Thursday, September 7, 2017

आना-पान की साधना


सात बजे उन्हें दफ्तर के बायीं तरफ दो तल्ले पर स्थित पुराने ध्यान कक्ष में ले जाया गया, जहाँ कुछ औपचारिक बातें समझाई गयीं. एक फिल्म भी दिखायी गयी जिसमें केंद्र में रहने के नियमों की जानकारी दी गयी थी. अगले दस दिनों तक उन्हें सदा ही मौन रहना था, धीरे-धीरे चलना था तथा किसी से नजर नहीं मिलानी थी. स्वयं को पूर्ण एकांत में ही समझना था. किसी भी तरह की अन्य साधना इन दस दिनों में भूलकर भी नहीं करनी थी. कोई मन्त्र जप या किसी भी तरह का ताबीज, अगूँठी आदि धारण नहीं करनी थी तथा किसी की शरण में नहीं जाकर केवल अपनी शरण में रहना था. समय का पालन करना था. पांच शीलों का पालन बहुत कठोरता से करना है. पांच शील हैं- चोरी न करना, असत्य भाषण न करना, किसी भी तरह का नशा न करना, किसी भी तरह की हिंसा न करना, व्यभिचार न करना. वहाँ से सभी को मुख्य धम्मा हॉल में ले जाया गया, जो काफी बड़ा था. महिला साधक दायीं तरफ तथा पुरुष साधक बायीं ओर बैठते थे. सभी को निश्चित स्थान व आसन दिया गया. पूरे साधना काल में उसी स्थान पर व उसी आसन पर बैठना था. मुख्य आसन के अलावा वहाँ कई आकार के छोटे-बड़े तकिये थे जिन्हें देखकर पहले आश्चर्य हुआ था पर बाद के दिनों में पैरों में दर्द होने पर सभी को उनका उपयोग करते देखा. आखिर दिन भर में दस-ग्यारह घंटे नीचे बैठना था.

रात्रि नौ बजे वहाँ से वे अपने-अपने कमरे में आ गये. मच्छर दानी लगाने तथा सोने के लिए तैयारी करने में पांच-सात मिनट लगे और कमरे की बत्ती बुझाकर सोने की चेष्टा की तो पहले नई जगह के कारण कुछ देर नींद नहीं आयी, फिर रूममेट के खर्राटों की आवाज के कारण, लेकिन बाद में पता नहीं कब नींद आ गयी. सुबह ठीक चार बजे घंटे की आवाज से नींद खुली तो उठकर बिस्तर ठीक किया, पानी पीया और नित्य क्रिया से निवृत्त होकर समय पर धम्मा हॉल में पहुंची. सवा चार बजे पुनः घंटा बजता था तथा उसके बाद भी धर्मसेविका सभी कमरों के सामने से हाथ में घंटी लिए बजाती हुई एक चक्कर लगाती थीं ताकि कोई सोता न रह जाये. उसके बाद भी यदि कोई नहीं उठा तो कमरे में झांककर देखती थीं. अब हर रोज सुबह का यही क्रम था.  

पहले साढ़े तीन दिन श्वास पर ध्यान देने की विधि समझायी गयी, जिसे आना-पान कहते हैं. अगले साढ़े छह दिन विपश्यना का अभ्यास कराया गया जिसमें शरीर पर होने वाले स्पंदनों को समता भाव से देखना होता है. प्रतिदिन सुबह छह बजे गोयनका जी की धीर-गम्भीर आवाज में बुद्ध वाणी का ‘मंगल पाठ’ होता था. जो पाली में था तथा जिसका अर्थ पूरी तरह समझ में नहीं आता था. शेष समय में भी गोयनका जी बुद्ध के धम्म पदों का उपयोग करते थे तथा बीच-बीच में स्वरचित दोहों के द्वारा उनका अर्थ स्पष्ट करते जाते थे. ठीक साढ़े छह बजे घंटा बजता था जिसका अर्थ था नाश्ते का समय हो गया है. होना तो यह चाहिए था कि नहाकर नाश्ता करें पर सभी पहले भोजनालय में पहुंच जाते जहाँ अक्सर सूजी का ढोकला, मीठी चटनी, काले चने की घुघनी, कोई एक फल, चाय, दूध मिला करता था. कभी-कभी पोहा व दलिया भी मिला जिसमें दूध नहीं था बल्कि हल्की मिठास थी. नाश्ते के बाद कुछ देर टहलने के बाद स्नान की तैयारी. आठ बजे पुनः सभी हॉल में पहुँचते, गोयनका जी की आवाज में श्वास पर ध्यान देने की विधि सिखाई गयी. शुद्ध श्वास पर ध्यान देना था जिससे मन अपने आप केन्द्रित होता जाता था. नौ बजे के बाद पांच मिनट का विश्राम लेने को कहा गया. विश्राम का अर्थ था हॉल के बाहर बने पक्के फुटपाथों पर टहलना जिससे पैरों की जकड़न खुल जाती थी. कुछ लोग कमरे की तरफ भागते ताकि पांच मिनट लेट कर कमर सीधी कर लें. पुनः साधना का क्रम चला तो समय लम्बा खिंचता चला गया. गोयनका जी अपनी स्पष्ट व प्रखर वाणी में निर्देश दे रहे थे. पुरुषार्थ और पराक्रम करने की प्रेरणा भी बारी-बारी से हिंदी व अंग्रेजी भाषों में दे रहे थे.

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