मृत्यु
के समय और उसके पहले क्या होता है, इसके बारे में नीरू माँ भी आजकल बता रही हैं
तथा वह जो पुस्तक पढ़ रही है, Tibeten book of living and dying उसमें भी यह
बताया गया है कि मरने की तयारी कैसे करनी चाहिए. मृत्यु को जीवन का अंग मानकर जीवन
में ही इसके लिए तयारी करनी चाहिए. एक-एक करके सारे सेन्स ऑर्गन काम करना बंद करने
लगते हैं, इसी तरह मन भी आपने शुद्ध स्वरूप में आ जाता है, जिसने जीवन में अभ्यास
किया है वह इसे पहचान कर मुक्त हो सकता है
पर जो जानता ही नहीं वह पुनः जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है. उन्हें
नित्य-प्रति हर क्षण आत्मा में ही रहना होगा, कोई राग नहीं, कोई द्वेष नहीं, कोई
छल-कपट नहीं, कोई चाह नहीं ! आज सुबह नींद चार बजे से भी पहले खुल गयी, आजकल सुबह
उठकर टीवी नहीं खोलती तो समय काफी बच जाता है, स्नान भी सुबह हो जाता है. कल रात
को जून से वह बात करने लगी कि उन्हें तथा कुछ अन्य को विदेश चले गये कुछ लोगों को देखकर
जो लगता है कि पिछड़ गये, यहीं रह गये, यहाँ का जीवन एकरस लगता है, इन बातों का
कांटा मन से निकाल देना चाहिए, जो ज्ञान से ही सम्भव है, पर वह समझ नहीं पाए. मानव
अपने दुखों से भी मुक्ति नहीं चाहते, उन्हीं में रहकर स्वयं को पीड़ित मानकर सुखी
होते हैं. पर इससे उसके लिए सीखने की बात यह है की चाहे कोई अपना हो या पराया (
वैसे पराया कोई है नहीं ) किसी को सलाह देने या समझाने की कोई जरूरत नहीं है, यदि
कोई स्वयं दुःख से दूर होना नहीं चाहता तो कोई दूसरा उसे चाहकर भी नहीं निकाल
सकता. सो अपने ज्ञान को अपने भीतर ही सम्भाल कर रखना चाहिए, हरेक को अपना रास्ता
खुद ही ढूँढना पड़ता है ! उसे हर हाल में मुक्त रहना है !
आज मई का एक गर्म दिन
है, आज उन्होंने मृणाल ज्योति में पुराने पर्दे, कुशन वगैरह भिजवाये, शायद उनके
कुछ काम आयें. घर में जितना कम सामान हो अच्छा है. कल शाम दक्षिण भारतीय पड़ोसिन
अपने भाई अरुणाचलम् तथा माँ को लेकर आई, उसकी माँ ने क्रोशिये से बना एक ऊन का
रुमाल दिया, उनकी अवस्था भी काफी है तथा मस्तिष्क की कोई बीमारी भी है पर अभी तक
हाथ से काम करती हैं क्रोशिये का. उनके माथे पर चन्दन लगा था तथा चेहरे पर मुस्कान
थी. वह हिंदी नहीं बोल पातीं पर दिल की भाषा में कोई शब्द नहीं होते. जून अभी आने
वाले होंगे, उसने ध्यान कक्ष की सफाई की, इसके बावजूद वहाँ चीटियों का आना जारी
है. इतिहास पढने में उसे उतनी रूचि नहीं है यह नेहरु जी की पुस्तक पढ़ते समय पता चल
रहा है.
आज सद्गुरु ने बताया
चंड-मुंड, मधु-कैटभ था शुम्भ-निशुम्भ सब भीतर हैं. रक्तबीज भी डीएनए की विकृति है.
राग-द्वेष ही मधु-कैटभ हैं और उनसे तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती जब तक चेतना प्रेम
में विश्राम न पाले. हृदय और मस्तिष्क ही चंड-मुंड हैं, अति भावुकता भी नहीं और
अति-बौद्धिकता भी नहीं, दोनों का संतुलित मेल ही जीवन को सुंदर बनाता है. जन्मों-जन्मों
के संस्कार जो बीज रूप में भीतर पड़े हैं उनसे भी तभी मुक्ति हो सकती है जब चेतना
मुक्त हो अर्थात स्वयं को शुद्ध-बुद्ध आत्मा जानें, तन व मन दोनों के साक्षी व
द्रष्टा बनें, अभी तो तीन एक-दूसरे से चिपके हुए हैं, एक को पीड़ा हो तो दूसरी उसे
अपनी पीड़ा मान लेता है, एक को हर्ष हो तो दूसरा उसे अपना हर्ष मान लेता है और होता
यह है कि एक न एक को तो सुख-दुख का अनुभव होता ही है, तो हर वक्त बेचारी चेतना बस
परेशान-दुखी या फूली हुई रहती है, उसे कभी मन के साथ भूत में जाकर पछताना पड़ता है
तो कभी भविष्य में जाकर आशंकित होना पड़ता है, वह कभी चैन से रह ही नहीं पाती, नींद
में भी मन उसे स्वप्न की दुनिया में ले जाता है.
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