आज फिर उसने सुना,
इन्द्रियों की आसक्ति तथा मन की चंचलता जब तक कम नहीं होती, तब तक साधना का
प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. श्रेय को नष्ट करने वाला दानव है मन तथा इन्द्रियां.
साधक जो भी सत्कर्म करे वह भस्म हो जायेगा यदि मन वश में नहीं है. अभ्यास के
द्वारा ही यह सम्भव है, जीवन अभ्यास और वैराग्य के बल पर ही आगे बढ़ता है. जिह्वा
से शब्द निकले उसके पूर्व ही मन विवेकी होकर सोचे कि सुनने वालों पर शब्द का असर
कैसा पड़ने वाला है, यदि किसी को दुःख मिला तो कर्म बंध गया, अपने ही पैरों पर
कुल्हाड़ी मार ली.
सद्गुरु कहते हैं जो
मैं हूँ सो तू है, मुझमें और तुझमें कोई भेद नहीं, तो सद्गुरु ऐसा आत्मा के स्तर
पर ही कह सकते हैं. यही तो अद्वैत है, इसमें दो नहीं हैं, सारी सृष्टि ही एक स्रोत
से निकली है, वही है, नाम-रूप का भेद है, तत्त्वतः सब एक ही है. ध्यान में जब वे
शरीर व मन से परे अपनी ज्योतिर्मय सत्ता का अनुभव करते हैं तो उन्हें अनुभव होता
है कि सभी के भीतर ऐसी ही चेतना है. सभी का मन और बुद्धि, स्मृति और चित्त इसी सत्ता
से निकले हैं. यह सत्ता अमर है, मृत्यु के समय हरेक को इसकी अमरता का अनुभव हुआ है
पर बाद में वे इसे भुला बैठते हैं. मृत्यु के समय यदि कोई इसे पहचान कर इसमें टिक
जाये तो पुनर्जन्म नहीं होगा, होगा भी तो अपनी इच्छा से होगा या उच्च योनियों में
होगा. जैसे स्वप्न में कोई अपने को भूल जाता है और स्वप्न की सृष्टि को ही सत्य
मानने लगता है वैसे ही मृत्यु के समय मन में चल रहे स्वप्न के आधार पर ही सम्भवतः जीव
नया शरीर लेने चल पड़ता है.
पिछले कुछ दिनों से
ध्यान का क्रम छूट सा गया है. हिंदी के लिए दो दिन लगे, शनिवार को बच्चों के लिए
और कभी ऐसे ही कोई आवश्यक कार्य आ गया तो ध्यान के लिए नहीं बैठी. आजकल रात को
नींद जल्दी घेर लेती है सो सोने से पूर्व दस-पन्द्रह मिनट से अधिक नहीं होता
ध्यान. कभी-कभी लगता है अब इसकी जरूरत भी क्या है, सहज योग सर्वोत्तम है पर मन की
चंचलता इसमें आड़े आती है. मन बेवजह ही
इधर-उधर की बातें सोचता रहता है. वह साक्षी भाव से उसे देखती तो है पर सजगता
निरंतर नहीं रहती. वह शुद्ध चेतना है, ज्ञाता है, द्रष्टा है अर्थात उसे अपने शरीर
व मन में होने वाले हर छोटे-बड़े स्पंदन का पता होना है, बुद्धि इसमें आड़े आती है,
वह राय देने लगती है. तभी नीरुमा कहती हैं बुद्धि को किनारे करके ही अध्यात्म
साधना करनी चाहिए. जब तक बुद्धि शुद्ध नहीं हुई है तब तक वह हानि ही करेगी. आत्मा
में रहकर जब कोई इस जगत को देखता है तब कोई भी दोषी नहीं दिखाई देता. सभी तो एक ही
ज्योति से उत्पन्न हुए हैं, सभी अपने-अपने स्तर पर सही हैं. एक का मन व बुद्धि जिस
तरह इधर-उधर जाते हैं व विकारों का शिकार होते हैं वैसे ही सभी के साथ होता है.
जैसे वे अपनी प्रकृति के वश होकर न करने योग्य कार्य कर देते हैं वैसे ही सभी के
साथ होता है.
आज विश्व पर्यावरण दिवस
है, सुबह के समाचारों में सुना कि वृक्षमित्र को, डाल्यु के दगड्या को पुरस्कृत
किया जायेगा, मन अतीत में लौट गया. पहली बार जब पर्यावरण शब्द सुना था तो उसका
अर्थ शब्दकोश में देखना पड़ा था. डाल्यु के दगडया गढवाली भाषा का यह शब्द जैसे किसी
स्वप्न की याद दिलाता है, वे जीवन भर एक स्वप्न से दूसरे स्वप्न में ही तो प्रवेश
करते रहते हैं ! उनके पास जो बहुमूल्य है वह है प्रेम, वही ईश्वर है, वही आत्मा
है, वैसे उसकी कीमत कुछ भी नहीं, वह तो बिन मोल मिलता है, बस भीतर झाँकने की जरूरत
है, दिशा बदलनी है, वह तो वह सदा से है ही, उसे पाना नहीं है, खोजना भी नहीं है,
वह मिला है पहले से ही, वह खो ही नहीं सकता, केवल उसकी ओर देखना भर है, वे उतना सा
भी कष्ट उठाना नहीं चाहते. वे सोचते हैं जो मिला ही है उसकी क्या चिंता, थोडा
संसार भर लें, पर संसार आज तक किसी को भी नहीं मिला !
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