आज हालात ठीक हैं, मौसम
खुला है बाहर का भी भीतर का भी, अभी-अभी जून का फोन आया, उन्हें कुछ दवाओं के नाम
चाहिए.... उसके बाद वह हिंदी अनुभाग गयी, हिंदी अधिकारी से कवितायें भेजने तथा
किताब की भूमिका लिखवाने की बात की, वापस आकर चाय पी और बच्चों को पढ़ाया. ‘वाक्य’
पढ़ाते समय मिश्र वाक्य में थोडा संदेह हुआ, उसे स्वयं भी पढ़ना होगा. आज शाम क्लब
भी जाना है. क्लब की पत्रिका के लिए एडीटोरियल ग्रुप का फोटो सेशन होगा. कल उनके
इस नये कमरे में पहली बार सत्संग होगा, अच्छा होगा, इस कमरे में आते ही कैसी शांति
का अनुभव होता है. नीला कारपेट, गुरूजी की तस्वीर, राधा-कृष्ण की मूर्ति तथा
दीपदान सभी सात्विक वातावरण पैदा करते हैं ! लेकिन जब तक भीतर समता न हो, ज्ञान न
हो, बाहर का वातावरण पूर्ण रूप से सहायक नहीं हो पाता है. उसने तो वर्षों पहले से ही
बाहर देखना बंद कर दिया है, वह भीतर देखती है किस तरह मन अभी भी छल-कपट, परनिंदा,
परदोष देखने में लिप्त होता है, कैसे मन अभी भी बिना वजह सोचता है ऊलजलूल सोचता
है, पर अब वह स्वयं मन से हट जाती है तो मन की बात अपनी नहीं लगती. वह जैसे एक
नादान बच्चा हो, उसकी बातों पर क्या ध्यान देना. पर अब भी राह चलते कोई दृश्य
देखकर भीतर जो कम्पन होता है, सद्गुरु कहते हैं आत्मनिंदा से साधक को बचना चाहिए,
तो जो कुछ मन का है वह आत्मा का नहीं, आत्मा तो सदा निर्दोष है जैसे उसकी वैसे हर
एक की !
कल फोटोसेशन हो गया, आज
भी क्लब में मीटिंग है, वही सोविनियर के बारे में. इस समय डेढ़ बजे हैं दोपहर के,
वह ध्यान कक्ष में है. अभी तक नया माली नहीं मिला है, सो लॉन की हालत बहुत खराब हो
रही है, देखे, कौन से हाथ हैं जो इसे संवारेंगे. कल लाइब्रेरी से कुछ नई किताबें
लायी है. आज सुबह गुरूजी को सुना, छोटी-छोटी गूढ़ ज्ञान युक्त बातें उन्होंने सूत्र
रूप में कहीं. वह जैसा कहते हैं वे उसे मानें तो यह जग कितना सुंदर हो जाये. यह जग
तो सुंदर है ही, वे जब तक अन्यों में दोष देखना बंद नहीं करते, जगत उन्हें असुन्दर
ही लगेगा. नीरू माँ कहती हैं सभी को निर्दोष देखो. ज्ञानी सभी को शुद्ध आत्मा ही
देखते हैं. वह कभी किसी की कमियां नहीं देखते, बल्कि सभी को उनके शुद्ध स्वरूप का
ज्ञान करा देते हैं तो कमियां आपने आप छिटक जाती हैं. कोई जब कमियां देखता है तो
उसके मन में भी उस कमी का भाव दृढ़ हो जाता है. वह न चाहते हुए भी उसके साथ
तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं. यह जगत जैसा है वैसा है. उन्हें चाहिए, हो सके तो
किसी की सहायता कर दें, न हो सके तो अपने हृदय को खाली रखें, उसमें संसार की कमियां
तो न ही भरें. इस नाशवान, स्वप्नवत संसार के पीछे छिपे तत्व को पहचानें और उसी पर
नजर रखें !
आज मुरारी बापू के
सत्संग में उसने कुछ उम्दा शायरी सुनी टीवी पर –
खुद से हाल छिपाना
क्या, दर्पण से शर्माना क्या
चाहत तो बस चाहत है,
चाहत का जतलाना क्या
जो खुलकर भी बंद लगे उस
दरवाजे जाना क्या
लौ से बचता फिरता है
ऐसा भी परवाना क्या
तू पत्थर की ऐंठ है मैं
पानी की लोच
तेरी अपनी सोच है मेरी
अपनी सोच
लौ से लौ को जोड़कर बनजा
तू मशाल
फिर तू देख अंधेरों का
क्या होता है हाल
काम न आएँगी ये दम तोडती
शमें
नये चिराग जलाओ बहुत
अँधेरा है !
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