उसे स्मरण हो रहा है पिछले वर्ष लगभग इन्हीं दिनों में वे ‘आर्ट
ऑफ़ लिविंग’ का ‘एडवांस कोर्स’ करने गये थे. उसने ढूँढ कर वह डायरी निकाली जिसमें
उन तीन-चार दिनों का जिक्र था. वे संध्या के वक्त डिब्रूगढ़ के एक होटल पहुंचे थे.
बाहर ही आयोजन कर्ता व एक टीचर खड़े थे, जो उन्हें अंदर ले गये, धीरे-धीरे और लोग
भी आते गये. देर शाम तक सभी को कमरे मिल गये. ठंड बहुत थी सो वे सामान आदि सेट
करके रजाई में बैठकर टीवी देख रहे थे कि फोन आया. एडवांस कोर्स के शिक्षक आ गये हैं तथा सभी को संबोधित करेंगे. होटल के सामने ही एक विवाह भवन था, वहाँ भी कुछ
लोग ठहरे थे. उसी के प्रांगण में लोग कुर्सियों पर बैठे थे तथा ऋषि जी सभी को होने
वाले कोर्स के बारे में कुछ समझा रहे थे.
अगले दिन सुबह पौने छह बजे वे उस
मन्दिर के लिए निकले, जहाँ के विशाल प्रार्थना भवन में कोर्स होना था. साढ़े चार बजे उठकर नहा-धोकर वे
तैयार हो गये थे. छह बजे से ही कोर्स आरम्भ हो गया. दो महिला शिक्षिकाओं ने अगले
चार दिनों तक छह से साढ़े आठ बजे तक जॉगिंग, आसन, व्यायाम तथा भारतीय ग्रामीण महिला
के रोजमर्रा के कार्य, जानवरों की नकल, हॉकी, कबड्डी आदि खेल खिलाकर सभी को खूब
हंसाया. उसके बाद नाश्ते के लिए निकट ही स्थित रोटरी क्लब के हॉल में जाते थे.
पोहा या दलिया, हर्बल टी था एक फल का पौष्टिक नाश्ता बहुत स्वादिष्ट लगता था. इसके
बाद सभी समूह (पांच समूह बना दिए गये थे ) सेवा के कार्य में लग जाते थे. उन्हें
एक-दो बार बर्तन धोने का काम मिला. एक बार शौचालय की सफाई का तथा एक बार ध्यान
कक्ष की सफाई का काम मिला, सभी मन से सेवा करते थे. दस से एक बजे तक साधना का पहला
सत्र तथा तीन से छह तक दूसरा सत्र चलता था. दोपहर एक बजे भोजन मिलता था जिसमें
बिना तेल-मसाले की सब्जी, दाल-चावल, सलाद तथा चुपड़ी हुई रोटी होती थी. भोजन हल्का
व सत्विक था. शाम का भोजन छह बजे ही मिल जाता था, उसके बाद सांध्य भ्रमण तथा सात
बजे सत्संग शुरू होता था, आठ बजे वे अपने होटल आ जाते थे.
अगले दिन शिक्षक ने उन्हें बताया
कि उनके भीतर दस तरह के प्रेम हैं जो विकारों के कारण हैं. जब वे इन सभी तरह के
प्रेम से आगे बढ़कर उसे ईश्वर, गुरु या आत्मा के प्रति समर्पित कर दें तो धीरे-धीरे
ये विकार भी जीवन में नहीं रहते. ये दस प्रेम हैं-
अपने व्यक्तित्व से प्रेम – अहंकार
व्यक्ति विशेष से प्रेम – मोह
अपने परफेक्शन से प्रेम – क्रोध
दूसरों के परफेक्शन से प्रेम – जड़ता
अपने रूप से प्रेम – ईर्ष्या
अपनी कल्पना से प्रेम – कामना
वस्तुओं से प्रेम – लोभ
भूतकाल से प्रेम – नीरसता
भविष से प्रेम - डर
उनका मूल स्वभाव तृप्ति, उत्सुकता, प्रेम तथा कृतज्ञता का है. ये सब भाव हैं
लेकिन क्रोध, लोभ, मोह आदि भावनाएं हैं. ध्यान के लिए दो सुंदर सूत्र बताये-
१. किसी
की भावनाओं का तथा विचारों का बाहर की घटनाओं से कोई संबंध नहीं है. वे उन्हें
घटनाओं से जोड़ देते हैं.
२. मन के
स्तर पर जो भावना है शरीर के स्तर पर वह तरंग या संवेदना है. यदि उन्हें भावना से
मुक्त होना है तो साक्षी भाव से शरीर में हो रहे स्पंदनों को देखना चाहिए. साक्षी
भाव से देखने पर नकारात्मक स्पंदन बदल कर सकारात्मक हो जाता है तथा सकारात्मक ऊपर
उठ जाता है.
शिक्षक ने सारे चक्रों में
रहने वाली भावनाओं तथा भावों की भी जानकारी दी.
सहस्रार चक्र – परमानन्द
आज्ञा चक्र – क्रोध, ज्ञान,
सजगता
विशुद्धि – पश्चाताप,
कृतज्ञता
अनहद – नफरत, डर, प्रेम
मणिपुर – ईर्ष्या, लोभ,
उदारता, तृप्ति
स्वाधिष्ठान – वासना,
सृजनात्मकता
मूलाधार – जड़ता, उत्साह
कोर्स के दौरान उन्होंने
गुरूजी के वीडियो सीडी भी देखे. जिसमें ‘मौन की महत्ता’ तथा ‘साधन चतुष्ट्य’
प्रमुख थे. गुरूजी ने कहा साधक को न तो स्वयं पर, न समाज पर, न साधना की पद्धति पर
तथा गुरु पर कभी संशय नहीं करना चाहिए, बल्कि स्वयं में ज्ञान को उतार कर पहले
परखना चाहिए. साधक के पास साधना के चार सोपान हैं- विवेक, वैराग्य, षट् सम्पत्ति तथा
मुमुक्षत्व.
विवेक के द्वारा वे स्थायी,
अस्थायी, नित्य-अनित्य, सुख-दुःख का भेद करते हैं.
देखे हुए तथा सुने हुए
विषयों के प्रति तृष्णा का शांत हो जाना वैराग्य है.
शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा,
समाधान षट् सम्पत्ति हैं.
शम – मन का नियन्त्रण
दम – इन्द्रियों का
नियन्त्रण
तितिक्षा – सहन शक्ति
उपरति – कार्य में अंत तक
उत्साह रखना
समाधान – वर्तमान में आनंदित
रहना
मुमुक्षत्व है अपने जीवन में
दुःख को देखकर उससे मुक्त होने की आकांक्षा. दुःख से मुक्ति उन्हें सुख की ओर और
सुख प्रेम की ओर ले जाता है, तथा प्रेम अंत में भक्ति की ओर, भक्ति ऐसा प्रेम है
जहाँ दूसरे की आवश्यकता नहीं है.
अगले दिन सुबह छह बजे से ही
मौन आरम्भ हो गया था जो चौथे दिन दोपहर तक चला. उन्होंने कई ध्यान तथा क्रियाएं
कीं. एक ध्यान में आती-जाती श्वासों को ध्यान से देखना था तथा एक अन्य ध्यान में
हर चक्र पर तीन मिनट ध्यान करना था. ज्ञान के दो सूत्र भी दिए गये.
१. शिकायत
करना दानवी प्रवृत्ति है.
२. प्रशंसा
करना दैवीय गुण है.
इस तरह मन को उत्साह से भरे और
ज्ञान की सम्पदा को समेटे वे वापस लौटे.
Jai Gurudev
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