उसके भीतर ख़ुशी का एक ऐसा स्रोत
है, जहाँ से प्रतिपल तरंगें उठती हैं, अहैतुकी कृपा प्रतिपल बरस रही है, अमृत का
स्रोत भीतर है, जिसका राज उसे मिल गया है. भीतर अनंत शांति है, अपार नीरवता, भीतर
एक ऐसी दुनिया है जिसका इस बाहर की दुनिया से कोई संबंध नहीं, वह इसके बिना भी है,
वह कुछ करने से प्राप्त नहीं होती, वह बस है. उसकी खबर बस भीतर ही मिलती है. उसके
आसपास के लोगों को इसकी भनक भी नहीं है कि इन्सान के भीतर ऐसा भी एक खजाना छिपा है
जो अनमोल है. जिसकी खबर मिलने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रह जाता. जो संतुष्टि व
तृप्ति का सागर है, जिसे पाने के बाद ही जीवन को उसकी पूर्णता में जीना वे सीखते
हैं. इन्द्रियां सजग हो जाती हैं, मन सजग हो जाता है, तन हल्का हो जाता है, त्वचा
की संवेदना बढ़ जाती है. कान वह भी सुनते हैं जो और लोग नहीं सुन सकते, भीतर प्रकाश
का एक अजस्र स्रोत उत्पन्न हो जाता है. तरंगों के रूप में ऊर्जा का अनुभव निरंतर
होता है. कोई भी समस्या होने पर ज्ञान समाधान बनकर सम्मुख आ जाता है. दूसरों के
लिए कुछ करने का जज्बा हर वक्त जागृत रहता है. जब अपने लिए कुछ पाना शेष न रहे तो
मन अपने आप ही दाता बन जाता है. भीतर कोई उहापोह नहीं, द्वंद्व भी नहीं, विचार भी
नहीं, बस एक स्थिरता तथा आनन्द का अहसास. उसे लगता है कि इस ऊर्जा तथा इस शांति का
उपयोग सृजनात्मक कार्य में करना चाहिए तथा ज्ञान के इस अमृत का औरों को भी पान कराना
चाहिए.
ज्ञान ही वह दर्पण है जिसमें वे अपना वास्तविक रूप देखते
हैं. संबंधों की नींव में यदि मोह नहीं है तो उनमें कभी कटुता नहीं आती, कर्म नहीं
बंधते. भीतर जब एक क्षण के लिए भी विचलन न हो, सदा समता ही बनी रहे तो मानना चाहिए
कि ज्ञान में स्थिति है. आज उसने सुना, उनके कर्मों के अनेक साक्षी हैं. सूर्य,
चन्द्र, अनल, अनिल, आकाश, भूमि, यमराज, हृदय, रात्रि तथा दिवस, संध्या तथा धर्म और
आत्मा स्वयं भी कर्मों की साक्षी है. परमात्मा रूपी सद्गुरू का हाथ सदा सिर पर है,
मस्तिष्क पर उसकी पकड़ है, बुद्धि को प्रेरणा वही देता है, वही सद्विचारों से भर
देता है. साधना के समय जब मन दूसरी ओर चला जाता है तो वही इसे श्वास पर टिकाने में
सहायक होता है. कल दिन भर, नये वर्ष के पहले दिन तथा आज भी सुबह से अब तक उसका मन
किसी बात से विचलित नहीं हुआ है. वाणी का अपव्यय अवश्य हुआ. नया वर्ष उसके जीवन
में नई जाग्रति लाये, ज्ञान में स्थिति दृढ़ हो हो, अहंकार न रहे, इसके लिए सजगता
की ही आवश्यकता है. इसके द्वारा ही मन की खुदाई कर उसकी गहराई में प्रवेश मिल सकता
है. जहाँ का परिष्कार कर संस्कार शुद्ध किये जा सकते हैं, पिछले जन्म के संस्कारों
से मुक्ति पाने के लिए यह बहुत जरूरी है.
“निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाए” पति-पत्नी के लिए एक-दूसरे से बढ़कर
निंदक कौन हो सकता है, आंगन की दूरी भी नहीं, दोनों एक ही कमरे में रहते हैं, एक
दूसरे की कमियों को दूर करने का कितना बड़ा कार्य करते हैं. उन्हें एक-दूसरे का
सम्मान इसलिए करना चाहिए. वे एकदूसरे को जागृत करत हैं, मोह को दूर करते हैं. वे
यदि चाहें तो स्वयं का कल्याण हर कदम पर कर सकते हैं. आज मुरारी बापू के यह वचन
सुने तो उसे लगा कितना सही कह रहे हैं वे. हर अगला क्षण कितनी नयी सम्भावनाओं से
भरा है. उनके सम्मुख है ख़ुशी का आकाश, अंतहीन आकाश ! पर वे हर बार धरा को चुन लेते
हैं, डरते हैं आकाश में गुम न हो जाएँ, पर गुम हुए बिना क्या कोई अपने को पा सका
है. एक बार तो मरना ही होता है, खोना ही होता है, सहना ही होता है. नितांत अकेलापन
जिसके बाद मिलता है निरंतर साहचर्य का भाव, उस परमात्मा से एकता का, अभिन्नता का
अपार सुख ! वह जो भीतर कटुता छिपाए है, छल, वंचना तथा ईर्ष्या छिपाए है, तब प्रकट
हो जाती है, वह उसे स्वयं से भिन्न देखती है. जैसे कोई अपने को देखे और अपने कपड़ों
को जिन पर मैल लगी है, वैसे ही वह अपने मन को देखे और मन पर लगे धब्बों को. वह परमात्मा उन्हें उसके साथ
ही कबूल करता है, वह उन्हें चाहता है, उसके उनके संबंध में कोई छल न हो बस इतना
ही. वे उसके प्रति सच्चे हों. पर इस जगत में उसे अपने चारों और कोई ऐसा नजर नहीं आता
जैसा गुरु जी उनसे चाहते हैं, कोशिश तो हरेक की होनी ही चाहिए.
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