आज सुबह उसने डायरी
नहीं खोली, फूलों को इकट्ठा किया और उन्हें सजाया घर में. इस वक्त तक हरसिंगार के
ये पुष्प मुरझा गये हैं पर सुबह बहुत सुंदर लग रहे थे. ‘जागरण’ पर सद्वचन सुनकर
अंतर्मन खिल गया है. भीतर ही ज्ञान है, शक्ति है, प्रेम है, साहस है, ऊर्जा है,
उत्साह है, ईश्वर है पर मानव को उसका ज्ञान नहीं. शास्त्र और गुरू उससे परिचय
कराते हैं, तब कोई नये उत्साह से जीवन का सामना करता है. सब कुछ बेहद सरल लगने
लगता है, हृदय प्रेम से भर उठता है, अकारण प्रेम..सारी सृष्टि के लिए प्रेम...जैसे
कृष्ण उन्हें दे रहे हैं अनवरत...उसकी ओर मुड़े तो पाएंगे कि वह उन्हें प्रेम भरी
दृष्टि से देख रहे हैं ! उसके सभी कार्य वही तो सम्पन्न करते हैं, उनकी ही चेतना
से सारी सृष्टि चल रही है. वे खुद उनके हाथों में एक साधन मात्र हैं. जैसे देह
उसके लिए साधन है, चित्त भी साधन है, यदि कोई इसे उनकी ओर मोड़ दे तो वह स्वयंमेव
ही आगे का कार्य सरल कर देते हैं. वही भीतर से निर्देश देते हैं, सामर्थ्य देते
हैं, सत्कर्मों की प्रेरणा देते हैं. अपनी अनुभूति कराते हैं. कृष्ण को वह कितने
ही रूपों में देख चुकी है, अपने मन की आँखों से भी और इन आँखों से भी...वह स्वयं
जब चाहते हैं..मिलते हैं...
उसने दिनकर की
पुस्तक में डॉ राधा कृष्णन के विचार पढ़े तो डायरी में लिख लिए- “ सम्यक ज्ञान की स्फुरणा
एकाग्र-चिंतन से होती है, एक ही विषय पर दिन-रात ध्यान लगाये रहने से होती है.
निदिध्यासन सोचने की उस प्रक्रिया का नाम है, जिसमें मनुष्य सम्पूर्ण मस्तिष्क तथा
समग्र अस्तित्त्व से सोचता होता है. सम्यक चिंतन संश्लिष्ट चिंतन है, पूर्ण चिंतन
है. यह चिंतन की वह प्रक्रिया है जिसमें सभी इन्द्रियां, सम्पूर्ण बुद्धि, समग्र
चेतना, वस्तुतः सारा अस्तित्त्व विचारों से संचालित रहता है. शरीर का कोई अवयव
नहीं है जो मन या आत्मा के नियन्त्रण से परे हो. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मनुष्य का
सारा व्यक्तित्व एक है. उसके अवयव, मन और चित्त उस एक ही व्यक्तित्व के
भिन्न-भिन्न पक्ष हैं. बुद्धि से जो विचार तैयार होता है, उसे मनुष्य के अंतर्मन
के भीतर पहुंचना चाहिए जिससे चिंतक के चेतन व अचेतन दोनों ही अंश उस विचार से
अनुप्राणित हो सकें. शब्द और विचार दोनों को मनुष्य के मांस में मिल जाना है. मानव-मनोविज्ञान
का यही रूपांतरण रचनात्मक कहलाता है. रचना मनुष्य की वह मानसिक प्रक्रिया है जिससे
वह अपनी अपरिचित एवं निगूढ़ आत्मा को जानने में समर्थ होता है.”
पिछले तीन दिन फिर
डायरी नहीं खोली. कल ‘सुदर्शन क्रिया’ का फालोअप था. योग शिक्षक पहले की तरह सभी
को हँसाते नहीं है, कुछ दूरी बनाकर रखते हैं, खैर..वक्त बदलता है, रिश्ते बदलते
हैं और इन्सान भी बदलते हैं. सड़क पर कुछ मजदूर हँसते हुए चले जा रहे हैं. इन्सान
किसी भी स्थिति में क्यों न हो हँसी और ख़ुशी उसका साथ नहीं छोड़ती, जैसे कि
दुःख..तो क्यों न वे दोनों को समान भाव से अपनाते चलें. दोनों ही आते-जाते रहेंगे
भिन्न-भिन्न रूपों में, पर एक तो वही एक है अपना आप.. जिसे न सुख व्याप्ता है न
दुःख. जो रसमय है, जो जीवन को अर्थ देता है, चुनौती देता है, लक्ष्य देता है. जो
अपना दिव्य रूप धरे अपनी ओर आकर्षित करता है. वह खुद सा बनाना चाहता है, बल्कि
उसने खुद सा ही बनाया था, पर वे उससे दूर होते चले गये और संसार को अपना मानकर
उसमें फंसते गये जो हाथ से रेत की तरह फिसलता जाता है..देह जो दिन-प्रतिदिन जरा की
ओर बढ़ रही है, कोई न कोई व्याधि उसे सताती है. मन जो सदा किसी न किसी ताप में जलता
रहता है...और वह जो शीतल फुहार सा, अलमस्त झरने सा, प्रेम का झरना भीतर ही कहीं बह
रहा है, उससे वे अनजान ही बने रहते हैं !
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