Friday, November 6, 2015

रस्ता और मुसाफ़िर


वाणी का दोष पुनः हुआ, उसने नये माली की तारीफ़ की और पुराने माली की निंदा, अब निंदा का दोष जो लगा वह तो है ही, नया माली प्रशंसा सुनकर दो घंटे से पहले ही चला गया. इन्सान अपनी जिह्वा के कारण कितनी बार फंस जाता है. वाणी पर संयम रखना कितना कठिन है, एक बार वे बोलना शुरू करते हैं तो खत्म कहाँ करना है, यह भूल जाते हैं. आज शाम को सत्संग में जाना है, नॉलेज पॉइंट्स लेकर जाने हैं. सुबह सुना जिस तरह मिट्टी आग में तपकर प्याला बन जाती है और उपयोग में आती है वैसे ही उनका यह मिट्टी का तन जब ईश्वर की लगन रूपी लौ में तप जाता है तब यह उसके हाथों का उपकरण बन जाता है और काम में आता है. ईश्वर की लगन भी क्रमशः तीव्रतर होती जाती है, पहले राख में छिपे अंगारे की तरह जो ऊपर से दिखती भी नहीं, फिर तपते हुए लाल अंगारे की तरह, जो प्रकाश भी देता व ताप भी, फिर गैस के चूल्हे की नीली लपट की तरह और फिर माइक्रोवेव की तरह जो नजर भी नहीं आती, बस चुपचाप अपना काम कर देती है. सद्गुरु ने कहा कि ज्ञान पा लिया है यह अहंकार भी छोड़ना होगा पर नहीं मिला है सदा यह संदेह भी नहीं रखना है. मध्यम मार्ग पर चलना श्रेष्ठ है. आत्मा का परमात्मा से नित्य का संबंध है. उन्हें बनाना नहीं है, वे स्वयं आत्मा हैं यह बात जितनी दृढ़  हो जाएगी तो उतना ही वे परमात्मा से अभिन्नता अनुभव कर सकेंगे, और तब शेष ही क्या रहा ?

आज गुरूजी ने कहा शब्दों से वे लाख चाहें, अपनी बात समझा नहीं सकते जो काम मौन कर देता है वह शब्द नहीं कर पाते. वे अपने व्यवहार से, भीतर छिपी करुणा से अपने विरोधी को प्रभावित कर सकते हैं किसी हद तक. आज भगवद्गीता पर उनके प्रवचन का प्रथम भाग सुना, कल दूसरा सुनेगी, भीतर जो प्रतीक्षा है उसी में सारा रहस्य छिपा है. आतुरता, प्यास यही साधना की पहली शर्त है. ज्ञान को जितना भी पढ़े, सुने तृप्ति नहीं मिलती, वह परमात्मा कितना ही मिल जाये ऐसा लगे कि मिल गया है फिर भी मिलन की आस जगी रहती है. प्रेम में संयोग और वियोग साथ-साथ चलते हैं. इसलिए भक्त कभी हँसता है कभी रोता है, वह ईश्वर को अभिन्न महसूस करता है पर तृप्त नहीं होता फिर उसे सामने बिठाकर पूजता है पर दो के मध्य की दूरी भी उससे सहन नहीं होती. वह स्वयं मिट जाता है, केवल एक ईश्वर ही रह जाता है. ज्ञानी भी एक है. और कर्मयोगी के लिए यह सारा जगत उसी का स्वरूप है. एक का अनुभव ही अध्यात्म की पराकाष्ठा है.

मैं हूँ मंजिल, सफर भी मैं हूँ, मैं ही मुसाफिर हूँ...

आज सद्गुरु ने कितना सुंदर गीत गाया. मन व् बुद्धि भी उसी आत्मा से निकले हैं, यानि वही हैं जिन्हें आत्मा तक पहुंचना है ..मन रूपी यात्री विचार रूपी रस्ते को पार करके घर पहुँचता है. कितना सरल और सहज है अध्यात्म का रास्ता..न जाने कितना पेचीदा बना दिया है इसे लोगों ने. सीधी- सच्ची बात है जब मन स्वार्थ साधना चाहता है तो आत्मा से दूर निकल जाता है जब यह अपनी नहीं सबकी ख़ुशी चाहता है तो यह आत्मा में टिक जाता है. यह जान जाता है कि जगत एक दर्पण है जो यहाँ किया जाता है वही प्रतिबिम्बित होकर वापस आता है, तो यह खुशियाँ देना आरम्भ करता है. अहंकार को पोषने से सिवाय दुःख के कुछ हाथ नहीं आता, क्योंकि अहंकार उसे सृष्टि से पृथक करता है, जबकि वे सभी सृष्टि के अंग हैं, एक-दूसरे पर आश्रित हैं. स्वतंत्र सत्ता का भ्रम पलने के कारण ही वे सुखी-दुखी होते हैं. वे ससीम मन नहीं असीम आत्मा हैं !



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