जितनी
कोई उठा सके उतनी जिम्मेदारी उसे उठानी ही चाहिए, आज सद्गुरु ने कहा, जैसे-जैसे
कोई किसी काम को करने का बीड़ा उठाता है वैसे-वैसे उसे करने की शक्ति भरती जाती है
! उसे लगा, वे स्वयं ही अपनी शक्ति पर संदेह करते हैं और फिर आत्मग्लानि से भर जाते
हैं. उन्होंने यह भी कहा, सारे गुण भीतर हैं, यह मानकर चलना है. अवगुण तो एक आवरण
की तरह ऊपर-ऊपर ही हैं. यदि वे शरण में जाते हैं तो ईश्वर की पवित्रता उनके दोषों
को दूर करने में सहायक होती है, वह पावन है और उसकी निकटता में वे भी पावन हो जाते
हैं. उनकी वह शक्ति तथा सामर्थ्य जो ईश्वर की कृपा से मिलती है, उनमें अभिमान नहीं
जगने देती बल्कि नम्रता ही सिखाती है. वे विनम्र होकर अपनी शक्ति को उसी की सृष्टि
में लगाना चाहते हैं क्योंकि वे स्वयं तो तृप्त हो जाते हैं. जो एक बार सच्चे हृदय
से शरण में गया, वह तृप्त ही है ! आज वह जून के विभाग के मुख्य अधिकारी के घर गयी
उनकी पत्नी से मिलने, बहू व पोते से भी मिलन हो गया जो कुछ दिनों के लिए यहाँ आए
हैं, उसने उनकी कुछ तस्वीरें उतारीं. वापसी में पड़ोसिन के यहाँ गयी उनके छोटे से
सुंदर तालाब में पांच कमल खिले हैं. कल बंगाली सखी के बेटे को संस्कृत पढ़ाई बहुत
दिनों बाद, खुद भी पढ़ना होगा पहले, उसे हिंदी पढ़ने का भी कुछ कारगर तरीका सोचना
होगा. आज दोपहर कार्ड्स बनाने का कार्य समाप्त कर देना है, यदि कोई सहायक न भी मिले तो अकेले ही. मौसम
आज अच्छा है, रात भर वर्षा हुई, ठंडी हवा बह रही है. सासुमाँ सो रही हैं, आज लंच
में सब्जी उन्होंने बना दी है.
मन खाली है इस क्षण,
कोई वस्तु नहीं मांगता, कुछ नहीं चाहता, यह जैसे है ही नहीं. सुबह मसालदान गिर गया
पर भीतर एक कतरा भी नहीं हिला, कुछ हो तभी न हिले. कुछ भी नहीं है मन की गहराइयों
में. सब कुछ ठोस है वहाँ, कोई हलचल नहीं. वहाँ से केवल एक पुकार आती है कि कैसे इस
जगत को कुछ दे दें, देने की बात ही अब प्रमुख है. प्रभु भी तो हर पल दे ही रहा है,
अपना प्रेम, करुणा और कृपा..सद्गुरु भी यही कर रहे हैं..वे उनके जैसे बनने का
प्रयत्न तो कर ही सकते हैं ! वे दें और बस ! एक क्षण भी वहाँ रुके नहीं उस लेने
वाले का आभार देखने के लिए, बल्कि वे उसके आभारी हों कि वह वहाँ है ताकि उनके भीतर
प्रेम जगे.. न जाने कितने जन्मों से वे लेते आये हैं..अब और नहीं !
पिछले चार दिन फिर डायरी
नहीं खोली, शनि, इतवार को तो सुबह काफी व्यस्तता होती है, पर कल व परसों अपने
कामों में इस माया ने उलझा कर रखा. आज गुरूजी ने कहा, जो कुछ भी वे व्यवहार जगत
में देखते हैं वह सब अविद्या है, इसी को नीरूमा कहती हैं कि सभी रिलेटिव में है,
रियल नहीं है. विद्या तो आत्मा में ही है. गोयनका जी ने कहा, श्वास का सहारा लेने
से वे भीतर शरीर व मन दोनों को जान पाते हैं, तथा दोनों को बदल सकते हैं. श्वास
दोनों के बीच की कड़ी है. वह अपने भीतर देखती है तो सर्वप्रथम वाणी का दोष दीखता
है. चाहकर भी इसे दूर नहीं कर पाती, शायद यह चाह्ना पूर्ण नहीं है और यह एक साधक की
भाषा नहीं है, साधक को अपने पर संदेह नहीं होता, न गुरू पर न आत्मा पर. आज से दृढ़
निश्चय करना है आज से, नहीं इसी क्षण से ही यह निश्चय करना है कि जो भी शब्द मुख
से निकलेगा वह सारगर्भित होगा, मधुर होगा तथा स्पष्ट होगा. आज दोपहर को हिंदी
कक्षा भी है, उसके लिए भी पूर्ण तैयार रहना होगा, भाषा शुद्ध व स्पष्ट हो. उसका हर
कार्य ऐसा हो जिसमें आत्मा की झलक मिले. वह आत्मा है, पूर्ण शांति, पूर्ण आनन्द
तथा पूर्ण ज्ञान की अनंत राशि ! उसे इस जगत से कुछ भी प्राप्य नहीं है, बस देना है
स्वयं को. लुटाना है, भीतर से खाली होना है !
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