Wednesday, September 13, 2017

समता की चट्टान


रात्रि के आठ बजने को हैं. एक दिन और साक्षी भाव में बीत गया. सुबह समय से उठी, गला अभी भी पूरी तरह ठीक नहीं है, बायीं तरफ के निचले दांत में दर्द है, पर लगता है ये सब किसी और को हैं. मन भी जैसे दूर खो गया लगता है, भीतर बस एक गहन मौन है. उम्मीद है अगले एकाध दिन में स्वास्थ्य पूर्ववत हो जायेगा. मन में एक विचार आता है, कोर्स के दौरान अन्यों को खांसते जो विरोध का भाव मन में जगाया था, वह सही नहीं था. शायद उसी का परिणाम हो, साक्षी में रहना होगा. देखकर सुबह ब्लॉग पर एक कविता पोस्ट की, कुछ अन्य पढ़ने का अब मन नहीं होता. जीवन में एक बिलकुल ही नया मोड़ आया है.  दोपहर को धम्मा रेडियो खोलकर कुछ सुनना चाहा तो हर्मन हेस के उपन्यास सिद्धार्थ की बात ही सुनाई दी. पुस्तक का नायक वासुदेव एक नदी को देखकर अपने मन के रहस्यों का पता लगा लेता है. मन भी हर वक्त एक नदी की तरह बहता जाता है. नदी की तरह कितने मौसम बदलते हैं मन के. मन का आधार वे संस्कार हैं जो हर पल लहरों की तरह बनते-मिटते रहते हैं. मन के किनारे बैठकर जो इसे देखना सीख जाता है, वह इससे प्रभावित नहीं होता. कल मृणाल ज्योति गयी थी, कमेटी में वर्किंग प्रेसिडेंट का काम देखना होगा. पहले सा ही काम होगा, बस कुछेक जगह हस्ताक्षर करने होंगे.

आज सुबह जून से कहा, डाक्टर को दिखा लेते हैं. अस्पताल गयी, दोएक दवाएं दी हैं. अब शाम हो गयी है, पर जून को किसी कार्यवश दफ्तर जाना पड़ा है. आजकल वह उसका बहुत ध्यान रखने लगे हैं, उन्होंने उसके भीतर आए परिवर्तन को देखा है और उसने भी उनके भीतर आए परिवर्तन को. उनके मध्य आत्मिक मैत्री की एक मधुर रसधार बहने लगी है. वे एक-दूसरे के साथ उतने ही सहज रहते हैं जैसे अपने साथ. आज सुबह उठी तो वर्षा हो रही थी, इस वक्त भी बादल गरज रहे हैं. सुबह एक स्वप्न में देखा जून और वह बिना छाता लिए तेज वर्षा में एक लम्बी सड़क पर चल रहे हैं, आगे जाकर अँधेरा होने लगता है पर वे रुकते नहीं, फिर पता नहीं कब स्वप्न टूट गया. उसकी आध्यात्मिक यात्रा एक पड़ाव पर आकर रुक सी गयी लग रही है, पर अभी और आगे जाना है, मंजिलें और भी हैं. अपने भीतर जगी इस अनोखी शांति को परिपक्व होने देना है. जीवन को एक उत्सव बनाना है, जीवन की पूर्णता को प्राप्त करना है. परमात्मा हर क्षण उसके साथ है, वही तो है. उसकी स्मृति, उसका ख्याल नहीं वही साक्षात् ! जीवन की पूर्णता का अनुभव यही तो है, जीवन का उत्सव भी यही है. चित्त की निर्मलता ही साधना का लक्ष्य है, कोई अनुभव कितना भी सुंदर क्यों न हो, समाप्त हो जाता है पर भीतर की समता एक चट्टान की तरह अडिग रहती है.


आज भी वर्षा हो रही है, सुबह-शाम दोनों वक्त बरामदे में ही टहलना पड़ा, कुछ देर के लिए लॉन और ड्राइव वे पर निकले पर रह-रह कर बूंदे बरसती रहीं और कुछ ही मिनटों में वापस आना पड़ा. फरवरी का मौसम असम में ऐसा ही होता है, शाम होते ही बादल गरजने लगते हैं और..उसका मन एक अतीव मौन में डूबा हुआ है. अभी तक देह अस्वस्थ है पर वह उससे प्रभावित नहीं है, देह और मन से दूरी बढ़ती जा रही है. उस अनाम की उपस्थिति का अहसास गहराता जा रहा है. लगता है अब कुछ भी पाने को या जानने को शेष नहीं रहा है, जीवन आगे बढ़ने का नाम अवश्य है पर अब आगे बढ़ना गहराई में डूबना होगा अथवा ऊँचाई पर चढ़ना, न कि किसी राह पर आगे बढ़ना. सारा विश्व जैसे एक सूत्र में पिरोया हुआ है और वह सूत्र उससे होकर भी जाता है, सदा से ऐसा ही था और सदा ऐसा ही रहेगा. यह देह एक दिन गिर जाएगी, फिर भी यह चेतना तो रहेगी ही. आज सुबह ध्यान में बैठी तो किसी विधि का आश्रय नहीं लिया, परमात्मा चारों ओर है, बस उसे सीधे ही अनुभव करना है. अब सारी विधियाँ बेमानी हो गयी हैं, जैसे अब किसी शास्त्र को पढ़ने की भी आवश्यकता भी महसूस नहीं होती. मन उस नितांत मौन में डूबे रहना चाहता है जहाँ कभी-कभी एकांत को तोड़ने एक पक्षी की दूर से आती आवाज सुनाई देती है. ईश्वर ही उसके जीवन के आगे के मार्ग का निर्धारण करेंगे. संवेदनाओं के द्वारा भीतर राग-द्वेष जगाने के दिन समाप्त हुए, अब साक्षी भाव ही सध रहा है. समता भाव ही योग है, कृष्ण ने भी कहा है.    

2 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-09-17 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2727 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !

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