शनिवार का आज का दिन बाकी दिनों
से कुछ भिन्न है. सुबह बगीचे में कुछ देर कार्य किया फिर पड़ोसिन के यहाँ गयी. जब
से उसने उन परिचिता की कक्षा में जाना शुरू किया है वह ज्यादा समझदार लगने लगी है. नन्हे के स्कूल
में आज radio programme recording है, आज देर से आने वाला है, जून को sample test
के लिए एक घंटा पूर्व ऑफिस जाना पड़ा है. उसने सुबह की जगह अभी कुछ देर पूर्व ही
रियाज किया. आज पहली बार उसने किसी को कहा (पड़ोसिन) कि वह आयेगी तो उसे अपनी
कविताएँ दिखाएगी. कल दोपहर उसके मन में उन्हें छपवाने का विचार भी आया और कल्पना
ही कल्पना में छपी हुई किताब हाथों में थी. जून वापस आ गये हैं और माली से अमरूद
के पेड़ की कटाई-छंटाई करवा रहे हैं जो उससे देखी नहीं जाती सो वह अंदर आ गयी है.
वैसे आज सुबह उसने भी कुछ पौधों, और झाड़ियों की कटिंग की थी पर इतने बड़े पेड़ पर
कुल्हाड़ी चलाना अलग बात है.
‘’आखिर क्यों उसने अपने आप को इस सिचुएशन में पड़ने दिया’’, ये शब्द उसके होठों
पर थे, उसकी जेब में एक पैसा भी नहीं था. रात का वक्त था, अनजान शहर में वह जून और
नन्हे से बिछड़ गयी थी. वे किसी शहर में घूमने गये थे, एक होटल में पहले एक दिन
रुके, जहाँ उनकी काफी अच्छी जान-पहचान हो गयी थी पर दूसरे दिन कहीं से घूम कर वापस
आये, जून पीछे थे वह और नन्हे आराम से अपने पुराने कमरे की ओर बढ़े पर केयरटेकर ने
मना कर दिया, कोई भी कमरा खाली नहीं है. तब तक जून भी आ गये. नन्हा और जून सामान
लेकर आगे-आगे चल पड़े. उसके हाथ में भी कुछ था पर कोई खिलौना ही था. वह पीछे-पीछे
बाजार देखते हुए चल रही थी कि कुछ
छोटी-छोटी लडकियाँ दिखीं. एक को देखकर वह मुस्कुरायी फिर वे कुछ बात करने लगे.
उसने उस बालिका से कहा कल ‘बीच’ पर मिलेंगे. उसने भी ‘हाँ’ कहा, तब तक वे एक दोराहे
तक आ चुके थे, जून और नन्हा कहीं दिखाई नहीं दिए. वह एक तरफ मुड़ गयी, और आगे जाकर
एक होटल दिखा, उसे लगा वे लोग यहीं गये होंगे पर अंदर जाकर निराशा ही हाथ लगी. वह
बाहर आ गयी और सोचने लगी कि रात्रि के वक्त इस अन्जान शहर में अब उसका अगला कदम
क्या होना चाहिए. उसके पास पैसे भी नहीं थे कि कहीं फोन भी कर सके, तभी यह विचार उसके
मन में आया कि ऐसी परिस्थिति में खुद को क्यों डाला और साथ ही यह भी कि कहीं यह
स्वप्न तो नहीं, और नींद खुल गयी.
कल सुबह जून किसी काम से ऑफिस गये तो ड्राइवर ने एक एक्सीडेंट के बारे में
उन्हें बताया जिसमें ‘आसाम मेल’ ट्रेन से टाटा सूमो की टक्कर में एक ड्रिलर की
मृत्यु हो गयी. कल शाम नैनी ने, आज सुबह पड़ोसिन ने उसके बारे में बताया, फिर फोन
पर एक सखी से भी उसी दुर्घटना के बारे में बात की. बार-बार उस वैधव्य को प्राप्त
स्त्री का जो गर्भवती भी है तथा उसके ढाई वर्ष के पुत्र का ध्यान हो आता है.
मृत्यु कब किस रूप में किसके सम्मुख आएगी, नहीं कहा जा सकता. हर दिन को जीवन का
अंतिम दिन मानकर जीना चाहिए, मनुष्य वर्षों बाद की योजनायें बनता है पर अगले क्षण
का उसे पता नहीं, आज सुबह बल्कि रोज सुबह ही वे ‘जागरण’ में जीवन की क्षण भंगुरता
के बारे में सुनते हैं, सब कुछ नश्वर है प्रतिक्षण बदल रहा है, पल-पल वे मृत्यु की
ओर बढ़ रहे हैं.
‘’विवेकी को पाने की इच्छा नहीं रहती, वह तो पूर्ण हो चका होता है, उसे कुछ
पाना शेष नहीं रहता बल्कि छोड़ना ही शेष रहता है. संसार में आसक्ति को छोड़ना, सुख
बुद्धि को छोड़ना, विकारों को छोड़ना और धीरे-धीरे सभी सांसारिक काल्पनिक वृत्तियों
को छोड़ना. विवेकी अपने सुख-दुःख के लिए वह स्वयं को जिम्मेदार मानता है मानता ही
नहीं, जानता है क्यों कि वह स्वयं के अनुभव के आधार पर ही निर्णय करता है’’. आज
सुबह उसने यही सब सुना था, इस समय दोपहर के डेढ़ बजे हैं वह अपनी कविताओं वाली
डायरी के साथ है. सुबह-सुबह जागरण सुनने के बाद सूक्ष्म और पवित्र भाव मन में जगते
हैं उसी वक्त तो उन्हें लिख नहीं पाती पर बाद में उन्हीं के आधार पर कविताएँ गढ़ती
है. उसकी आस्था और विश्वास का बोध कराती हैं, उसके विचारों का प्रतिबिम्ब है कुछ
रचकर कैसी संतुष्टि का आभास होता है. उसे एक पत्र भी लिखना है, माँ-पिता का पत्र
पिछले हफ्ते आया था. परसों नन्हे का प्लास्टर खुलेगा, अब उसका हाथ काफी ठीक है, एक
महीना अंततः बीत ही गया, वक्त अपनी रफ्तार से चलता रहता है. परसों उनकी मीटिंग भी
है. आज भारत-पौलैंड का हॉकी मैच है, यदि भारत यह मैच जीत गया तो सेमीफाइनल में
प्रवेश पा सकता है. ओलम्पिक खेलों के समापन में मात्र चार दिन रह गये हैं, फिर चार
वर्षों की प्रतीक्षा !
दिनचर्या के मध्य कविताओं के लिये एक पाठिका का मिलना और कविताओं को छपवाने के प्रस्ताव पर मैं हल्के से मुस्कुराने लगा हूँ... कई बार मैं अपने दोस्तों को कह्ता रहा हूँ कि जब मेरी कोई रचना किसी को पसन्द आती है (मित्रमण्डली में) तो उनकी पहले प्रतिक्रिया यही होती है कि इसे छपने क्यों नहीं भेजते! मगर कोई यह नहीं सोचता कि छपने से अधिक आवश्यक एक सुधि-पाठक का मिलना है! यही कारण है कि मैंने भी आजतक अपनी रचनाओं के लिये छपने का आसरा नहीं देखा!
ReplyDeleteमृत्यु भले ही एक सुखद घटना हो, अपरिहार्य्य और जीवन की पराकाष्ठा.. किंतु यह भी सच है कि मृत्यु से अधिक मृत्यु के प्रकार से डर लगता है और उस एक मृत्यु से जुड़ी कितनी अकाल-मृत्यु (जो जीवन के रूप में रह जाती हैं) जैसे वह युवा विधवा और उसका गर्भस्थ शिशु!
नन्हे के प्लास्टर खुलने की बधाई! उसे बताइये कि मेरा टूअर भी काफ़ी लम्बा हो गया इसलिये अपने परिवार के साथ साथ अपनी उस सखि को भी बहुत मिस किया!
जीवन की क्षण भंगुरता का जिसने अनुभव नहीं किया स्वयं की शाश्वतता का जिसे अनुभव नहीं हुआ हर उस व्यक्ति के लिए मृत्यु भयावह ही है
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