‘कर्म कामना प्रधान न हो बल्कि भावना
प्रधान हो तो कर्म बंधन नहीं होता’. आज सुबह जल्दी उठी तो उपरोक्त वचन सुनने का
सौभाग्य मिला. पिछले कुछ दिनों से ‘जागरण’ ठीक से सुन नहीं पायी, घर-गृहस्थी के
कार्यों में व्यस्त रही. कुछ दिन तो स्वेटर बिनने में ही गुजरे, जल्दी पूरा करना
था. कल सुबह मन अस्त-व्यस्त हो गया जिसका कारण नैनी की कठोर भाषा थी, वह अपने बेटे
को बुरी तरह से डांट रही थी. इतने वर्षों उनके घर काम करने के बाद भी वह मीठा
बोलना नहीं सीख पायी है, आदत को बदलना असम्भव कार्य है.
बाबाजी कहते हैं “जिसे
भवसागर से तरना है, उसे छोड़ खुदी, खुद मरना है”, भवसागर से तरने की कीमत बहुत
ज्यादा है. हर क्षण सचेत रहकर प्रेय और श्रेय का ध्यान रखकर चुनना होता है. मन यदि
कामना से मुक्त नहीं कर सकते तो भक्ति का ढोंग रचने से कोई लाभ नहीं होगा. एक ओर
तो वह संसार के सारे सुख चाहती है और दूसरी ओर ईश्वर का प्रेम भी पाना चाहती है.
परमात्मा से प्रेम का संबंध इतनी आसानी से नहीं बनता और जब बन जाता है तो उसे तोड़ना
भी उतना ही मुश्किल है. मन का स्वाभाविक संबंध संसार से है आत्मा का स्वाभाविक
संबंध परमात्मा से है. यदि अपने भीतर के सच्चे स्वरूप की स्मृति हो तो सुख की चाह
में संसार की गुलामी नहीं करनी पड़ेगी.
आज नन्हे को स्कूल में
वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेना है, उसने अभ्यास भी किया है. अगले हफ्ते
उन्हें घर जाना है लेकिन दो दिन ‘असम बंद’ और एक दिन ‘पश्चिम बंगाल बंद’ के कारण
उनकी यात्रा लंबी खिंच सकती है. पिछले दिनों यहाँ का माहौल भी तनावग्रस्त था, कई
स्थानों पर हिंदी भाषी लोगों की नृशंस हत्या हुई. संसद में कल एक हफ्ते बाद कार्य
शुरू हुआ. डाक विभाग की हड़ताल को भी एक हफ्ता हो चुका है. अयोध्या में राम मन्दिर
बने इस पर बयान देकर वाजपेयी जी ने खुद के लिए परेशानी मोल ले ली है. अमेरिका के
नये राष्ट्रपति जार्ज बुश होंगे अंततः यह निर्णय ले लिए गया है.
‘ईश्वर से मानव का संबंध
सनातन है, वे उसी के अंश हैं, उसका प्रेम ही उनके हृदयों में छलकता है. अज्ञानवश
वे इस बात को भूल जाते हैं और स्वार्थपूर्ण संबंधों में प्रेम पाने का प्रयास करते
हैं, तभी दुःख को प्राप्त होते हैं’. उपरोक्त वचन सुबह सुने और लिख लिए, सचमुच संबंध
जब तक स्वार्थहीन नहीं होंगे तब तक बंधन बना ही रहेगा. स्वार्थ की भावना कामना की
पूर्ति हेतु है, कामना अभाव की पूर्ति के लिए है और अभाव का कारण अज्ञान है, अभाव मानव
का स्वभाव नहीं है क्यों कि वह वास्तव में पूर्ण है, अपूर्णता ऊपर से ओढ़ी हुई है
और चाहे कितनी भी कामना पूर्ति क्यों न हो जाये यह अपूर्णता इन संबंधों से, वस्तुओं
से भरने वाली नहीं क्यों कि पूर्ण तो मात्र ईश्वर है वही इसे भर सकता है. इसी तरह,
वे मुक्त होना चाहते हैं जबकि मुक्त तो वे हैं ही, बंधंन खुद के बनाये हुए हैं,
प्रतीत मात्र होते हैं. जब किसी कामना पूर्ति की अपेक्षा नहीं रहेगी चाह नहीं
रहेगी तो मुक्तता स्वयं ही अनुभव में आ जाएगी. उसे लिखते-लिखते ही मुक्तता की
अनुभूति हुई.
आज उन्हें बनारस जाना है.
कल रात्रि स्वप्न में सभी संबंधियों को देखती रही. मंझले भाई को देखा, उसे बुखार
है, फोन किया तो पता चला वास्तव में उसे ज्वर है. कुछ बातें समझ से परे होती हैं.
कर्म तो अपने आप में प्रधान है... महत्वपूर्ण है.. बिना किसी स्वार्थ के..
ReplyDeleteआदतें जैसा कि मैंने अपने ब्लॉग पर भी लिखा था कि अच्छी लगती नहीं - बुरी छूटती नहीं! मन का अस्त-व्यस्त होना समझ में नहीं आया.. मन या तो व्यथित होता है या व्याकुल, अस्त-व्यस्त आज पहली बार देखा!! :) :)
जिस सम्बन्ध में स्वार्थ हो उसमें प्रेम हो ही नहीं सकता. प्रेम तो वह होता है जो दूर असम में बैठी बहन के स्वप्न में आकर बताए कि वाराण सी में उसका भाई ज्वरपीड़ित है, और बहन विचलित हो जाए. कहाँ है स्वार्थ इसमें.
निदा साहब का एक दोहा याद आ रहा है:
मैं रोया परदेस में, रोया माँ का प्यार,
दु:ख ने दु:ख से बात की, बिन चिट्ठी, बिन तार!
बाबा जी का असर मुझपर भी होता जा रहा है!! :) :)
व्यथित अथवा व्याकुल होना तो किसी ऐसी बात से होता है जिसका निराकरण किसी न किसी रूप में, देर-सवेर, व्यक्ति कर सकता है, पर जब बात ऐसी हो जिसका हल मन के पास न हो तो वह अस्त-व्यस्त हो जाता है, ऐसा कह सकते हैं. बाबाजी के असर से बचना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है
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