Monday, April 20, 2015

संस्कृति के चार अध्याय


जैसे भिन्न-भिन्न घट होने पर भी सबमें स्थित आकाश एक ही है, चेतना भी एक है जो भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती है. आज भी गुरू वाणी सुनी, जो उनके जीवन की नौका का लंगर खोलकर उसे दिशा प्रदान करते हैं, लगा वह सरल हृदय से उन्हें उस ऊंचाई पर ले जाना चाहते हैं जहाँ कर्म ही पूजा हो जाते हैं, बुद्धि का विकास होता है, आत्मदर्शन होता है. उनके दिल में पीड़ा भी है कि कोई सद्शिष्य उन्हें अभी तक नहीं मिला जो उनके विचारों को, उनके ज्ञान को उसी रूप में ग्रहण कर सके जिस रूप में वह प्रदान करन चाहते हैं. आज के समाज में व्यक्ति कितना स्वार्थी हो गया है और सबसे अधिक स्वार्थ सुख पाने का है. जीवन का ध्येय ही जब यह हो कि जीवन में सुख-सुविधाएँ बढ़ती जाएँ ! ज्ञान पाना जीवन का ध्येय नहीं है, परहित और परोपकार भी जीवन का ध्येय नहीं है, बस कोई खुश रहे किसी भी कीमत पर, दूसरों को ( जो अपने ही होते हैं) दुःख देकर भी ख़ुशी ( जो टिकती नहीं है ) बनी रहे, कितनी नीचता है, कितने तुच्छ विचार..उसे सद्गुरु की पीड़ा का अहसास होता है. काश वह उनके सान्निध्य में रह पाती, लेकिन ईश्वर ने उसे जहाँ रखा है, वहीं उसे रहना होगा और अपने कर्त्तव्य को पूरा करते हुए, हर क्षण का उपयोग करते हुए उसी प्रभु की ओर निरंतर कदम बढ़ते चलना है. वह भी उनसे दूर नहीं रह पाता जब वे उसकी ओर चलते हैं. सद्गुरु तक भी उसका विचार जरुर पहुंच रहा होगा, उनका दुःख दूसरों की भलाई के लिए है, अपना आप तो वे पा ही चुके हैं, संतत्व की प्राप्ति कर चुके हैं, अब उन्हें और क्या चाहिए, यही कि शिष्य भी आगे बढ़ें, वह उनका सम्मान करती है और उनके वचनों पर मनन भी, उसने प्रार्थना की सद्गुरु उसका मानसिक नमन स्वीकार करें !

राम नाम की औषधि खरी नीयत से खाए
अंग रोग व्यापे नहीं, महारोग मिट जाए  !

कल श्री रामधारी सिंह दिनकर जी की एक पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में संत परमहंस श्री रामकृष्ण जी के बारे में पढ़ते समय कई अद्भुत अनुभूतियाँ हुईं. उनका असर कल शाम सत्संग में भी बना रहा. वे जो भी भजन गा रहे थे, उसके देवता या ईश्वर का रूप उसके मन में स्पष्ट होने लगता था. कृष्ण के साथ तो मन ही मन उसने नृत्य भी किया. कृष्ण उसे हर क्षण अपनी ओर खींचते हैं, उनका नाम ही सर्व आकर्षक है, उनकी तस्वीर देखते ही मन ठहर जाता है. कृष्ण को कोई प्रेम करे तो वह अपनी उपस्थिति का अहसास कराते हैं. उनका प्रेम जैसे उन्हें हर ओर से ढक रहा है ऐसा प्रतीत होता है. उसका मन कल से ही अटूट शांति में डूबा हुआ है. इस दुर्लभ सुख को पाने के लिए ही ऋषि-मुनि संत इतने सत्संग करते हैं, करते आये हैं. सद्गुरु की कृपा कितनी अनमोल है, यह कृपा भी लेकिन ईश्वर कृपा से ही मिलती है. कोई पुण्य कर्म जागृत हुआ है, उसी का प्रसाद है कि अंतरात्मा सौम्यता के भाव में स्थित है ! अब सचेत रहते हुए नये कर्म नहीं बंधे ऐसा प्रयास करना है. बुद्धियोग में स्थित रहते हुए चित्त निर्मल होता जायेगा  और निर्मल चित्त में ही आत्मा का दर्शन होगा. अहंकार से भी सजग रहना होगा, अहम् इस बात का भी न हो कि कृपा हुई है. देह से अलग होकर उसे देखना चाहिए, रोग भी तब टिकता नहीं और मन भी ऊंचे केन्द्रों में रहता है ! जीवन का फल यही है, देहात्म बुद्धि को त्यागना !

हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम हो और होठों पर उसी के नगमे तो दुनिया कितनी हसीन हो जाती है, कोई स्वयं को भुला दे, अहम् त्याग दे तो अपना आप कितना हल्का लगता है. अहम् ही भारी बनाता है और कोई संसार में धंसता चला जाता है, वरना तो वे फूल से भी हल्के हैं. ईश्वर ने उनकी सारी आवश्यकताओं की व्यवस्था पहले से ही कर दी है, वह हर क्षण उन पर नजर रखे हुए है तो व्यर्थ ही स्वयं की रट लगाकर वे स्वयं को विषाद में डाल देते हैं. जब ईश्वर की याद दिल में हो तो परहित की बात भी अपने आप ही आ जाती है. यह दुनिया उसी की तो है, उसी का रूप है, कण-कण में वही समाया है, मानवता का दुःख तब दिल को छूता है पर किसी स्वार्थ हेतु या वाहवाही हेतु नहीं, अपना सहज स्वभाव है ऐसा मानकर तब सेवा करने की भावना जगती है. अन्यों के दोषों पर निगाह नहीं जाती, सारे अपने ही लगते हैं. सुबह-सुबह आजकल जून भी सत्संग सुनते हैं, उनके भीतर छिपा हुआ ईशप्रेम भी जागृत हो रहा है. अगले हफ्ते जो उनके यहाँ सत्संग होगा, उसकी तैयारी वह पूरे मन से कर रहे हैं. सत्संग की महिमा यूँ ही तो नहीं गाई गयी है. रोज-रोज सुनते-सुनते हृदय उन बातों को स्वीकारने लगता है और एक बार जहाँ उजाला हो जाये, अंधकार कैसे टिक सकता है, जो बातें पहले अगम्य लगती थीं, बुद्धि जहाँ तक नहीं पहुंच पाती थी, अब सहज ही समझ में आने लगी हैं. उस दिन जो अनुभूति उसे हुई थी अब वृक्ष बन गयी है. अब उसमें फल लगने शुरू हुए हैं, उनके कहे अनुसार महाभारत, भागवद व योग वशिष्ठ आदि का अध्ययन भी फलीभूत हुआ दीखता है. संत वचन का आदर करने से ही यह अनंत सुख का साम्राज्य उसे मिला है !    



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