“नुक्ते की फेर में जुदा हुआ, नुक्ता ऊपर रखा तो खुदा हुआ” उसने जब
यह सुना तो जोर से हँसे बिना न रह सकी, उर्दू भाषा भी कमाल की है, एक नुक्ते से
कितना फर्क पड़ जाता है. वह भी अपने मन रूपी नुक्ते को सही जगह नहीं लगाती और ईश्वर
से विमुख हो जाती है. ‘जागरण’ में आज फिर सुना, सुख-दुःख आदि अवस्थाओं से परे जो ‘आत्मा’
रूपी चैतन्य सभी में है, यदि उसका भान नहीं हुआ तो मस्तिष्क को ज्ञान की हजारों
बातों से भर लेने से भी कोई लाभ नहीं, विवेकानन्द ने भी कहा है, कि मात्र धार्मिक
पुस्तकें पढने और प्रवचन सुनने भर से वह बौद्धिक विकास बन कर रह जाता है, यदि
वास्तव में उसे अनुभव की वस्तु न बनाया तो धर्म भी नशे की तरह है. किन्तु उसे अपने
भीतर आये बदलाव की भनक है, धीरे-धीरे ही सही किन्तु यात्रा जारी है. अब इस संसार
को स्वप्न की भांति देखने की समझ आई है. दूसरों की दृष्टिकोण को समझने की समझ,
हरेक में उसी अन्तर्यामी के प्रकाश को देखने की समझ, अपनी गलतियों का अहसास फौरन
हो जाता है. और उसे स्वीकारने की हिम्मत भी वः अपने भीतर पा रही है. इससे मानसिक
ऊर्जा का व्यय नहीं होता सो मन हमेशा शांत रहता है, कमल के फूल पर पड़ी ओस की
बूंदों की भांति. जून भी आजकल खुश हैं, नन्हा भी एकाग्रता से पढ़ाई में व्यस्त है.
वह अभी से धीर-गम्भीर है, उसने प्रार्थना की, ईश्वर उसे सन्मार्ग पर ले जाये. इसी
महीने उन्हें घर जाना है, जून ने सुबह कहा, उपहार खरीदने भी शुरू करने चाहिए. उसे
याद आया, दो सखियों के माता-पिता आए हुए हैं, उन सभी को भोजन पर बुलाना है. वर्षा
फिर हो रही है.
“जो टिकता नहीं वह अवस्था है
जो मिटता नहीं वह परम सत्य है”. बस इतनी सी बात समझ में आ जाये तो जीवन सहज हो
जायेगा. आज ‘जागरण’ पर प्रवचन दिल को छूने वाला था, कितनी सरलता से सन्त कितनी गूढ़
बातें कह जाते हैं, लोगों की भाषा बोलते हैं, उनके हित के लिए उनकी अपनी ही
शब्दावली से शब्द लेते हैं, उसे उनमें श्रद्धा होती है, पर कुछ बातों के प्रति
अविश्वास भी होता है, शायद उसकी रूचि नहीं उन बातों में सो उनके प्रति उदासीनता
बनी रहती है. आज ध्यान में बैठी ही थी कि फोन की घंटी बजी सो पूरा नहीं सका. इस
वक्त साढ़े नौ हुए हैं, सुबह से अब तक का वक्त ईश्वर के प्रति कृतज्ञता के भाव के
कारण अच्छा रहा है, किन्तु यह भी एक अवस्था है. सुखद स्थिति में प्रीति होने से वह
सुखकर लगती है, दुखद स्थिति में प्रीति न होने से वह दुखकर लगती है, उसे इन दोनों
से ही परे जाना है. यह जग कई पाठ पढ़ाता है, ठोंक पीटकर इस काबिल बनता है कि सत्य
को समझने लायक हो सकें. जग में विभिन्न लोगों से व्यवहार करते समय, तरह-तरह की
परिस्थितियों में मन का संतुलन बनाये रखते समय, अनुकूल हो या प्रतिकूल दोनों वक्तों
में, ईश्वर का स्मरण करते समय वह कितना कुछ सीखती है अथवा तो उस सीख का उपयोग करती
है जो सदा से उसके अंतर्मन में सुप्तावस्था में थी. मानव मन असीम सम्भावनाओं का
भंडार है, इसमें कई खजाने छुपे पड़े हैं आवश्यकता है तो मंथन की, अमृत भी यहीं है
और विष भी यही हैं !
कल पिता का पत्र मिला, पढकर
अच्छा लगा, उन्हें उसका घर-परिवार, समाज तथा राष्ट्र के बारे में सोचना, लिखना
अच्छा लगा. यदि मन जागरूक हो कोई हर पल सचेत हो तभी ऐसा हो सकता है, बहुत पहले पिता
ने एक बार कहा था जब वह घर पर थी, “अपने मन पर नजर रखो, कहीं वही तम्हारे खिलाफ न
हो जाये” और अब टीवी पर जागरण शुरू हो गया है. मन के स्वभाव को बदलना होगा जो सदा
बाहर की ओर जाता है, ऊर्जा नष्ट होती है. अपने दोष दबाने के लिए दूसरों के दोष
देखता है. यदि दूसरों के गुण देखने की आदत आ जाये तो साधक जल्दी सफल हो जाता है.
किन्तु अपने दोष देखकर दुःख या पीड़ा न हो बल्कि यह बाहर से आया हुआ है इसे निकालना
है, ऐसा संकल्प जगे. तभी कोई निर्दोष जीवन जी सकेगा और ऐसा निर्दोष जीवन ही ईश्वर
के प्रेम का अधिकारी है. वक्ता अपने दोषों को दूर करने की बात कहते-कहते भावुक हो
गये और श्रोताओं पर भी असर हुआ, कइयों की आँखें भीग गयीं और कई तो रोने भी लगे,
लेकिन उसका मन शांत है, ईश्वर कभी नहीं चाहता कि वे दुखी हों अशांत हों या निराश
हों ! वह जानती है हृदय में संकल्प के साथ प्रार्थना भी हो तो लक्ष्य मिल सकता है,
प्रयत्न केवल अपने बलबूते पर किया तो अहंकार या विषाद दोनों में से एक होगा, और
यदि प्रयत्न नहीं केवल प्रार्थना ही की तो निष्क्रियता घेर लेगी.
हर भाषा की अपनी विशेषताएँ हैं और हर लिपि की अपनी पहचान... "मन का नुक़्ता अगर सही जगह न लगे तो सचमुच ईश्वर से विमुख जाता है मनुष्य.." यह सोच बहुत ही प्रेरक लगी.
ReplyDeleteएक गृहिणी, एक कामकाजी औरत, एक संगीत साधिका, एक अध्यापिका, साथ ही एक पत्नी-माता-पुत्री-भगिनी-सखि... इतना विस्तार होते हुये भी कभी उसे टीवी पर न संगीत सुनते देखा, न समाचार, न फ़िल्में देखते, न कोई सामान्यज्ञान वाले धारावाहिक, न मनोरंजन प्रधान... सिर्फ जागरण ही देखती है वह??
अध्यात्म में रुचि बहुत अच्छी बात है और उसकी बात से सहमत भी हूँ कि संतों का अनुभव जबतक अपना अनुभव न बने तब तक सारे प्रवचन केवल बौद्धिक खुजली से अधिक कुछ नहीं.
धीरे-धीरे मुझे यह ब्लॉग ख़ुद की तलाश सा लगने लगा है. आभार आपका!
आपने पूर्व के अंक नहीं पढ़े इसिलिये, पहले तो फिल्मों, टीवी और उपन्यासों की ही बातें होती थीं, यह तक कि नास्तिकता भी कहीं मन के किसी कोने में दबी हुई थी, धीरे-धीरे ही समझ में आया क्या अर्थपूर्ण है क्या सतही...यदि कोई भी आँख खुली रखकर जियेगा तो एक न एक दिन उसे भीतर लौटना ही पड़ेगा, संतों से बढकर इस यात्रा में उसका मित्र कौन हो सकता है ?
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