सुबह आठ बजे से नौ बजे तक, दोपहर ढाई से साढ़े तीन
बजे तक तथा शाम छह से सात बजे तक सामूहिक साधना होती थी. जिसमें सभी साधकों का
पूरे वक्त उपस्थित रहना आवश्यक था. शेष समय में कभी–कभी पुराने साधकों को अपने
निवास स्थान पर ध्यान करने के लिए कहा जाता था और कभी-कभी कुछ नये और पुराने
साधकों को शून्यागारों में ध्यान करने के लिए कहा जाता था. गोल पगोड़ा में स्थित
शून्यागार एक विशिष्ट आकार के छोटे-छोटे ध्यान कक्ष थे, जिनमें अकेले बैठकर ध्यान
करना होता था. एक दिन शून्यागार में ध्यान करते हुए अनोखा अनुभव हुआ, जिसमें एक
क्षण के लिए स्वयं को देह से अलग देखा, जैसे वह पृथक है और देह बैठकर ध्यान कर रही
है. जैसे ही इस बात का बोध हुआ, अनुभव जा चुका था.
विपश्यना आरम्भ
होने पर चौथे दिन के उत्तरार्ध से गुरूजी ने शरीर में होने वाली संवेदनाओं पर ध्यान
देने को कहा. पहले दिन केवल नाक के छल्लों तथा ऊपर वाले होंठ के ऊपर वाले भाग पर
ही, बाद में सिर से लेकर पैर तक एक-एक अंग पर कुछ क्षण रुकते हुए वहाँ होने वाली
किसी भी तरह की संवेदना को देखना था. यह संवेदना किसी भी प्रकार की हो सकती थी,
दर्द, कसाव, खिंचाव, सिहरन, खुजली, फड़कन या अन्य किसी भी प्रकार का शरीर पर होने
वाला अनुभव. मुख्य बात यह थी कि संवेदना चाहे सुखद हो या दुखद, उसके प्रति किसी भी
प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं करनी थी. वे सभी संवेदनाएं स्वतः ही उत्पन्न होकर नष्ट
हो जाती हैं, साक्षी भाव से इस अनित्यता के नियम का दर्शन करना था. उनका अंतर्मन न
जाने कितने संस्कार छिपाए है और हर पल वे नये संस्कार बनाते चल रहे हैं. उनसे
जाने-अनजाने जो भी गलत-सही हुआ है, उसका हिसाब तो चुकाना ही होगा. औरों को देखकर
जो द्वेष का भाव मन में जगता है वह भीतर गाँठ बनकर टिक जाता है. प्रकृति का नियम
है विकार जगाया तो व्याकुल तो होना ही पड़ेगा. अतीत में जगाये विकार समय आने पर देह
पर किसी न किसी रोग के रूप में आकर प्रकट हो सकते हैं. साक्षी का अनुभव होने के
बाद राग, द्वेष व मोह के बंधन नहीं बंधते.
आठवां दिन आते
आते तो मन भी जैसे दूर खो गया लगता था, देह पर होने वाले सुख-दुःख जैसे किसी और को
हो रहे हैं. मन एक असीम मौन में डूबा हुआ है. लगा, सारा विश्व जैसे एक ही सूत्र
में पिरोया हुआ है और वह सूत्र उस से होकर भी जाता है, सदा से ऐसा ही था और सदा
ऐसा ही रहेगा, यह देह एक दिन गिर जायेगी फिर भी यह चेतना किसी न किसी रूप में तो
रहेगी ही. एक दिन गोयनका जी ने कहा, मन और देह दोनों एक नदी की तरह हैं. मौसम
बदलते हैं तो नदी भी बदलती है वैसे ही मन और देह के भी मौसम होते हैं. देह का आधार
अन्न है और मन का आधार संस्कार हैं जो हर पल बनते-मिटते रहते हैं. मन के किनारे
बैठकर जो इसे देखना सीख जाता है वह इससे प्रभावित नहीं होता.
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