Tuesday, November 24, 2015

फूलों के पेड़


आज सुबह उठने में देर हुई. कपड़े प्रेस करते समय प्रेस में आग की हल्की सी एक लपट निकली, दिखानी होगी. घर के बाहर फूलों के पेड़ लगवाने के लिए गड्ढे खुदवाये और गुरूजी को सुना. कह रहे थे साधक को आत्मग्लानि से सदा बचना चाहिए. अपने मुक्त स्वभाव में रहना चाहिए, न प्रभाव में न अभाव में बल्कि अपने मूल स्वभाव में. जो प्रेम, शांति, करुणा और भक्ति का स्थान है, जहाँ न राग है न द्वेष और वही वास्तव में वह है. कल शाम टहलते हुए वे नन्हे के मित्र से मिलने गये पर घर बंद था. एक सखी से फोन पर बात हुई, वे लोग हिमाचल की यात्रा पर हैं. कल एक सखी ने फोन किया सत्संग के बारे में, वह उत्साही है बस अपने मुख से अपना बखान करती है थोड़ा सा, उसकी सहयोगी है बच्चों के कार्यक्रम अंकुर में.

आज चिदाकाश के बारे में सुना, जिसे बुद्ध शून्य कहते हैं. वह प्रकाश भी नहीं है, रंग भी नहीं और ध्वनि भी नहीं, इसे देखने वाला शुद्ध चैतन्य है, जो आकाश की तरह अनंत है और मुक्त है. जो कुछ भी दिखाई पड़ता है या अनुभव में आता है वह सब क्षणिक है, नष्ट होने वाला है पर वह चेतना सदा एक सी है. मृत्यु के बाद भी सूक्ष्म शरीर में होकर उसका अनुभव किया जाता है बल्कि वही अनुभव करता है. मन के द्वारा वही सुख-दुःख भोगता है, जब तक कोई उसे मन से पृथक नहीं देख पाता. अधिक से अधिक साधक को उसी में टिकना है. आनन्द स्वरूप उस चेतना में साधक जितना-जितना रहना सीख जायेगा, मृत्यु के क्षण में उतना ही शांत रहेगा. आगे की यात्रा ठीक होगी. ध्यान में साधक उसी में टिकता है या टिकने का प्रयास करता है. वहाँ कुछ भी नहीं है, न मन, न बुद्धि, न कोई देखने वाला, न दृश्य, न कोई संवेदना, केवल शुद्ध चेतना !

आज गुरूजी ने बताया कि जब साधक से कोई भूल हो जाये तो उसे प्रायश्चित करना चाहिए. गुरु के साथ आत्मा का संबंध, हृदय का संबंध बनाना चाहिए, शरीर व मन दोनों से परे है गुरु ! माँ शारदा कीं कथा पढ़ी, अद्भुत कथा है. ईश्वर चारों ओर न जाने कितने रूपों में है, वे ही उसकी ओर नजर नहीं डालते !

उसे अब समझ में आने लगा है, बोलते समय वाणी के साथ भीतर की तरंगें भी प्रभावित करती हैं, वाणी यदि मधुर होगी तो तरंगें प्रेम लेकर वाणी से पहले ही पहुंच जाएँगी, और यदि भीतर कटुता है, खीझ है, क्रोध है, अहंकार है तो वाणी के पहले तरंगे वही लेकर जाएँगी. वाणी का असर नहीं होगा, बल्कि बात अभी कही भी नहीं गयी उसके प्रति नकारात्मक भाव पहले ही जग उठा होगा. भीतर का वातावरण शांत हो तभी तरंगे ऐसी होंगी और ऐसा तभी हो सकता है जब कोई उस जगह रहना सीखे जहाँ कोई विक्षेप नहीं, जहाँ एक सी सौम्यता है, जहाँ न अतीत का दुःख है न भविष्य का डर, जहाँ निरंतर वर्तमान की सुखद वायु बहती है, मन से परे आत्मा के उस आंगन में अपना निवास बनाना है जहाँ प्रेम आनन्द और शांति के सिवा कुछ है ही नहीं. जब जरूरत हो तब चित्त, बुद्धि, मन तथा अहंकार के क्षेत्र में जाएँ अपना काम करके तत्क्षण अपने घर में लौट आयें. तब विचार भी शुद्ध होंगे, बुद्धि भी पावन होगी तथा स्मृतियाँ सुखद बनेंगी और शुद्ध अहंकार होगा. वाणी तथा कर्मों की शुद्धता अपने आप आने लगेगी, ऐसे में वह शक्ति जो अभी व्यर्थ सोचने, बोलने में चली जाती है, बचेगी, ध्यान में लगेगी तथा लोकसंग्रह भी स्वत ही होने लगेगा.     




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