिवर्तन को देख सकता है, जीवन को एक उद्देश्य मिल गया है. मन को एक आधार, तन को साधन और आत्मा को उसकी पहचान. वे पहले से कहीं ज्यादा खुश रहते हैं, ज्यादा स्पष्ट सोच सकते हैं. वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप में देखने लगे हैं. दूसरों के प्रति उनका व्यवहार अधिक स्नेहपूर्ण हो गया है. क्रोध उनके लिए अजनबी हो गया है. सद्गुरु का ज्ञान भीतर टिक रहा है. यह उनकी कृपा है. उनके प्रति कृतज्ञता जाहिर करने का सबसे अच्छा उपाय यही है है कि उनके विचारों पर मनन करें जीवन में उतारें. धर्म जो पहले मात्र थ्योरी था अब प्रेक्टिकल हो गया है. उसने प्रार्थना की, जीवन सत्कर्मों से परिपूर्ण रहे और प्रेम का अविरल स्रोत जिसका पता सद्गुरु ने बताया है कभी सूखने न पाए !


Wednesday, April 8, 2015

कच्चे धागे पक्के रंग


आज सुबह ‘क्रिया’ के बाद ध्यान अपने आप लग गया, फिर भ्रामरी करते समय अद्भुत  दृश्य दिखे, कितनी सुन्दरता भीतर छिपी है. ईश्वर जहाँ है वहाँ तो सौन्दर्य बिखरा ही होगा. ईश्वर प्राप्ति की उसकी आकांक्षा को इन चिह्नों से बल मिलता है. सुबह सुना था, साधना को कभी त्यागना नहीं है, बाहरी परिस्थितियाँ कैसी भी हों, भीतर की यात्रा पर जाने से वे रोके नहीं. एक वर्ष होने को आया है उसे प्रथम अनुभव हुए. अगले वर्ष में और प्रगति होगी और उसे पूर्ण विश्वास है कि इसी जन्म में उसे आत्म साक्षात्कार होगा. उसे संगदोष का विशेष ध्यान रखना होगा, जल में कमल के समान रहने की कला सीखनी होगी ताकि संसार प्रभाव न डाल सके. वाणी का संयम सबसे अधिक आवश्यक है. मन को भीतर की ओर मोड़ना है. मधुमय, रसमय और आनंद मय उस प्रभु को पाना किना सरल है. अंतर्मुख होना है. चित्त की लहरों को शांत कर उसका दर्पण स्पष्ट करना है, वह अटल तो शाश्वत है ही.

अभी-अभी उसका ध्यान इस बात की ओर गया कि शीघ्रता पूर्वक लिखने से उसका लेख बिगड़ गया है. ईश्वर को चाहने वाले का तो सभी कार्य सुंदर होना चाहिए, क्योंकि वह इतना सुंदर है ! कृष्ण के बारे में कल विवेकानन्द के विचार पढ़े, वह उन्हें महापुरुष मानते थे, बहुत सम्मान करते थे और मन ही मन उन्हें प्यार भी करते रहे होंगे, ईश्वर भी मानते रहे होंगे. कृष्ण ऐसे मनमोहक हैं कि उनके बारे में पढ़कर, जानकर उन्हें कोई भी चाहे बिना नहीं रह सकता है. आज धूप सुबह से ही नजर आ रही है. सुबह वे आधा  घंटा देर से उठे, नन्हे को स्कूल नहीं जाना था, पर साढ़े छह तक सभी कार्य कर योगासन के लिए तैयार थी . सुबह संत मुख से तुकाराम के जीवन पर आधारित घटनाएँ सुनी. सभी संतों ने काफी कष्ट झेले हैं, उसके बाद ही उन्हें मान्यता मिली है. आग में तपकर ही सोना निखरता है. गुरुमाँ ने अंगुलिमाल की कथा सुनाई. अतीत कैसा भी यदि कोई सच्चे हृदय से पश्चाताप करे और भविष्य में ज्ञान का मार्ग पकड़े तो ईश्वर उसे तत्क्षण स्वीकारते हैं. अतः अतीत में न रहकर वर्तमान में रहने का उपदेश संत देते हैं. कर्म के सिद्धांत के अनुसार यदि वे इसी क्षण से सुकृत करें तो भविष्य सुधार सकते हैं. पिछले कर्मों का फल उठाने का सामर्थ्य ईश्वर देते हैं फिर कष्ट कष्ट कहाँ रह जाता है. उसने अपना मार्ग तय कर लिया है, मन में जो भी थोड़ी बहुत आशंका थी उसे गुरू की कृपा ने मिटा दिया है और अब ईश्वर ही एकमात्र उसके जीवन का केंद्र है, जिसका हाथ पकड़ा है और ईश्वर ने उसका !


आज छोटे भाई का जन्मदिन है, उससे फोन पर बात की पर बधाई देना भूल गयी, राखी की शुभकामनायें जरुर दे दिन. पिताजी आज घर पर अकेले रहेंगे, उनका समय टीवी, अख़बार, किताबें और संगीत में अच्छा गुजरता है. बड़े भैया-भाभी का फोन भी आया, छोटी बहन को उन्होंने किया. छोटी ननद का आया, बड़ी को उन्होंने किया. अब बाबाजी आ गये हैं, कह रहे हैं, रक्षाबन्धन आवेश और आवेग को नियंत्रित रखने का दिन है. सारे भयों से मुक्त होने का दिन है, ईश्वर के निकट जाने का तथा सभी के लिए मंगल कामनाएं करने का दिन है. कच्चे धागों का लेकिन सच्चे प्रेम का दिन है. अपने चित्त को अवसाद से बचना है, चित्त की सौम्यता की रक्षा हर हाल में करनी है. अभी प्रभात की सुमधुर बेला है, मन स्वतः ही शांत है, दिन भर सप्रयास इसे इसी भाव में रखने का पर्ण है ताकि रात्रि को सोते समय भी ईश का ध्यान शांत भाव में दृढ़ रखे ! अभी पड़ोसिन का फोन आया वह भी उनके साथ ‘मृणाल ज्योति’ जाएगी. आज पूर्णिमा है, उपवास का दिन, होता अक्सर यह है कि इसी दिन उसे व्यस्तता ज्यादा होती है, उपवास के दिन भर मौन रहने का विचार मन में है एक दिन तो ऐसा होगा ही. 

Thursday, April 2, 2015

टिफिन में ब्रेड


आज भी कल की तरह वर्षा हो रही है. पिछले चार दिनों से झड़ी लगी है. कल जून का जन्मदिन है और परसों पन्द्रह अगस्त, जिस दिन वे मित्रों को भोजन पर आमंत्रित करेंगे. घर की सफाई का काम भी चल रहा है. ‘कृष्ण’ जिसे लोग मन्दिरों में तलाशते हैं उसे मन के मन्दिर में मिल गये हैं. जिन्होंने सारा का सारा शोक हर लिया है. जीवन को उत्सव बनाया है. ईश्वर की निकटता का अनुभव ही जीवन का सार है !

आज सुबह उठने में देर हुई, नन्हे को टिफिन में पहली बार ब्रेड देनी पड़ी. जल्दी में वह पानी भी नहीं ले गया. ससुराल से पिताजी का फोन आया, वह इस बात से नाराज लगे की माँ कुछ दिनों के लिए यहाँ रहें. पर जून इस बात पर बराबर जोर दे रहे हैं. भविष्य ही बतायेगा क्या होता है, वह दोनों ही तरह से प्रसन्न है. सुबह छोटे भाई से बात हुई, उसे व पिताजीको पत्र मिल गया है, उन्हें पढ़कर ख़ुशी हुई जवाब भी दे दिया है. कल देर शाम को गुलाब जामुन बनाये. दही बड़े के लिए बड़े भी आज ही बनाकर रखेगी.

ईश्वर के पथ पर चलना तलवार की धार पर चलने के समान है, पग-पग पर चोट खाने का अंदेशा रहता है. थोडा सा भी अचेत हुए तो कभी सूक्ष्म अहंकार अपनी छाया से ढक लेता है और कभी क्रोध ही अपने फन उठा लेता है. यदि उसकी स्मृति एक क्षण के लिए भी न हटे तभी वे सजग रह सकते हैं, क्योंकि जो सचेत करता है यदि उसे ही भूल जाएँ तो कौन मार्ग दिखायेगा ? एक उसी की लौ अगर हृदय में जली हो तो संसार का अँधेरा वहाँ कैसे आ सकता है? उसे लगता है अभी तो वह पहली सीढ़ी पर ही है, उसे पाकर भी बार-बार खो देती है, तो ऐसा पाना न पाने के ही बराबर है !

कल ही वह विशेष सत्संग है जब ‘विश्व शांति दिवस’ मनाया जायेगा. एक सखी ने उसे इस अवसर के लिए एक कविता लिखने को कहा है. सद्गुरु के बारे में सोचते ही कितने ही भाव मन में उठते हैं. जून को जन्मदिन पर ढेर सारी बधाइयाँ मिली हैं, उन्हें पढ़कर, भानु दी का भजन सुनकर, ज्ञान सूत्र पढ़कर वैसे ही मन मुग्ध है, सो कविता लिखने के लिए मन की भूमि पूरी तरह उर्वर है. कल नन्हे और उसके मित्र को कोचिंग से वापस आते वक्त पुलिस ने रोका. वे स्कूटर पर थे, मित्र के पास लाइसेंस नहीं था और वे दो लोग स्कूटर पर बैठे थे जो पन्द्रह अगस्त के कारण मना था. एक नया अनुभव उन्हें हुआ. फ़ाईन देकर दोनों छूट पाए.

भक्ति के लिए जप, तप, ध्यान, सुमिरन, कीर्तन आदि कितने उपाय हैं, लेकिन उसे सबसे अधिक ‘ध्यान’ ही रुचता है. हर तरह की मानसिकता वाला व्यक्ति इस मार्ग पर चल सकता है. यह आवश्यक नहीं कि सभी ईश्वर के बारे में एक जैसी अवधारणा रखें. कोई एक परम शक्ति, कोई परम ज्ञान अथवा कोई परम आनंद के रूप में उसकी कल्पना करता है. उसके लिए तो उस एक को जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि उस एक को जानने से सब कुछ जाना जा सकता है. वरना तो ज्ञान की इतनी शाखाएं हैं और कई तो एक दूसरे का विरोध करती हुई लगती हैं. पल-पल वे मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं, न जाने कितने देखते-देखते काल के गाल में समा गये. उनका कोई निशान भी नहीं बचता. मृत्यु से पूर्व यदि इस रहस्य से पर्दा न उठे कि वे यहाँ क्यों हैं, यह संसार क्या है, ईश्वर कहाँ है, उन्हें बार-बार सुख-दुःख के झकोरे में क्यों झूलना पड़ता है? इन सब बातों का ज्ञान तो बाद में होगा, इस मार्ग पर चलते-चलते भी कई अनुभव होते हैं. चित्त को सुधारने का प्रयास करते-करते सुख-दुःख उतना प्रभावित नहीं करते. प्रेम और शांति का उपहार भी मिलता है.


Wednesday, April 1, 2015

तहरी का स्वाद


उसे लगता है क्रोध व्यक्तित्व को मिटा देता है, इच्छा अपने इशारों पर नचाती है और मोह विवेकहीन कर देता है. अपना आपा भूल जाएँ तो ऐसे शब्द निकल आते हैं जिनपर बाद में पछताना पड़ता है. एक इच्छा पूरी होते ही दूसरी सिर उठा लेती है और मोह भय का कारण बनता है. जीवन की धारा तभी बदल सकती है जब यह ज्ञान हो कि देह साधन रूप में मिला है. मुस्कुराते, गुनगुनाते तथा सबके भीतर तरंग पैदा करते हुए जीना होगा. मन का स्नेह, बुद्धि का विचार और आत्मा का आनंद सभी तो परमात्मा का दिया हुआ है. जो मिला है वह कभी भी छूट सकता है. जब तक देह में बल है तब तक इसकी कद्र करनी है. मन की सौम्यता को बनाये रखना है. ईश्वर हर क्षण साक्षी रूप से साथ है, अल्प बुद्धि से वे अल्प ही तो सोचेंगे. उसके साथ योग लगा रहेगा तो बुद्धि मार्ग पर रहेगी. मन एकदम हल्का हो जाये, पारदर्शी.. तो उसकी झलक अपने आप ही दिखायी देगी.

आज अमावस्या है, यानि उसके उपवास का दिन. सही मायनों में उपवास तो तभी होगा जब मन दिन भर भगवद् भाव से परिपूर्ण रहे. सुबह ब्रह्म मुहूर्त में वे उठे. ‘क्रिया’ की और सत्संग सुना. संतों की वाणी सुनकर मन भाव विभोर हो गया है. भगवद् प्रेम की एक बूंद भी मन को भरने के लिए पर्याप्त है, वही मन जो संसार भर की वस्तुएं पाकर भी अतृप्त ही रहता है, ईश प्रेम के रस में पूर्ण हो जाता है. वह जो इस सृष्टि का स्रोत है, उसे प्रिय है. उसका स्मरण ही उसे सारे दुखों से दूर ले जाता है.

आज दीदी का फोन आया. उन्हें व बुआजी को पत्र मिल गये हैं यानि दो के जवाब उसे मिल गये. आज सुबह वे देर से उठे. कल सत्संग से आयी तो जून ने खाना ( तहरी)  बना लिया था. खाते-खाते थोड़ी देर हुई. कल योग अध्यापक भी आये थे. उन्होंने शास्त्रीय संगीत पर आधारित बहुत अच्छे कुछ नये भजन गाए. इसी माह एक दिन विश्व शांति दिवस है, गुरूजी ने उस दिन शाम को साढ़े चार बजे सभी को अपने अपने सेंटर पर सत्संग करने को कहा है. इससे सब ओर शांति का संदेश फैलेगा, उनका भी योगदान उसमें रहेगा. आध्यात्मिकता का एक बड़ा उद्देश्य है लोकसंग्रह, यानि सेवा, दूसरों के जीवन में यदि कोई ख़ुशी का संचार कर सके, तो समाज के ऋण से कुछ तो मुक्त हो सकता है. एक व्यक्ति अपने लिए समाज से कितना कुछ लेता है यदि उसका शतांश भी लौटा सके तो समाज का कितना भला होगा. आज सुबह उसने सुना साधना के लिए पहला गुण है पवित्रता, अर्थात मन कभी कपट का आश्रय न ले, प्रमादी न हो. भक्ति मार्ग सरल कर देती है. कल शाम उन्होंने कृष्ण के कई भजन गाए, अच्छा लगता है उसके नाम का उच्चारण ! वह अति निकट है, इतना निकट,...इतना निकट कि दरम्यान से गुजर सके न हवा !


आज सुबह ध्यान में कृष्ण की अनुभूति हुई, जैसे वह उसके प्रश्नों को सुन रहे थे और जवाब दे रहे थे. ऐसा होता है कि कुछ दिन उसका हृदय, मन, बुद्धि पूरी तरह उसे अपनी धारणा का विषय बना लेते हैं और फिर अपने आप ही कभी-कभी वह दूर चला  जाता है. करने से कुछ नहीं होता. ‘थापिया न जाई, कीता न होई, आपे आप निरंजन सोई’ वह अपने आप ही हृदय में आकर दस्तक देता है. लेकिन इतना तो निश्चित है कि एक बार उसे चाहने की कला आ जाये वह उन्हें कभी छोड़कर नहीं जा सकता. वह भी उतना ही अपना लेता है. आज शनिवार है उसकी संगीत कक्षा का दिन, वर्षा कल रात से ही हो रही है. नन्हा स्कूल गया है, आज वह अपना प्रोजेक्ट ले गया है. उसे आराम-आराम से अपना काम करना पसंद है. जून की तरह जल्दबाजी उसके स्वभाव में नहीं है और यह भी कि जितना जरूरी हो उतना ही काम किया जाये, व्यर्थ ही अपने ऊपर बोझा लादना भी उसे पसंद नहीं, यह मानसिक स्थिरता की निशानी है. ईश्वर उसे सद्बुद्धि भी दे और वह सफलता प्राप्त करे.