एक रात्रि स्वप्न में स्वयं को किसी दुःख से
छुड़ाने के लिए रोकर पुकार लगाते सुना, फिर अपने ही मुँह से एक धातु का उपकरण
निकालकर हाथ में रखा, स्पष्ट था कि पीड़ा का कारण यही था. तब जैसे किसी ने कान में
फुसफुसा कर कहा, अपने आप को स्वयं ही क्यों दुखी बनाती हो? फिर नींद खुल गयी.
एक स्वप्न में
देखा, उठना चाहती है पर आँखें हैं कि खुलने का नाम नहीं लेतीं, बंद आँखों से ही चल
पड़ती है तो सामने दीवार आ जाती है, दिशा बदल कर सड़क पर आ जाती है और आँखें खोलने
में समर्थ हो जाती है. एक स्वप्न में खुद को निरंतर ७८६ को उच्चारित करते हुए
पाया. एक और स्वप्न में भगवान शंकर का जयकार करते हुए. ये सारे स्वप्न यही तो बता
रहे थे कि न जाने कितने बार यह चक्र घूम चुका है अब कहीं तो इसे रुकना होगा.
कभी-कभी ऐसे व्यर्थ के विचार भी आते कि हँसी आती, पर जो-जो भीतर रिकार्ड किया है
वह तो निकलेगा ही, सारी साधना समता भाव बनाये रखने की है. कोई भी अनुभव कितना भी
सुंदर क्यों न हो समाप्त हो जाता है, पर भीतर की समता एक चट्टान की तरह अडिग रहती
है.
अंतिम दिन का
पाठ भी अतुलनीय था, जिसमें मंगल मैत्री सिखायी गयी. प्रतिदिन सुबह व शाम की साधना
के बाद सारे विश्व के लिए मंगल कामना करने को कहा गया जिससे सारे पुण्य केवल स्वयं
की शुद्धि के लिए समाप्त न हो जाएँ सब दिशाओं में उन्हें प्रसारित करना होगा. सबके
मंगल में ही अपना मंगल छिपा है, भगवान बुद्ध की यह मंगल भावना कितनी पावन है. धरा
पर यदि कोई जगा हुआ न हो तो इसकी रौनक कोई देख ही न पाए, उस तरह, जिस तरह यह
वास्तव में है ! जो दिखायी नहीं देता, वह उससे ज्यादा सुंदर है जो दिखायी देता है.
‘शील, समाधि और प्रज्ञा’ भगवान बुद्ध के बताये इस मार्ग पर चलकर न जाने कितने लोग
दुखों से मुक्ति का अनुभव कर चुके हैं, और अनेक भविष्य में भी करते रहेंगे.
कल यात्रा
विवरण पूरा हुआ. इस समय दोपहर का पौने एक बजा है. बाहर के बरामदे में बैठकर लिखने का सुअवसर हफ्तों बाद मिला है. लॉन में फूल खिले हैं, धूप पसरी है और अवश्य
तितलियाँ भी होंगी. अभी तक सुबह के वक्त हवा में ठंड का अहसास
होता है. उसके गले में खराश है.
पिछले दिनों दिनचर्या तथा भोजन के बदलाव और मन के आपरेशन के कारण,
अथवा पता नहीं क्या है इसके पीछे. उसका मन या कहे ‘मन’ न जाने कितने संस्कार छिपाए है और हर पल वे नये संस्कार बनाते
चल रहे हैं. उनसे जो भी गलत हुआ है,
उसका हिसाब तो चुकाना ही होगा. प्रकृति का नियम है
विकार जगाया तो व्याकुल होना ही पड़ेगा. अतीत में जो विकार जगाये तथा जिन्हें अचेतन
मन की परतों में दब जाने दिया, साधना के द्वारा वे उभर कर ऊपर आते हैं तो देह पर
ही प्रकट होते हैं. परमात्मा हर क्षण उनके साथ है, वह हर भाव, विचार तथा कृत्य का
साक्षी है, वह अकारण दयालु है, कृपा का सागर है. उसकी उपस्थिति का अनुभव होने के
बाद राग-द्वेष व मोह के बंधन नहीं बाँधते. ऐसे व्यक्ति के लिए अब न कोई अपना है न
ही पराया. न ही मूढ़ता उसे भाती है. देह में होने वाले स्पंदन तथा अनुभूतियाँ उसका
स्मरण करा देती हैं.
सुन्दर।
ReplyDeleteस्वागत व आभार सुशील जी !
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