जैसे ईश्वर
सभी के हृदयों में निवास करता है वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति के अंतः करण में
विश्वास भी होता है और संदेह भी. विश्वास बढ़ता रहे तो व्यक्ति भक्त हो जाता है और
संदेह बढ़ता रहे तो जिज्ञासु और अंत में ज्ञानी. लेकिन जहाँ संदेह तो है पर ज्ञान
की जिज्ञासा अभी नहीं उपजी है वह वहीं का वहीं रह जाता है. भक्ति भगवान से संबंध
जोडती है ज्ञान असंग रहकर दर्शन करता है, पर जिसका हृदय बालक सा निर्दोष है वह
सान्निध्य और सायुज्य दोनों पाते हैं. कल रात जून और उसकी चर्चा इस बात पर हुई कि
मानव का आनन्द भौतिकता से उपजे या आध्यात्मिकता से ! इस बहस का कोई अंत होने वाला
नहीं है.
आज एकादशी है. टीवी पर
रामकथा आ रही है. संत पूछ रहे हैं राम-रावण युद्ध कितने दिन चला. रामायण में लिखा
है कभी पढ़ा भी होगा पर उसे याद नहीं. उनकी कथा प्रकाश से भर देती है. आज उन्होंने
ध्यान का महत्व भी बताया. भीतर स्वरूप अनुसन्धान ही ध्यान है. जब अपनी खबर मिलने
लगती है तब परिवर्तन शुरू होता है. उनके अनुसार रामायण और महाभारत जैसे दो अंतर
आँखें हैं, हरि ने जैसे उड़ने के लिए ये दो पंख दिए हैं, दो पंखों से ही जीवन की पूर्णता
होती है. रामायण जीवन की पांख है और महाभारत मृत्यु की. मानव रूपी पंखी को यदि नील
गगन में उड़ान भरनी है तो जीवन के साथ मृत्यु भी उतनी ही महत्वपूर्ण है. जीवन उजाला
है तो मृत्यु रात्रि है. दिन के साथ रात न हो तो जीना कठिन हो जाये. नीरू माँ कह
रही हैं की मृत्यु के बाद जो कर्मकांड किये जाते हैं उनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं
है. मृतक की आत्मा के लिए की गयी प्रार्थना तो उस तक पहुंच सकती है पर भौतिक वस्तु
तो वहाँ नहीं पहुंच सकती. कल दोपहर सुना कि देव योनि, प्रेत योनि तथा पशु योनि में
कर्म करने का अधिकार नहीं है. कर्ता मन है और भोक्ता भी मन है. जब कर्मों की
बढ़ोतरी हो जाती है तो पशु योनि मिलती है तथा जब संचित कर्म कम हो जाते हैं तब देव
योनि मिलती है. आत्मज्ञान पाए बिना कर्म नष्ट नहीं होते और मानव जन्म उन्हें मिला
ही इसी विशेष कार्य के लिए है.
जब तक वे द्रष्टा में
सहज रूप से नहीं रहते तब तक मन की ग्रन्थि बनी रहती है और व्यर्थ ही मन विचार करता
है. जैसे वे तन का उपयोग करते हैं जब जरूरत पडती है और जब जरूरत नहीं होती तब शांत
होकर बैठ जाते हैं वैसे ही विचार करने की जरूरत हो तभी मन का उपयोग करें तो मनसा
कर्म नहीं होंगे. आत्मा में रहना ही सुख से रहना है, निर्भय और निर्वैर रहना है,
निर्विकल्प होकर रहना है ! पर आत्मा में रहना पल भर को ही होता है, जाने कहाँ से
मन हावी हो जाता है, मन में जैसे कोई गहरा कुआँ हो जिसमें से विचार निकलते ही आते
हैं, लाखों, करोड़ों, अरबों विचार..व्यर्थ के विचार, जो तन को भी पीड़ित करते हैं मन
को भी, आखिर मन चाहता क्या है, वह स्वयं को आहत कर कैसे सुखी हो सकता है.वह स्वयं
ही नकारात्मक भाव जगाता है फिर बिंधता है, उसे क्यों नहीं समझ में आता ? पर वह तो
जड़ है, आत्मा चेतन है, यदि आत्मा असजग रहे तो मन इसी तरह करता रहेगा. सजग उन्हें स्वयं
को होना है, वे जो मन से परे हैं. वे नादान बच्चे को घातक हथियार हाथ में लिए
देखें तो क्या उसे रोकते नहीं, वे क्यों सो जाते हैं जब मन मनमानी करता है. उन्हें
अपने आप पर भरोसा नहीं, तभी तो ईश्वर को पुकारते हैं. ईश्वर हँसते होंगे, उन्होंने
तो उन्हें निज स्वरूप में ही रचा है. वह कहते होंगे पुकारने से पहले एक नजर खुद पर
भी डाल ली होती !
उसके जीवन में प्रमाद
तो साफ दिखाई पड़ता है. उसे ज्ञात है कि बड़ों का असम्मान करना गलत है, उन्हें प्रेम
ही दें, आदर ही दें, आदर न दे सकें तो असम्मान तो हरगिज न करें. ऐसा करके वे अपनी
ही हानि करते हैं. उनके दिल को जो दुख होगा वह व्यर्थ तो नहीं जायेगा, कर्म
बंधेगा. उसका प्रमादी मन बार-बार यही गलती करता है. साधना के पथ पर सबसे बड़ी बाधा
है. सद्गुरु की शरण गये बिना इससे छुटकारा नहीं, उन्होंने बताया कि जप इन दोषों से
मुक्त करा सकता है. मन में जप चलता रहे तो मन शुद्ध होने लगेगा, शुद्ध मन प्रमादी
नहीं होगा.
साधक को कभी भी सन्तोषी
नहीं होना चाहिए. प्रेक्षा ध्यान के बारे में पढ़कर पता चला कि जिस अनुभव को वह
उच्च मानती थी वह तो भूमिका से भी पूर्व की स्थिति है, भीतर इतने विकार होते हुए
भी वे स्वयं को ध्यानी-ज्ञानी मानने की भूल कर बैठते हैं. आनन्द और शांति की
प्राप्ति ही साधक का लक्ष्य नहीं है बल्कि मन को सारे दोषों से मुक्त करना ही उसका
एकमात्र लक्ष्य है. अपने से श्रेष्ठ को देखकर मुदिता, हीन को देखकर करुणा, दुष्ट
के प्रति उपेक्षा तथा गुणी के प्रति प्रेम, यही उनके व्यवहार का आधार होना चाहिए,
वे न तो अहंकारी बनें, न ही अन्याय के सामने झुकें, एक विनम्र प्रतिरोध की आवश्यकता
है, प्रेम भरी दृढ़ता तथा सत्य के लिए कुछ भी सहने की क्षमता !