Wednesday, July 8, 2015

प्रकृति के रंग-ढंग


उसके भीतर एक अजीब सी व्यथा ने जन्म लिया है, यह विरह की पीड़ा है या नहीं, नहीं जानती पर अब उसके सब्र का बाँध टूटता जा रहा है. सद्गुरु कहते हैं दुःख का कारण भीतर ही है पर यह दुःख बिलकुल अलग तरह का है, यह किसी कामना से नहीं उपजा है, यह एक कसक है जो अपने होने की, अपनी अस्मिता की वजह से उपजी है. कौन है वह ? यह जगत क्यों है ? यह गोरख धंधा क्या है ? यह जगत इतना निष्ठुर क्यों है ? अन्याय, अपराध, दुःख, पीड़ा, अत्याचार की बढ़ती हुई घटनाओं को देखकर कोई कब तक उदासीन रहने का भ्रम पाल सकता है ? कब तक कोई अपने भीतर से मिलने वाले आनंद को देखकर, पाकर जगत से आँखें मूंदे रह सकता है, कभी तो सत्य का उद्घाटन होना चाहिए, कभीं तो कोई यह राज खोले, यह संसार जो हर पल बदल रहा है, उसे देखने वाला कोई तो है वह जो अबदल है, कौन है वह ? क्या चाहता है ? क्यों है वह, प्रकृति इतनी सुंदर है कि मन मोह लेती है लेकिन वही प्रकृति कभी क्रूर भी हो जाती है माँ काली की तरह. उसके मन में उठने वाले इन सवालों का जवाब कौन देगा ? कहीं यह पीड़ा अहंकार जनित तो नहीं. दुःख का मूल कारण अहंकार है, पर किस बात का अहंकार. यहाँ तो कुछ है ही नहीं, अपना आप भी नहीं तो कैसा अहंकार और कौन करेगा अहंकार ? ये सारे प्रश्न कौन उठा रहा है ? क्या वही तो अहंकार नहीं कर रहा, प्रश्न कौन उठाता है, मन, बुद्धि या अहंकार ? इनसे परे जो आत्मा है वह कब मिलेगी ? जब ये तीनों शांत हो जायेंगे !

आज छोटी बहन का पत्र मिला, पिछले महीने जब दिल्ली से शारजाह जा रही थी तो वे उसे छोड़ने गये थे, तभी का लिखा पत्र आज मिला है. उसने पिछले कई महीनों से कोई पत्र नहीं लिखा, विरक्ति सी हो गई है. वे कुछ भी कर लें, कह लें, इस जगत कि जो रीत है वह उसी के अनुसार चलता जाता है. वे ही अपनी खुशफहमी का शिकार होते रहते हैं कि फलां को हम कुछ प्रभावित कर सकते हैं. यह जगत ऐसा ही है, न कोई राग रहे न द्वेष रहे, क्योंकि यह है तो उसी परमात्मा की रचना, जिसे वे प्रेम करने का दम भरते हैं, वास्तव में प्रेम करते हैं या नहीं यह भी वे नहीं जानते, लेकिन उसे नाता जोड़ने की आवश्यकता तो हर क्षण अनुभव करते ही हैं. वे अपने मन से दुखी हैं, क्योंकि मन संसार के पीछे भागता है, ठोकर खाता है, गिरता है फिर पछताता है पर अपनी आदत से बाज नहीं आता, यह कैसा विरोधाभास है. ईश्वर से उनका सहज संबंध है, जीव ईश्वर का अंश है, जीव सहित यह सारी सृष्टि उसी प्रभु की शक्ति से ही प्रकट हुई है फिर उन्हें उससे दूर कौन करता है, माया ही मन के रूप में आकर उनके बीच परदा बन कर छायी है, अब और सहन नहीं होता, इस माया को जाना होगा. भीतर की यह छटपटाहट अब सहन नहीं होती, भीतर की तलाश अब हर क्षण बढ़ती जा रही है, वह जो झलक दिखाकर ही रह जाता है उसे अब प्रकट होना ही होगा !

आज सुबह ध्यान में बार-बार कुछ अनुभव किया, जैसे ही कोई विचार आता था, एक झटका सा लगता था और वह पुनः सचेत हो जाती थी, सब कुछ कितना अद्भुत था. मन से परे प्रकाश का साम्राज्य है, प्रेम तथा शांति भी वहीं है. कल रात को भी वह मात्र अस्तित्त्व को अनुभव कर रही थी, बल्कि अनुभव ही शेष था, क्या था वह, कौन जानता है, शब्दों से परे का अनुभव शब्दों में कैसे कहा जायेगा. अब लगता है समाधान हो रहा है, मन को कोई आधार मिल गया है.



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