साधकों में विभिन्न राज्यों के
व देशों के लोग थे. ग्यारह बजे घंटे की आवाज से दूसरा सत्र खत्म हुआ. यह दोपहर के
भोजन का समय था. सात्विक, शाकाहारी भोजन परोसा जाता था, जिसमें पीली दाल, एक आलू
की सब्जी जिसमें कभी मटर, कभी सफेद चने, कभी कटहल या टमाटर आदि होते थे. एक सूखी
सब्जी, चावल तथा रोटी होती थी. छाछ व मीठी चटनी भी अक्सर मिलती थी. भोजन के पश्चात
एक घंटा विश्राम के लिए था. दोपहर एक बजे से पुनः साधना का क्रम शुरू होता जो दो
बजे तक चलता. आधे घंटे के विश्राम के बाद फिर ढाई से साढ़े तीन बजे तक तथा पांच
मिनट के विश्राम के बाद शाम पांच बजे तक पुनः चलता. लगातर इतने समय बैठा रहना व
श्वास पर ध्यान देना इतना सरल कार्य नहीं था. सभी को पैरों में जगह-जगह पीड़ा होने
लगती, आसन बदलते, धीरे-धीरे इधर-उधर पैरों को मोड़ते उसी स्थान पर किसी तरह स्वयं
को सम्भाले बैठे रहते. आँख भी नहीं खोलनी थी, कुछ मिनट के प्रारम्भिक निर्देशों के
बाद स्वयं ही ध्यान करना होता था. पुराने साधक आराम से बैठे रहते. आखिर गोयनका जी
की आवाज आती, अन्निचा..एक पद बोलते और सत्र समाप्त होता. पांच बजे का घंटा राहत लाता,
यह शाम की चाय का समय था. जिसके साथ कोई एक फल तथा मूड़ी दी जाती जिसमें दो-चार दाने
मूंगफली के या भुजिया पड़ी होती. उसके बाद सभी शाम की हवा का आनंद लेते हुए टहलने
लगते. धीरे-धीरे चलते हुए अपने भीतर खोये साधक अन्यों की उपस्थिति से बेखबर प्रतीत
होते थे. सभी के मन का पुनर्निर्माण आरम्भ हो चुका था. छह बजे पुनः घंटी बजती और
सात बजे तक ध्यान चलता. फिर पांच मिनट का विश्राम तथा उसके बाद गोयनकाजी का प्रवचन
आरम्भ होता जो साढ़े आठ बजे तक चलता, जिसमें दिन भर में हुई साधना के बारे में तथा
आने वाले दिन के लिए साधना के निर्देश दिए जाते तथा विधि को समझाया जाता. जिसके
बाद पुनः पांच मिनट का विश्राम फिर रात्रि पूर्व का अंतिम ध्यान होता था.
नौ
बजे घंटा बजता और जिन्हें साधना संबंधी कोई प्रश्न पूछना हो वह आचार्य या आचार्या
से साढ़े नौ बजे तक पूछ सकते थे. शेष कमरे में आकर सोने की तैयारी करते. पर दिन भर
ध्यान करने से सचेत हुआ मन नित नये स्वप्नों की झलक दिखाता. बीते हुए समय की स्मृतियाँ
इतने स्पष्ट रूप से देखीं. जिनके साथ कभी मनमुटाव हुआ था उसका कारण जाना, जिसके
सूत्र पिछले जन्मों से जुड़े थे, उनसे सुलह हो गयी. एक रात्रि तो हजारों कमल खिलते
देखे. हल्के बैगनी रंग के फूल फिर रक्तिम आकृतियाँ...वह रात्रि बहुत विचलित करने
वाली थी. आंख खोलते या बंद करते दोनों समय चित्र मानस पटल पर स्पष्ट रूप से चमकदार
रंगों में आ रहे थे. ऐसी सुंदर कलाकृतियाँ शायद कोई चित्रकार भी न बना पाए.
हरे-नीले शोख रंगों की आकृतियाँ बाद में भय का कारण बनने लगीं. उनका अंत नहीं आ
रहा था. फिर कुछ लोग दिखने लगे. एक बैलगाड़ी और कुछ अनजान स्थानों के दृश्य. जगती
आँखों के ये स्वप्न अनोखे थे. एक बार तो आँख खोलने पर मच्छर दानी के अंदर ही आकाश
के तारे दिखने लगे, फिर उठकर चेहरे धोया, मून लाइट जलाई. रूममेट भी उठ गयी थी पर
कोई बात तो करनी नहीं थी, सोचा आचार्यजी के पास जाए पर रात्रि के ग्यारह बज चुके
थे. पहली बार घर वालों का ध्यान भी हो आया. जिनसे पिछले कुछ दिनों से कोई सम्पर्क
नहीं था. फिर ईश्वर से प्रार्थना की (जिसके लिए मना किया गया था) तय किया कि कल से
आगे कोई ध्यान नहीं करेगी. वह छठा दिन था. बाकी चार दिन सेवा का योगदान देगी. लगभग
दो बजे तक इसी तरह नींद नहीं आयी, बाद में सो गयी. उस दिन सुबह चार बजे नहीं उठी,
सोच लिया था अब आगे साधना नहीं करनी है. छह बजे मंगल पाठ के वक्त गयी. आधा घंटा
बैठी रही. आठ बजे के ध्यान से पूर्व ही आचार्या से मिलकर जब सारी बात कही तो
उन्होंने कहा, यह तो बहुत अच्छा हो रहा है, मन की गहराई में छिपे संस्कार बाहर
निकल रहे हैं. इसमें डरने की जरा भी आवश्यकता नहीं है. वे बोलीं, उसे तो फूल दिखे,
किसी-किसी को भूत-प्रेत दीखते हैं तथा सर्प आदि भी. उन्होंने कहा, यदि भविष्य में
ऐसा हो तो हाथ व पैर के तलवे पर ध्यान करना ठीक होगा उनकी बात सुनकर पुनः पूरे जोश
में साधना में रत हो गयी. अगले दिन जब ऐसा हुआ तो कुछ भी विचित्र नहीं लगा, श्वास
पर ध्यान देने व उनके बताये अनुसार ध्यान करने से सब ठीक हो गया.
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