Monday, October 1, 2012

आलू की भुजिया





कल दोपहर को बड़ी ननद अपने पति व बिटिया के साथ आयी है, घर जैसे भर गया है, दामाद जी तो रात को ही लौट गए, वे दोनों रहेंगी. वे सब बाजार गये थे, गंगा किनारे की विश्वनाथ गली में, जो बनारस का मीनाबाजार है, जहां सैकड़ों दुकाने हैं, खिलौनों, कपड़ों, बर्तनों, पूजा के सामानों, चूड़ियों, और साड़ियों के साथ-साथ न जाने कितनी वस्तुओं की. उसने कुछ खिलौने खरीदे. कल पड़ोस का एक छात्र उससे एक सवाल पूछने आया, वह समस्या को इस तरह रख रहा था जैसे टीचर क्लास में रखते हैं, जैसे वह खुद भी रखती थी जब पढ़ाती थी, अब काफी समय से पढ़ाई से सम्पर्क नहीं रहा तो जैसे सब भूल गयी है. पिछले दो-तीन दिनों से नन्हा कुछ भी खाने में रूचि नहीं दिखा रहा है. गर्मी भी बढ़ गयी है, सुबह अपेक्षाकृत ठंडी होती है पर दिन बेहद गर्म. कल जून के पत्र मिले पर उसने लिखा नहीं है कि वह जश्न के अवसर पर आ रहा है या नहीं. कल माँ ने उससे पूछा कि वह कितने दिनों के लिए जा रही है, फिर बोलीं, चार-पाँच दिन में लौट आए, वरना उनका मन नहीं लगेगा. उसने सोचा, सभी को अपने मन का ही ध्यान रहता है दूसरे के मन की बात कोई क्यों सोचे. वह पिछले वर्ष कुछ दिनों के लिए घर गयी थी, सोचती है इस बार दसेक दिनों के लिए तो जायेगी ही. दीदी का पत्र भी आया है वे लोग उसी दिन पहुँचेंगे. भाई का पत्र भी आया है, वह छब्बीस को रात साढ़े आठ बजे की गंगा-सतलज एक्सप्रेस से आ रहा है, उन्हें लेने. उसने सोचा वह उसे लेने स्टेशन जायेगी, यदि ट्रेन लेट न हुई. टीवी पर गुफ़्तगू कार्यक्रम में उर्दू के मशहूर शायर जौक का लिखा एक खूबसूरत शेर उसने सुना, ‘लायी हयात आए, कज़ा ले चली चले, न अपनी खुशी से आए न अपनी खुशी चले’.

आज सुबह पाँच बजे से पहले ही वह उठ गयी थी, देर तक स्नान किया, ताकि भीतर तक ठंडक को भर ले. आज भी हवा की वही स्थिति है, बनारस में गर्मी बढती जा रही है. सीढ़ियों पर जहां वह रोज बैठती थी, आज बिलकुल हवा नहीं है. सुबह के मात्र सवा छह बजे हैं. सोच रही है कपड़े प्रेस करने की बात, दिन में तो यह कमरा तपता है, बैठने का मन ही नहीं होता. फिर समय भी कहाँ मिल पता है. प्रेस गर्म हो रही है. आज बंदर न ही आयें तो अच्छा है...सोनू ऊपर ही सो रहा है. कल रात सोने से पहले कहानी सुनते-सुनाते समय उसके साथ छत पर एक-डेढ़ घंटे का समय बिताया जो अनमोल था, वह बेहद खुश था और वह भी, उसकी तुलना में नीचे गर्मी और घुटन भरे कमरे में फिल्म देखना व्यर्थ था. जून इस समय ऑफिस जाने की तैयारी कर रहे होंगे. अचानक एक हवा का झोंका आया और चेहरे को सहला गया, उसने उसका शुक्रिया किया. लखनऊ से उसकी छोटी बहन भी घर साथ जायेगी, उसने लिखा है.

कल घर में सुबह चार बजे से ही कार्य शुरू हो गया था, दोपहर को होने वाले छह ब्राह्मणों के भोज के लिए, सो लिखने-पढ़ने का वक्त नहीं मिला. सब कुछ ठीकठाक ही रहा, सिवाय उससे हुई दो गलतियों के, एक तो आलू की भुजिया का न देना और दूसरा खरबूजे को न छीलना, भविष्य के लिए एक सीख पर किसी ने कुछ कहा नहीं, यहाँ सभी लोग उसका बहुत ध्यान रखते हैं. कल जून को एक पत्र लिखा पर वैसा नहीं जैसा वह चाहता है या जैसा वह लिखा करती थी. दिन भर दिमाग स्थिर तो हो ही नहीं पाता, इधर-उधर की बातें...और फिर गर्मी, कुछ भी तो ऐसा नहीं जो दिल की बातें उभार दे...जो थोड़ा सा रोमानी होने के लिए प्रेरणा दे.   



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