“एहिक विद्या, योगविद्या और
आत्मिक विद्या ये तीन प्रकार की विद्याएँ होती हैं. जिनमें से पहली विद्या आजीविका
के लिए है, दूसरी मानसिक उन्नति के लिए, तीसरी पर ध्यान कम ही दिया जाता है. इसी
का परिणाम है की छात्र जीवन समाप्त होते ही अधिक से अधिक आमदनी वाली नौकरी की तलाश
शुरू हो जाती है”. आज बाबा जी बच्चों को सम्बोधित कर रहे थे. आज अपेक्षाकृत उसका
सात्विक भाव जागृत है, कल की उहापोह से मुक्ति मिल गयी है, जैसे पौधा जल के बिना
मुरझा जाता है वैसे ही इन्सान प्रेम के बिना सूख जाता है, धन-दौलत से भी ज्यादा
जरूरी है प्रेम, अहैतुक एकान्तिक प्रेम ! ऐसा प्रेम जो दुराव नहीं करता, क्षमा
करना जानता है और जो जीवन को जीवन बनाता है. जून आजकल व्यस्त हैं, कल शाम देर से
घर आये बाद में वे एक मित्र के यहाँ गये, उनका घर भी एक अजीब सा मंजर लिए होता है,
पर वे वहाँ बिना किसी लागलपेट के, बिना किसी संकोच के बातें करते हैं, हंसते हैं,
पुरानी मित्रता है ऐसे ही असमिया सखी के यहाँ जाने पर होता है. आज सुबह छोटे भाई
को जन्मदिन की शुभकामनायें दीं, माँ ने दवा लेना अपने आप बंद कर दिया था सो
अस्वस्थ हो गयीं थीं, अब ठीक रही हैं पर उनसे बहुत कम देर बात हो पाई, पिता भी
घूमने गये थे. उसने सोचा कल सुबह फिर फोन करेगी. कल जन्माष्टमी है उसने व्रत रखने
का निश्चय किया है, कल का दिन कृष्ण को अर्पण, कृष्ण जो कितने नामों और रूपों में
जग में आते रहे हैं. जिनकी वंशी की मोहक धुन ने सारे ब्रज को ही नहीं सारे विश्व
को मोह लिया था, मोह लिया है और मोहती रहेगी. जो अर्जुन के सारथी भी हैं और गुरु
भी, वही उसके जीवन के सारथी बन गये हैं.
आज जन्माष्टमी है. जून को आज अवकाश के दिन भी दफ्तर जाना पड़ा है. नन्हा घर पर
ही है उसे उसका छोटा सा मन्दिर जिसे आज फूलों से सजाया है अच्छा लगा, वैसे तो
कृष्ण उसके मन में हैं उसने उन्हें मानसिक पुष्पों को अर्पण किया है. गीता में
सत्व, रज और तम से भी ऊपर उठने का पाठ पढ़ा, स्थितप्रज्ञ होने के वचन को दोहराया.
सुख-दुःख, मान-अपमान, हानि-लाभ, ग्रीष्म-शीत आदि में सम भाव बनाये रखना है यह भी पुनः
पढ़ा.
ईश्वरीय प्रसाद के रूप में वर्षा आज भी बरस रही है, बाहर शीतलता है और भीतर
भी. कल दिन भर मन पर सद्विचारों का प्रभाव रहा पर रात को सोते समय कुछ ही पलों में
मन कहाँ पहुंच गया. मन की शक्ति अपार है, आवश्यकता है इसका सदुपयोग करने की. काश
जितनी तेजी से विचार पनपते हैं उतनी ही शीघ्रता से वे कहीं अंकित भी होते जाते, हजारों
मन कागज खप जाता एक मन के विचारों को अंकित करने के लिए. कल रात छोटी ननद का फोन
आया, वह नया मकान खरीद रही है, दशहरे में सम्भवतः गृहप्रवेश करेंगे. वे लोग इसी
वर्ष उनके पास जायेंगे. उसके घर में माँ पिछले दिनों फिर अस्वस्थ हो गयी थीं. आजकल
माँ-पिता दोनों मृत्यु के विषय में अवश्य सोचते होंगे, Tibetan book..पढकर वह भी
सोचने लगी है. मरना जीने की शर्त है, उन सभी को एक न एक दिन तो मरना ही है, फिर
क्यों न पहले से ही इसके लिए स्वयं को तैयार करें. यह बात जितनी अटपटी लगती है
उतनी है नहीं, इन्सान हमेशा तो जिए चला नहीं जा सकता, कहीं न कहीं तो फुल स्टॉप
लगाना ही होगा, किसी के जीवन में यह प्रक्रिया सहज भाव से होती है तथा किसी को
बहुत दर्द व पीड़ा सहनी होती है. उसकी तो ईश्वर से प्रार्थना है कि मृत्यु लम्बी
अस्वस्थता के बाद न हो, उतनी ही प्रिय हो जितना जीवन है. मृत्यु वैसे जीवन का अंत
नहीं है पर यदि हो भी तब भी इसमें दुखी होने की क्या बात है, वे हों या न हों यह
दुनिया तो वैसी ही रहेगी !
जन्माष्टमी का पर्व एक ऐसा पर्व है जिसे बच्चों से लेकर बड़ों तक सभी समान उल्लास से मनाते हैं. कृष्ण के चरित्र का विस्तार भी वैसा ही है.. तभी तो इन्हें पूर्णावतार कहा जाता है. प्रेम के विषय में जो कुछ भी उसने कहा वो सचमुच अकाट्य सत्य है.
ReplyDeleteऔर मृत्यु के विषय में भी बड़ी सही बात कही है.. वास्तव में मृत्यु को न जाने क्यों परित्यकत सा स्थान दिया है हमारे समाज में. यदि बचपन जीवन का सबसे मधुर काल है तो यह माधूर्य कालांतर में और विकसित और परिवर्द्धित होना चाहिये और मृत्यु के क्षण में तो वही आनन्द की अनुभूति देने वाला पल होना चाहिये था.
मेरे स्वर्गीय पिताजी एक सूक्त वाक्य था जो आज याद आ गया - मृत्यु का सतत स्मरण ही अमरत्व की यात्रा है! कितनी छोटी सी बात, लेकिन कितनी गहराई लिये!!
वाह ! कितनी सुंदर बात... मृत्यु का क्षण आनंद की अनुभूति देने वाला पल होना चाहिए...
ReplyDeleteधन्य हैं आपके पिता जी भी !