Tuesday, April 28, 2015

नाश्ते में परांठे


कल शाम को माँ-पिता जी वापस चले गये, अभी तो वे ट्रेन में होंगे, आने वाली शाम को पहुंचेंगे. वह उस अद्वैत, अच्युत, अनादि कृष्ण की कथा सुन रही है. जीवात्मा यदि भक्त हो तो वह कृष्ण की कथा में ही तो रस लेगा ! इस मार्ग पैर कितनी ही सफलता मिले, फिसलने का डर रहता ही है. सद्गुरु माँ-पिता की तरह कभी प्रेम से तो कभी डांट-फटकर कर सन्मार्ग पर ले जाने का प्रयत्न करते हैं. पिछले दिनों कई बार ऐसा हुआ जब वह मोह का शिकार हुई, अर्थात उसकी बुद्धि विकृत हो गई, पर झट ही सचेत भी हुई. शुद्ध अन्तःकरण में ही ईश्वर का प्रागट्य होगा. कृष्ण का अवतरण हृदय की जेल में होगा तो सारे बंधन खुल जायेंगे, सारी गांठें भी खुल जाएँगी, तब शर्मिंदा नहीं होना पड़ेगा. अभी बहुत कुछ सीखना है. यह मार्ग कितना भी लम्बा क्यों न हो पर सुखदायक है. सद्गुरु का ममता भरा हाथ और कृष्ण का अहैतुक प्रेम सदा-सर्वदा उसके साथ जो है.

“पायी संगत जो संतन की, पायी पूंजी अपने मन की” सद्गुरु ने अपने वचनों और अपने कार्यों से उन्हें ‘स्वयं’ से मिला दिया है, और उन्हें अपने आप से प्यार हो गया है. पहले स्वयं से आँख मिलते भी डरते थे और दूसरों से भी. अब हर जगह वही दीखता है तो डर किसे और किसका ? उन्होंने स्वयं ही अपने लिए बाधाएँ खड़ी की हुई थीं, अब इनका अंत होता नजर आता है. बुद्धिफल है अनाग्रह, किसी भी स्थिति का आग्रह नहीं करना है, समर्पित बुद्धि को ही यह फल मिलता है. आज सुबह जून ने अपने घटते हुए वजन को देखते हुए नाश्ते में परांठा बनाने को कहा, साथ-साथ उन्होंने नाश्ता किया सो अभी व्यायाम नहीं कर पायी है. ग्यारह बजे तक सभी शेष कार्य हो जायेंगे यदि एक-एक मिनट का उपयोग किया तो. मौसम आज अच्छा है, पापा-माँ अभी भी ट्रेन में बैठे होंगे  !

नौ बजने को हैं, आज भी मौसम बदली भरा है, नैनी किचन की विशेष सफाई कर रही है. कल शाम को फोन आया, वे लोग सकुशल पहुंच गये हैं, उन्हें यहाँ रहना यकीनन अच्छा लगा होगा, वह बल्कि परीक्षा में कई बार फेल होते-होते बची. सबसे पहले तो असत्य भाषण, चाहे कितना भी निर्दोष असत्य हो..पर उससे छुटकारा तो पाना है न, दूसरा क्रोध, यह बहुत कम रह गया है पर समाप्त नहीं हुआ है, तीसरा लोभ, यह बहुत ज्यादा है, वस्त्रों की कमी का अहसास और किसी को दिए जाने वालों सामानों पर नजर रखने की प्रवृत्ति.. मन यदि शुद्ध नहीं तो ध्यान कैसे होगा और ध्यान में उतरे बिना ज्ञान भी नहीं टिकेगा...जीवन में ज्ञान नहीं तो पशु से भी गया गुजरा है जीवन...कृष्ण को सदा मन में बसाये रखे तो वही मुक्त करेगा... संगीत का अभ्यास हो चुका है. उसके गले में हल्की सी खराश है, सिर भी थोड़ा भारी है, कल रात पंखा तेज करके सोयी सम्भवतः यही कारण हो, पर यह इतनी मामूली सी बात है कि..अभी पाठ करना शेष है, माँ थीं तो वे सुबह-सुबह ही पाठ कर लेते थे, वे रोज सुनती थीं. एक सखी के ससुरजी  अस्पताल में दाखिल हैं. सम्भवतः अंतिम दिन नजदीक आ रहे हैं, आत्मा की नश्वरता के बारे में जानकर इतना ज्ञान तो हो चुका है कि शरीर जो जर्जर हो चुका है, उसके प्रति मोह न रहे. सो मन में दुःख नहीं होता. जीवन जितना भी जियें होशपूर्वक जियें, तभी सार्थक है अन्यथा तो लकड़ी के लट्ठे का सा ही जीवन है. सजगता अत्यंत आवश्यक है. एक चेतन सत्ता है जो उनके प्रत्येक कार्य, विचार व वचन की साक्षी है, उससे वे कुछ भी छुपा नहीं सकते. वह उनका आदर्श बने, तभी मुक्ति सम्भव है. श्रद्धा रूपी जल, मन रूपी सुमन था अपने कर्मफल और अपने अंतर का प्रेम भरा अश्रुजल यही ईश्वर को समर्पित करना है.





No comments:

Post a Comment