आज यूँ तो द्वादशी है पर
कल वह भूल गयी सो आज उपवास है, उपवास यानि निकट बैठना, उसके निकट जो वे हैं,
प्रकाश, पावनता, सत्य और दिव्यता का जो स्रोत है, यानि आत्मा, वही तो परमात्मा है.
आज ध्यान में अनोखा अनुभव हुआ, विचार शून्य चेतनता का अनुभव काफी देर तक होता रहा,
फिर मन ने कैसे-कैसे रूप गढ़े. गीलापन, तेल, स्वाद अभी कुछ ध्यान में कितना स्पष्ट अनुभव
होता है, मोती, प्रकाश और भी न जाने क्या-क्या. मानव होने का जो सर्वोत्तम लाभ है
वह यही कि वे अपनी आत्मा को जानें यानि खुद को जानें. जिसके बाद यह सारा जगत होते
हुए भी नहीं रहता. वे सभी कुछ करते हैं पर भीतर से बिलकुल अछूते रहते हैं. सब नाटक
सा लगता है कुछ भी असर नहीं करता. वे इन छोटी-छोटी बातों (संसार ही छोटा हो जाता
है) से ऊपर उठ जाते हैं. जीना तब कितना सहज होता है, मन भी हल्का और तन भी हल्का,
कोई अपेक्षा नहीं, कुछ पाना भी नहीं, कुछ जानना भी नहीं, कहीं जाना भी नहीं, कहीं
से आना भी नहीं, खेल करना है बस, जगना, सोना, खाना-पीना सब कुछ खेल ही हो जाता है.
वह परमात्मा जो कभी दूर-दूर लगता था, अपने सबसे करीब हो जाता है, वही अब खुद की याद
दिलाता है, वह जग जाता है जो जन्मों से सोया हुआ था. सद्गुरु की बातें अक्षरशः सही
लगती हैं, शास्त्र सही घटित होते हुए लगते हैं. ऐसी मस्ती और तृप्ति में कोई नाचता
है तो कोई हँसता है, कोई मुस्कुराता भर है !
आज ‘महावीर जयंती’ है,
गुरूजी ने उस पर प्रकाश डालते हुए कहा, उन्हें आत्मलोचन करना है, उनके सिद्धांतों
को व्यवहार में लाना है. अहिंसा को मनसा, वाचा, कर्मणा में अपनाना है. उन्हें
संग्रह की भी एक सीमा बांधनी है, उनका मन यदि सजग हो प्रतिपल, तो चेतना की अनंत
शक्तियों को पा सकता है. मन यदि पल भर के लिए भी विकार ग्रस्त होता है तो वह उस
शक्ति से वंचित हो जाता है. चेतना का सूरज जगमगाता रहे इसके लिए प्रमाद के बादलों
को बढ़ने से रोकना होगा, तंद्रा के धुंए से बचना होगा. जीवन थोड़ा सा ही शेष बचा है,
हर व्यक्ति मृत्यु का परवाना साथ लेकर आता है, कुछ वर्षों का उसका जीवन यदि किसी अच्छे
काम में लगता है तो ईश्वर के प्रति धन्यता प्रकट होती है. सद्गुरु कितनी सुंदर राह
पर चलने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. साधक भटक न जाएँ इसलिए वह भीतर से कचोटते भी
रहते हैं, वे मंजिल के करीब आ-आकर फिर भटक जाते हैं !
बल, बुद्धि, विद्या
उन्हें श्री हनुमान से प्राप्त होते हैं तथा अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष राम से, इन
सभी के साथ जब तक विवेक न हो तो यही सभी वरदान उनके लिए शाप भी बन सकते हैं. उसकी बुद्धि
में धैर्य नहीं है, उसके बल में विवेक की
कमी है और उसकी विद्या में नम्रता नहीं है. नीरू माँ कहती हैं जो कोई रिकार्ड करके
लाया है वही तो बोलेगा. नूना भाव शुद्ध करती है भीतर प्रण भी लेती है पर वे भीतर
ही रह जाते हैं, बाहर निकलती है केवल एक उदासीनता, एक कटुता, एक खीझ और एक
अतृप्ति. जो मन नाचता था, गाता था और खिला रहता था हर पल, वह किसी बाहरी प्रभाव के
कारण ऐसा पीड़ित हो जायेगा, यह कहाँ पता था. पर इसके लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो
वह स्वयं है, यात्रा के दौरान तो साधना
में खलल पड़ा ही, यहाँ लौटकर भी पहले की सी तीव्रता नहीं है, बल्कि मन को इधर-उधर
के कामों में ही उलझाये रखा, मन तो छोटा बच्चा है और बुद्धि उसकी बड़ी बहन, पर
दोनों का आधार तो आत्मा है, आत्मा यदि स्वस्थ हो, सबल हो, सजग हो तो इनमें से किसी
के साथ तादात्म्य नहीं करेगी, अपनी गरीमा में रहेगी, उस गुंजन को सुनेगी जो
रात-दिन भीतर हो रही है, उस ज्योति को देखेगी जो भीतर जल रही है.
तमोगुण की प्रधानता
होने पर जीवन में रजोगुण व सतोगुण दब जाते हैं. हो सकता है यह उसके किसी पूर्व
कर्म का फल हो अथवा पुरुषार्थ में कमी का अथवा तो सजगता की कमी हो, पर दुःख देने
वाला यह तम रूपी विष उसकी इन्द्रियों को ताप दे रहा था. आज नीरू माँ ने कहा यदि जीवन
में अभी भी दुःख है तो कोई आत्मा को जानता है, ऐसी बस उसकी मान्यता भर ही है. उसका
स्वभाव यानि प्रकृति वैसी की वैसी ही बनी हुई है, सम्पूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ है,
अपनी आजादी को किसी भी कीमत पर वह खोना नहीं
चाहती, उसका ‘स्व’ अत्यंत संकीर्ण है, आत्मा को जानने वाला तो उदार होता
है, उल्लास उसका साथ कभी नहीं छोड़ता, वह कामनाओं से उपर उठा होता है. अपने भीतर
झांक कर देखे तो कोई विशेष कामना नजर नहीं आती, सिवाय इसके कि..परमात्मा से उसकी
भेंट हो जाये, पर उसके लिए तो हृदय को पवित्र करना होगा, राग-द्वेष से मुक्त होकर,
छल-छिद्र और कपट से रहित होना होगा, वाणी को मधुर बनाना होगा, वाचा, मनसा, कर्मणा
एक होना होगा, हृदय व बुद्धि का मिलन करना होगा. आज इस वक्त दोपहर के साढ़े बजे वह सद्गुरु
और कान्हा की उपस्थिति में स्वयं से वादा करती है कि सजगता के साथ हर कार्य करेगी.
तमोगुण का अर्थ ही है बेहोशी, प्रमाद. उसे सत्वगुण के भी पार जाना है, उसकी डायरी
में नीचे लिखी सूक्ति में गाँधी जी भी यही कह रहे हैं जब किसी के मन, वाणी तथा
कर्म में साम्य होगा, तभी वह प्रसन्न होगा !
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