ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो, इसका जवाब हरेक को खुद ही खोजना
होगा. सत्य का आचरण हो तो ज्ञान अपने आप प्रकट होने लगता है. वे सत्य का निर्वाह
नहीं करते, अनावश्यक झूठ भी बोलते हैं, कभी अहंकार के कारण वे झूठ का आश्रय लेने
में नहीं हिचकते. भय और शंका का शिकार फिर उन्हें ही होना पड़ता है. उनके जीवन का
हर पल शंका रहित हो, तृप्ति भरा हो, आनन्दमय हो, इसके लिए जरूरी है कि सत्य का
आश्रय लें, स्वभाव में टिकें. संसार तो दर्पण है, वे जैसे हैं वैसा ही उसमें दिखाई
देगा. संसार तो कोरा कागज है, वे जैसा चित्र उस पर बनाएं वैसा ही दीखता है. परम
स्वीकार ही परम स्वतन्त्रता है.
वे देह नहीं हैं देही हैं.
देहाध्यास का लक्षण है जड़ता, लोभ, काम, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध तथा अहंकार तथा
आत्मा का लक्षण है उत्साह, सृजनात्मकता, उदारता, संतोष, प्रेम ज्ञान तथा
निरभिमानता. उन्हें यह अधिकार है कि दोनों में से जो चाहे चुन लें. देहाध्यास की
आदत जन्मों-जन्मों से पड़ी हुई है, यह उसी तरह सरल है जैसे पानी का सदा नीचे को
बहना, आत्मा में रहने के लिए अभ्यास करना पड़ता है, ऊपर उठना हो तो श्रम चाहिए,
गिरने में तो कोई श्रम नहीं है. आज सुबह नींद खुल जाने के बाद भी जो वह नहीं उठी
तो स्वयं को देह ही मान रही थी, कल जून द्वारा गलती निकाले जाने पर भीतर जो परमाणु
हिले, वह भी देहाभिमान के कारण. कल शाम लोहरी की पार्टी में जो शिकायत भीतर उठ रही
थी वह भी इसी कारण थी कि आत्मा में स्थिति नहीं थी, पर इस समय जो भीतर नाद सुनाई
दे रहा है, ध्यान में जो अद्भुत रंग दिखे वे आत्मा के कारण हैं. मन, बुद्धि तथा
संस्कार के माध्यम से आत्मा ही अपनी शक्ति को दिखाती है, पर वह उनसे परे है. जीवन
की सार्थकता इनके पार जाकर उस आत्मा को जानने में है. उसने प्रार्थना की, उसके
जीवन से उसकी साक्षी मिले जो अदृश्य है, जो सुक्ष्तं भी है अस्थुल्तं भी. जहाँ सरे
द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं और जो सारे विरोधाभासों की जड़ है. वह परमात्मा ही उसका
केंद्र है, वही लक्ष्य है, परिधि से केंद्र तक जाना है.
उन्हें जीवन से जो भी चाहिए, वह
उनके पास पहले से ही मौजूद है, उन्हें जीवन के लिए जो भी चाहिए वह भी उनके पास है,
तो भी वे क्या चाहते हैं कि सारी उम्र बीत जाती है और तलाश खत्म ही नहीं होती.
शायद इसलिए कि उन्हें इस बात का पता ही नहीं है कि जो खजाना उनके पास है वह गहरे
गाद दिया है और ऊपर इतनी घास उग आई है कि अब लगता ही नहीं कभी यहाँ खजाना रहा
होगा. सत्संग के औजार से अब वह घास हटाने का काम शुरू हुआ है, झलक मिलने लगी है.
पर मजा तो तब है जब इसे बाँट सकें. अनंत खजाना है तो अनंत शक्ति भी होनी चाहिए
बांटने की, क्योंकि बांटने से ये कम होने वाला है नहीं. यह जगत उनसे प्रेम के रूप
में उनकी भौतिक उपस्थिति को चाहता है, शांति व आनन्द से उसे कोई सरोकार नहीं. वे
दोनों उन्हें स्वयं के लिए चाहिए और जब जगत से कुछ नहीं चाहते तो शक्ति अपने आप
प्रवाहित होने लगती है. उसके विचार कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहे हैं, भीतर जो स्पष्ट
है वह बाहर आकर कैसे मिलजुल जाता है. घृणा, प्रेम, लोभ, उदारता, क्रोध, ज्ञान, उत्साह,
जड़ता ये सभी उनके भीतर साथ-साथ रहते हैं. एक ही शक्ति के दो रूप..तो कौन सा रूप वे
बाहर प्रदर्शित करते हैं, इस पर निर्भर करती है मन की शांति ! शांति के बिना आनन्द
हो ही नहीं सकता. अध्यात्म की यात्रा कितनी विचित्र है, यहाँ विरोधाभास ही
विरोधाभास है. एक पल में लगता है मंजिल करीब है फिर अगले ही पल लगता है अभी तो
चलना शरू ही किया है !
हरी घास पर फूलों के मध्य बैठकर
गुलाबी धूप का आनन्द लेते हुए डायरी लिखना तथा बीच-बीच में ठंडी हवा से सिहर
जाना..इन सर्दियों में पहली बार हो रहा है. प्रकृति का कितना अद्भुत करिश्मा है,
बीहू, मकर संक्रांति के आते ही बादल छा गये, ठंड बढ़ गयी, लोग देर रात तक आग तपते
रहे और बीहू की छुट्टियाँ खत्म होते ही धूप निकल आयी है. यह जगत कितने आश्चर्यों से
भरा हुआ है और जगत्कर्ता भी आश्चर्यों की खान है. उनका खुद का जीवन, तन, मन
कितने-कितने आश्चर्यों से भरा है ! प्रकृति में अनंत जीव हैं, उनके भीतर भी लाखों
जीव हैं. यह सब कुछ कितना अद्भुत है. आज सुबह उठी तो लगा रात भर में कितने स्वप्न
देख लिए. अजीबोगरीब स्वप्न. एक में तो घोर अंधकार में वे सड़क पर बैठकर चल रहे हैं.
छोटी ननद का छोटा पुत्र आगे है और वह मध्य में जून पीछे हैं, अँधेरा घुप है पर वे
ख़ुशी-ख़ुशी आगे बढ़ रहे हैं. आज जून भी जल्दी उठ गये, कल उन्हें आत्मा को जानने से
क्या होता है, इस पर जो भाषण दिया था, उसका असर रहा होगा. जो फ्रेंच नहीं जानता
उसे यदि कोई फ्रेंच में समझाये तो उसे क्या समझ में आयेगा. इसी तरह जो आत्मा को
नहीं जानता वह परमात्मा के बारे में क्या समझ पायेगा. आत्मा को जानना तो पहला कदम
है, वे देह नहीं हैं, आत्मा हैं इस विश्वास को दृढ़ करते जाना है तथा आत्मा में
जीना शुरू करना है. इसकी अनुभूति होने लगती है जब वे बार-बार इसका चिन्तन करते
हैं, ध्यान करते हैं और देह, मन अदि को स्वयं से अलग देखने लगते हैं. उनका मन हावी
नहीं होता, देह स्वस्थ रहती है. बुद्धि विकसित होती है तथा भीतर प्रकाश तथा शांति
का वातावरण छाया रहता है. ऐसी शांति जिसकी गहराई नापी नहीं जा सकती !
No comments:
Post a Comment