फिर एक अन्तराल, आज पाँच दिनों बाद लिखने का सुयोग मिला है. जून कल देहली गये हैं
और वहाँ से सूरजकुंड जायेंगे, जहाँ एक दिन की कोई कांफ्रेस है. सो इस समय किसी भी कार्य
की शीघ्रता नहीं है. साढ़े दस बजे हैं, कुछ देर पहले वह विशेष बच्चों के स्कूल से
आई है. वहाँ बच्चों को व्यायाम करवाया और जून के लाये रेनकोट आदि दिए. लडकियों का
हॉस्टल भी बन गया है, उसके लिए कुछ नियम आदि के लिए कुछ सुझाव उससे मांगे थे,
लिखकर दिए. शाम को मीटिंग में जाना है. आज मन एक गहन चिन्तन में डूबा है. कल देर
शाम को क्लब से फिल्म देखकर अकेले लौटते समय मन में जो भय की लहर दौड़ी वह व्यर्थ
थी. भय का एक संस्कार कहीं गहरे बैठा है मन में, जो हल्की सी उत्तेजना से उभर आता
है, लेकिन इससे मुक्ति पानी होगी. रात को नींद में थी, अचानक कुछ गिरने की आवाज
आई. वही संस्कार जाग गया और मन ने कैसे-कैसे दृश्य दिखाने शुरू कर दिए. चाहिए तो
यही था कि रौशनी करके देख लेती क्या गिरा है पर भय के कारण मन कल्पना करने लगा. एक
स्वप्न में देखा, जून भी हैं और वे दोनों देखने गये हैं कि कौन सी तस्वीर गिरी है.
फिर पूजा के कमरे में जाकर देखते हैं, कम्प्यूटर गायब है, यानि कोई चोर आया था.
कितना स्पष्ट था सब कुछ. दूसरे स्वप्न में गैलरी में कोई पीला पेंट बह रहा है, जो
छत से आती किसी पाइप से आ रहा है. छत पर देखा तो नैनी है, उसने एक प्लेट में पीला
रंग रखा है, पानी उस पर से बह कर आ रहा है. माया इस तरह मानव को नचाती है. ये
स्वप्न किस तरह उन्हें भ्रमित करते हैं, ये उनकी ही कल्पना होते हैं अक्सर. फिर
सुबह उठी तो स्वयं पर ही आश्चर्य हो रहा था, क्या इतने दिनों की साधना भी भीतर का
भय नहीं निकाल पायी. ध्यान करने बैठी तो राज खुलने लगे. सबके मूल में है मृत्यु का
भय, यानि देह छूट जाने का भय. एक स्वप्न ने ही यह भ्रम पैदा कर दिया है कि अभी बीस
वर्ष तो और जीवन है ही, सो बीस वर्ष तक देह को बचाए रखना होगा, पर कौन जानता है,
कौन सा पल अंतिम होगा. देह बनी रहे इसलिए व्यायाम के प्रति भी गहन आसक्ति है. फिर
दूसरे के शब्दों को, दूसरे के ज्ञान को प्रस्तुत करना, यह तो चोरी का संस्कार है,
इसी कारण कई बार मन में यह भाव आता है कहीं चोरी तो नहीं कर रहा कोई उनकी. उनका
स्वयं का मन जो कृत्य करता है, उसी की आशंका उन्हें होती है. संसार तो दर्पण है,
उनका खुद का मन ही उसमें झलकता है. भावों की चोरी तो महानतम चोरी है. जब तक मन
पूरी तरह से भय व आशंका से मुक्त नहीं हो जाता, समाधि नहीं घटती और समाधि ही तो
लक्ष्य है. परमात्मा उसके भीतर के साारे विकारों को एक-एक कर दूर करने में उसकी
सहायता कर रहे हैं. वृथा बोलना तो छूट गया है पर वृथा सोचना नहीं छूटा है, उसे भी छोड़ना
होगा, मन को खाली करना होगा !
कल कुछ नहीं लिखा, सुबह बंगाली सखी के यहाँ गयी,
वृद्धा आंटी से मिली. दोपहर बाद प्रेस, शाम को योग कक्षा और ऐसे ही दिन बीत गया. आज
सुबह क्लब की एक सदस्या के साथ बाजार गयी, रेशमी कपड़े से बने गुलाब के फूल लेने
थे, वार्षिक उत्सव के लिये, अगले हफ्ते मिलेंगे. वह थाईलैंड जा रही है, दो सप्ताह
बाद लौटेगी. उसे सभी सदस्याओं के नामों की नई सूची बनानी है. योग पर भी कुछ और
लिखना है. इस समय दिन के साढ़े तीन बजे हैं. जून दिल्ली से आ चुके हैं पर आते ही सीधे
दफ्तर चले गये, शायद पांच बजे तक आयेंगे. ड्राइवर सामान दे गया है, ढेर सारे फल
लाये हैं, देसी-विदेशी दोनों तरह के. एक स्टील का पतीला और छह कटोरी-प्लेट्स. उन्हें
खरीदारी करने में काफी आनन्द आता है. परमात्मा की कृपा है कि इस समृद्धि के योग्य
बनाया है. आज सुबह उठने से पूर्व एकतारता का अनुभव हो रहा था, तैलधारवत ध्यान का
अनुभव ! परमात्मा के लोक में अपूर्व शांति है, उस शांति का प्रस्फुटन उन्हें उनके
विचारों, कार्यों और शब्दों द्वारा करना है, यही तो आध्यात्मिकता है. रामकृष्ण
परमहंस की कथा पढ़ते समय कितना आनन्द आता है. वे जीते-जागते परमात्मा ही थे, जैसे
सद्गुरू हैं. उनका सान्निध्य उसे इस जन्म में मिलेगा अथवा नहीं ? किन्तु परमात्मा
के साथ अभिन्नता का अनुभव जिसे होता हो, उसके लिए संत सान्निध्य का क्या अर्थ है,
सद्गुरू के पास रहकर भी कुछ लोग भीतर के लोक में प्रवेश नहीं कर पाते हों शायद.
दीदी कुछ दिनों के लिए व्हाट्सऐप ग्रुप से चली गयी थीं, फिर लौट आई हैं और ग्रुप
का नाम भी बदल दिया है, भाई ने नया नाम दिया है, अच्छा चिह्न है यह, सबके मध्य दूरी
कम होगी.
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