Friday, October 5, 2012

मनभावन मृगतृष्णा



उसने पेन में हरे रंग की रीफिल लगायी तो पेन कुछ और ही लिखने लगा..

तुम मेरे हमदम मेरे लिए क्या हो
क्या तुम नहीं जानते
नहीं जानते कि धागे में फूलों की तरह
पिरोये हैं हम एक-दूसरे में
भावनाएं और विचार हमारे, एक में समोए हुए हैं
और वह एक है ज्योति ‘प्रेम’ की
जो दोनों के मध्य जाने कब से बह रहा है
प्यार की शाश्वतता व अटूटता पर विश्वास क्यों नहीं करते लोग
जब ईश्वर पर करते हैं
पर मैं और तुम जानते हैं कि
ईश्वर वहीं है जहाँ प्रेम है  
एक-दूजे को बुलाते समय हम उसे भी बुलाते हैं
हमारे बीच फासले वक्त के हों या विवशता के
नहीं रोक पाएंगे उस अविरल धारा को क्योंकि
तुम्हारे हृदय में भी यही मेरा दिल धड़कता है न....

कल पेन ने साथ तो दिया पर वक्त ने न दिया पता नहीं, अब याद नहीं आता, क्या करने लगी थी लिखना बीच में ही छोड़कर, जरूर ही कोई अति आवश्यक कार्य रहा होगा. जून के आने में सिर्फ तीन दिन, आज का छोड़ के दो दिन शेष हैं. अभी तक तय नहीं हो पाया है कि वह वहाँ जा पायेगी अर्थात स्टेशन, उन्हें लेने अथवा नहीं. नन्हा अब ठीक है और उसका जुकाम भी कई दिन हुए ठीक हो गया है. कल रात सोनू की जिद के कारण छत पर सोयी थी, पर ठंड बहुत थी आधी रात को ही नीचे आ गयी. नन्हा कुछ ओढ़ना तो चाहता ही नहीं है. जून के आने के बाद भी ऐसा ही मौसम रहे, शीतल सा सुकून दायक, तो कितना अच्छा हो. इतने दिनों बाद उसे देखकर कैसा लगेगा, समझ नहीं आता. कितना सुंदर होगा वह क्षण ! वह कुछ ही दिन तो रहेंगे फिर अकेले अकेले.., कब जायेंगे हम वापस यह भविष्य ही बताएगा. तभी उसे ध्यान आया कि टीवी समाचार का वक्त होने में कुछ वक्त है तब तक कपड़े धो सकती है, वह रोज सुबह उसी वक्त समाचार सुनती है, समय क्या उसकी या किसी की सुविधा से आगे बढता है, उसे तो बढ़ते ही जाना है अब उस दुर्घटना को हुए आठ महीने होने को हैं.

आखिर तय हो गया कल सुबह वह जून के मित्र के साथ उन्हें लेने स्टेशन जा रही है, उसने ईश्वर से प्रार्थना की कि मौसम बिल्कुल ठीक रहे जिससे उनकी फ्लाईट में कोई बाधा न हो, और समय से कलकत्ता स्टेशन भी पहुंच जाएँ. आज अभी से कितनी उमस है, बादल हैं पर हवा का नाम नहीं. कल रात उसने एक मलयालम कला फिल्म देखी, उस वक्त भी जून को याद किया, उसे अजीब सी पुलक महसूस हो रही है उन दिनों के बारे में सोचकर जब वे साथ होंगे.

छह बजे हैं, कल सुबह जून आ गये थे, उनके स्टेशन पहुंचने से पहले ही वह बाहर निकल कर जा चुके थे. कल दिन भर सामान्य रहा अर्थात वैसा ही जैसा कि इतने दिनों के बाद किसी प्रिय के आने पर होता है, बातें, बातें और बातें. टिकट भी मिल गयी उन सबकी वापसी की. समझ नहीं आ रहा कि इसमें खुश होये या उदास. कल शाम से ही स्वयं को समझ पाने में असमर्थ है. क्या यह जो वह अनुभव कर रही है और लोग भी करते होंगे, क्या सब कुछ रेत का घर होता है, ताश का महल, हवा के हल्के से झोंके से ढह जाने वाला. उदासीन हैं तन और मन दोनों. कहीं कोई आकुलता नहीं, क्या सब कुछ मृगतृष्णा थी, एक छलावा ही तो कहेंगे इसे, मन इतना विद्रोही क्यों हो जाता है, काँटों की चुभन, कांटे जो दूसरों को चुभोये, खुद को भी महसूस करनी पडती है. शायद यही कारण है, किन्तु क्या वह सच्चाई नहीं थी जैसे यह सच्चाई है. जिससे कहा वह पात्र उचित नहीं था. जन्म भर के लिए स्वयं का दुश्मन बन जाना क्या उचित कहलायेगा. अथवा इन और उन सब बातों को सारहीन समझ कर तटस्थ होकर धारा के साथ बहते जाना ही उचित है. अभी एक बंदर उसके बिलकुल पास से गुजर गया उसे बाद में पता चला, भय का संचार हुआ, अभी जीवन का मोह शेष है, यही सत्य है. कभी जो स्वर्ण लगता है मगर वास्तव में स्वर्ण नहीं होता वक्त के साथ काला पड़ जाता है. उसका नकली मंगलसूत्र जैसे, अब कभी नहीं पहनेगी उसे. नन्हा सोया है अभी, पेपर देखने गयी थी, नहीं आया.
उसने आगे टेढ़े-मेढे शब्दों में लिखा-मेरे मीत, अभी नौ बजे हैं तुम्हारी ट्रेन चलने वाली होगी न..या अभी-अभी चली गयी होगी. तुम दो दिन के लिए अपनी शक्ल दिखाकर, नेह में भिगोकर चले गए हो..कहाँ चले गए हो..चित्रहार आ रहा है पर मन कहीं और है शायद तुम्हारे पास...

  

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