पिछले दो दिन फिर डायरी नहीं खोल पायी,
आज भी यह बेमौसम बरसात की तरह सुबह के दस बजे ( जो समय संगीत के लिए सुरक्षित है)
इसलिए खोली है कि स्वीपर आज बहुत देर से आया है. नैनी डिब्रूगढ़ गयी है, सुबह किचन
का सारा कार्य स्वयं किया. वह नई पीली साड़ी पहन कर जब जा रही थी, अच्छी लग रही थी,
खुश भी थी सो उसने भी ख़ुशी-ख़ुशी सभी काम किये. आज माली से आंवले भी तुड़वाये हैं,
इस मौसम में पहली बार. सुबह गोयनका जी का प्रवचन सुना. ‘श्रद्धा पहली सीढ़ी है
आत्मज्ञान के मार्ग की. पूर्णत सचेत मन ही धर्म को धारण कर सकता है. धर्म वह जो
सार्वजनीन हो, प्रतिपल सजग रहने का संकल्प जगाता हो’. उसे लगा, जीवन पर्यन्त जो
बेहोशी की अवस्था में जीये चले जाते हैं, न तो गहराई से स्वयं को जानने का प्रयास करते
है न ही किसी अन्य को सुनना या समझना चाहते हैं, उथला-उथला सा ही जीवन जीते हैं,
जिसमें संवेदना नहीं होती. क्यों न हर पल एक अनुभूति का पल बन जाये, जो क्षण जिस
कार्य के लिए हो अपना आप उसे अर्पित कर दें. तब वह काम भी सफल होगा और उनकी ऊर्जा
जो इधर-उधर व्यर्थ होती है, केन्द्रित हो पायेगी.
आज कितने सुंदर शब्द उसके कान
में पड़े, ‘चलो सखि यह मन संत बनाएं’ ! और उसके भीतर विचारधारा बहने लगी. यदि यह
मन, जो सारे क्रिया-कलापों का केंद्र बिंदु है सन्त बन जाये तो वे अपने स्वरूप को
प्राप्त कर सकते हैं. ऐसा मन जो आलोचना नहीं करता, अपेक्षा नहीं रखता,
पूर्वाग्रहों से मुक्त है. मन जो गतिमान है रमता जोगी है, जो जल की अविरल धारा की
तरह बहता जाता है तट को भिगोता हुआ पर तट से बंधता नहीं. जो प्राणीमात्र के प्रति
प्रेम से ओत-प्रोत है, जो विशाल है, संकुचित और संकीर्ण नहीं, जो मान नहीं चाहता. ऐसा
मन ही समता में रह सकता है. सुख और शांति का आधार तो समता ही है न !
बाबाजी ने कितना सुंदर
संदेश आज दिया, “धीरे-धीरे परम पथ पर बढ़ते जाना है. नेत्रों की ज्योति कम हो उसके
पूर्व ही देखने की वासना न रहे, सुनने की क्षमता नष्ट हो जाये इससे पूर्व ही सुनने
की इच्छा पर नियन्त्रण करना आ जाये. श्वासें साथ छोड़ने लगें इससे पूर्व ही जीवन का
मोह न रहे. स्मृति और कल्पना के आधार पर होने वाले भय, शोक और मोह से मुक्त हुआ मन
आत्मा में रहना सीख जाय. जिसे तृष्णा जलाती है वह कंगाल है, जिसे कुछ पाना शेष
नहीं रह जाता वह अमीर है”.
आज गुरुनानक जयंती है,
सुबह-सुबह पिता को जन्मदिन की बधाई दी. दादी कहती थीं टुबड़ी के दिन उनका जन्म हुआ
था, अंग्रेजी तिथि उन्हें याद नहीं थी. वे हिमाचल में थे, छोटी बहन की बेटियों की
देखभाल कर रहे थे, उसे पांच दिनों के लिए फील्ड ड्यटी पर जाना था. पता चला अगले
कुछ दिनों में छोटे व मंझले दोनों भाइयों का तबादला घर के आस-पास ही हो जायेगा. उसने वर्षों पहले बचपन में नानक के जीवन पर एक पंजाबी फिल्म देखी थी, जिसके कुछ दृश्य आज भी उसे याद हैं. कल
नन्हा दिन भर नये साल के शुभकामना कार्ड्स बनाने में व्यस्त रहा जिन्हें आज जून
लिफाफों में डाल रहे हैं, उसे सिर्फ दो-चार खत लिखने हैं. नन्हे का स्कूल खुला है
पर जून का दफ्तर आज बंद है. इस महीने क्लब की मीटिंग है वह अपनी नई कवितायें पढ़ेगी.
नैनी को मेरी ओर से चश्मेबद्दूर कह दीजियेगा!!
ReplyDeleteश्रद्धा व्यक्ति को नतमस्तक होना सिखाता है, जो अहंकार के दमन में सहायक होता है. और जब अहंकार का दमन हो तो व्यक्ति बिल्कुल प्रत्यास्थ हो जाता है!
बाबा जी की बातें सचमुच प्रभावशाली, सहज और अनुकरणीय हैं.कितनी बातें मिलती हैं मेरी उससे. बाबा नानक के प्रकाश-पर्व के दिन मेरे दादा जी का भी जन्म दिन है!
वह फ़िल्म मैंने भी देखी थी. दारा सिंह साहब ने वो फ़िल्म बनाई थी!
सम्भवतः आप कहना चाहते हैं, श्रद्धा सिखाती है और प्रत्यास्थ का अर्थ क्या है..नानक के बारे में संयोग सचमुच सुखद व विस्मयकारी है
ReplyDeleteप्रत्यास्थ यानि लचीला, elastic!
ReplyDelete:) :)