Thursday, September 28, 2017

भारत एक खोज


जीवन कितना अनोखा है, तितलियों और पुष्पों के रंगों सा अनोखा, आकाश के विस्तार सा और सागर की गहराई सा..इसका हर पल एक नये विश्वास से भरा है. आज की सुबह एक नया संदेश लेकर आई लगती है. कल रात्रि भगवद् गीता का अठारहवां अध्याय पढ़ा. अनोखी पुस्तक है गीता अर्थात ग्रन्थ है, भगवान की वाणी है और इस युग में भी आज के समय में भी भगवान की वाणी मौजूद है सद्गुरू के रूप में. आज नैनी को एक काम न करने पर याद दिलाया तो आवाज में हल्का सा रोष था, जो बाद में स्वयं को ही चुभने लगा. आत्मा जो हिमशिखरों सी शुद्ध है, गंगाजल से भी पावन है, जरा सा धुआं भी नहीं सह सकती, और वे अज्ञानवश उस पर कितने कुठाराघात करते रहते हैं. कुम्हला जाती होगी आत्मा, पर अब और नहीं, भीतर-बाहर की पूर्ण शुद्धि करनी है. धी, स्मृति और धृति को मजबूत करना है. परमात्मा की कृपा हर क्षण उसके ऊपर है, आज भी स्कूल में एक तितलीनुमा कीट उड़ते-उड़ते उसके पास आया, मानो अस्तित्त्व उसे आश्वस्त करना चाहता है. उसका प्रेम अहैतुक है. उसे उसका मान रखना चाहिए. जीवन सत्य की साक्षी दे, उसका हर पल परम की खुशबू से ओत-प्रोत रहे, जीवन की सार्थकता इसी में है. शाम को नियमित ध्यान करना होगा, समय का सदुपयोग यदि सेवा में नहीं हो पा रहा है तो ध्यान में ही होना चाहिए. अभी भी भीतर कई संस्कार हैं जिन्हें ध्यान में दूर होना है.

कल से उन्होंने ‘भारत एक खोज’ के अंक देखने आरम्भ किये हैं. जून के एक सहकर्मी ने इसके सभी एपिसोड दिए हैं. वर्षों पहले देखी यह श्रृंखला बहुत अच्छी लगी थी उस समय. आज दोपहर छोटी भांजी से स्काईप पर बात की, विपासना के बारे में उसे बात करके अच्छा लगा. शाम को जून के एक सहकर्मी व उनकी पत्नी आए, उन्हें भोजन के लिए कहा, पर वे देर से खाते हैं, दोनों सब्जियां टिफिन में पैक कर उन्हें दीं, साथ ही केन का बना वह बैग भी जो शिलांग से उनके लिए खरीदा था. नन्हे का फोन आया, वह काफी उत्साहित है. उसके यहाँ हैकाथन चल रहा है, एक सौ बीस लोग हैं जो रात भर जागकर कोई नयी प्रोग्रामिंग करेंगे.

सुबह के सात्विक वातवरण में परमात्मा की निकटता का अहसास कितना स्पष्ट होता है, यूँ तो वह हर वक्त ही निकट है. आज स्कूल गयी तो बादल छाये थे, पर बरसे दोपहर को जाकर. शाम को गुलाब वाटिका के निकट भ्रमण पथ पर टहलने गये तो हवा में फूलों की सुवास छायी थी. दीदी से बात हुई, वे लोग आस्ट्रेलिया से अगले महीने भारत लौटेंगे. व्हाट्सएप पर रुमाली रोटी बनाने का एक वीडियो देखा, कमाल का हुनर है.

पिछले दो दिन कुछ नहीं लिखा. शनिवार को दिन भर मेघ बरसते रहे और इतवार को तेज धूप निकली. जैसे बाहर का मौसम बदलता है वैसे ही भीतर का मौसम भी बदला करता है, वे न जाने कितनी बार गर्म होते हैं न और कितनी बार ठंडे. उनका दिल समता में नहीं रह पाता. आज सुबह उठी तो चार बजे थे, कोई समझा रहा था, ‘अहम् को गलाओ’. जून कितना ध्यान रखते हैं, दफ्तर से फोन करके दवा लेने के लिए याद दिलाया और उसने उन्हें उलाहना दिया. अहंकार ही तो है यह, फिर दो बर्र दिखाई दिए. उसे कुछ जताने के लिए अस्तित्त्व जैसे उनका रूप धर कर आया था. कितना जीवंत है वह, हर घड़ी, हर पल वह है, यहीं है, साथ है उनके. आज सुबह स्कूल से लौटते समय छोटी बहन व छोटे भाई से बात की. बड़ी भाभी अस्पताल से घर आ रही हैं, दो दिन रहकर वापस जाएँगी. उसके अगले दिन उनका आपरेशन होगा. कल जून से उसने कहा, उन्हें जाना चाहिए. वह भी तैयार हैं. सम्भवतः अगले सप्ताह वे जायेंगे. 

Wednesday, September 27, 2017

शिलांग की सुन्दरता


रात्रि के साढ़े आठ बजे हैं. आज नेहू में दूसरा और अंतिम दिन है. प्रातः भ्रमण के समय श्वेत जंगली फूलों के चित्र लिए. कैम्पस के अंदर जंगल में चीड़ के वृक्षों के अनेकों छोटे-छोटे पौधे उग आये हैं, उनमें से कुछ साथ ले जाने के लिए पानी और मिट्टी सहित एक छोटे से गिलास में रखे, हो सकता है उनमें से कोई बच जाये. यह अतिथि गृह पुराने तरीके का है. लकड़ी का फर्श है और बड़ा सा बैठक खाना है. जिस कमरे में वे ठहरे हैं वह नया बना है. नौ बजे वे बायो टेक्नोलॉजी विभाग में गये, जहाँ विभागाध्यक्ष ने स्वागत किया. एक छात्रा ने अपना अध्ययन प्रस्तुत किया. बाद में उनका पुस्तकालय भी देखा, जहाँ हिंदी की भी सैकड़ों पुस्तकें थीं.दोपहर का भोजन कालेज की कैंटीन में हुआ. उसके बाद शिलांग के दर्शनीय स्थान देखने निकले. सर्वप्रथम डॉन बोस्को संग्रहालय देखा, जो पूरे उत्तर-पूर्व भारत की तस्वीर पेश करता है. वहाँ से शिलांग की सबसे ऊँची चोटी पर गये, जहाँ कई दुकानें खुल गयी हैं तथा मार्ग भी पहले की तरह हरा-भरा व सुनसान नहीं रहा है. उसके बाद एलिफेंटा झरना देखा. वापसी में त्रिपुरा भवन भी गये. गोल्फ मैदान में कुछ तस्वीरें लीं, झील को दूर से निहारते हुए आगे बढ़े. पोलिस बाजार का एक चक्कर लगाया. जून के एक सहकर्मी जो साथ गये थे, उनकी ससुराल शिलांग में है, वहाँ गये. उनका घर भी लकड़ी का बना है और बहुत पुराना है. जहाँ अति स्नेह से उन्होंने नाश्ता कराया. वापस आकर कुछ देर टहलते रहे. कल सुबह सात बजे गोहाटी हवाई अड्डे के लिए निकलना है.  

कल दोपहर ढाई बजे वे घर लौट आये. घर की सफाई कराते-कराते शाम हो गयी फिर भोजन बनाते-बनाते रात. सुबह उठी तो स्कूल जाना था, बच्चों को सूर्य नमस्कार का अभ्यास कराया, जो उन्हें स्कूल के वार्षिक कार्यक्रम में प्रस्तुत करना है. लौटकर दोपहर का भोजन बनाया और अब समय मिला है कुछ देर बैठकर खुद से बात करने का. दोपहर को सोते समय लगा, वह स्वयं को सोते हुए देख रही है. अभी कुछ देर पहले दो सखियों से बात की, भाई-भाभी से भी, कल पिताजी से की थी. छोटी बहन से व्हाट्सएप पर बात हुई. दीदी से अभी रह गयी है, व्हाट्सएप पर छोटे से वीडियो में उन्हें व्यायाम करते देख उनके नाती को थिरकते देखा, बहुत अच्छा लगा. यात्रा विवरण भी लिखना है, फेसबुक पर तस्वीरें भी लगानी हैं. आज भी ब्लॉग पर कुछ नहीं लिखा, इस वर्ष की तीसरी यात्रा से लेखन में कुछ दिनों का व्यवधान पड़ा है. अभी भी पूरा मुँह खोलने में थोड़ी असुविधा होती है, ठीक एक सप्ताह पहले दांत निकलवाया था. डाक्टर ने मुँह का व्यायाम बताया था. तन और मन को जो भी हो आत्मा तो सदा एक रस है, वही सत्य है, शेष तो सब कुछ बदल रहा है. नन्हा पूना में है, आज रात वापस जायेगा या कल सुबह. उसने नया घर देख लिया है. अच्छी जगह पर है, और एक मित्र के साथ वह उसमें रहेगा. उसे फोन किया पर वह व्यस्त था.


आज सुबह भी नींद समय पर खुल गयी. कोई कह रहा था, वासना दुष्पूर्ण है अर्थात इसका कोई अंत नहीं. आज एक कविता लिखी. मृणाल ज्योति गयी. स्कूल की संस्थापिका की बाँह में दर्द है, उन्हें गर्दन के पास रीढ़ की हड्डी में भी दर्द रहता है. जीवन में कितना दुःख है, पर सभी मानव ने खुद ही एकत्र किया है. बगीचे में सफेद गुलाब की झाड़ी बहुत बढ़ गयी है, उसके लिए द्वार जैसा एक आधार बनवाना है, जून से कहा है बांस मंगवाने के लिए. किचन के बाहर का नल खराब हो गया है, उसकी शिकायत दर्ज करवानी है. बगीचे में तुलसी पुदीना के पौधे बहुत शीघ्र बढ़ रहे हैं, पत्तों का आकार तुलसी जैसा पर सुगंध पुदीने जैसी है. एक सखी का फोन आया, वैदिक गणित सीखने के लिए कह रही थी. जून से उसने पूछा तो उन्होंने कहा पहले ही इतनी व्यस्तता है, हर दिन कम से कम तीन-चार घंटे निकालने होंगे, उसका खुद का भी विशेष मन नहीं है, एक पुस्तक के द्वारा जो अब भी उसके पास है, कुछ वर्ष पहले कई सूत्र सीखे थे. आज स्कूल में फिर एक उड़ता हुआ भंवरा आया और उसकी बाँह पर बैठ गया. मन-प्राण भीतर तक एक उपस्थिति से भीग गये. चेतना हर जगह है, वही तो है, जो विभिन्न रूपों में प्रकट हो रही है !   

Monday, September 25, 2017

बड़ा पानी -उमियाम झील


कल शाम चार बजे वे गोहाटी पहुँचे थे. शाम को बाजार गये फिर एक मित्र परिवार से मिलने. रात्रि भोजन भी वहीं किया. आज सुबह ब्रह्मपुत्र के किनारे टहलने गये. नदी के तट पर कई वृक्ष लगे थे, वर्षों पुराने वृक्ष बहुत सुंदर थे पर किनारा टूटा-फूटा था और स्वच्छता का बहुत अभाव था. सड़क के दोनों किनारों पर फूलवालों की कई दुकानें लगी थीं. होटल लौटते समय फल मंडी से होते हुए आये. लौटकर स्नान, नाश्ता आदि कर नौ बजे ही गणेश गुड़ी स्थित पासपोर्ट दफ्तर के लिए रवाना हुए, जहाँ उसे अपने पासपोर्ट का नवीकरण कराना था. वहाँ काफी भीड़ थी पर उन्हें दस बजे से पहले ही बुला लिया गया. तीन भागों में सारी कार्यवाही पूरी हुई, दफ्तर में सभी कार्य काफी व्यवस्थित ढंग से हो रहे थे. साढ़े ग्यारह बजे तक सब काम हो गया. बाजार से असम सिल्क के कुरते के लिए वस्त्र खरीदा. दोपहर बाद पुनः उन्हीं मित्र के यहाँ गये, शाम को जून अपने एक सहकर्मी के घर ले गये. जिनका पुश्तैनी मकान काफी बड़ा है, तथा एक पहाड़ पर बना है. खेती भी है, उनके भाई-भाभी तथा भतीजों से मिलना हुआ. स्वादिष्ट नाश्ता करके वे होटल आ गये हैं. कल सुबह शिलांग के लिए निकलना है. कल वे चेरापूंजी जायेंगे.


‘नार्थ इस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी’ (नेहू) के पुराने गेस्ट हॉउस के वीआईपी कक्ष ‘संख्या-एक’ में बैठकर डायरी लिखने का सम्भवतः यह पहला और अंतिम अवसर है. आज सुबह ही गोहाटी से शिलांग के लिए बल्कि कहें चेरा पूंजी के लिए रवाना हुए. मेघालय और असम काफी दूर तक साथ-साथ चलते हैं, सड़क के मध्य जो विभाजक है उसके बायीं तरफ असम है और दायीं तरफ मेघालय है. असम की सीमा समाप्त होते ही पहाड़ी रास्ता आरम्भ हो जाता है. सडकें ऊंची-नीची हो जाती हैं तथा चीड़ के वृक्ष दिखने लगते हैं. मार्ग में उमियाम या बड़ा पानी नामक एक सुंदर झील पर रुककर कुछ तस्वीरें उतारीं. यह दस वर्ग किलोमीटर क्षेत्र वाली अति विशाल कृत्रिम झील है, जहाँ बिजली का उत्पादन भी किया जाता है. 

चेरापूंजी में प्रवेश करते ही दृश्य पटल बदलने लगा, रास्ता अच्छा था. गाड़ी तेज रफ्तार से चल रही थी. एक तरफ घाटियाँ दिखने लगी. पहाड़ों की ढलान जो मीलों तक नीचे गयी थी, घने जंगलों से ढकी थी. दूर के पर्वत नीले लग रहे थे और उनके पीछे धुंध थी. धूप तेज थी. आगे चलकर झरने देखे तथा प्राकृतिक गुफाएं भी, जो बहुत विचित्र हैं. इनके भीतर वर्षा के जल के निरंतर गिरने से पत्थरों ने जाने कितने वर्षों में टूटकर विभिन्न आकर ग्रहण कर लिए हैं. उनमें प्रवेश करके आड़े-तिरछे रास्तों से गुजरकर बाहर आना एक रोचक व रोमांचक अनुभव था. गुफाओं से लौटकर एक शुद्ध शाकाहारी रेस्तरां ओरेंज कंट्री में भोजन किया. भोजन बनाने वाली महिला थी तथा परोसने वाली भी सभी महिलाएं थीं. वे लगातार उस स्थान को साफ करने में लगी थीं. शिलांग के लिए वापसी की यात्रा में एक अन्य झरना दिखा, जो दूर से दिखाई दे रहा था. काफी ऊँचाई से गिरता हुआ वह नीचे घाटी में मीलों दूर गिर रहा था. शिलांग के सुंदर दृश्यों को देखते हुए वे नेहू वापस आ गये हैं. यह कैम्पस भी बहुत सुंदर है. चीड़ के जंगलों के कारण इसकी सुन्दरता और भी बढ़ जाती है. कल वे शिलांग लेक, लेडी हायड्री पार्क, गोल्फ कोर्स आदि देखने जायेंगे. डॉन बोस्को संग्रहालय भी देखने लायक स्थान होगा. आज नन्हे से बात हुई, उसने एक मित्र के साथ घर लेने का निर्णय किया है. 

Friday, September 22, 2017

काले अंगूर और चीकू











जीवन कितना सुंदर हो सकता है किसी के लिए और कितना भयावह भी किसी के लिए ! परमात्मा के संग-साथ से इसे सुंदर बना रहे हैं लाखों लोग और उससे दूर होकर कुछ लोग नर्क का निर्माण के रहे हैं, अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी. आज सुबह सामान्य थी. शनिवार की विशेष सफाई भी हुई घर में और दोपहर को बारह बजे दंत चिकित्सक के पास गयी, दांत निकलवाया है आज पहली बार. दर्द जरा भी नहीं हुआ और उसकी बताई सावधानियों का पालन करने से अब तक भी कोई दर्द नहीं है. जून ने उसके लिए काले अंगूर, चीकू तथा केले की प्यूरी बनायी, बाद में सूप बनाया. सेब भी कस करके दिया. रात्रि के आठ बजे हैं. शाम को नन्हे से बात की. वह दो रातों से घर नहीं गया. परसों ऑफिस में था कल एक मित्र के यहाँ. काम बहुत है इसलिए, पर यदि घर पर कोई इंतजार कर रहा हो, तभी तो घर जाने का आकर्षण भी रहता है. ईश्वर ही उसे सद्मार्ग पर बनाये रखेगा. उसकी कृपा सब पर बरस ही रही है. सुबह फिर एक स्वप्न देखकर नींद खुली जो अब याद नहीं है, पर दोपहर को भी अजीब सा स्वप्न देखा. एक बड़ा सा मकान है पुराने ढंग का. जिसमें कई महिलाएं काम कर रही हैं. एक हॉल की पूरी दीवार उनके बनाये रंग-बिरंगे सामानों से सजी है. कुछ कमरों में कुछ मजदूर काम कर रहे हैं. कुछ मुस्लिम भी हैं पर वे माँ, माँ का सुमधुर जाप कर रहे हैं. मुस्लिम समुदाय में एक पन्थ माँ को मानने लगा है, ऐसा भी स्वप्न में मन में स्पष्ट था. फिर उसका फोन खराब हो जाता है, उसका सिम कार्ड कोई ले गया, वह कुछ ढूँढ़ रही है, पर्स या फिर फोन ही..स्वप्न में कब क्या होगा कोई नहीं जानता, पर वे जगाने के लिए ही आते हैं.

आज दोपहर बच्चों की योग कक्षा में दो बच्चों की माएँ भी आई थीं. एक ने बताया वह महिलाओं का एक क्लब बनाना चाहती है. एक ने बताया उनका घर काफी टूट-फूट गया है, घर के आदमी को इसकी फ़िक्र ही नहीं है. उनकी मदद करने की इच्छा है उसकी. परमात्मा ने उन्हें इतना कुछ दिया है, जितना हो सके दूसरों की मदद करनी चाहिए. बगीचे में इस समय बहुत सब्जियां हो रही हैं. पत्ता गोभी, मूली, शलजम, तथा चुकन्दर भी. इसी तरह सभी समर्थ हों, संतुष्ट हों. परमात्मा उनके साथ हर घड़ी है. आज सुबह मुरारी बापू को सुना, अनोखे कथाकार हैं वह. प्रेम से छलकते हुए, राम के प्रति समर्पित..

आज स्कूल में बच्चों को सूर्य नमस्कार का अभ्यास कराया. इस समय सात बजे हैं शाम के, सुबह से  नभ पर बदली बनी हुई है. उत्तर भारत में असमय की वर्षा के कारण जान-माल का काफी नुकसान हुआ है. जलवायु परिवर्तन का असर स्पष्ट दिखने लगा है. कल रात वे सोने के लिए लेटे ही थे कि पीछे सर्वेंट क्वाटर्स में से झगड़ने की आवाजें आने लगीं. नर्क जैसा जीवन है इनका. अशिक्षा, निर्धनता और ऊपर से नशा, काश वह इनके लिए कुछ कर पाती. परसों उन्हें गोहाटी जाना है. बड़ी भाभी अभी भी अस्पताल में हैं, सम्भवतः अगले महीने वे उनसे मिलने जाएँ.

       

Tuesday, September 19, 2017

क्रिकेट का विश्वकप


आज होली है, हर बार से कुछ अलग रही आज की होली ! रंग को छुआ भी नहीं, पर अंतर रंग गया हो तो बाहर के रंग और क्या करेंगे. दोपहर को स्वयं को सोते हुए देखा, बिलकुल स्पष्ट, भीतर कोई जाग रहा था और देह शांत थी, श्वास भी गहरी हो गयी थी. बाद में कोई स्वप्न चलने लगा. जब स्वप्न नहीं रहेंगे तभी पूर्ण मुक्ति का अनुभव होगा. इस समय टीवी पर क्रिकेट विश्वकप का मैच चल रहा है. भारत बहुत विषम परिस्थिति में है. पांच विकेट गिर गये हैं. शाम को नाश्ते में लिट्टी चोखा बनाया, होली का विशेष भोजन. बड़ी भाभी अब पहले से बेहतर हैं, भाई शांति से उनकी देखभाल कर रहे हैं.

आज सुबह उठी तो एक स्वप्न की स्मृति बनी हुई थी. वे नन्हे के घर गये हुए हैं. उसे अपने मित्रों के साथ एक विवाह में जाना है. मित्र पहले ही आ गये हैं पर वह स्वयं अभी आया नहीं है. आता है तो कहता है वह नहीं जायेगा, बिलकुल तटस्थ लग रहा है. एक दिन स्वप्न में गुरूजी को कितना स्पष्ट देखा था. एक में तो वह दूर से निकल जाते हैं तेज-तेज चलते हुए, दूसरे में वे उनके निकट हैं, उनका स्नेह बरस रहा है. अज दोपहर को भी बहुत जीवंत स्वप्न थे. एक अनोखी दुनिया उसके भीतर खुल गयी है, जागृत से भी अधिक जीवंत दुनिया. विपासना केंद्र में एक दिन ध्यान के वक्त ऐसा अनुभव हुआ जैसे हाथ में काला पेन आ गया है निब वाला और पलक झपकते ही सारा बांया हाथ काला हो गया, आश्चर्य करे इससे पूर्व ही सामान्य हो गया. एक क्षण में कोई पूर्व कृत्य जैसे सम्मुख आया हो. एक बार तो किसी के खांसने की आवाज ऐसे लगी जैसे कोई वृक्ष गिर गया हो. एक दिन तो स्वयं को देह से पृथक महसूस किया. आज सुबह चार बजे एक बाद उठी. प्रतिदिन की भांति रही दिनचर्या. इतवार था और महिला दिवस भी, सो इडली का नाश्ता जून ने बनाया. शाम को एक विवाह उत्सव में जाना है. कल लेडीज क्लब की मीटिंग है और डेंटिस्ट के पास भी जाना है. नीचे के दातों की स्केलिंग कर दी है, कल शेष करेगा.

आज घर में गुरू पूजा है. तैयारी लगभग हो चुकी है. बड़ी भाभी के लिए प्रार्थना करने का मन होता है. ईश्वर उन्हें शक्ति दे. आज प्रातः भ्रमण से लौटते समय भीतर का वासी कितना मुखर हो गया था. कितने स्पष्ट शब्दों में अपने होने का अहसास दिला रहा था. अब लग रहा है कितने दूर की बात है. सुबह वाकई सतयुग होता है, मन कैसा खिला-खिला सा. दोपहर तक उसी भाव में डूबा रहा मन. तितली पर एक कविता भी लिखी. बगीचे में सुंदर फ्लौक्स खिले हैं, देर से खिले पर बहुत सुंदर हैं. फूलों की बहार है इस समय उपवन में. नन्हे से बात की, वह अपने काम से खुश है, काम ज्यादा है पर उसे कोई शिकायत नहीं है. यू ट्यूब पर श्री श्री के विचार सुने. परमात्मा की उपस्थिति को हर पल अपने होने से अभिव्यक्त करने वाले सद्गुरू कितना बड़ा योगदान समाज, देश और दुनिया को दे रहे हैं.     


Friday, September 15, 2017

फूलों पर श्वेत तितली


रात्रि के आठ बजे हैं, अभी-अभी वे बाहर टहल कर आये हैं. गेट के दोनों ओर लगे श्वेत और गुलाबी कंचन के वृक्ष फूलों से भर गये हैं. ठंडी बयार बह रही थी. सुबह का भ्रमण भी सुखद था. मार्च का प्रथम दिन है आज, धूप में अब तेजी आ गयी है. दोपहर को बच्चों को अभ्यास कराया, ध्यान करते हुए वे कितने शांत लग रहे थे, कुछ पल पहले शोर मचाते हुए जो दौड़ रहे थे, कुछ ही पलों में स्थिरता को अनुभव करने लगे थे. उड़िया सखी आयी तो उसे शील, समाधि, प्रज्ञा के बारे में बताया. आठ मार्च को महिला दिवस के अवसर पर गुरूजी ने कुछ विशेष कार्यक्रम करने को कहा है. वह आस-पास की महिलाओं को बुलाकर कुछ बताएगी. आज प्रधान मंत्री को NASCOM के रजत जयंती कार्यक्रम में बोलते सुना, अच्छा लगा. कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी की संयुक्त सरकार बन रही है, यह भी एक बड़ी सफलता है.

एक शुद्ध, बुद्ध, मुक्त चेतना इस देह में रहकर इन्द्रियों द्वारा इस प्रकृति का अनुभव प्राप्त करती है. मन के द्वारा मनन करती है, बुद्धि के द्वारा निर्णय लेती है तथा अहंकार के द्वारा क्रिया करती हुई प्रतीत होती है. जबकि उसका स्वभाव मात्र जानने का है, वह ज्ञाता व द्रष्टा मात्र है. देह स्वभाव के अनुसार कार्य करती है, मन स्वभाव के कारण कभी भूत कभी भविष्य में जाता है. बुद्धि स्वभाव के अनुसार घटनाओं को परखती है, वह आत्मा इन सबको देखती है, वह शुद्ध चेतना भीतर है जो प्रतिपल इन सबको देखती है, तथा वह अपने में पूर्ण है और प्रतिक्षण संतुष्ट है. मन द्वारा कार्य किये जाने पर तथा बार-बार उसे दोहराए जाने पर जो संस्कार अंतर्मन पर पड़ गये हैं, उन्हें भी उभरने पर वह साक्षी भाव से देखती है. आँखों के द्वारा इस सुंदर सृष्टि को निहारना, स्वयं के भीतर ही अद्भुत नाद को सुनना उसे भाता है. स्वयं के अनंत स्वरूप में गहरे उतरते चले जाना और कोई बाधा, कोई अवरोध न पाना भी ! परमात्मा का विभिन्न रूपों में प्रकट होना भी ! आज स्कूल में छोटे बच्चों की योग कक्षा लेते समय एक तितली आयी और एक बच्चे के सिर पर  मंडराने लगी, बड़े बच्चों की कक्षा में एक तितली घायल अवस्था में पड़ी दिखी. पिछली बार उसके मन में पुराने किसी संस्कार के जगने पर हिंसा का विचार आया था. परमात्मा के मार्ग विचित्र हैं. वह रहस्यमय तो है ही, प्रकट होकर भी वह अप्रकट है ! आज एक परिचिता के साथ मृणाल ज्योति भी गयी, जिसके दिव्यांग भाई की वर्षों पहले मृत्यु हो गयी थी, उसके जन्मदिन पर दिव्यांग बच्चों के लिए खाने-पीने का कुछ सामान ले गयी थी वह. जून आज सुबह से ही व्यस्त हैं, ओएनजीसी से कुछ लोग आये हैं.

रात्रि के साढ़े आठ बजे हैं. तेज वर्षा हो रही है. बादल सुबह भी थे जब वह पैदल चलकर बुजुर्ग आंटी से मिलने गयी. वह बिस्तर पर बैठकर किताब पढ़ रही थीं, खुश हुईं देखकर. अपनी सेविका की बहुत शिकायत कर रही थीं, जैसे कि अक्सर कुछ वृद्ध व्यक्ति शिकायत करना अपना स्वभाव ही बना लेते हैं. अगले हफ्ते वे गुरूपूजा रखवा रहे हैं. कितनी कृपा है गुरू की उन पर. जीवन का सही अर्थ उन्होंने ही बताया है. धरा पर यदि कोई जागा हुआ न हो तो इसकी रौनक कोई देख ही न पाए उस तरह जिस तरह ये वास्तव में हैं ! जो दिखाई नहीं देता वह उससे ज्यादा सुंदर है जो दिखाई देता है...परमात्मा सदा ही किसी न किसी रूप में धरा पर मौजूद रहता है. वैसे तो वही है हर रूप में..पर इस बात को समझने के लिए जो सूक्ष्म दृष्टि चाहिए वह तो गुरू ही देता है ! आज शाम उन्हें गुलाब जामुन बनाने हैं, कल होली है, वे न भी खेलें तो कोई अतिथि घर आये, उसके स्वागत के लिए कुछ मीठा तो होना ही चाहिए. मौसम आज भी अच्छा है. ठंडी सी सुहावनी हवा बह रही है, एक श्वेत तितली फूलों पर मंडरा रही है, उड़ती हुई तितली कितनी मोहक लगती है ! बड़ी भाभी का स्वास्थ्य अब ठीक हो रहा है, कमजोरी बहुत है ऐसा बड़े भाई ने बताया. उसने मन ही मन प्रार्थना की, ईश्वर उन्हें शीघ्र स्वस्थ करे ! कल शाम को आठ महिलाओं को विपासना के बारे में बताया, शील, समाधि व प्रज्ञा के बारे में भी बताया. उन्हें अच्छा लगा, अगले महीने फिर आने को कहा है. कल पुस्तकालय से तीन किताबें लायी. वी. एस. नायपाल की आत्मकथा, डा. मनमोहन सिंह पर एक पुस्तक तथा आर के नारायण की पुराणों से संबंधित एक पुस्तक. तीनों पुस्तकें यकीनन अच्छी होंगी. परमात्मा रह-रह कर किसी न किसी इशारे से अपनी याद दिला देता है ! यदि कुछ देर तक उसका स्मरण न आये तो...    

Wednesday, September 13, 2017

समता की चट्टान


रात्रि के आठ बजने को हैं. एक दिन और साक्षी भाव में बीत गया. सुबह समय से उठी, गला अभी भी पूरी तरह ठीक नहीं है, बायीं तरफ के निचले दांत में दर्द है, पर लगता है ये सब किसी और को हैं. मन भी जैसे दूर खो गया लगता है, भीतर बस एक गहन मौन है. उम्मीद है अगले एकाध दिन में स्वास्थ्य पूर्ववत हो जायेगा. मन में एक विचार आता है, कोर्स के दौरान अन्यों को खांसते जो विरोध का भाव मन में जगाया था, वह सही नहीं था. शायद उसी का परिणाम हो, साक्षी में रहना होगा. देखकर सुबह ब्लॉग पर एक कविता पोस्ट की, कुछ अन्य पढ़ने का अब मन नहीं होता. जीवन में एक बिलकुल ही नया मोड़ आया है.  दोपहर को धम्मा रेडियो खोलकर कुछ सुनना चाहा तो हर्मन हेस के उपन्यास सिद्धार्थ की बात ही सुनाई दी. पुस्तक का नायक वासुदेव एक नदी को देखकर अपने मन के रहस्यों का पता लगा लेता है. मन भी हर वक्त एक नदी की तरह बहता जाता है. नदी की तरह कितने मौसम बदलते हैं मन के. मन का आधार वे संस्कार हैं जो हर पल लहरों की तरह बनते-मिटते रहते हैं. मन के किनारे बैठकर जो इसे देखना सीख जाता है, वह इससे प्रभावित नहीं होता. कल मृणाल ज्योति गयी थी, कमेटी में वर्किंग प्रेसिडेंट का काम देखना होगा. पहले सा ही काम होगा, बस कुछेक जगह हस्ताक्षर करने होंगे.

आज सुबह जून से कहा, डाक्टर को दिखा लेते हैं. अस्पताल गयी, दोएक दवाएं दी हैं. अब शाम हो गयी है, पर जून को किसी कार्यवश दफ्तर जाना पड़ा है. आजकल वह उसका बहुत ध्यान रखने लगे हैं, उन्होंने उसके भीतर आए परिवर्तन को देखा है और उसने भी उनके भीतर आए परिवर्तन को. उनके मध्य आत्मिक मैत्री की एक मधुर रसधार बहने लगी है. वे एक-दूसरे के साथ उतने ही सहज रहते हैं जैसे अपने साथ. आज सुबह उठी तो वर्षा हो रही थी, इस वक्त भी बादल गरज रहे हैं. सुबह एक स्वप्न में देखा जून और वह बिना छाता लिए तेज वर्षा में एक लम्बी सड़क पर चल रहे हैं, आगे जाकर अँधेरा होने लगता है पर वे रुकते नहीं, फिर पता नहीं कब स्वप्न टूट गया. उसकी आध्यात्मिक यात्रा एक पड़ाव पर आकर रुक सी गयी लग रही है, पर अभी और आगे जाना है, मंजिलें और भी हैं. अपने भीतर जगी इस अनोखी शांति को परिपक्व होने देना है. जीवन को एक उत्सव बनाना है, जीवन की पूर्णता को प्राप्त करना है. परमात्मा हर क्षण उसके साथ है, वही तो है. उसकी स्मृति, उसका ख्याल नहीं वही साक्षात् ! जीवन की पूर्णता का अनुभव यही तो है, जीवन का उत्सव भी यही है. चित्त की निर्मलता ही साधना का लक्ष्य है, कोई अनुभव कितना भी सुंदर क्यों न हो, समाप्त हो जाता है पर भीतर की समता एक चट्टान की तरह अडिग रहती है.


आज भी वर्षा हो रही है, सुबह-शाम दोनों वक्त बरामदे में ही टहलना पड़ा, कुछ देर के लिए लॉन और ड्राइव वे पर निकले पर रह-रह कर बूंदे बरसती रहीं और कुछ ही मिनटों में वापस आना पड़ा. फरवरी का मौसम असम में ऐसा ही होता है, शाम होते ही बादल गरजने लगते हैं और..उसका मन एक अतीव मौन में डूबा हुआ है. अभी तक देह अस्वस्थ है पर वह उससे प्रभावित नहीं है, देह और मन से दूरी बढ़ती जा रही है. उस अनाम की उपस्थिति का अहसास गहराता जा रहा है. लगता है अब कुछ भी पाने को या जानने को शेष नहीं रहा है, जीवन आगे बढ़ने का नाम अवश्य है पर अब आगे बढ़ना गहराई में डूबना होगा अथवा ऊँचाई पर चढ़ना, न कि किसी राह पर आगे बढ़ना. सारा विश्व जैसे एक सूत्र में पिरोया हुआ है और वह सूत्र उससे होकर भी जाता है, सदा से ऐसा ही था और सदा ऐसा ही रहेगा. यह देह एक दिन गिर जाएगी, फिर भी यह चेतना तो रहेगी ही. आज सुबह ध्यान में बैठी तो किसी विधि का आश्रय नहीं लिया, परमात्मा चारों ओर है, बस उसे सीधे ही अनुभव करना है. अब सारी विधियाँ बेमानी हो गयी हैं, जैसे अब किसी शास्त्र को पढ़ने की भी आवश्यकता भी महसूस नहीं होती. मन उस नितांत मौन में डूबे रहना चाहता है जहाँ कभी-कभी एकांत को तोड़ने एक पक्षी की दूर से आती आवाज सुनाई देती है. ईश्वर ही उसके जीवन के आगे के मार्ग का निर्धारण करेंगे. संवेदनाओं के द्वारा भीतर राग-द्वेष जगाने के दिन समाप्त हुए, अब साक्षी भाव ही सध रहा है. समता भाव ही योग है, कृष्ण ने भी कहा है.    

Monday, September 11, 2017

मंगल मैत्री


एक रात्रि स्वप्न में स्वयं को किसी दुःख से छुड़ाने के लिए रोकर पुकार लगाते सुना, फिर अपने ही मुँह से एक धातु का उपकरण निकालकर हाथ में रखा, स्पष्ट था कि पीड़ा का कारण यही था. तब जैसे किसी ने कान में फुसफुसा कर कहा, अपने आप को स्वयं ही क्यों दुखी बनाती हो? फिर नींद खुल गयी.

एक स्वप्न में देखा, उठना चाहती है पर आँखें हैं कि खुलने का नाम नहीं लेतीं, बंद आँखों से ही चल पड़ती है तो सामने दीवार आ जाती है, दिशा बदल कर सड़क पर आ जाती है और आँखें खोलने में समर्थ हो जाती है. एक स्वप्न में खुद को निरंतर ७८६ को उच्चारित करते हुए पाया. एक और स्वप्न में भगवान शंकर का जयकार करते हुए. ये सारे स्वप्न यही तो बता रहे थे कि न जाने कितने बार यह चक्र घूम चुका है अब कहीं तो इसे रुकना होगा. कभी-कभी ऐसे व्यर्थ के विचार भी आते कि हँसी आती, पर जो-जो भीतर रिकार्ड किया है वह तो निकलेगा ही, सारी साधना समता भाव बनाये रखने की है. कोई भी अनुभव कितना भी सुंदर क्यों न हो समाप्त हो जाता है, पर भीतर की समता एक चट्टान की तरह अडिग रहती है.

अंतिम दिन का पाठ भी अतुलनीय था, जिसमें मंगल मैत्री सिखायी गयी. प्रतिदिन सुबह व शाम की साधना के बाद सारे विश्व के लिए मंगल कामना करने को कहा गया जिससे सारे पुण्य केवल स्वयं की शुद्धि के लिए समाप्त न हो जाएँ सब दिशाओं में उन्हें प्रसारित करना होगा. सबके मंगल में ही अपना मंगल छिपा है, भगवान बुद्ध की यह मंगल भावना कितनी पावन है. धरा पर यदि कोई जगा हुआ न हो तो इसकी रौनक कोई देख ही न पाए, उस तरह, जिस तरह यह वास्तव में है ! जो दिखायी नहीं देता, वह उससे ज्यादा सुंदर है जो दिखायी देता है. ‘शील, समाधि और प्रज्ञा’ भगवान बुद्ध के बताये इस मार्ग पर चलकर न जाने कितने लोग दुखों से मुक्ति का अनुभव कर चुके हैं, और अनेक भविष्य में भी करते रहेंगे. 

कल यात्रा विवरण पूरा हुआ. इस समय दोपहर का पौने एक बजा है. बाहर के बरामदे में बैठकर लिखने का सुअवसर हफ्तों बाद मिला है. लॉन में फूल खिले हैं, धूप पसरी है और अवश्य तितलियाँ भी होंगी. अभी तक सुबह के वक्त हवा में ठंड का अहसास होता है. उसके गले में खराश है. पिछले दिनों दिनचर्या तथा भोजन के बदलाव और मन के आपरेशन के कारण, अथवा पता नहीं क्या है इसके पीछे. उसका मन या कहे ‘मन’ न जाने कितने संस्कार छिपाए है और हर पल वे नये संस्कार बनाते चल रहे हैं. उनसे जो भी गलत हुआ है, उसका हिसाब तो चुकाना ही होगा. प्रकृति का नियम है विकार जगाया तो व्याकुल होना ही पड़ेगा. अतीत में जो विकार जगाये तथा जिन्हें अचेतन मन की परतों में दब जाने दिया, साधना के द्वारा वे उभर कर ऊपर आते हैं तो देह पर ही प्रकट होते हैं. परमात्मा हर क्षण उनके साथ है, वह हर भाव, विचार तथा कृत्य का साक्षी है, वह अकारण दयालु है, कृपा का सागर है. उसकी उपस्थिति का अनुभव होने के बाद राग-द्वेष व मोह के बंधन नहीं बाँधते. ऐसे व्यक्ति के लिए अब न कोई अपना है न ही पराया. न ही मूढ़ता उसे भाती है. देह में होने वाले स्पंदन तथा अनुभूतियाँ उसका स्मरण करा देती हैं. 

Saturday, September 9, 2017

नदी और मौसम


सुबह आठ बजे से नौ बजे तक, दोपहर ढाई से साढ़े तीन बजे तक तथा शाम छह से सात बजे तक सामूहिक साधना होती थी. जिसमें सभी साधकों का पूरे वक्त उपस्थित रहना आवश्यक था. शेष समय में कभी–कभी पुराने साधकों को अपने निवास स्थान पर ध्यान करने के लिए कहा जाता था और कभी-कभी कुछ नये और पुराने साधकों को शून्यागारों में ध्यान करने के लिए कहा जाता था. गोल पगोड़ा में स्थित शून्यागार एक विशिष्ट आकार के छोटे-छोटे ध्यान कक्ष थे, जिनमें अकेले बैठकर ध्यान करना होता था. एक दिन शून्यागार में ध्यान करते हुए अनोखा अनुभव हुआ, जिसमें एक क्षण के लिए स्वयं को देह से अलग देखा, जैसे वह पृथक है और देह बैठकर ध्यान कर रही है. जैसे ही इस बात का बोध हुआ, अनुभव जा चुका था.

विपश्यना आरम्भ होने पर चौथे दिन के उत्तरार्ध से गुरूजी ने शरीर में होने वाली संवेदनाओं पर ध्यान देने को कहा. पहले दिन केवल नाक के छल्लों तथा ऊपर वाले होंठ के ऊपर वाले भाग पर ही, बाद में सिर से लेकर पैर तक एक-एक अंग पर कुछ क्षण रुकते हुए वहाँ होने वाली किसी भी तरह की संवेदना को देखना था. यह संवेदना किसी भी प्रकार की हो सकती थी, दर्द, कसाव, खिंचाव, सिहरन, खुजली, फड़कन या अन्य किसी भी प्रकार का शरीर पर होने वाला अनुभव. मुख्य बात यह थी कि संवेदना चाहे सुखद हो या दुखद, उसके प्रति किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं करनी थी. वे सभी संवेदनाएं स्वतः ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती हैं, साक्षी भाव से इस अनित्यता के नियम का दर्शन करना था. उनका अंतर्मन न जाने कितने संस्कार छिपाए है और हर पल वे नये संस्कार बनाते चल रहे हैं. उनसे जाने-अनजाने जो भी गलत-सही हुआ है, उसका हिसाब तो चुकाना ही होगा. औरों को देखकर जो द्वेष का भाव मन में जगता है वह भीतर गाँठ बनकर टिक जाता है. प्रकृति का नियम है विकार जगाया तो व्याकुल तो होना ही पड़ेगा. अतीत में जगाये विकार समय आने पर देह पर किसी न किसी रोग के रूप में आकर प्रकट हो सकते हैं. साक्षी का अनुभव होने के बाद राग, द्वेष व मोह के बंधन नहीं बंधते.

आठवां दिन आते आते तो मन भी जैसे दूर खो गया लगता था, देह पर होने वाले सुख-दुःख जैसे किसी और को हो रहे हैं. मन एक असीम मौन में डूबा हुआ है. लगा, सारा विश्व जैसे एक ही सूत्र में पिरोया हुआ है और वह सूत्र उस से होकर भी जाता है, सदा से ऐसा ही था और सदा ऐसा ही रहेगा, यह देह एक दिन गिर जायेगी फिर भी यह चेतना किसी न किसी रूप में तो रहेगी ही. एक दिन गोयनका जी ने कहा, मन और देह दोनों एक नदी की तरह हैं. मौसम बदलते हैं तो नदी भी बदलती है वैसे ही मन और देह के भी मौसम होते हैं. देह का आधार अन्न है और मन का आधार संस्कार हैं जो हर पल बनते-मिटते रहते हैं. मन के किनारे बैठकर जो इसे देखना सीख जाता है वह इससे प्रभावित नहीं होता. 

Thursday, September 7, 2017

जागती आँखों के स्वप्न



साधकों में विभिन्न राज्यों के व देशों के लोग थे. ग्यारह बजे घंटे की आवाज से दूसरा सत्र खत्म हुआ. यह दोपहर के भोजन का समय था. सात्विक, शाकाहारी भोजन परोसा जाता था, जिसमें पीली दाल, एक आलू की सब्जी जिसमें कभी मटर, कभी सफेद चने, कभी कटहल या टमाटर आदि होते थे. एक सूखी सब्जी, चावल तथा रोटी होती थी. छाछ व मीठी चटनी भी अक्सर मिलती थी. भोजन के पश्चात एक घंटा विश्राम के लिए था. दोपहर एक बजे से पुनः साधना का क्रम शुरू होता जो दो बजे तक चलता. आधे घंटे के विश्राम के बाद फिर ढाई से साढ़े तीन बजे तक तथा पांच मिनट के विश्राम के बाद शाम पांच बजे तक पुनः चलता. लगातर इतने समय बैठा रहना व श्वास पर ध्यान देना इतना सरल कार्य नहीं था. सभी को पैरों में जगह-जगह पीड़ा होने लगती, आसन बदलते, धीरे-धीरे इधर-उधर पैरों को मोड़ते उसी स्थान पर किसी तरह स्वयं को सम्भाले बैठे रहते. आँख भी नहीं खोलनी थी, कुछ मिनट के प्रारम्भिक निर्देशों के बाद स्वयं ही ध्यान करना होता था. पुराने साधक आराम से बैठे रहते. आखिर गोयनका जी की आवाज आती, अन्निचा..एक पद बोलते और सत्र समाप्त होता. पांच बजे का घंटा राहत लाता, यह शाम की चाय का समय था. जिसके साथ कोई एक फल तथा मूड़ी दी जाती जिसमें दो-चार दाने मूंगफली के या भुजिया पड़ी होती. उसके बाद सभी शाम की हवा का आनंद लेते हुए टहलने लगते. धीरे-धीरे चलते हुए अपने भीतर खोये साधक अन्यों की उपस्थिति से बेखबर प्रतीत होते थे. सभी के मन का पुनर्निर्माण आरम्भ हो चुका था. छह बजे पुनः घंटी बजती और सात बजे तक ध्यान चलता. फिर पांच मिनट का विश्राम तथा उसके बाद गोयनकाजी का प्रवचन आरम्भ होता जो साढ़े आठ बजे तक चलता, जिसमें दिन भर में हुई साधना के बारे में तथा आने वाले दिन के लिए साधना के निर्देश दिए जाते तथा विधि को समझाया जाता. जिसके बाद पुनः पांच मिनट का विश्राम फिर रात्रि पूर्व का अंतिम ध्यान होता था.

नौ बजे घंटा बजता और जिन्हें साधना संबंधी कोई प्रश्न पूछना हो वह आचार्य या आचार्या से साढ़े नौ बजे तक पूछ सकते थे. शेष कमरे में आकर सोने की तैयारी करते. पर दिन भर ध्यान करने से सचेत हुआ मन नित नये स्वप्नों की झलक दिखाता. बीते हुए समय की स्मृतियाँ इतने स्पष्ट रूप से देखीं. जिनके साथ कभी मनमुटाव हुआ था उसका कारण जाना, जिसके सूत्र पिछले जन्मों से जुड़े थे, उनसे सुलह हो गयी. एक रात्रि तो हजारों कमल खिलते देखे. हल्के बैगनी रंग के फूल फिर रक्तिम आकृतियाँ...वह रात्रि बहुत विचलित करने वाली थी. आंख खोलते या बंद करते दोनों समय चित्र मानस पटल पर स्पष्ट रूप से चमकदार रंगों में आ रहे थे. ऐसी सुंदर कलाकृतियाँ शायद कोई चित्रकार भी न बना पाए. हरे-नीले शोख रंगों की आकृतियाँ बाद में भय का कारण बनने लगीं. उनका अंत नहीं आ रहा था. फिर कुछ लोग दिखने लगे. एक बैलगाड़ी और कुछ अनजान स्थानों के दृश्य. जगती आँखों के ये स्वप्न अनोखे थे. एक बार तो आँख खोलने पर मच्छर दानी के अंदर ही आकाश के तारे दिखने लगे, फिर उठकर चेहरे धोया, मून लाइट जलाई. रूममेट भी उठ गयी थी पर कोई बात तो करनी नहीं थी, सोचा आचार्यजी के पास जाए पर रात्रि के ग्यारह बज चुके थे. पहली बार घर वालों का ध्यान भी हो आया. जिनसे पिछले कुछ दिनों से कोई सम्पर्क नहीं था. फिर ईश्वर से प्रार्थना की (जिसके लिए मना किया गया था) तय किया कि कल से आगे कोई ध्यान नहीं करेगी. वह छठा दिन था. बाकी चार दिन सेवा का योगदान देगी. लगभग दो बजे तक इसी तरह नींद नहीं आयी, बाद में सो गयी. उस दिन सुबह चार बजे नहीं उठी, सोच लिया था अब आगे साधना नहीं करनी है. छह बजे मंगल पाठ के वक्त गयी. आधा घंटा बैठी रही. आठ बजे के ध्यान से पूर्व ही आचार्या से मिलकर जब सारी बात कही तो उन्होंने कहा, यह तो बहुत अच्छा हो रहा है, मन की गहराई में छिपे संस्कार बाहर निकल रहे हैं. इसमें डरने की जरा भी आवश्यकता नहीं है. वे बोलीं, उसे तो फूल दिखे, किसी-किसी को भूत-प्रेत दीखते हैं तथा सर्प आदि भी. उन्होंने कहा, यदि भविष्य में ऐसा हो तो हाथ व पैर के तलवे पर ध्यान करना ठीक होगा उनकी बात सुनकर पुनः पूरे जोश में साधना में रत हो गयी. अगले दिन जब ऐसा हुआ तो कुछ भी विचित्र नहीं लगा, श्वास पर ध्यान देने व उनके बताये अनुसार ध्यान करने से सब ठीक हो गया. 

आना-पान की साधना


सात बजे उन्हें दफ्तर के बायीं तरफ दो तल्ले पर स्थित पुराने ध्यान कक्ष में ले जाया गया, जहाँ कुछ औपचारिक बातें समझाई गयीं. एक फिल्म भी दिखायी गयी जिसमें केंद्र में रहने के नियमों की जानकारी दी गयी थी. अगले दस दिनों तक उन्हें सदा ही मौन रहना था, धीरे-धीरे चलना था तथा किसी से नजर नहीं मिलानी थी. स्वयं को पूर्ण एकांत में ही समझना था. किसी भी तरह की अन्य साधना इन दस दिनों में भूलकर भी नहीं करनी थी. कोई मन्त्र जप या किसी भी तरह का ताबीज, अगूँठी आदि धारण नहीं करनी थी तथा किसी की शरण में नहीं जाकर केवल अपनी शरण में रहना था. समय का पालन करना था. पांच शीलों का पालन बहुत कठोरता से करना है. पांच शील हैं- चोरी न करना, असत्य भाषण न करना, किसी भी तरह का नशा न करना, किसी भी तरह की हिंसा न करना, व्यभिचार न करना. वहाँ से सभी को मुख्य धम्मा हॉल में ले जाया गया, जो काफी बड़ा था. महिला साधक दायीं तरफ तथा पुरुष साधक बायीं ओर बैठते थे. सभी को निश्चित स्थान व आसन दिया गया. पूरे साधना काल में उसी स्थान पर व उसी आसन पर बैठना था. मुख्य आसन के अलावा वहाँ कई आकार के छोटे-बड़े तकिये थे जिन्हें देखकर पहले आश्चर्य हुआ था पर बाद के दिनों में पैरों में दर्द होने पर सभी को उनका उपयोग करते देखा. आखिर दिन भर में दस-ग्यारह घंटे नीचे बैठना था.

रात्रि नौ बजे वहाँ से वे अपने-अपने कमरे में आ गये. मच्छर दानी लगाने तथा सोने के लिए तैयारी करने में पांच-सात मिनट लगे और कमरे की बत्ती बुझाकर सोने की चेष्टा की तो पहले नई जगह के कारण कुछ देर नींद नहीं आयी, फिर रूममेट के खर्राटों की आवाज के कारण, लेकिन बाद में पता नहीं कब नींद आ गयी. सुबह ठीक चार बजे घंटे की आवाज से नींद खुली तो उठकर बिस्तर ठीक किया, पानी पीया और नित्य क्रिया से निवृत्त होकर समय पर धम्मा हॉल में पहुंची. सवा चार बजे पुनः घंटा बजता था तथा उसके बाद भी धर्मसेविका सभी कमरों के सामने से हाथ में घंटी लिए बजाती हुई एक चक्कर लगाती थीं ताकि कोई सोता न रह जाये. उसके बाद भी यदि कोई नहीं उठा तो कमरे में झांककर देखती थीं. अब हर रोज सुबह का यही क्रम था.  

पहले साढ़े तीन दिन श्वास पर ध्यान देने की विधि समझायी गयी, जिसे आना-पान कहते हैं. अगले साढ़े छह दिन विपश्यना का अभ्यास कराया गया जिसमें शरीर पर होने वाले स्पंदनों को समता भाव से देखना होता है. प्रतिदिन सुबह छह बजे गोयनका जी की धीर-गम्भीर आवाज में बुद्ध वाणी का ‘मंगल पाठ’ होता था. जो पाली में था तथा जिसका अर्थ पूरी तरह समझ में नहीं आता था. शेष समय में भी गोयनका जी बुद्ध के धम्म पदों का उपयोग करते थे तथा बीच-बीच में स्वरचित दोहों के द्वारा उनका अर्थ स्पष्ट करते जाते थे. ठीक साढ़े छह बजे घंटा बजता था जिसका अर्थ था नाश्ते का समय हो गया है. होना तो यह चाहिए था कि नहाकर नाश्ता करें पर सभी पहले भोजनालय में पहुंच जाते जहाँ अक्सर सूजी का ढोकला, मीठी चटनी, काले चने की घुघनी, कोई एक फल, चाय, दूध मिला करता था. कभी-कभी पोहा व दलिया भी मिला जिसमें दूध नहीं था बल्कि हल्की मिठास थी. नाश्ते के बाद कुछ देर टहलने के बाद स्नान की तैयारी. आठ बजे पुनः सभी हॉल में पहुँचते, गोयनका जी की आवाज में श्वास पर ध्यान देने की विधि सिखाई गयी. शुद्ध श्वास पर ध्यान देना था जिससे मन अपने आप केन्द्रित होता जाता था. नौ बजे के बाद पांच मिनट का विश्राम लेने को कहा गया. विश्राम का अर्थ था हॉल के बाहर बने पक्के फुटपाथों पर टहलना जिससे पैरों की जकड़न खुल जाती थी. कुछ लोग कमरे की तरफ भागते ताकि पांच मिनट लेट कर कमर सीधी कर लें. पुनः साधना का क्रम चला तो समय लम्बा खिंचता चला गया. गोयनका जी अपनी स्पष्ट व प्रखर वाणी में निर्देश दे रहे थे. पुरुषार्थ और पराक्रम करने की प्रेरणा भी बारी-बारी से हिंदी व अंग्रेजी भाषों में दे रहे थे.

Monday, September 4, 2017

धम्म गंगा


वे घर लौट आये हैं. मन अधिक शांत है और स्मृतियों से भरा है. दस दिनों तक ध्यान के गहन प्रयोग के बाद भीतर कितना शून्य जग गया है. उसने मन को पीछे ले जाकर देखा और लिखना आरम्भ किया - उस दिन शांत दोपहरी को दो बजे कोलकाता के IIMC से सोदपुर स्थित विपासना केंद्र ‘धम्म गंगा’ के लिए रवाना हुई थी. कोलकाता से लगभग तीस किमी दूर गंगा के तट पर स्थित केंद्र तक पहुंचने में दो-ढाई घंटे लग गये. ड्राइवर को बाहर छोड़कर लोहे के गेट के बायीं तरफ छोटे द्वार से अंदर पता करने के लिए चली गयी कि कार अंदर जा सकती है या नहीं, लौटी तो कार कहीं नजर नहीं आ रही थी. मन के भीतर छिपा भय का  संस्कार सामने आ गया, गोयनका जी कहते हैं कोई भी विकार दुख का कारण ही बनता है. अब भय जगा तो झट प्रतिक्रिया हुई, पतिदेव को फोन कर दिया, उनके आशाजनक शब्दों ने विश्वास दिलाया. ड्राइवर दूसरी गली में जाकर गाड़ी मोड़ने चला गया था. वह वापस आया तो मन ही मन उससे क्षमा मांगी. धैर्य का दामन छोड़कर जो मन झट प्रतिक्रिया करने में जुट जाता है वह गलत निर्णय पर ही पहुंचता है. यह पाठ आते ही सीख लिया था.
भीतर पहुंच कर कुछ समय औपचारिकताओं में बीत गया. फार्म भरवाया गया. प्यास भी लग रही थी और लम्बे सफर से सिर में हल्का दर्द भी था. अगले दस दिनों तक रहने के लिए जो कमरा मिला उसका नम्बर आठ था, एक युवा बंगाली लड़की जो बैंगलोर में रहकर काम करती है, पर उसका घर कोलकाता में है, उस कमरे में पहले से ही थी. उसने दो-चार बातें ही की होंगी कि पता चला ऑफिस में जाकर मोबाइल व अन्य कीमती सामान लॉकर में रखवाने हैं. वहीं पता चला छह बजे घंटा बजेगा तब नाश्ता व चाय मिलेगी, जो आज का अंतिम भोजन होगा. शाम का वक्त था, सूर्यास्त का समय. केंद्र का बगीचा जहाँ खत्म होता था, वहाँ बरगद के एक विशाल वृक्ष के चारों तरफ एक बड़ा चबूतरा था. जिसपर चढ़कर गंगा का चौड़ा पाट देखा. नदी का शांत पानी और उस पर नाचती हुई छोटी-छोटी लहरें, सूर्य की लाल रश्मियाँ उन लहरों के साथ नृत्य करती हुई बहुत आकर्षक लग रही थीं. अगले कुछ दिनों तक रोज ही शाम को बल्कि दिन में कई बार गंगा को निहारना उसका प्रिय कार्य बन जायेगा यह उस वक्त मालूम नहीं था. उसी वृक्ष के नीचे तितलियों से गुफ्तगू भी रोज का हिस्सा बन जाएगी यह भी नहीं जानती थी. जैसे ही शाम के वक्त वहाँ जाती, हवा चल रही होती और जाने कहाँ से उड़ती-उड़ती दो काली तितलियाँ आ जातीं और कभी सिर कभी बांह पर बैठ जाती थीं, आश्चर्य होता था, भरोसा भी होता था कि परमात्मा ही उनके द्वारा संदेश भेजता है. कुछ पंक्तियाँ तभी एक दिन जेहन में आई थीं-
तितलियाँ परमात्मा की दूत होती हैं
पुष्प उसके चरणों की शोभा बढ़ाते हैं
उन पुष्पों पर मंडराती हैं तितलियाँ...
उसी का संदेश ले आती हैं !

जब घंटा बजा, सभी डाइनिंग हॉल में गये जिसमें तीन ओर दीवारों से सटी हुई सीमेंट की पतली मेजें थीं, जिनपर काला मोजाइक लगा था तथा जिनके सामने प्लास्टिक की कुर्सियां रखी हुई थीं. चौथी तरफ लम्बा सा बेसिन था, कुछ दूरी पर कई नल लगे थे, बर्तन धोने का सामान रखा था, जहाँ नाश्ते व खाने के बाद सभी को स्वयं बर्तन धोकर रखने होते थे. कमरे के बीचोंबीच लकड़ी की दो मेजें सटाकर रखी गयी थीं जिनपर बर्तन व भोजन की सामग्री थी. उस दिन ‘पोहा’ मिला जो स्वादिष्ट था तथा हल्की मिठास लिए था. बाद के दिनों में भी कई व्यंजनों में मीठे से खबर मिलती रही थी कि बंगाल में हैं, जहाँ छाछ में भी मीठा डाला जाता है.

Sunday, September 3, 2017

देवदत्त पटनायक की 'सीता'


शाम का समय है. कुछ देर पहले ही वे सांध्य भ्रमण करके आये हैं, कुछ देर टेबल टेनिस भी खेला. जून अपना कुछ कार्य कर रहे हैं. एक ही दिन में वे आईआईएम कोलकाता से काफी परिचित हो गये हैं. प्रातः भ्रमण के समय फूलों से सजे उद्यान देखे. जून नौ बजे कक्षा में चले गये. साढ़े ग्यारह बजे चाय का अवकाश था, उसे भी फोन करके बुला लिया. इसी तरह दोपहर का भोजन और शाम की चाय भी सबके साथ ही ली. उससे पहले वह को ओपरेटिव स्टोर गयी थी, छोटे-मोटे कुछ सामान खरीदे. वापसी में पुस्तकालय के सामने के उद्यान की तस्वीरें लीं. पता चला एक पुरानी परिचित महिला भी यहाँ अपने पति के साथ आई हैं, उनसे मिली. उन्हें अपने कमरे में बुलाया और बातों-बातों में ध्यान के महत्व पर चर्चा की. नन्हे का फोन आया. व्हाट्सएप पर संदेशों का आदान-प्रदान किया. देवदत्त पटनायक की अद्भुत पुस्तक ‘सीता’ पढ़ी. परमात्मा कहते हैं जो जिस भाव से उन्हें याद करता है वह उसी भाव में उसे प्रत्युत्तर देते हैं, क्योंकि मन या चेतना उसी का अंश ही तो है. पटनायक जी कहते हैं, देह या जगत उसी की शक्ति है जिसका उपयोग परहित में करना है. प्रकृति पर न तो नियन्त्रण करना है न ही एकाधिकार जमाना है बल्कि जो अन्य आत्माओं के लिए सुखद हो सके इस तरह की संस्कृति का विकास करना है. प्रकृति से संस्कृति की ओर जाना है न की विकृति की ओर.

इस समय रात्रि के आठ बजे हैं. आज का दिन कल से काफी अलग था. सुबह देर से आरम्भ हुई. सीता आगे पढ़ी. दोपहर को उन परिचिता को कैम्पस घुमाया., बाद में उन्हीं के साथ साउथ सिटी मॉल जाना भी हुआ. अभी-अभी छोटे भाई का फोन आया, विपासना कोर्स के लिए उसने बधाई दी. कल दोपहर के भोजन के बाद गंगा धाम जाना है. वहाँ यह डायरी भी साथ नहीं जाएगी. बाद में सभी कुछ स्मृति के आधार पर ही लिखा जायेगा.