आज सद्गुरु ने कहा, इन्द्रियगत ज्ञान सीमित है, वह विस्मय से
नहीं भरता, स्वरूपगत ज्ञान अनंत है, जो आनन्द की झलक दिखाता है. अपने अज्ञान को
स्वीकारने से ऐसा ज्ञान मिलता है. ज्ञेय सदा ज्ञान से छोटा है, दृश्य से हटकर
द्रष्टा में आना योग का प्रथम चरण है. विस्मय से परे वह तत्व है जहाँ स्तब्धता है,
मौन है, आनन्द है तथा प्रेम है. अपने आप में मस्त रहने की कला वहीं सीखी जाती है. जिस
क्षण कोई साधक द्रष्टा के भाव से नीचे गिरता है, राग-द्वेष से वशीभूत हो जाता है.
जून चार-पांच दिनों के लिए एक कांफ्रेंस में भाग लेने आज मुम्बई गये हैं. अगले चार
दिन भगवद् ध्यान में बीतेंगे, जैसे आजकल बीत रहे हैं. परमात्मा से कोई प्रेम करे
तो वह स्वयं ही उसका ख्याल रखने लगता है. वह खुद को भूलने नहीं देता. उसे तो अब
सोचते हुए भी अजीब लगता है कि कभी ऐसा भी था जब उसका मन उससे दूर था. तब कितना खाली
रहा होगा जीवन. अब तो हर पल एक नया संदेश लेकर आता है. आज भी ठंड काफी है, इनर व दो
स्वेटर पहने हैं उसने. अभी कुछ देर पहले ही वह सांध्य भ्रमण से लौटी है. अब कुछ
देर कम्प्यूटर पर काम करना है. कल ‘मृणाल ज्योति’ विशेष बच्चों के स्कूल जाना है. उन्हें फोटो भी दिखाने हैं तथा नये
वर्ष का उपहार देना है. एक सखी ने कल कहा, उसकी छोटी बहन को ‘अहसास’ शीर्षक पर एक
कहानी या कविता चाहिए, उसने एक कविता लिखने का प्रयास किया है, इसी नाम से एक कहानी
वर्षों पूर्व लिखी थी.
कल रात ठंड के कारण नींद खुल गयी.
सुबह उठने में देरी हुई. कल शाम ही वह सखी बिना फोन किये आ गयी, अब कविता ऐसे थोड़ी
ही लिखी जाती है. मृणाल ज्योति स्कूल के विशेष बच्चे उसे देखकर खुश हुए, वे उसे
पहचानने लगे हैं. फोटो देखकर भी वे आनन्दित हुए. एक अध्यापिका ने उसे आते रहने को
कहा, वह होली पर फिर जाएगी. इस समय दोपहर के सवा दो बजने वाले हैं, एक छात्रा पढ़ने
आयेगी. नेहरु मैदान में फुटबाल प्रतियोगिता का उद्घाटन समारोह है, एक सखी ने उसमें
आने को कहा था, पर सम्भव नहीं है. उसकी नन्ही बिटिया का वीडियो देखा, सहज ही उसके
लिए एक कविता लिखी, वह उनके जीवन में सुखद परिवर्तन लेकर आयी है. फिर भी यदि वे
संतुष्ट नहीं है तो भगवान भी कुछ नहीं कर सकता. खुश रहना या न रहना मन पर ही
निर्भर है और मन बुद्धि पर और बुद्धि विवेक पर, विवेक सत्संग पर और सत्संग गुरु
पर, गुरू भगवान की कृपा से मिलते हैं तो अंततः भगवान ही कारण हुए पर भगवान ने तो
उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता दी है. वे यदि ठान लें तो खुश रहने से कौन रोक सकता है ?
यह ठानना ही तो विवेक है न ? आज बापू की पुण्यतिथि है. शहीद दिवस, कुष्ठ निवारण
दिवस तथा अन्य भी कई तरह के दिवस इस दिन मनाये जाते हैं. गांधीजी सत्य के मार्ग के
राही थे, तभी तो राजनीति के शुष्क वातावरण में मुस्का सकते थे.
आज गुरूजी ने समाधि के विषय में कल
से आगे बताया. कई तरह की समाधि होती है. समाधि में अपने होने का भान रहता है. ‘मैं
हूँ’ से ‘यह है’ अर्थात आनन्द है इसका भान रहता है. असम्प्रत्याग समाधि में अपना
ज्ञान नहीं रहता. वह अभ्यास के द्वारा मिलती है. भाव समाधि, लय समाधि तथा अन्य भी
कुछ समाधियों का अनुभव साधक करते हैं. अंत में तो समाधि का लोभ भी छोड़ना पड़ता है,
जैसे साबुन मैल छुड़ाने के लिए लगाया फिर साबुन को भी हटाना होता है. टीवी पर
मुरारी बापू अपने चिर-परिचित अंदाज में कथा सुना रहे हैं, एक कविता को वह भजन की
तरह गा रहे हैं. आज ध्यान में सुंदर दृश्य दिखे. चाँदी के चमकते आभूषण तथा ताम्बे
या कांसे की मूर्तियाँ, भीतर कितनी बड़ी दुनिया है, ध्यान में जिसकी झलक मिलती है. अभी
तो उसने पहला कदम रखा है इस मार्ग पर, अभी बहुत चलना है. जीवन तभी तो जीवन कहलाने
योग्य है जब तक उसमें कुछ नया-नया मिलता रहे, नये फूल खिलते रहें, एक प्रतीक्षा
बनी रहे भीतर. प्रतीक्षा में कितना आनन्द है, कुछ बेहतर घटने वाला है, कुछ ऐसा
मिलने वाला है जो आज तक नहीं मिला, जो अमूल्य है. परमात्मा की राह पर चले कोई तो
हर क्षण उपहार मिलते जाते हैं और हर अगला उपहार पहले से बेहतर होता है.
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