“मन की
आसक्ति को, प्रेम को, चाह को अगर दिशा मिल जाये, भावनाओं को, विचारों को केंद्र मिल जाये तो जीने
की कला अपने आप ही आ जाती है. यदि चाह नश्वर की हो तो सुख भी नश्वर ही तो मिलेगा.
मन में अनंत की चाह हो तभी अनंत की ओर कदम बढ़ेंगे”. आज फिर अमृत वाणी सुनने को
मिली, सन्त ईश्वर प्राप्ति को कितना सहज बना देते हैं. इसीलिए ही शास्त्रों में
गुरू की महिमा गायी गई है. कल जून और उसने साथ-साथ राजकपूर की पुरानी फिल्म ‘बरसात’
देखी, जिसमें प्रेम की शुद्धता, विशालता व अपार शक्ति का चित्रण है. प्रेम यदि
हृदय में हो तो घृणा का कोई स्थान नहीं, प्रेम क्षमा सिखाता है. सच्चा प्रेम इस
जगत में दुर्लभ है. जब कभी भी उसके अंतर में प्रेम की भावना प्रबल होती है सब कुछ
कितना सुंदर लगता है. नन्हा भी आज कई दिनों के बाद स्कूल गया है.
‘जीवन का संघर्ष द्वन्द्वात्मक है, किन्तु सत्य सदा एक सा है. ईश्वर से विमुख
को संसार का वैभव सदा एक सा नहीं मिल सकता पर भक्त को सदा अनन्य आनंद की प्राप्ति
होती रहती है. नश्वर का मात्र उपयोग करना है शाश्वत से प्रेम करना है’. आज पुनः
जागरण में ये विचार सुनने को मिले जो उसे भा गये और तभी से यह प्रयत्न है भी जारी
है कि सद्चिन्तन चलता रहे. कुछ देर पूर्व उन परिचिता ने अपनी नैनी के द्वारा
ससुराल से माँ-पिता द्वारा भेजी वस्तुएं उन्हें भेजीं. काजू, बादाम, अनार, चाकलेट,
नमकीन तथा आंवले का मुरब्बा, इन सबके साथ उनका स्नेह तथा आशीर्वाद भी मिला.
ग्यारह बजने को हैं, जून अभी थोड़ी देर में आ जायेंगे. बादल बरस कर अभी-अभी थमे
हैं. सुबह काले बादल अचानक ही छा गये और तेज हवा भी चलने लगी. असमिया सखी ने फोन
पर कहा वर्षा होने वाली है तब उसका ध्यान उस ओर गया वरना तो अपने कार्यों में
व्यस्त थी और आजकल उसका प्रिय कार्य है ईश्वर के बारे में सोचना. सुबह बाबाजी ने
भावपूर्ण वचनों में धीर-गम्भीर बातें बतायीं. उन्होंने कहा जब भी कोई परेशान हो तो
समझ ले ईश्वर का साथ उसने छोड़ दिया है. अपने मन को दो बातों से बचा पाने में वह
असमर्थ है, वे हैं राग और द्वेष, यही दोनों संस्कार बनाती हैं. मन पर बहरी प्रभाव
ऐसा होना चाहिए जैसे पानी पर लकीर, पर वे बनाते हैं लोहे पर लकीर, यदि धरा अथवा
रेत पर लकीर हो तो भी सुधरने के आसार हैं. मन को चट्टान सा दृढ बनाना है और समुद्र
सा गहरा, आकाश सा अनंत और पवन सा गतिमान.
नन्हा क्लब में स्वीमिंग गाला देखने गया है. जून सो रहे हैं. इतवार की शाम
के साढ़े तीन हुए हैं. कल दोपहर से ही स्वयं को ईश्वर से विमुख पाया फिर तामसिक
वृत्ति का प्रभाव लगता है. अर्जुन ने जब कृष्ण से कहा था कि मन बड़ा चंचल है इसे
साधना बहुत कठिन है तो ऐसे ही प्रयासों के बारे में कहा होगा. कभी-कभी लगता है
उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई कुछ कराए, कहलवाए जा रहा है. ऐसे वक्त में प्रकृति भी
विपरीत लगती है. कल लाइब्रेरी से Tibetan book of dead and living फिर से लायी है.
जून की तबियत कुछ नासाज है.
She read
today’s line in diary – It takes a long time to bring excellence to maturity. Then
wrote, it does not take long time to bring excellence to maturity but a very
very long time to…. She moves forward and then after some days or weeks finds
herself on the same position. Goyenka ji is right when he says that only conscious
mind changes but innermost feelings are same, they remain hidden for some time
due to intellect or some practice but suddenly one day outer cover is thrown away and inside is in as mess and
chaos as it was before, nothing has changed. She is very sad to see this, to
experience once again defeat from her own self.
कल ऑफिस में व्यस्तताओं के बीच यह पोस्ट पढ गया मोबाइल पर.. सोचा अपनी बात शाम को घर जाकर कहूँगा... लेकिन ऑफिस में ही पत्नी का फ़ोन आया कि उनकी तबियत बिगड़ गई है. भागकर आया और डॉक्टर को दिखाना, जाँच करवाना और उनका ख़्याल रखने के कारण अपनी बात कहना भूल गया. यही नहीं जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि मैं अपनी बात कह चुका हूँ. अभी जाकर देखा कि मैंने कुछ नहीं कहा!
ReplyDeleteअब कुछ कह भी नहीं पा रहा. इसलिये बस उसकी सारी बातों से सहमत होते हुये, उसके वन्दना के स्वरों में अपना सुर मिला रहा हूँ!
सचमुच आपने बिना कुछ कहे ही कह दिया था उस पल में, गुरूजी कहते हैं जिस क्षण भी मन भीग जाये भक्ति घट गयी. आपका प्रेम से पत्नी का ख्याल रखना एक सम्पूर्ण कृत्य था जिसमें उस क्षण में जो कुछ और भी करने योग्य था या करना चाहा था सब समा गया था.
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