Wednesday, November 4, 2015

इंदिरा गाँधी की कहानी



पिछले दो-तीन दिन छुट्टी के थे, बीहू की छुट्टी, सो डायरी नहीं खोली. इस समय दोपहर के दो बजे हैं. मौसम अब बदल गया है, गर्मी की शुरुआत हो गयी है. पिछले दिनों बगीचे से तोड़ कर गन्ने खाए, दांत व मसूड़े में दर्द है, हर सुख की कीमत तो चुकानी ही पडती है. आज सुबह वे समय से उठे, ‘क्रिया’ आदि की. ध्यान कक्ष में पंखा नहीं लगा है टेबल फैन से आवाज ज्यादा आती है, सो इस वक्त वह इधर बैठी है अपने पुराने स्थान पर. संडे योग स्कूल के बच्चों ने कार्ड बनाने का कार्य शुरू कर दिया है, लिफाफे भी बनाने हैं. पत्रिका के लिए कल उन्हें प्रेस जाना है, किताब के लिए जून ने लिख दिया है. वह आजकल कैथरीन फ्रैंक द्वारा लिखी इंदिरा गाँधी की कहानी पढ़ रही है. बनारस पर जो लेख लिखा था, वह आंटी को पढ़ने के लिए दिया था, सम्भवतः अभी उन्होंने पढ़ा नहीं है. लिखने का बहुत सा कम पड़ा है, गीतांजलि पर आधारित जो छोटे-छोटे पद लिखे थे, उन्हें भी टाइप करना है. ऐसा लगता है जैसे कुछ छूटा जा रहा है, लेकिन वह क्या है, उस पर ऊँगली रखना कठिन है. भीतर एक बेचैनी सी है, मगर इतनी तीव्र भी नहीं बस मीठी-मीठी आंच सी बेचैनी. ईश्वर ने उसे इतनी शक्ति दी है, इतना ज्ञान, इतना प्रेम और इतना समय दिया है, उसका लाभ इस जग को नहीं मिल रहा है, वह तो सौ प्रतिशत लाभ में ही है हर पल !

दोपहर के सवा दो बजे हैं, अप्रैल माह की तपती हुई दोपहरी है, सूरज जैसे आग फेंक रहा है. अभी थोड़ी देर पहले वह प्रेस से आई है, क्लब की वाइस प्रेसिडेंट और एडिटर के साथ गयी थी. उसने वाराणसी वाला लेख छपने के लिए दिया है. आज उठने में दस मिनट देर हुई पर सुबह के वक्त इतना समय भी कीमती होता है. आज उसने कई दिन बाद क्रोध का अभिनय किया, नैनी की बेटी को डांटा कि वह अपना स्कूटर जून के गैरेज के आगे न धोये, बाद में कोई उसे भीतर से डांटता रहा, वह कौन है भीतर जो उससे कोई गलती हो जाये तो चुप नहीं रहता. कल नन्हे का फोन खो जाने की खबर आई तो जून बिलकुल चुप थे, उसे कुछ भी महसूस नहीं हुआ, न दुःख न अफ़सोस..जैसे कुछ हुआ ही नहीं. वह धीरे-धीरे आत्मा में स्थित होने का प्रयास दृढ़ करती जा रही है. छह वर्ष पहले जो यात्रा शुरू की थी वह अब काफी आगे आ चुकी है, लेकिन यह यात्रा जीवन भर बल्कि जन्मों तक चलने वाली है, इसकी मंजिल भी यही है और मार्ग भी यही है. आज जून ने भी तो थोड़ा गुस्सा किया, वह ड्रेसिंग टेबल देखने गये थे पर अभी भी उसमें कमी थी. वे यह जानते ही नहीं कि ऐसा करके वे अपने को कर्मों के बंधन में फंसा लेते हैं.

धर्म को यदि धारण नहीं किया तो व्यर्थ है, नहीं तो उनकी हालत भी दुर्योधन की तरह हो जाएगी जो कहता है, वह धर्म जानता है पर उसकी ओर प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म जानता है पर उससे निवृत्ति नहीं होती. उसे कृष्ण के भजन भाते हैं, उसकी सूरत भी, पर उसके कहे अनुसार चलना तो अभी नहीं आता. आज सद्गुरु को सुना, वह उनसे कितनी उम्मीदें लगाये हुए हैं, वह तो उन्हें अपने जैसा ही मानते हैं, कितने भोले हैं वह, सब समझते हुए भी उनका मान बढ़ाने के लिये जो गुण उनमें नहीं हैं वे भी बताते हैं, तब वे लज्जा से झुक जाते हैं. सद्गुरु की महानता की तो कोई सीमा ही नहीं है, वह कहते हैं कि थोड़ा सा विकार यदि रह गया हो तो उससे मत लड़ो, रहने दो, उन्हें पता ही नहीं यहाँ तो विकार का ढेर लगा है, अहंकार तो इतना ज्यादा है कि..आज भी गर्मी काफी है. अभी डेढ़ बजे हैं, संगीत का अभ्यास तो उसने कई महीनों से छोड़ दिया है, लिखने-पढ़ने का कार्य ही काफी है. आज सत्संग में भी जाना है. वहाँ पढ़ने के लिए आज से अपनी कविता की जगह गुरूजी का कोई ज्ञान सूत्र ही लेकर जाएगी. किताब का काम दस मई के बाद होगा, तब तक भूमिका का प्रबंध भी हो जायेगा. नन्हा दो रातों तक अपने मित्र के साथ अस्पताल में रहा, उसमें सेवा की भावना है, अच्छी बात है. उसका पुराना मोबाइल काम करने लगा है.    


  

2 comments:

  1. शीर्षक दिखा इंदिरा गाँधी की कहानी कुछ अजीब सा लगा :) आज के माहौल में किसे याद आ रही है ? ब्लाग पर पहँच कर समझ में आया किताब की बात है ।

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  2. इंदिरा गाँधी जैसे व्यक्त्तित्व तो सदा याद आने के योग्य हैं न...स्वागत व आभार !

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