वे घर लौट आये हैं. मन अधिक शांत है और स्मृतियों से भरा है. दस दिनों तक ध्यान
के गहन प्रयोग के बाद भीतर कितना शून्य जग गया है. उसने मन को पीछे ले जाकर देखा
और लिखना आरम्भ किया - उस दिन शांत दोपहरी को दो बजे कोलकाता के IIMC से
सोदपुर स्थित विपासना केंद्र ‘धम्म गंगा’ के लिए रवाना हुई थी. कोलकाता से लगभग
तीस किमी दूर गंगा के तट पर स्थित केंद्र तक पहुंचने में दो-ढाई घंटे लग गये.
ड्राइवर को बाहर छोड़कर लोहे के गेट के बायीं तरफ छोटे द्वार से अंदर पता करने के
लिए चली गयी कि कार अंदर जा सकती है या नहीं, लौटी तो कार कहीं नजर नहीं आ रही थी.
मन के भीतर छिपा भय का संस्कार सामने आ
गया, गोयनका जी कहते हैं कोई भी विकार दुख का कारण ही बनता है. अब भय जगा तो झट
प्रतिक्रिया हुई, पतिदेव को फोन कर दिया, उनके आशाजनक शब्दों ने विश्वास दिलाया.
ड्राइवर दूसरी गली में जाकर गाड़ी मोड़ने चला गया था. वह वापस आया तो मन ही मन उससे
क्षमा मांगी. धैर्य का दामन छोड़कर जो मन झट प्रतिक्रिया करने में जुट जाता है वह
गलत निर्णय पर ही पहुंचता है. यह पाठ आते ही सीख लिया था.
भीतर पहुंच कर कुछ समय
औपचारिकताओं में बीत गया. फार्म भरवाया गया. प्यास भी लग रही थी और लम्बे सफर से
सिर में हल्का दर्द भी था. अगले दस दिनों तक रहने के लिए जो कमरा मिला उसका नम्बर
आठ था, एक युवा बंगाली लड़की जो बैंगलोर में रहकर काम करती है, पर उसका घर कोलकाता
में है, उस कमरे में पहले से ही थी. उसने दो-चार बातें ही की होंगी कि पता चला
ऑफिस में जाकर मोबाइल व अन्य कीमती सामान लॉकर में रखवाने हैं. वहीं पता चला छह
बजे घंटा बजेगा तब नाश्ता व चाय मिलेगी, जो आज का अंतिम भोजन होगा. शाम का वक्त
था, सूर्यास्त का समय. केंद्र का बगीचा जहाँ खत्म होता था, वहाँ बरगद के एक विशाल
वृक्ष के चारों तरफ एक बड़ा चबूतरा था. जिसपर चढ़कर गंगा का चौड़ा पाट देखा. नदी का
शांत पानी और उस पर नाचती हुई छोटी-छोटी लहरें, सूर्य की लाल रश्मियाँ उन लहरों के
साथ नृत्य करती हुई बहुत आकर्षक लग रही थीं. अगले कुछ दिनों तक रोज ही शाम को
बल्कि दिन में कई बार गंगा को निहारना उसका प्रिय कार्य बन जायेगा यह उस वक्त
मालूम नहीं था. उसी वृक्ष के नीचे तितलियों से गुफ्तगू भी रोज का हिस्सा बन जाएगी
यह भी नहीं जानती थी. जैसे ही शाम के वक्त वहाँ जाती, हवा चल रही होती और जाने
कहाँ से उड़ती-उड़ती दो काली तितलियाँ आ जातीं और कभी सिर कभी बांह पर बैठ जाती थीं,
आश्चर्य होता था, भरोसा भी होता था कि परमात्मा ही उनके द्वारा संदेश भेजता है.
कुछ पंक्तियाँ तभी एक दिन जेहन में आई थीं-
तितलियाँ परमात्मा की दूत होती हैं
पुष्प उसके चरणों की शोभा बढ़ाते हैं
उन पुष्पों पर मंडराती हैं तितलियाँ...
उसी का संदेश ले आती हैं !
जब घंटा
बजा, सभी डाइनिंग हॉल में गये जिसमें तीन ओर दीवारों से सटी हुई सीमेंट की पतली
मेजें थीं, जिनपर काला मोजाइक लगा था तथा जिनके सामने प्लास्टिक की कुर्सियां रखी
हुई थीं. चौथी तरफ लम्बा सा बेसिन था, कुछ दूरी पर कई नल लगे थे, बर्तन धोने का
सामान रखा था, जहाँ नाश्ते व खाने के बाद सभी को स्वयं बर्तन धोकर रखने होते थे.
कमरे के बीचोंबीच लकड़ी की दो मेजें सटाकर रखी गयी थीं जिनपर बर्तन व भोजन की
सामग्री थी. उस दिन ‘पोहा’ मिला जो स्वादिष्ट था तथा हल्की मिठास लिए था. बाद के
दिनों में भी कई व्यंजनों में मीठे से खबर मिलती रही थी कि बंगाल में हैं, जहाँ
छाछ में भी मीठा डाला जाता है.
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की १८०० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सिसकियाँ - १८०० वीं ब्लॉग-बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !