ध्यान क्या है ? जैसे कोई यह नहीं कह सकता कि प्रेम क्या है वैसे
ही ध्यान को परिभाषित करना कठिन है. मन जब विशाल हो जाता है, उसमें कोई दुराव नहीं
होता, छल नहीं होता, आग्रह नहीं होता, उहापोह नहीं होती, मन बस खाली होता है, तभी
ध्यान घटता है. इच्छा मन की समता को भंग कर जाती है पर ध्यान का अभ्यासी मन तुरंत
समता में आ जाता है. उसे समता के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए, इच्छा पूरी हो या न हो
वह अपनी समता खोना नहीं चाहता. वह जानता है बाहर कुछ भी बदले, वह व्यर्थ ही है,
भीतर का बदलना ही वास्तविक है, भीतर का बदलाव बाहर पर निर्भर नहीं करता, वह ज्ञान
और प्रेम पर निर्भर करता है.
‘आगरा बाजार’ के बारे में उस दिन
सुना था, पढ़कर लगा, तारीफ के लायक है सचमुच.
नजीर की शायरी अद्भुत है और हबीब तनवीर के डायलाग भी बेमिसाल हैं. अब यह सब
घटा उनके भीतर ही होगा जो शब्दों में ढला और जब कोई पढ़े तो उसके भीतर को छू जाये,
प्रकृति जो बाहर है भीतर उमंग जगाती है, पर ऐसी नहीं कि हर कोई शायर हो जाये, वह
आँख भीतर से मिलती है जो शायर बना दे !
आज भी ठंड ज्यादा है. अमृतसर में तापमान शून्य से तीन डिग्री नीचे चला गया है, उसकी तुलना में वे तो स्वर्ग में हैं. सुबह एक सखी की बेटी को जन्मदिन की शुभकामना भेजी. सद्गुरु ने ‘शिव सूत्र’ में बताया भूत संघातः! प्राणी आपस में तत्वों के मिलने से बनते हैं और अलग होने से बिखर जाते हैं. कितना गहन ज्ञान आज दे रहे थे इस जगत की सृष्टि में बारे में. परायापन ही अशुद्धि है, आत्मभाव ही शुद्धि है. सभी के साथ अपनापन हो तभी मन निर्मल रह सकता है. जहाँ भी भेद बुद्धि हुई, वे अपने शुद्ध स्वरूप से दूर हो जाते हैं. इस क्षण भी भीतर झंकार सुनाई दे रही है, अद्भुत शांति है. सुबह एक दादी को भी सुना जो बचपन से ही शिव बाबा या ब्रह्मा बाबा के पास चली गयी थी, जिसके पिता ने कोर्ट में केस भी कर दिया था, पर जो उस उम्र में भी कितनी बहादुर थी, देह भाव से वह स्वाभाविक ही दूर होती गयी तथा देही भाव में आ गयी, आज तक हैं. आज एक नया तरीका अपनाना होगा बच्चों को पढ़ाने का, उन पर जिम्मेदारी डालनी होगी, तभी वे सीखेंगे, मात्र स्पून फीडिंग से वे निर्भर होते जायेंगे. जब तक वे अपने भीतर इस बात का अहसास नहीं करेंगे कि उन्हें अपना कार्य स्वयं करना है और अच्छी तरह से करना है वे आत्मनिर्भर नहीं होंगे.
दस बजने को हैं, कुछ ही देर में बच्चे
जायेंगे, कल उसका तरीका काम में आया. पहले से जल्दी उन्होंने लिखा. टीचर को
नये-नये तरीके अपनाने ही चाहिए. आज सद्गुरु ने बताया ध्यान का अर्थ है, मन को सारे
विषयों से हटाकर अपने आधार में टिका देना. परमात्मा चैतन्य है, वह सब जानता है,
साधक की अटूट श्रद्धा ही उसे सहयोगी बनाती है. मन के टिकते ही आत्मा परमात्मा से
एकत्व का अनुभव करती है. उसकी शक्ति सहज ही प्राप्त होने लगती है. वह शक्ति व्यर्थ
नहीं जाती, कुछ उपयोगी कार्यों में लगती है. जिसकी सारी ऊर्जा बाहर जा रही
है वह भीतर का दिया जलाने में चूक जाता है. व्यक्ति की दृष्टि ही सृष्टि करती है.
साधक ध्यान से ही चारों तरफ के जगत को निर्मित करता है, उसकी आँख जब बाहर से संबंध
तोड़ देती है तो भीतर आत्मा का जन्म होता है. प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वर्ग व नर्क
का निर्माता स्वयं है. ध्यान में उसे आज सुंदर दृश्य दिखे. कितनी सुंदर दुनिया
उनके भीतर भी है. वह सुंदर पक्षी उड़ कर सम्मुख बैठा तो जैसे उसका मन पुनः लौट आया,
जो खो गया था. यह कैसा विरोधाभास है, जो मन संसार से उपराम हो गया, वह ध्यान की
गहराइयों में डूबना चाहता है. ईश्वर के राज्य में अनंतता का होना स्वाभाविक है.
वहाँ कोई सीमा नहीं, जितना डूबते जाये उतना ही गहराई और बढ़ती जाती है.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " "जिन्दगी जिन्दा-दिली को जान ऐ रोशन" - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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