“पवित्र संग की आध्यात्मिक तरंगे हृदय को
प्रभावित करती हैं और साधक को लोकातीत परमसुख का आकर्षण होता है”. आज बाबाजी ने
संग की महत्ता को बताया. संग का बड़ा रंग लगता है. उसने चिन्तन किया यदि कामनाएं सीमित
हों तो मन सुखी रहता है. ईश्वर का वरदान स्वरूप यह जीवन उन्हें समय की धारा के
साथ-साथ बढ़ने के लिए मिला है. मन पर नियन्त्रण एक मर्यादा को जन्म देता है.
सामान्य सुखों के पीछे अपने हृदय के अलौकिक सुख को जो तज दे, वह दुखों को आमन्त्रण
दे रहा है. अंतर्दृष्टि रखते हुए इस जीवन रूपी चादर को स्वच्छ रखा जा सकता है,
बुद्धि स्थिर होने से ही सही निर्णय की शक्ति प्राप्त होती है.
आज बाबाजी ने बड़ी मजेदार
बात कही, कुल डेढ़ पाप होता है और कुल डेढ़ ही पुण्य होता है. एक पाप देह को ‘मैं’
मानकर उसमें आसक्त रहना और आधा सारे अन्य पापों को मिलाकर होगा. इसी तरह एक पुण्य
आत्मा को ‘मैं’ मानने से व शेष आधा अन्य सभी अच्छे कर्मों को मिलाकर होगा. उस दिन मीटिंग
अच्छी रही. उसका कविता पाठ सबसे पहले हुआ, कुछ लोगों ने तारीफ भी की. एक सखी का
pearl set पहन कर अच्छा लगा, ड्रेस कोड के हिसाब से उसे वह पहनना था. वक्त पड़ने पर उसने सहायता की, इसी का नाम तो
मित्रता है. आज धूप तेज है, सूरज की तरफ पीठ करके बैठने पर भी चेहरे पर तपन महसूस
हो रही है. सो अंदर जाना ही ठीक है. बगीचे में फूल ही फूल दिखाई दे रहे हैं,
क्रिसेंथमम व गुलाब के फूल तथा जीनिय के, जो बड़े शोख रंगों में हैं.
आज बाबाजी का प्रवचन सुनकर
मन भावविभोर हो उठा. कितनी गूढ़ बातें वह कितनी सहजता से कह जाते हैं. ईश्वर के
मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं. न जाने कितने उदाहरण, कितने उपाय बताते हैं.
हर कोई अपने स्वभाव व रूचि के अनुसार तरीका पसंद करे और चल दे उस सच्चे मार्ग पर,
जिससे अपना भी कल्याण है और लोक कल्याण भी . वह कहते हैं किसी भी बाहरी आकृति या
रूप की नकल कोई न करे. अच्छा बनने का प्रयास भी नहीं बल्कि वह जो है, उसे सहज होकर
जाने. यह जानना ही उसे सच्चा ज्ञान देगा. किसी को कुछ बनने की, किसी के जैसे होने
की लालसा को प्रश्रय नहीं देना है, बल्कि अपने भीतर छुपी उस अनंत शक्ति का बोध पाना
है, अपने अंतर के ईश्वर को भजना है. मन्दिरों और तीर्थों के भगवान किसी का कुछ भी
भला नहीं करेंगे यदि मन में उसके दर्शन नहीं किये. कबीरदास ने ठीक ही कहा है –
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि, मनवा तो चहूँ दिसी फिरै....इस चहूँ दिसी
फिरने वाले मानस को राह दिखानी है. राह जो उस परम सत्य तक ले जाती है. मनसा, वाचा,
कर्मणा उसे ही समर्पित होना है. मन व्यर्थ का चिन्तन न करे, वाणी का दुरूपयोग न
हो, कर्म ईश्वर को अर्पण हों तो जीवन स्वयंमेव तीर्थ बन जायेगा !
TV viewing is harmful for
children, in fact it should be excess TV viewing is harmful for children. Nanha
has to speak on this topic tomorrow. So she thought to brush up her mind also
to get some points.Violence is increasing in today’s youngsters even toddlers these days. Mothers
are complaining the aggressiveness and restlessness among kids who are exposed to
all kinds of programmes on TV.Children are more demanding these days, they get
attracted to all the beautiful things, dresses and other products on TV and
they want same things, they do not understand the difference between reality
and virtual.They are exposed to harmful radiations, in cities houses are
small so they watch TV from a short distance which affects their eyes also.They
are distracted, while preparing for test and exams, if their favourite
programme is being telecast ed they rush to watch it. They waste their valuable
time, which can make or mar their future.They disobey their parents, who want
to limit their TV hours. Children do not play outdoor games, they are less
social than their parents when they were young. They live in fantasy which
keeps them away from real life realities. They are exposed to all kind of adult
program which can leave harmful impression on their young mind. They mostly watch film based programmes or
cartoon shows, both give only light entertainment but no education. She thought
if Nanha asks her help she can give now.
बाबा जी के डेढ़ का आँकड़ा सचमुच प्रभावित करने वाला लगा. सोचा तो लगा सच ही तो है. मुझे तो ऐसा लगता है कि आधे पर भी उस पूरे "मैं" से ही उपजे पाप का ही प्रभाव होता है..
ReplyDeleteकविता पाठ की सफलता की बधाई... लेकिन सखी के मुक्ता हार (पर्ल सेट) से मुझे आज बरसों बाद मोपासाँ का हीरक हार (द नेकलेस) याद आ गया! जब स्कूल के दिनों में यह कहानी पढी थी और रेडियो पर नाटक सुना था, तो मन गहरे अवसाद से भरा रहा था बरसों तक. बाबा जी की बातें उनके अपने अनुभव पर आधारित हैं.. यदि हम उनका अनुकरण ईमानदारी से करें तो वह हमारा भी अनुभव हो सकता है.. और सही अर्थों में यही सफलता है, इन प्रवचनों की!
आज पहली बार शीर्षक उसकी बातों के साथ पूरे तौर पर जुड़ा हुआ है. लगभग यही सब मैं भी बच्चों के साथ शेयर करता रहा हूँ टीवी को लेकर. लेकिन अपनी बिटिया के स्कूल में चेतन भगत की कही एक बात मुझे बड़ी अच्छी लगी (मैं बिल्कुल फ़ैन नहीं हूँ चेतन भगत का)... चेतन ने कहा कि पहले जब हम कहानियाँ पढ़ते थे तो किसी दृश्य के वर्णन को पढ़कर हम कल्पना करते थे कि वो दृश्य कैसा होता होगा, वह सुन्दरता कैसी होगी, वह महल, राजकुमारी, फूल, बागिया कैसी होंगी. लेकिन आज टीवी पर वो सब दिखाई दे जाता है पूर्ण अतिशयोक्ति के रूप में तो कल्पना शक्ति कुन्द हो गयी! मेरे विचार में हम जिसे इडियट बॉक्स कहते रहे, उसने हमें इडियट बना डाला है! :)
सही कहा है आपने, आज कल्पना शक्ति कम हो गयी है, इतनी सूचनाओं के ढेर में मस्तिष्क जैसे दब सा गया है. वाकई बाकी आधा भी उसी का परिणाम है..
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